सोते हुए को तो उठाया जा सकता है मगर कोई जानबूझकर सोने का अभिनय करे तो उसे उठाना कठिन है। पत्थर भी अपनी जगह बदलता रहता है। वह प्रकृति की शक्ति से संचालित होता है। कभी भूकंप उसकी जगह बदलती है, कभी हवा तो कभी पानी। अचल कुछ भी नहीं है, सब चलायमान है। इसलिए मुझे लगता है कि जड़-चेतन जितने भी पदार्थ हैं, उनमें किसी न किसी रूप में गति रहती है। उसमें होनेवाले हलचल को हम तभी पकड़ सकते हैं जब हमारे मन की हलचल शांत हो और तभी हम तटस्थ रहकर चीजों को गहरी नजर से देख सकते हैं। कभी-कभी सोचता हूँ पतंग किसकी बदौलत उड़ता है
- जिस डोर से बंधा है उसकी वजह से
- जिसके हाथ में डोर है उसकी वजह से
- हवा के प्रवाह से
- पतंग के कागज और तिल्ली की गुणवत्ता की वजह से
- उस पर सही ढ़ंग से कन्नी बॉंधने की वजह से
- अन्य कोई अदृश्य कारण
यह भी संभव है कि इन सबकी मौजूदगी के बाद भी पतंग न उड़े।
और यह भी संभव है कि इनके अभाव में भी पतंग अचानक उड़ने लगे।
मुझे जिंदगी भी ऐसी लगती है पर मैं इसे कटी पतंग नहीं कहना चाहता क्योंकि कटी पतंग की दिशा भी तय है। दिशाहीनता भ्रम है, लक्ष्य तो सुनिश्चित है और हर जीव उसी की तरफ अग्रसर हो रहा है।
जिन्दगी हमेशा मौत की तरफ ही बढ़ती है। बस हम इसतक जाने वाले रास्ते को फूलो से सजाकर खुश होना चाहते हैं।
मैं क्षमा चाहूँगा ऐसे विचार कभी-कभी ही आते हैं, मुझे पलायनवादी,भाग्यवादी या कोई वादी, बर्बादी आदि न समझा जाए। हर आदमी के भीतर कुछ न कुछ चल रहा होता है, जिसमें से कुछ राग से नीर्मित होता है, कुछ वैराग से। आदमी उसी को हासिल करना चाहता है, उसी को काबू करना चाहता है। यह अलग बात है कि आदमी खुद उसके काबू में हो जाता है।
खैर, अब आप यहॉं इस चक्र के बिंदू पर ध्यान केंद्रित कीजिए और सम्मोहन को झेलिए:)
(बताइए कौन घूम रहा है)
वैधानिक चेतावनी:)
कोई शीर्षक बदलने की चेष्टा न करे- गौर से पढ़ा तो घूम जाओगे:)
ऐसा साल में एक बार ही होता है कि तारीख लिखते हुए आनंद-सा आता है-
09/09/09
इस नौ की तिकड़ी को देखना भी एक सकून है।
और पोस्ट भेजने का वक्त भी अच्छा लग रहा है-
12:12
चलिए ये भी बताते जाइए कि ऐसी तिकड़ी किस साल से बनाने की छूट नहीं रहेगी ?
और ऐसा अवसर सदी में कितनी बार मिल सकता है ?
सवाल बचकाना है ना, कोई बात नहीं जवाब मत दीजिए :)
Wednesday 9 September 2009
Tuesday 8 September 2009
इचक दाना- इचक दाना, दाने ऊपर दाना- 1
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