tag:blogger.com,1999:blog-43370297212308210362024-03-08T19:45:08.482+05:30अरे बिरादर !!फितरत ज़माने की , जो ना बदली तो क्या बदला!
ज़मीं बदली ज़हॉं बदला,ना हम बदले तो क्या बदला!Unknownnoreply@blogger.comBlogger79125tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-17061957358215332762017-07-01T06:22:00.003+05:302017-07-01T06:23:21.802+05:30माइलेज<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
वे कम खाती हैं मगर ज्यादा समय तक काम कर लेती हैं। वे बीमार पड़ती हैं तो उन्हें बिस्तर पर आराम करना कभी अच्छा नहीं लगता। उनके पेट में एक और केमिस्ट की दुकान होती है। इनका काम बाजार जाकर बस दवाई खरीदनी होती है और पेट के केमिस्ट तक पहुँचानी होती है। ना-ना, ये ड्रग-अडिक्शन नहीं है, मगर उससे कम भी नहीं है! वो क्या कहते हैं.. हाँ, मूव लगाओ, काम पे चलो, दवाई निगलो, काम पे चलो।<br />
पता नहीं कहाँ से इतनी ताकत लाती हैं ये! इसलिए भगवान ने इन्हें सबसे मुश्किल काम सौपा है, 9 महीने पेट में बच्चे पालने का! ये वहीँ नहीं रुकती! बच्चे के जन्म के बाद भी उसे पालना नहीं छोड़ती!<br />
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सोचता हूँ आदमी को ऐसी क्षमता ईश्वर ने दी होती तो... तो क्या! इसकी कल्पना भी सिहरन पैदा कर देती है। ये वही स्त्रियां हैं जो 55 से 60 किलो वजन बढ़ते ही हाय- तौबा करने लगती हैं मगर 9 महीने में 70-80 किलो होकर भी खुश रहती हैं। कमाल की प्रकृति होती हैं इनकी!<br />
स्त्रियां कम ईंधन में ज्यादा माइलेज देती हैं।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://3.bp.blogspot.com/-MwHztbz-bGI/WVbx83jf5kI/AAAAAAAAEbg/_BHAB4Q50vgKqCgwOiwPQuFCm7r6-PlugCKgBGAs/s1600/DSC00449.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="320" src="https://3.bp.blogspot.com/-MwHztbz-bGI/WVbx83jf5kI/AAAAAAAAEbg/_BHAB4Q50vgKqCgwOiwPQuFCm7r6-PlugCKgBGAs/s320/DSC00449.JPG" width="240" /></a></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-68497569628144840092016-09-18T10:46:00.000+05:302016-09-18T10:54:02.530+05:30गूगल इनपुट टूल से हिंदी लिखना हुआ आसान <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br /></div>
मैं कंप्यूटर पर हिंदी लिखने के लिए वॉकमेन चाणक्य फॉण्ट का इस्तमाल करता हूँ और अंगुलियाँ इसी कीबोर्ड के अनुरूप काम करती हैं। अच्छी बात ये है कि ये फॉण्ट किसी अन्य कंप्यूटर पर उपलब्ध न होने के बावजूद <a href="http://hindi-ime.software.informer.com/">इस लिंक से</a> इंडिक सपोर्ट के लिए hindi toolkit डाउनलोड करने के बाद remington को चुनने पर मेरा काम बन जाता है।
समस्या ये है कि अंग्रेजी किबोर्ड पर काम करनेवाले लोग हिंदी लिखने के लिए कंप्यूटर पर कौन सा सॉफ्टवेर इनस्टॉल करें? वैसे तो कई तरीके हो सकते हैं मगर जो मुझे आसान तरीका लगा मैं यहाँ बताना चाहता हूँ-
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-vGMuLfY9wGI/V94fujnorsI/AAAAAAAADJA/A-55GpIDvFsjmYDurIefectBs2OaIdraQCLcB/s1600/Screenshot%2B%252811%2529.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://1.bp.blogspot.com/-vGMuLfY9wGI/V94fujnorsI/AAAAAAAADJA/A-55GpIDvFsjmYDurIefectBs2OaIdraQCLcB/s320/Screenshot%2B%252811%2529.png" width="320" height="184" /></a></div>
step १
इस लिंक पर <a href="https://www.google.com/inputtools/windows/">क्लिक करें</a>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://4.bp.blogspot.com/-RvGIfaQHack/V94hmVoRDPI/AAAAAAAADJM/i4SYbh8TMCgGnTDfAqzQVQEPdy-lI4pXwCLcB/s1600/Screenshot%2B%252812%2529.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://4.bp.blogspot.com/-RvGIfaQHack/V94hmVoRDPI/AAAAAAAADJM/i4SYbh8TMCgGnTDfAqzQVQEPdy-lI4pXwCLcB/s320/Screenshot%2B%252812%2529.png" width="320" height="182" /></a></div>
step २
हिंदी भाषा का चुनाव करने के बाद (साथ ही t&c पर भी टिक करें) डाउनलोड पर क्लिक करें
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://4.bp.blogspot.com/-vYLgOpSgSJU/V94ircpjm5I/AAAAAAAADJQ/LzrW-AjH8-wbgSX7WGnJUS55XAvVtVyQQCLcB/s1600/Screenshot%2B%252823%2529.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://4.bp.blogspot.com/-vYLgOpSgSJU/V94ircpjm5I/AAAAAAAADJQ/LzrW-AjH8-wbgSX7WGnJUS55XAvVtVyQQCLcB/s400/Screenshot%2B%252823%2529.png" width="400" height="220" /></a></div>
step ३
डाउनलोड होने के बाद टास्कबार के right में एक आइकॉन नजर आयेगा, वहां से हिंदी या अंग्रेजी में लिख पाएंगे।
यदि आपके पास इससे अच्छा विकल्प हो तो हम सभी को जरुर अवगत कराएं!
Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-12937192321994115512012-02-10T18:06:00.004+05:302021-11-15T22:59:40.710+05:30गुलमर्ग : बर्फ का कालीन और सफेद सर्द रातेंगुलमर्ग की एक शाम, समय 6 बजे।<br> न अंधेरा ना उजाला।<br> टहलने के लिए निकला हूँ।<br> बर्फ के फोहे अचानक हवा में लहराते नजर आने लगे हैं।<br> जैसे शाम की धुन पर पेड़ों के बीच थिरक रहे हों!<br> कुछ मेरे जैकेट पर सज रहे हैं कुछ पेड़ों पर और कुछ तो कहीं थमने का नाम ही नहीं ले रहे। <br>न ये हिमपात है न बारिश, न धूल!<br>ये इनकी मौज है जो बस थोड़ी देर के लिए झलक दिखाते हैं और हवा के साथ ही गुम हो जाते हैं।<br><br> शिवालय तक जाने का इरादा है। पॉंव जमीन पर टिक नहीं रहे, वजह है बर्फ, जिसपर चलने का अनुभव ना के बराबर!एकाध बार फिसला भी, पर क्या फर्क पड़ता है! कौन यहॉं रोज फिसलने आता है!<br><a href="http://4.bp.blogspot.com/-30TQKcwvz8k/TzUpoqo2-dI/AAAAAAAABPM/5eoyMA3kK14/s1600/7.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 192px;" src="http://4.bp.blogspot.com/-30TQKcwvz8k/TzUpoqo2-dI/AAAAAAAABPM/5eoyMA3kK14/s400/7.JPG" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5707513881379142098"></a><br><br><br><br><br>सुबह की ही तो बात है- दिल्ली से श्रीनगर के लिए सुबह 7:40 की गो एयर की फ्लाइट। सौभाग्य से कोहरा दो दिन से कम था। टी-1डी से उड़ान लेने के ठीक डेढ़ घंटे बाद मैं श्रीनगर एयरपोर्ट के टैक्सी स्टैंण्ड पर बट्टमाल जाने के लिए टैक्सी ले रहा था। <br><a href="http://3.bp.blogspot.com/-n1k1gl1Ql4o/TzUpqXgmaVI/AAAAAAAABPs/vxuwg7lCIlA/s1600/DSC06973.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://3.bp.blogspot.com/-n1k1gl1Ql4o/TzUpqXgmaVI/AAAAAAAABPs/vxuwg7lCIlA/s400/DSC06973.JPG" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5707513910603966802"></a><br>आम तौर पर हर हिल स्टेशन के पहले एक हाल्ट/स्टैण्ड होता है। मसूरी से पहले जैसे देहरादून, मैक्लॉडगंज से पहले धर्मशाला, शिमला से पहले कालका, डलहौजी से पहले पठानकोट। ठीक उसी तरह गुलमर्ग से 15 किमी पहले है तनमर्ग, जहॉं उतरने के बाद चोगा (फेरन)पहने हुए काश्मिरी गाइड मीठी बोली में आपको ठगने की कोशिश करेंगे। <br><br><a href="http://1.bp.blogspot.com/-KzF_8F2Yt8A/TzUqVlAbMzI/AAAAAAAABQI/Z7Hjzqi0NpI/s1600/DSC06989.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://1.bp.blogspot.com/-KzF_8F2Yt8A/TzUqVlAbMzI/AAAAAAAABQI/Z7Hjzqi0NpI/s400/DSC06989.JPG" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5707514652961485618"></a><br><br><br>करीब 10 बजे तक मैं तनमर्ग पहुँच गया था। वहॉं से आगे तक की सड़कें बर्फ से ढँकी हुई थी। सूमो के तिरछे (diagonally) दो टायरों में चेन (जंजीर) बंधी हुई थी ताकि गाड़ी बर्फ से फिसले नहीं। ऊपर से आने वाली सेना की गाडियॉं में भी ऐसे ही चेन बंधे होते हैं। <br>वहाँ के सभी पेड़ क्रिसमस ट्री की तरह लुभावने लग रहे थे। मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों को यहॉं का दृश्य ऐसा लगेगा जैसे किसी कैलेण्डर में वे स्वंय घुस आए हों। ये उपमान मेरे मन में तब तक बसा रहा जब तक मैं गुलमर्ग में रहा।<br><a href="http://4.bp.blogspot.com/-DrJPU6T1VRA/TzUqVPHoVrI/AAAAAAAABP8/Zq9T-M__Rbg/s1600/DSC07052.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://4.bp.blogspot.com/-DrJPU6T1VRA/TzUqVPHoVrI/AAAAAAAABP8/Zq9T-M__Rbg/s400/DSC07052.JPG" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5707514647086126770"></a><br>गुलमर्ग में यदि कम से कम दो रात बिताने का इरादा है तो आप स्टैण्ड से लेफ्ट की तरफ जाऍं और होटल की तलाश करें। <br>इस तरफ होटल लेने के दो-तीन फायदे हैं<br>- इसी तरफ गंडोला है जो आपको अफरावत पर्वत तक ले जाता है।<br>- इसी तरफ स्कींग की शॉप और ढलान है<br>- इस तरफ चीड़ के पेड़ ज्यादा हैं जो पहाड़ की खूबसूरती को सौ गुना कर देते हैं। <br>(संभव है कि इधर कमरे न मिले या फिर महँगे मिले)<br>स्टैंड से राइट साइड जाने पर हॉटल,ढाबा और दुकाने ज्यादा हैं मगर ये गंडोला से दूर हैं।<br>आखिर मैंने 1200/- में फ्लोरेंस होटल का रूम नं 210 बुक करा लिया जिसकी खासियत यह थी कि यह कॉर्नर का कमरा था और दोनो तरफ बर्फै से ढँके पेड़, होटल और पहाड़ साफ नजर आ रहे थे।<br><a href="http://1.bp.blogspot.com/-dCxZ0inZUe0/TzUv2Gl9nlI/AAAAAAAABQw/tlP5xRFf5S0/s1600/8.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 211px;" src="http://1.bp.blogspot.com/-dCxZ0inZUe0/TzUv2Gl9nlI/AAAAAAAABQw/tlP5xRFf5S0/s400/8.JPG" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5707520709291253330"></a><br> मैं यह सोचकर हैरान होता हूँ कि जिस खिड़की के बाहर इतना खूबसूरत नजारा हो, वहॉं कमरे में किसी एबसर्ड फोटो को लगाने का चलन कितना अजीब है।<br>हम जिस जगह की इतनी तारीफ करते हैं, वहॉं रहने वाले लोग वहॉं से काफी परेशान भी हो जाते हैं, खास तौर पर जब बर्फीली आँधी आती है, हिमपात होता है या बारिश होती है तो बिजली, पानी और खाने-पीने के सामान के आवाजाही की काफी तकलीफ हो जाती है। पीने का पानी पाइप में ही बर्फ बनकर जम जाता है। उसे गैस से ठंडाकर बाथरूम तक पहुँचाया जाता है। <br><a href="http://3.bp.blogspot.com/-tk-WGPbaxIo/TzUqWcAa97I/AAAAAAAABQg/Ltqm7QX1h9o/s1600/DSC07129.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://3.bp.blogspot.com/-tk-WGPbaxIo/TzUqWcAa97I/AAAAAAAABQg/Ltqm7QX1h9o/s400/DSC07129.JPG" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5707514667725420466"></a><br><br>मैं अक्सर अकेला ही निकल आता हूँ घूमने। इसका एक फायदा ये है कि प्रकृति और उसके भव्य सौंदर्य को महसूस कर पाता हूँ। पर परिवार के बिना दो दिन से ज्यादा यहॉं रहना पड़ जाए तो अकेलापन सालने लगता है। <br><a href="http://2.bp.blogspot.com/-YNB9x7Gvlrw/TzUqV-DntbI/AAAAAAAABQU/LEQUCmuASoA/s1600/DSC07150.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 300px; height: 400px;" src="http://2.bp.blogspot.com/-YNB9x7Gvlrw/TzUqV-DntbI/AAAAAAAABQU/LEQUCmuASoA/s400/DSC07150.JPG" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5707514659685774770"></a><br><br><br><br><br><br>शिवालय तक जाने की सीढियॉं नजर नहीं आ रही है, उनपर बर्फ जो जमी है। दोनों तरफ लोहे के पतले रेलिंग के सहारे ही ऊपर तक जाता हूँ। याद आता है राजेश खन्ना और मुमताज का गाना- जय जय शिवशंकर- कॉंटा लगे ना कँकड़.....<br>पर वह शायद जून-जुलाई के महिने में फिल्माया गया था। अभी का तो नजारा कुछ और है। शिवालय में ताला लटका है। कोई भक्त इस सर्द शाम में आकर शिव को जगाना नहीं चाहता। मैं एक धागे की तलाश कर रहा हूँ। सीमेंट का एक कट्टा एक कोने में नजर आता है। कट्टे से एक सूतली तोड़कर मैं मंदिर के एक एकांत खंभे में उसे बांध देता हूँ...<div> कुफ्री (शिमला)में नाग देवता का मंदिर है, वही चलन मैंने यहॉं दोहराया है, इसबार अकेले......<br><a href="http://4.bp.blogspot.com/-OAvctmhyRvI/TzUpo_aBJrI/AAAAAAAABPY/wFpnOG70KHU/s1600/27.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 294px;" src="http://4.bp.blogspot.com/-OAvctmhyRvI/TzUpo_aBJrI/AAAAAAAABPY/wFpnOG70KHU/s400/27.JPG" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5707513886954038962"></a><br>अंधेरा छाने लगा है। आधा-अधूरा चॉंद बर्फ की चादर से लिपटने को बेताब है मगर चीड़ के पेड़ बीच में अड़ कर खड़े हैं ......... चॉंदनी बेवजह बीच में ही उलझकर रह जाती है।<br><br> शिवालय से गंडोला तक स्ट्रीट लाइट की पीली रोशनी बर्फ पर जहॉं-जहॉं पड़ती है, वह सोने-सा दमकता नजर आता है। बर्फ जूते से चटककर इस तरह आवाज करते हैं जैसे खेतो में धान कटने के बाद उसपर चलते हुए आवाज आती है। गंडोला से ठीक पहले हिलटॉप हॉटल नजर आता है जो यहॉं का सबसे महँगा होटल है।<br>थोड़ा आगे चलने के बाद स्ट्रीट लाइट के खंभे खत्म हो जाते हैं। अंधेरे और सुनसान सड़क पर चलते हुए थोड़ी घबराहट होती है। हॉलीवुड की कुछ हॉरर फिल्में और बर्फीले भूत याद आ जाते हैं। आज सुबह यहीं पर गदराए कौओ की झुँड कुछ झबरीले कुत्तो की भीड़ को कूडें की ट्राली को टटोलते-बिखेरते देखा था। झुँड में वे काफी खतरनाक लग रहे थे। अधखिले चॉंद की रोशनी चीड़ों से छिटककर सड़क पर कहीं-कहीं बिखरी पड़ी है, उसी के सहारे मैं हॉटल तक पहुँच जाता हूँ। <br><br> आज रात मैं अपने हॉटल (फ्लोरेंस) में ही डीनर कर रहा हूँ। डीनर करते हुए मैंने मैनेजर को कमरे का सेन्ट्रलाइज्ड हीटर ऑन करने के लिए कह दिया है। मेरी खुशनसीबी कि मैनेजर ने कमरे में एक ब्लोअर भी रखवा दिया है।<br><br>क्रमश:</div>Unknownnoreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-53437741248710942032011-11-27T07:07:00.002+05:302011-11-27T10:23:28.266+05:30लबादा !तहसील नूरपूर (कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश) के जसूर इलाके में जो रेलवे स्टेशन पड़ता है, उसका नाम नूरपूर रोड है। वहॉं के स्टेशन मास्टर ने सलाह दी कि दिल्ली जाने के लिए अगर कन्फर्म टिकट नहीं है तो पठानकोट की बजाय चक्की बैंक स्टेशन जाओ।<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://4.bp.blogspot.com/-9rOJ0QNVvT0/TtGx11FNgVI/AAAAAAAABM0/TBHLBgYKu5A/s1600/DSC05853.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 107px;" src="http://4.bp.blogspot.com/-9rOJ0QNVvT0/TtGx11FNgVI/AAAAAAAABM0/TBHLBgYKu5A/s400/DSC05853.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5679516143431024978" /></a><br /> चक्की बैंक से दिल्ली के लिए कई गाड़िया गुजरती है। चक्की बैंक के एक ट्रेवल-एजेंट ने सलाह दी कि अगर जम्मू मेल से जाना है तो पठानकोट जाओ क्योंकि वहॉं यह गाड़ी लगभग आधे घंटे रूकती है, जहॉं टी.टी. को सेट करने के लिए काफी समय मिल जाएगा।<br />पठानकोट में जम्मू मेल पौने सात बजे आती है, इसलिए मैंने सबसे पहले स्टेशन के पास खालसा हिंदू ढाबे में खाना खाया। उसके बाद दिल्ली के लिए 115/- की जेनरल टिकट ली और जम्मू मेल के एसी डब्बों के पास काले-कोटवाले की तलाश करने लगा।<br />मेरे पास नवंबर की ठंड से बचने और स्लीपर में सोने के लिए पर्याप्त कपड़े नहीं थे, इसलिए मैं चाहता था कि कम-से-कम 3एसी में जगह मिल जाए, मगर 2एसी और 3एसी के लिए आर.ए.सी. वाले पहले से ही टी.टी को घेरकर खड़े थे। मैं समझ गया अब स्लीपर में शरण लेनी पड़ेगी। स्लीपरवाले टी.टी. ने 350/- लेकर पक्की रसीद दी मगर कोई सीट नम्बर नही। उसने कहा कि गाड़ी चलने के एकाध घंटे बाद मिलना।<br />जम्मू मेल दिल्ली के लिए चल पड़ी। मैं स्लीपर बॉगी के दरवाजे के पास खड़ा था। वहीं एक कबाड़ीवाला गंदा और बदबूदार लबादा ओढे अपने कट्टे के ऊपर बैठा था। मै टी.टी. का इंतजार करने लगा ताकि सीट का पता चले। थोड़ी देर बाद टी.टी. आया और मुझे किनारे ले जाकर बोला<br />- सर, बड़ी मुश्किल से आर.ए.सी. वाले की सीट निकालकर आपको दे रहा हूँ, आप वहॉं जाकर लेट सकते हैं।<br /> आप इतना रिक्वेस्ट कर रहे थे इसलिए मैंने आपका ध्यान रखा।<br />मैंने टी.टी. को धन्यवाद देते हुए धीरे से पूछा<br />- कितने?<br />- जो आप चाहें।<br />मैंने 200/- निकाल कर दिए।<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://2.bp.blogspot.com/-2ZksSDOlO34/TtGx1drJqCI/AAAAAAAABMU/rKZCukNUC50/s1600/bribery.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 147px;" src="http://2.bp.blogspot.com/-2ZksSDOlO34/TtGx1drJqCI/AAAAAAAABMU/rKZCukNUC50/s400/bribery.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5679516137147705378" /></a><br /><br />200/- जेब में डालते हुए टी.टी. ने कहा कि ये सीट आर.ए.सी को जाना था और एक सवारी मुझे 400/- भी देने के लिए तैयार थी, पर चलिए आप 100/- और दे दीजिए।<br />इस बीच पास खड़ा कबाड़ीवाला दयनीय-सा चेहरा बनाए टी.टी. की ओर हाथ फैलाए खड़ा था। मैं टी.टी. से बात करने के दौरान सोच रहा था कि ये कबाड़ीवाला टी.टी. से यहॉं भीख कैसे मांग रहा है! वहॉं बल्ब की रौशनी काफी मद्धिम थी। गौर से देखने पर पता चला कि वह कबाड़ीवाला मुड़े-चुड़े 10-20 रूपये टी.टी. को पकड़ाने की कोशिश कर रहा था। टी.टी. की हैसियत पर यह किसी तमाचे से कम नहीं था। उसने कबाड़ीवाले पर थप्पड़ जड़ने शुरू कर दिए। वह बेचारा लड़खड़ाता, गिरता-पड़ता अपना कट्टा लेकर दूसरी तरफ चला गया।<br />अपनी सीट पर लेटे हुए मैं बॉगी के भीतर 3डी साउण्ड का अहसास कर रहा था- चलती ट्रेन की ताबड़-तोड़ आवाज,, कहीं लड़कियों का शोर-गुल, कहीं नवजात बच्चे का रोना, कहीं किसी बूढ़े की खॉंसी तो किसी का खर्राटा, किसी की पॉलीथीन और उसमें मूँगफली के चटखने की आवाजें। भाषाऍं भी अलग-अलग। मगर कुल मिलाकर यह एक शोर ही था, जिसमे मुझे सोने की कोशिश करनी थी ताकि कल दिल्ली पहुँचकर डाटा अपलोड करने के लिए सर में थकान हावी न रहे।<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://4.bp.blogspot.com/-UyNWUtnUgzM/TtG1BcDnhmI/AAAAAAAABNA/_C2yIAAWTSA/s1600/beggars-.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 74px; height: 65px;" src="http://4.bp.blogspot.com/-UyNWUtnUgzM/TtG1BcDnhmI/AAAAAAAABNA/_C2yIAAWTSA/s400/beggars-.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5679519641406768738" /></a><br /> तभी ध्यान आया कि मैंने ब्रश नहीं की है। मैंने जल्दी से जूते पहने और ब्रश लेकर बाहर वाश बेसिन की तरफ आ गया।<br /> ब्रश करना अभी शुरू ही किया था कि मेरी नजर दरवाजे के पास बैठे शख्स पर गई। वह वही कबाड़ीवाला था जो हाड़ कपॉंती ठंड की इस रात में लबादे में लिपटा कोने में बैठा हुआ था। उसकी दयनीय-सी सूरत पर मेरे लिए क्या भाव था- मैं ये नहीं समझ पाया मगर उसकी मुट्ठी में 10-20 रूपये अभी भी मुड़ी-चुड़ी हालत में फॅसे नजर आ रहे थे......<br /><br />जितेन्द्रUnknownnoreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-17446136138190517182011-11-19T14:02:00.002+05:302011-11-19T15:15:09.036+05:30हवा-हवाईनवम्बर का महिना था। दिल्ली में मस्त बयार चल रही थी। <br />ऐसे ही एक खुशनुमा सुबह, जब राजस्थान से चलने वाली बस दिल्ली के धौलाकुँआ क्षेत्र से सरसराती हुई तेजी से गुजर रही थी।<br />स्लीपिंग कोचवाले इस बस में ऊपर की तरफ 4-5 साल के दो बच्चे आपस में बातें कर रहे थे।<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://4.bp.blogspot.com/-SNQOP58QM78/Tsd5Hr7cFYI/AAAAAAAABL8/LjZYK3oHIO4/s1600/dhowla%2Bkuan%2B%25282%2529.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 285px; height: 298px;" src="http://4.bp.blogspot.com/-SNQOP58QM78/Tsd5Hr7cFYI/AAAAAAAABL8/LjZYK3oHIO4/s400/dhowla%2Bkuan%2B%25282%2529.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5676639028281873794" /></a><br /><br />-अले चुन्नू!<br />-हॉं मुन्नू!<br />-वहॉं देख क्या लिखा है!<br />-क्या लिखा है?<br />-इंडिया गेट!<br />-अले हॉं, दिल्ली आ गया! आ गया! आ गया!<br /><br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://1.bp.blogspot.com/-UkLePJQKI0k/Tsd1oMHj6gI/AAAAAAAABLs/fEczBXfDcdY/s1600/dhowla%2Bkuan%2B%25282%2529.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 131px;" src="http://1.bp.blogspot.com/-UkLePJQKI0k/Tsd1oMHj6gI/AAAAAAAABLs/fEczBXfDcdY/s400/dhowla%2Bkuan%2B%25282%2529.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5676635188631955970" /></a><br /><br />-अरे मुन्नू, इतना मत लटक, गिर जाएगा!<br />-तू अपनी चिंता कर, तूने ऊपर नहीं पढ़ा क्या?<br />-नहीं तो!<br />- ठीक से पढ, ऊपर लिखा है एम्स!<br />- तो!<br />- तो क्या, गिरे तो बस को एम्स ले चलेंगे, नहीं तो इंडिया गेट !!<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://3.bp.blogspot.com/-T7M2GpXnJEY/Tsd1cOX95FI/AAAAAAAABLg/jNu02iPJ150/s1600/dhowla%2Bkuan.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 388px;" src="http://3.bp.blogspot.com/-T7M2GpXnJEY/Tsd1cOX95FI/AAAAAAAABLg/jNu02iPJ150/s400/dhowla%2Bkuan.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5676634983079208018" /></a><br /><br /><br />जितेन्द्र भगतUnknownnoreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-56621438137801040662011-11-03T07:07:00.002+05:302011-11-03T07:57:43.549+05:30रिमोट कंट्रोल(1)<br /><br />-बेटा<br />-.............<br />-तुम पॉंच साल के होने वाले हो<br />-पॉंच यानी फाइव इयर, मेरा बर्ड-डे कब आ रहा है पापा। बताओ ना! <br />- बस आने ही वाला है। पर ये बताओ तुम मम्मा, नानू,नानी मॉं और दूसरे लोगों से बात करते हुए 'अबे' बोलने लगे हो।<br /> बड़े लोगों को 'अबे' नहीं बोलते<br />, ठीक है!<br />-तो छोटे बच्चे को तो बोल सकते हैं!<br />-हॉं... नहीं किसी को नहीं बोलना चाहिए।<br /> अच्छी बात नहीं है।<br />-मोहित और आदि को तो बोल सकता हूँ, वो तो मेरे साथ ही पढ़ता है।<br />- मैंने कहा ना- 'अबे' किसी को नहीं बोलना,ठीक है<br />- ठीक है 'अबे' नहीं बोलूँगा।<br />- याद रखना<br />, तुम्हे दुबारा कहना ना पड़े।<br />- 'अबे' बोला ना, नहीं बोलूँगा!! <br /><br />(2)<br />- बेटा!<br />- हॉं पापा!<br />- तुम बदमाश होते जा रहे हो। तुमने मोहित को मारा।<br />- <br />नहीं पापा, पहले उसने ही मारा था। मैंने उसे कहा कि मुझसे दूर बैठो मगर वह मेरे पास आकर मेरी कॉपी............<br />- चुप रहो, मुझे तुम्हारी टीचर ने सब बता दिया है, तुमने उसकी कॉपी फाड़ी और उसे मारा भी<br />अब माफी के लिए गिड़गिड़ाओ वर्ना इस बार न बर्ड डे मनेगा ना गिफ्ट मिलेगा!<br />- ठीक है- गिड़-गिड़- गिड़-गिड़- गिड़-गिड़-................<br /><br />(3)<br />- पापा, ये रिमोट वाली कार दिला दो ना!<br />- नहीं, अभी चार दिन पहले ही तो मौसा ने गिफ्ट किया था।<br />- पर वो तो खराब हो गई!<br />- उससे पहले संजय चाचू और मामू भी ने भी तो रिमोट वाली कार दिलवाई थी बेटा!<br />- पर आपने तो नहीं दिलवाई ना, प्लीज पापा, दिला दो ना- दिला दो ना!<br />मैं फिर दुबारा नहीं मॉंगूँगा, प्लीज-प्लीज!<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://1.bp.blogspot.com/-TTvyQI7KvZA/TrH7WtBvaAI/AAAAAAAABK8/PCTEud2Xp80/s1600/Remote-Control180.gif"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 180px; height: 136px;" src="http://1.bp.blogspot.com/-TTvyQI7KvZA/TrH7WtBvaAI/AAAAAAAABK8/PCTEud2Xp80/s400/Remote-Control180.gif" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5670589773298755586" /></a><br />- ठीक है, पर ध्यान रखना, दुबारा नहीं मॉंगना,और कार टूटनी नहीं चाहिए। ये लो!<br />-ठीक है<br />!<br />- अरे मोहित, तू कहॉं जा रहा है ? पापा ये मोहित है, मेरे स्कूल में पढता है।<br /> पापा मैं इसके साथ खेलने जा रहा हूँ, बाय<br />!<br />- अरे कार तो लेता जा.....रिमोट वाली.......!!??<br />- आप इसे घर ले जाओ, ठीक से रख देना मैं आकर इससे खेलूँगा!<br /><br />मैं मार्केट से घर जाते हुए सोचता रहा कि बचपन में मेरे पिता जी का मुझपर कितना कंट्रोल रहा होगा........Unknownnoreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-39001943048559242182011-10-19T17:05:00.000+05:302011-10-19T17:13:02.270+05:30अब कहॉं मिलेंगें वो साथीयहॉं आना ठीक वैसा ही लगता है जैसे ऑफिस और मीटिंग से निकलकर खेल के उस मैदान पर चले आना जहॉं बचपन में अपने दोस्तों के साथ खूब खेला करते थे। ऐसा महसूस होता है जैसे मैं अपने काम में ज्यादा ही व्यस्त हो गया और साथ खेलने वाले लोग अब न जाने क्या कर रहे होंगे, कहॉं होंगे।<br />खुशी होती है उन लोगों को अब तक सक्रिय देखकर जो 2-3 साल पहले भी इतने ही सक्रिय थे। जो लोग इस रिश्ते को निभा पाए हैं मैं आश्वस्त होकर कह सकता हूँ कि नेट के नेटवर्क के बाहर भी उनके रिश्ते भी इतने ही गहरे होंगे।<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://3.bp.blogspot.com/-fbmgTdc_ZJQ/Tp62ygu0FaI/AAAAAAAABKg/0MqQ6zmaruQ/s1600/lg%2Boptimous%2Bblack%2Bp%2B970.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 228px; height: 221px;" src="http://3.bp.blogspot.com/-fbmgTdc_ZJQ/Tp62ygu0FaI/AAAAAAAABKg/0MqQ6zmaruQ/s400/lg%2Boptimous%2Bblack%2Bp%2B970.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5665166360174663074" /></a><br />कुछ दिन पहले मोबाइल गुम होने के बाद मुझे एंड्रायड फीचर वाला मोबाइल फोन (एल जी- ऑप्टीमस ब्लैक-पी 970) खरीदने का मौका मिला। उसमें मैंने वाइ-फाई से <span style="font-weight:bold;">सेट हिंदी</span> का टूल लोड किया जिससे मैं हिंदी ब्लाग पढ़ पा रहा हूँ। <br /><br />शायद ये मुझे फिर से ब्लॉग की तरफ खींच पाए।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">ब्लॉगवाणी के चले जाने के बाद</span> ब्लॉग पढना-लिखना बंद सा हो गया था। अब <span style="font-weight:bold;">इसकी जगह कौन सा एग्रीगेटर</span> ज्यादा चलन में हैं, उसका लिंक दे तो अच्छा रहे।<br /><br />क्या कोई बंधू बता सकता है कि मेरे एड़ायड फोन में हिंदी को पढ पाने का बेहतर तरीका/टूल कौन सा हो सकता है।<br /><br />जल्दी ही मिलूँगा<br /><br />जितेनUnknownnoreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-59976438742769099372011-06-19T13:01:00.004+05:302011-06-19T16:02:38.181+05:30चीटियों की लाश!!कमरे की दीवारों के तमाम मोड़ों और फर्श पर बारीक गड्ढो से होकर चीटियों की लंबी कतार आवागमन में इस तरह व्यस्त थीं जैसे कोई त्योहार हो इनके यहॉं। सबके हाथों में सफेद रंग की कोई चीज थी।<br />इन दिनों घर के हरेक कोने में, किचन में, यहॉं तक कि फ्रिज में भी चीटियों का कब्जा हो गया था। बेड पर सोते हुए काट लेती थी, हैंगर और सर्ट के कॉलर में भी ये छिपकर बैठी होती थी। कल बेटे के बाजू में इनके काटने से मैं काफी परेशान था और किसी उपाय की तलाश में था। पर इन्हें अपने घर से निकालना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन लग रहा था। इसलिए लक्ष्मण-रेखा हाथ में लेकर मैं इनकी यात्रा मार्ग में जगह-जगह रेडलाइट बनाने लगा।<br />सभी यात्री अपनी जगह ऐसे अटक कर खड़े होने लगे थे जैसे पहाड़ी रास्तों पर बर्फबारी या चट्टानें खिसकने से गाड़ियॉं अटककर खड़ी हो जाती है। <br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://1.bp.blogspot.com/-v1S1eMCTwmA/Tf2xsMLtE2I/AAAAAAAAAx8/MvqZfcdx3PM/s1600/jk-police-curfew.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 267px;" src="http://1.bp.blogspot.com/-v1S1eMCTwmA/Tf2xsMLtE2I/AAAAAAAAAx8/MvqZfcdx3PM/s400/jk-police-curfew.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5619843282770924386" /></a><br />लक्ष्मण रेखा काफी प्रभावी लग रहा था। सैकड़ों की संख्या में चीटियॉं बेहोश लगने लगी थी। मुझे ऐसा लगा जैसे उसके आसपास की चीटियॉं उसे घेरकर खड़ी हो। समझ नहीं आया मैंने ये सही किया या गलत! मेरे परिवार के कुछ सदस्य मैंदानों में रोज सुबह चीटियों को आटा/चीनी देकर आते हैं, पर वे भी मेरे इस नृशंस कृत्य पर आलोचना करने की बजाए इन्हें बाहर करने के दूसरे उपायों पर चर्चा करते पाए गए।<br />15 मिनट बाद सैकड़ों चीटियों की लाश फर्श पर अपनी जगह पड़ी हुई थी,और इन लाशों को ठिकाने लगाने के लिए झाड़ू-पोछा ढूँढा जा रहा था.....<br /><br />एक बेतुका-सा ख्याल आया कि सरकार और अनशनकारियों के बीच कुछ ऐसा ही तो नहीं चल रहा है.......Unknownnoreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-57443831893396273242011-04-09T10:10:00.002+05:302011-04-09T12:04:28.771+05:30शिमला के बहाने ट्रेन का सफर (भाग-3)माल रोड से हमें गाड़ी समय पर मिल गई और हम शिमला स्टेशन करीब 15:40 तक पहुँच गए। इशान इस खाली-से स्टेशन पर बेखौफ इधर-उधर भाग रहा था। अब हमारे सफर में एक नई कड़ी जुड़ने वाली थी- रेल मोटर।<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://4.bp.blogspot.com/-bwMI0rzRWu4/TZ8Z_j7MDtI/AAAAAAAAAsQ/M4tJ550XOBU/s1600/P1050729.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://4.bp.blogspot.com/-bwMI0rzRWu4/TZ8Z_j7MDtI/AAAAAAAAAsQ/M4tJ550XOBU/s400/P1050729.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5593217841983393490" /></a><br /><br />इशान की खुशी का ठिकाना नहीं था, उसके लिए यह ट्रेन के इंजन में बैठने जैसा अनुभव था, वह भाग कर उसमें जा बैठा।<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://4.bp.blogspot.com/-9Cm1oS20sDo/TZ8aAaDJgrI/AAAAAAAAAso/TBiCNvZ5G-0/s1600/P1050724.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://4.bp.blogspot.com/-9Cm1oS20sDo/TZ8aAaDJgrI/AAAAAAAAAso/TBiCNvZ5G-0/s400/P1050724.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5593217856512295602" /></a><br /><br /><br /><br /><br /> आप इसे पटरी पर दौड़नेवाली बस या मोटर-कार मान सकते हैं, जिसमें मात्र 16 सीटें ही होती हैं। आगे-पीछे, अगल-बगल और ऊपर की तरफ रेल-मोटर की खिड़कियॉं पारदर्शी होती हैं जिससे आसमान के अलावा आप पटरी के दोनों तरफ पेड़-पौधे, पहाड़ और सुरंगों को आसानी से देख सकते हैं।<br /><br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://4.bp.blogspot.com/-P5g8Lo7wONo/TZ8aACw2o0I/AAAAAAAAAsg/61i9DEhEDPo/s1600/P1050736.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 226px;" src="http://4.bp.blogspot.com/-P5g8Lo7wONo/TZ8aACw2o0I/AAAAAAAAAsg/61i9DEhEDPo/s400/P1050736.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5593217850261545794" /></a><br /> रेल-मोटर के आगे-पीछे पटरियों का नजर आना एक अच्छा अनुभव था। इस अनुभव में खटकनेवाली अगर कोई बात थी तो यही कि यह डी.टी.सी. बस की तरह शोर मचाती हुई और हिलती हुई भाग रही थी। <br /><br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://3.bp.blogspot.com/-kRmtV7SGRUg/TZ8Z_xhOB6I/AAAAAAAAAsY/cTOMAhGhpLI/s1600/P1050737.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://3.bp.blogspot.com/-kRmtV7SGRUg/TZ8Z_xhOB6I/AAAAAAAAAsY/cTOMAhGhpLI/s400/P1050737.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5593217845632567202" /></a><br /><br />इसके बावजूद इशान और सोनिया अपनी सीट पर कुछ देर बाद सोते हुए पाए गए। एक बात तो बताना भूल ही गया कि इस रेल मोटर के ड्राइवर एक सरदार जी थे। <br /><br /><br /><br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://1.bp.blogspot.com/-h2NWLgq33DM/TZ8gW_p0EKI/AAAAAAAAAs4/9d3DLWKtavQ/s1600/P1050756.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://1.bp.blogspot.com/-h2NWLgq33DM/TZ8gW_p0EKI/AAAAAAAAAs4/9d3DLWKtavQ/s400/P1050756.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5593224841633468578" /></a><br />रेल-मोटर में निक और हाइडी श्रीम्प्टन तथा उनके दोनो बच्चे एमीजन और और एलियट से मिलना भी एक अच्छा इत्तफाक रहा। इस तरह करीब दो-ढाई घंटे बाद हम बड़ोग पहुँच गए, जो 33 नंबर टनल के ठीक साथ बना हुआ है। <br /><br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://2.bp.blogspot.com/-FyNk9eyKHm8/TZ_lK7DddWI/AAAAAAAAAtI/JtEa48n0Pao/s1600/P1050888.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 226px;" src="http://2.bp.blogspot.com/-FyNk9eyKHm8/TZ_lK7DddWI/AAAAAAAAAtI/JtEa48n0Pao/s400/P1050888.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5593441238031103330" /></a><br />33 नंबर टनल इस पूरे सफर का सबसे खास पड़ाव है, और सही मायने में मेरी मंजिल तो यही थी। शिमला जाते हुए मैंने कई बार यहॉं रूकने का मन बनाया था, लेकिन मौका आज मिला, और वह भी सपरिवार। <br />जब मैंने बड़ोग रूकने का कार्यक्रम बनाया तब मुझे पक्का नहीं था कि एक छोटे बच्चे के साथ वहॉं रूकने और खाने-पीने की क्या व्यवस्था होगी। ट्रेन के ऑन-लाइन रिजर्वेशन कराने के दौरान ये पता करने के लिए मैंने बड़ोग स्टेशन का फोन नंबर( 01792238814) इंटरनेट से बहुत मुश्िकल से ढूँढ निकाला। स्टेशन मास्टर अपेक्षाकृत सभ्य भाषा में बोला, जिसके हम आदी नहीं हैं। तब उसने बताया था कि यहॉं किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं आएगी।<br />रेल-मोटर से उतरने के बाद ऐसा लगा जैसे अचानक ही अंधेरा घिर आया हो क्योंकि यह घने वृक्षों और पहाड़ के ठीक साथ ही था।अब मुझे इस स्टेशन पर रहने-खाने की चिंता सता रही थी।<br /><br />क्रमश:<br /><br />अन्ना हजारे की बात सरकार ने मान ली है और भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल का ड़ाफ्ट 30 जून तक तैयार हो जाएगा, और उसके बाद मानसून सत्र में इस बील को पेश किया जाएगा। इस आंदोलन ने गॉंधी के प्रति आस्था और आम जनता के आत्मविश्वास को पुनर्जीवित कर दिया है।<br /> लेकिन.......क्या यह कह देने मात्र से हमारा कर्तव्य पूरा हो जाता है कि हम इस आंदोलन के साथ है- इस सवाल का संबंध सिर्फ इस आंदोलन से नहीं है, बल्कि यहॉं खुद के भीतर झॉंकने की जरूरत है कि हम कहॉं-कहॉं दूसरों का काम करने के लिए रिश्वत लेते हैं और अपना काम कराने के लिए रिश्वत देते हैं।<br />सतत क्रमश:Unknownnoreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-90507685521005273572011-04-07T15:03:00.000+05:302011-04-07T16:56:44.047+05:30शिमला के बहाने ट्रेन का सफर भाग-2शिमला स्टेशन बहुत खूबसूरत स्टेशन है, जहॉं बैठकर आप बोर नहीं हो सकते। वैसे भी मेरी यही इच्छा रहती थी कि मैं शिमला आऊँ तो स्टेशन से ही वापस लौट जाऊँ।<br /><br /> इसके पीछे कारण है- शिमला की बढ़ती आबादी,घटते पेड़ और बढ़ते मकान,व्यवसायीकरण, ट्रैफिक और अत्यधिक शोर। <br /><br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://2.bp.blogspot.com/-Jbv1O2v1RWY/TZ177SkhZSI/AAAAAAAAArI/1fP6aF_QxhE/s1600/P1050627.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://2.bp.blogspot.com/-Jbv1O2v1RWY/TZ177SkhZSI/AAAAAAAAArI/1fP6aF_QxhE/s400/P1050627.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5592762570791544098" /></a><br /><br />हम यहॉं 12 बजे तक पहुँच गए थे, और शाम को वापस 4 बजे यहीं आकर हमें बड़ोग के लिए रेल मोटर पकड़ना था। सबसे पहले हमने स्टेशन पर ही रेस्टॉरेंट में खाना खाया। अब 4 घंटे में हमें माल रोड से घुमकर वापस आना था, इसलिए हमने लिफ्ट तक जाने के लिए टैक्सी ली।<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://4.bp.blogspot.com/-JQL_jhfE58Y/TZ1-1n7K9tI/AAAAAAAAArw/WAEjfszKyYs/s1600/P1050638.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://4.bp.blogspot.com/-JQL_jhfE58Y/TZ1-1n7K9tI/AAAAAAAAArw/WAEjfszKyYs/s400/P1050638.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5592765771979355858" /></a><br /><br /> 15-20 मिनट में हम माल रोड पर आ चुके थे। ऊपर जाने तक के रास्ते में कपड़ों की मार्केट लगी हुई थी। मुझे वहॉं कुछ जैकेट काफी पसंद आए, पर समय की कमी की वजह से मैंने सोचा कि दिल्ली से खरीद लूँगा।(वापस लौटने पर दिल्ली में मैंने वैसे जैकेट ढ़ँढने की कोशिश की पर वे पसंद नहीं आई )।<br /> उसी मार्केट में चलते हुए इशान खिलौने की जिद करने लगा। मैंने उसे 50 रूपये का एक छोटा-सा टेलिस्कोप दिलवाकर पीछा छुटवाया। हमें यहॉं पर दो घंटे बिताने थे, पर ये समय जाते देर न लगी। <br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://4.bp.blogspot.com/-YavTT36HGZE/TZ19hhvOvII/AAAAAAAAAro/gO1fuK3uw1U/s1600/P1050663.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 300px; height: 400px;" src="http://4.bp.blogspot.com/-YavTT36HGZE/TZ19hhvOvII/AAAAAAAAAro/gO1fuK3uw1U/s400/P1050663.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5592764327209647234" /></a><br /><br />लाल रंग के उस टेलिस्कोप को इशान कैमरा ही समझ रहा था। जैसे मैं उसका फोटो ले रहा था, वह भी मुँह से 'खिच-खिच' की आवाज निकाल लेकर मेरा फोटो ले रहा था।<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://3.bp.blogspot.com/-_A41fUqOyXY/TZ1-18eEnMI/AAAAAAAAAr4/ED5aCPps7gY/s1600/P1050665.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 226px;" src="http://3.bp.blogspot.com/-_A41fUqOyXY/TZ1-18eEnMI/AAAAAAAAAr4/ED5aCPps7gY/s400/P1050665.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5592765777494449346" /></a><br /><br />उसके बाद मैंने आसपास के मनोरम दृश्यों का फोटो लिया-<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://2.bp.blogspot.com/-23d3LQFQnrs/TZ1-2FQiOmI/AAAAAAAAAsA/SYSWKFOvHbY/s1600/P1050673.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://2.bp.blogspot.com/-23d3LQFQnrs/TZ1-2FQiOmI/AAAAAAAAAsA/SYSWKFOvHbY/s400/P1050673.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5592765779853589090" /></a><br /><br />और अपने हमसफर का भी-<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://3.bp.blogspot.com/-WBhvcv03mVU/TZ19hcZCPfI/AAAAAAAAArg/0TKIOT3Zato/s1600/P1050656.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 300px; height: 400px;" src="http://3.bp.blogspot.com/-WBhvcv03mVU/TZ19hcZCPfI/AAAAAAAAArg/0TKIOT3Zato/s400/P1050656.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5592764325774376434" /></a><br /><br />फिर इशान को आइसक्रीम दिलाया और स्टेशन के लिए चल पड़े। <br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://4.bp.blogspot.com/-DcF8J5ovokY/TZ19gxG9k9I/AAAAAAAAArY/cHRAP1n8Z0M/s1600/P1050654.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://4.bp.blogspot.com/-DcF8J5ovokY/TZ19gxG9k9I/AAAAAAAAArY/cHRAP1n8Z0M/s400/P1050654.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5592764314155848658" /></a><br /><br />नीचे की तस्वीर में ऊपर की तरफ जाखू पर्वत पर हनुमान जी की सबसे ऊँची मूर्ति नजर आ रही है, जिसका अनावरण इसी साल हुआ था और उस अवसर पर अभिषेक बच्चन भी मौजूद थे।<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://2.bp.blogspot.com/-HerIiBCP6-o/TZ1-2it8nEI/AAAAAAAAAsI/r0LyZnwJXHI/s1600/P1050677.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://2.bp.blogspot.com/-HerIiBCP6-o/TZ1-2it8nEI/AAAAAAAAAsI/r0LyZnwJXHI/s400/P1050677.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5592765787761581122" /></a><br />माल रोड से पश्चिम की तरफ,जिधर बी.एस.एन.एल का ऑफिस और विधानसभा है, उधर हर एकाध-घंटे पर टवेरा टाइप की सरकारी गाड़ी चलती है। हम उसका इंतजार करने लगे।<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://2.bp.blogspot.com/-CD3oxOSjpdE/TZ177peIB-I/AAAAAAAAArQ/k3a86QxUkuc/s1600/P1050645.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://2.bp.blogspot.com/-CD3oxOSjpdE/TZ177peIB-I/AAAAAAAAArQ/k3a86QxUkuc/s400/P1050645.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5592762576938731490" /></a><br /><br /><br /><br /><br /> 3 बज गए पर तबतक कोई गाड़ी नहीं आई। वहॉं खड़े ट्रैफिक पुलिस से हम 3-4 बार गाड़ी का समय पूछ चुके थे, पर उसने इंतजार करने को कहा। हमें लगा यदि समय पर हम स्टेशन न पहुँचे तो रात हमें शिमला में बितानी पड़ेगी और रेल मोटर के मजेदार सफर से भी हम वंचित रह सकते थे।<br /><br />क्रमश:Unknownnoreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-56946935542996284232011-04-07T13:01:00.002+05:302011-04-07T14:17:48.811+05:30शिमला के बहाने ट्रेन का सफर भाग-16 दिसम्बर 2010 की रात हमदोनों अपने बेटे इशान के साथ पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँचे। वैसे टिकट सब्जी मंडी से थी, लेकिन ट्रेन लेट थी और सब्जी मंडी का रेलवे स्टेशन काफी सुनसान रहता है, इसलिए वहॉं इंतजार करना हमें उचित नहीं लगा।<br /> इस सफर का पूरा सिड्यूल इस प्रकार था-<br />6 दिसंबर - दिल्ली से कालका - 20:45 से 4:40 हावड़ा दिल्ली कालका मेल(2311)फर्स्ट एसी 900/-प्रति व्यक्ति<br />7 दिसंबर - कालका से शिमला - 5:30 से 10-15 शिवालिक डिलक्स एक्सप्रेस(241) 280/- प्रति व्यक्ति<br />7 दिसंबर - शिमला से बड़ोग - 16:40 से 17:15 रेल मोटर प्रति व्यक्ति<br />8 दिसंबर - बड़ोग से कालका - 13:30 से 16:40 हिमालयन क्वीन(256) 167/- प्रति व्यक्ति <br />8 दिसंबर - कालका से दिल्ली - 17:45 से 21:50 कालका शताब्दी(2012) फर्स्ट सीसी 990/- प्रति व्यक्ति<br /><br />रात का सफर आरामदायक रहा,फर्स्ट एसी होने के बावजूद और लेट नाइट ट्रेन होने की वजह से चाय-पानी की सुविधा यहॉं नहीं मिली। खैर, सुबह 6 बजे के करीब हम कालका जी पहुँच गए, सही समय से करीब 2 घंटे लेट। इशान की नींद अभी पूरी नहीं हुई थी।<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://4.bp.blogspot.com/-UU-fzAUlCt0/TZ13_QIXkwI/AAAAAAAAAq4/uK0YeunwaGw/s1600/P1050539.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://4.bp.blogspot.com/-UU-fzAUlCt0/TZ13_QIXkwI/AAAAAAAAAq4/uK0YeunwaGw/s400/P1050539.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5592758240809554690" /></a><br /><br /> वास्तव में इशान ट्रेन को लेकर काफी क्रेजी रहता है, इसलिए यह पूरा सफर मैंने मुख्यत: ट्रेन पर फोकस किया था, किसी टूरिस्ट आकर्षक के लिए नहीं। इसलिए टॉय ट्रेन, रेल कार, चेयर कार आदि को ध्यान में रखकर मैंने टिकट कटाया था। <br />दूसरी बात ये थी कि सोनिया को कार से उलटी की शिकायत रहती है, इसलिए उसके साथ सफर करने के लिए मेरे पास ट्रेन एक आसान विकल्प था।<br />ट्रेन कोहरे की वजह से हावड़ा से दिल्ली लेट पहुँची थी, इसलिए कालका भी लेट पहूँची, लेकिन कालका से चलनेवाली शिवालिक ट्रेन इससे कनेक्टेड है, इसलिए वह भी इस ट्रेन के कालका पहुँचने का इंतजार करती है। <br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://3.bp.blogspot.com/-C0JC0-RF0Z0/TZ1y__tIfRI/AAAAAAAAAqw/E1tJl930l20/s1600/P1050568.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://3.bp.blogspot.com/-C0JC0-RF0Z0/TZ1y__tIfRI/AAAAAAAAAqw/E1tJl930l20/s400/P1050568.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5592752756022082834" /></a><br /><br />धीरे-धीरे भोर हो चला था। बीच में इशान की नींद खुली, पर बोतल से दूध पीने के बाद वह फिर सो गया। इशान को मैंने अपने गोद में सुलाया हुआ था, और सीट काफी छोटी होने की वजह से काफी दिक्कत हो रही थी। कभी दुबारा आना हो तो बच्चे के लिए भी सीट बुक कराना समझदारी रहेगी।<br />पहाड़ों के बीच ट्रेन चली जा रही थी। कालका से शिमला के बीच 105 सुरंग है। मैं इंतजार कर रहा था कि कब टनल नंबर 33 आए और हम वहॉं उतर कर नाश्ता वगैरह ले सके।<br /><br />क्रमश:Unknownnoreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-62215442343911490262011-03-01T22:10:00.003+05:302011-03-02T07:09:10.752+05:30इन दिनों !!जिंदगी के कई रंग होते हैं<br />कुछ रंग वह खुद दिखाती है,<br />कुछ हमें भरना पड़ता है!<br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/-QsGq6Ym7wDs/TW0PjSSR_oI/AAAAAAAAAqQ/yv9M1G1nBV0/s1600/3.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 320px;" src="http://2.bp.blogspot.com/-QsGq6Ym7wDs/TW0PjSSR_oI/AAAAAAAAAqQ/yv9M1G1nBV0/s400/3.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5579132612260265602" /></a><br />उन्हीं रंगो की तलाश में <br />भटक रहा हूँ मैं इन दिनों!<br /><br /> (1)<br /><br />अनजाने किसी मोड़ पर<br />पता न पूछ लेना!<br />हर शख्स की निगाह<br />शक से भरी है इन दिनों!<br /><br />मौसम से करें क्या शिकवा<br />हर साल वह तो आता है!<br />इस बार की बयार है कुछ और<br />कयामत आई है इन दिनों!<br /><br />फरेबी बन गया हूँ मैं<br />खाया है जो मैंने धोखा!<br />अब रोटी से नहीं <br />भूख मिटती है इन दिनों!<br /><br /> (2)<br />सुना है उनकी तस्वीर <br />बदली-बदली सी लग रही है!<br />सच तो ये है कि वे खुद भी<br />बदले-बदले-से हैं इन दिनों।<br /><br />पहले इक नजर के इशारे में<br />हाजिर हो जाते थे!<br />अब तो पुकारने पर भी<br />नजर नहीं आते हैं इन दिनों!<br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/-9KXdG2feMFo/TW0PjlYuKVI/AAAAAAAAAqY/Ns7uLRTw2dY/s1600/5.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://4.bp.blogspot.com/-9KXdG2feMFo/TW0PjlYuKVI/AAAAAAAAAqY/Ns7uLRTw2dY/s400/5.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5579132617387551058" /></a><br /><br />तुम हँसती थी <br />बेवजह<br />चहकती थी हर वक्त!<br />आज वजह तो नहीं है मगर<br />काश हँस देती इन दिनों!<br /><br /> (3)<br /><br />मुझसे न पूछो यारों <br />है घर कहॉं तुम्हारा!<br />घर बसाने की चाहत में<br />बेघर-सा हूँ इन दिनों!<br /><br /><br />बहुत दूर आ गया हूँ<br />पीछे रह गई हैं यादे!<br />बेगाने शहर में ओ मॉं!<br />बरबस याद आती हो इन दिनो!<br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/-3irV5cawWGk/TW0Pj5jQVLI/AAAAAAAAAqg/7OpkC1amyQg/s1600/7.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 399px;" src="http://3.bp.blogspot.com/-3irV5cawWGk/TW0Pj5jQVLI/AAAAAAAAAqg/7OpkC1amyQg/s400/7.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5579132622800442546" /></a><br />यूँ तो जिंदगी है काफी लंबी<br />और हसरतों की उम्र उससे भी लंबी!<br />जिंदा रहने की हसरत बनी रहे<br />इतना भी काफी है इन दिनों!!<br /><br />-जितेन्द्र भगतUnknownnoreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-6159083636441370802010-12-06T10:10:00.003+05:302010-12-06T12:30:24.454+05:30LUCKnow : by chance (अंतिम कड़ी)गाइड हमें लखनऊ के इमामबाड़े से बाहर ले आया क्योंकि भुल-भुलैया जाने का रास्ता बाहर से था। भूख लग आई थी, पर अब भुलभुलैया और शाही बावली देखने के बाद ही खाने का इरादा बनाया। दोपहर के दो बजे तब धूप का पता ना था और ठंड शाम की तरफ पैर फैला रही थी। भुलभुलैये के पास वही टिकट दिखाकर हम सीढ़ियों से करीब दो-तीन फ्लोर तक ऊपर चढ़ गए। सामने करीब 6 फुट का गलियारा हर तरफ से निकलता नजर आया।<br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPVCvo3OLOI/AAAAAAAAAoY/SvsDo8WLVKA/s1600/labyrinth.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 392px; height: 400px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPVCvo3OLOI/AAAAAAAAAoY/SvsDo8WLVKA/s400/labyrinth.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5545411902366952674" /></a><br /> भुल-भुलैया इमामबाड़े के हॉल के ऊपर ही बना हुआ है जिसमें अनेक छज्जे व 489 द्वारों वाले एक जैसे रास्ते हैं।<br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPSW7opN_mI/AAAAAAAAAoA/wIEtv6eayP0/s1600/P1050443.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPSW7opN_mI/AAAAAAAAAoA/wIEtv6eayP0/s400/P1050443.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5545222992466673250" /></a><br /><br /><br /><br /><strong>इस संरचना का उद्देश्य मुस्लिम समाज की धार्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति व 1784 ई. में हुए विनाशकारी अकाल के दौरान लोगों को सहायता प्रदान करना था।</strong><br />गाइड ने भुलभुलैये में ले जाते हुए कहा कि ये रास्ता याद रखना क्योंकि लौटते हुए हमें खुद इसी रास्ते से वापस लौटना है। वह उसे ज्यादा मुश्किल बता रहा था पर मुझे यह ज्यादा मुश्किल नहीं लगा। भुलभुलाये से ऊपर इमामबाड़े की छत से गोमती नदी के तरफ का दृश्य काफी सुंदर नजर आ रहा था।<br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPSW7ybeawI/AAAAAAAAAoI/f83RzRpaMkg/s1600/P1050455.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPSW7ybeawI/AAAAAAAAAoI/f83RzRpaMkg/s400/P1050455.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5545222995093383938" /></a><br /><br /><br /><br />बाहर आने के बाद हम शाही बावली की तरफ चल पड़े। आपको जानकर हैरानी होगी कि ऐसी ही एक बावली दिल्ली में कनॉट प्लेस के पास भी है-<br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPt7JSWxWOI/AAAAAAAAApg/-CyLHkSEMjU/s1600/P1050463.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 300px; height: 400px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPt7JSWxWOI/AAAAAAAAApg/-CyLHkSEMjU/s400/P1050463.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5547162765513283810" /></a><br />गाइड ने बताया कि अंग्रेजों से बचने के लिए नवाब ने इसी में खजाने की चाबी गिरा दी थी। बाद में अंग्रेज इसका पानी निकालते रहे पर यह बावली खाली ही नहीं होती थी। इसका कारण यह था कि यह साथ बहनेवाली गोमती नदी से सीधे जुड़ी हुई थी।<br />यहॉ बैठकर बाहर से आनेवाले का रंगीन प्रतिबिंब देखा जा सकता था, मगर वह खुद दूसरों को नजर नहीं आता। <br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPSYEKoh5SI/AAAAAAAAAoQ/PXvi7rA1uI4/s1600/P1050460.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPSYEKoh5SI/AAAAAAAAAoQ/PXvi7rA1uI4/s400/P1050460.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5545224238541169954" /></a><br />गाइड को पैसे देकर इमामबाड़े से हम करीब एक घंटे में बाहर निकल आए और बाहर निकलते ही एक सुंदर इमारत रोड के उस पार नजर आई-<br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPt7JvLFNKI/AAAAAAAAApo/jLSpsICVcPQ/s1600/P1050468.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPt7JvLFNKI/AAAAAAAAApo/jLSpsICVcPQ/s400/P1050468.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5547162773248881826" /></a><br />वहीं एक टांगेवाला हमें पकड़ लेता है और सुझाव देता है कि आप छोटे इमामबाड़े और वहॉं के म्यूजियम में जाकर समय खराब करना चाहते हैं तो आपकी मर्जी मगर आप चिकन की कढ़ाई की फैक्ट्री जाऍं तो ज्यादा बेहतर। मैं समझ गया कि यहॉं आगरे के लाल किले के पास खड़े टांगेवालों का एक जैसा ही हाल है। वैसे इतिहास के पन्नों से बाहर अब हम कला का नमूना देखना चाहते थे। हम तांगे पर बैठकर चल पड़े। सामने ही रूमी दरवाजा था जो इस तरफ से झरोखों से युक्त तीन मंजिला दरवाजे के रूप में नजर आ रहा था जबकि...<br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPuH6OeJYXI/AAAAAAAAApw/yJr-2N_qe9E/s1600/P1050475.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPuH6OeJYXI/AAAAAAAAApw/yJr-2N_qe9E/s400/P1050475.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5547176800423600498" /></a><br />उसपार निकल जाने पर वह एक ऊँचे दरवाजे के रूप में खड़ा दिखाई दे रहा था और यही इसकी खासीयत थी-<br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPuH6vDMEOI/AAAAAAAAAp4/81ZP4ZS7F1U/s1600/P1050477.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPuH6vDMEOI/AAAAAAAAAp4/81ZP4ZS7F1U/s400/P1050477.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5547176809168900322" /></a><br /><br />तांगेवाला हमें बताने लगा कि लखनऊ की छ: चीजें प्रसिद्ध हैं-<br />1.इमामबाड़ा<br />2. तांगा<br />3. तहजीब<br />4. कुंदा कवाब<br />5.उमरावॅ जान<br />6. कपड़े पर चिकन का काम<br />आप समझ गए होंगे कि तांगा दूसरे नंबर पर क्यों है, बकौल तांगेवाला- यह नवाबों की शाही सवारी थी। कपड़े की दुकान को फैक्ट्री बताकर उसने हमें एक जगह उतार दिया। दुकान के बाहर खड़े गार्ड ने हमें अंदर आने का आग्रह किया। <a href="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPxsyEJ0y_I/AAAAAAAAAqA/FzqUeKsuyF8/s1600/chikan.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 145px; height: 145px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPxsyEJ0y_I/AAAAAAAAAqA/FzqUeKsuyF8/s400/chikan.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5547428448377818098" /></a><br />हम असमंजस कदमों से अंदर गए और पूछा कि यहॉं चिकन कढ़ाई का काम कहॉं चल रहा है। अंदर एक कमरे में एक लड़की बुनाई कढ़ाई का काम कर रही थी। उसके बाद हम दुकान के काउंटर पर गए। <br />20-25 मिनट में हम वापस जाने के लिए ऑटो तलाश रहे थे। या तो हमें इस कला की समझ नहीं थी या ये जगह चिकन कढ़ाई की फैक्ट्री नहीं थी, या ये लखनऊ नहीं था और सबसे ज्यादा हम इस बात से सहमत थे कि अब दिल्ली में सबकुछ मिलता है और सही कीमत पर।<br />हजरतगंज लखनऊ का कनाट प्लेस है मगर अभी उसकी हालत बिगड़ी हुई थी। वहॉं का जनपथ मार्केटिंग के लिहाज से ठीक लगी, पर थी बहुत महंगी। शाम हो चुकी थी और ठंड बढ़ने के साथ हम घर पहुँच चुके थे। रात तो लखनऊ मेल से वापस जाने से पहले दोस्त के साथ डिनर भी करना था। मिला जुलाकर लखनऊ को हम बस इमामबाड़े और दोस्त की मेहमानवाजी की वजह से याद रख सकते थे।<br />कोई ये समझाएगा कि लखनऊ को अंग्रेजी में luck + now = lucknow क्यों लिखते हैं जबकि होना चाहिए lukhnou या कुछ और.... <br />लगता है लखनऊ में जाते ही luck काम करने लगता है :)<br /> <br />.....क्योंकि हमारी ये यात्रा भी रही 'luck' by chance. <br />पहली कड़ी के लिए <a href="http://jitjiten.blogspot.com/2010/11/blog-post_25.html">यहॉं क्लीक करें</a><br /><br />आज शाम मैं अपनी पत्नी और बेटे के साथ 4 घंटे के लिए शिमला-टूर पर जा रहा हूँ। 4 घंटे की टूर से हैरान मत होइए, लौटकर बताउँगा सफर के बारे में।Unknownnoreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-44263649255008698952010-12-05T18:36:00.002+05:302010-12-05T19:23:04.861+05:30लखनऊ और बस इमामबाड़ा...( पहली कड़ी )लखनऊ मेल के टी.टी. ने हमे तब तक कंपार्टमेंट से बाहर टहलने को कहा, जब तक टिकट हाथ में ना आ जाए। गाजियाबाद में टिकट हमारे हाथ में आने के बाद ही हमने राहत की सॉंस ली। मेरे दोस्त ने सुबह हमें स्टेशन से रीसिव किया। घर पहुँचकर हमने नाश्ता किया और जिस मकसद से आए थे उससे शाम तक निपटा आए। अब ऐसा लग रहा था कि कल की जगह हमें आज रात की टिकट करवा लेनी चाहिए थी। पर शाम को जब सब साथ बैठे तो गपशप में समय कैसे निकल गया पता ही नहीं चला।<br />अगली सुबह हमने लखनऊ देखने का कार्यक्रम बनाया, वो भी रिक्शा से इमामबाड़े तक जाने का। पता चला एक घंटा लगेगा। मैंने ऑटो किया और 15 मिनट में इमामबाड़ा सामने था।<br />प्रवेशद्वार से अंदर आते ही सामने यह प्राचीन इमारत अपनी ऐतिहासिक दास्तॉं बयॉं कर रहा था। <br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPSSepxPVUI/AAAAAAAAAnQ/I7AYtILuJOQ/s1600/P1050403.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPSSepxPVUI/AAAAAAAAAnQ/I7AYtILuJOQ/s400/P1050403.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5545218096506033474" /></a><br />पीछे पलटकर हमने जब प्रवेशद्वार को देखा तो वह और उसके सामने का लॉन कोहरे की उस सुबह में काफी रूमानी अहसास दे रहा था।<br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPVQURRIgMI/AAAAAAAAAo4/0A8SOhBKHLk/s1600/P1050412.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPVQURRIgMI/AAAAAAAAAo4/0A8SOhBKHLk/s400/P1050412.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5545426825339502786" /></a><br />हमें कपड़े की मार्केट में भी जाना था, नहीं तो इस पार्क में बैठकर मैं जरूर सोचता कि नवाब आसफ उद्दौला अपनी बेगम के साथ इस बनते हुए इमारत को यहॉं से खड़े होकर कितनी बार देखते रहे होंगे।<br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPVQSa7hMKI/AAAAAAAAAow/mRuEZtr_j_M/s1600/P1050410.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPVQSa7hMKI/AAAAAAAAAow/mRuEZtr_j_M/s400/P1050410.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5545426793573462178" /></a><br /><br />वैसे तो ये भी एक प्रवेशद्वार ही था जहॉं से 50 रूपये का टिकट लेकर हम अंदर चले आए। अंदर आने के बाद सामने इमामबाड़ा नजर आया- <br /><br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPtvEWx5urI/AAAAAAAAApA/0ekjXCunOiI/s1600/P1050415.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPtvEWx5urI/AAAAAAAAApA/0ekjXCunOiI/s400/P1050415.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5547149486661941938" /></a><br /><br />अब तक हम दो दरवाजे पीछे छोड़ आए थे-<br /><br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPtvFXg0JKI/AAAAAAAAApQ/2zGwoy5xfNI/s1600/P1050427.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPtvFXg0JKI/AAAAAAAAApQ/2zGwoy5xfNI/s400/P1050427.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5547149504038577314" /></a><br /><br />क्लोजअप-<br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPtvErsU9RI/AAAAAAAAApI/gecFklPzv8w/s1600/P1050418.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPtvErsU9RI/AAAAAAAAApI/gecFklPzv8w/s400/P1050418.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5547149492275705106" /></a><br /><br />बॉंयी तरफ आसिफी मस्िजद नजर आ रहा था।<br /><br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPty_Yc0cpI/AAAAAAAAApY/lpVlNI7iVYQ/s1600/P1050417.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPty_Yc0cpI/AAAAAAAAApY/lpVlNI7iVYQ/s400/P1050417.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5547153799257551506" /></a><br /><br /><br /> इमामबाड़े में प्रवेश करने से पहले जूते उतारने पड़ते इसलिए हमने पहले आसपास घूमना पसंद किया। इमामबाड़े की दीवारों को निहारती हुई मेरी बेगम-<br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPSVCf24ELI/AAAAAAAAAnw/7sYOpEoJgok/s1600/P1050434.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPSVCf24ELI/AAAAAAAAAnw/7sYOpEoJgok/s400/P1050434.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5545220911343866034" /></a><br /><br />अब हम इमामबाड़े की तरफ चल पड़े। वहॉं दरवाजे पर वर्दीधारी गाइड पर्यटकों को अपने रेट समझाने में व्यस्त थे। हमने 110 रूपये में एक गाइड साथ कर लिया जो हमें पहले इमामबाड़ा, फिर भूलभुलैया और अंत में शाही बावली की सैर कराता।<br />हालॉंकि उसे साथ लेने का कोई खास फायदा नजर नहीं आया। प्रवेश द्वार के पास बोर्ड पर कामचलाऊ जानकारी लिखी मिल गई थी जिसके अनुसार-<br /><strong>नवाब आसफ उद्दौला (1775-97 ई.) के निर्देशानुसार 1784-91 के मध्य निर्मित यह भव्य संरचना बड़ा इमामबाड़ा के नाम से विख्यात है जिसकी रूपरेखा वास्तुविद् किफायतुल्लाह द्वारा तैयार की गई थी। इस भवन में नवाब आसफ उद्-दौला व उनकी पत्नी शमसुन्निसा बेगम की कब्रें हैं। इस इमारत में तीन मेहराबों वाले दो प्रवेश द्वार हैं। </strong><br />इस तरह यह भी पाया कि <strong>स्मारक के उत्तर में नौबतखाना, पश्चिम में आसफी मस्िजद एवं पूरब में शाही बावली है, जबकि मुख्य इमामबाड़ा दक्षिण में स्िथत है। </strong><br />इमामबाड़े के अंदर आने पर लगभग तीन मंजिला हॉल नजर आया जिसके बारे में तथ्य ये है कि <strong>बिना किसी सहारे पर टिकी केन्द्रीय हाल की विशाल छत अपने में विश्व की अनोखी मिसाल है जिसकी लंबाई लगभग 50 मीटर और चौड़ाई 16.16 मीटर है,जबकि इसकी ऊँचाई लगभग 15 मीटर है। <br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPSW7VFiL3I/AAAAAAAAAn4/LQqglA1UTOE/s1600/P1050446.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TPSW7VFiL3I/AAAAAAAAAn4/LQqglA1UTOE/s400/P1050446.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5545222987216727922" /></a><br /><br />केन्द्रीय हाल के दोनों पार्श्वों में भी एक-एक कक्ष है तथा मुख्य इमारत का मुखभाग 7 मेहराब-युक्त द्वारों से सज्जित है। चूने के गारे व लखौरी ईटों से निमिर्मित इस मुख्य इमारत की अलंकृत मुंडेरे छतरियों से सज्जित हैं जिनकी बाहरी सतह पर चूने के मसाले से अदभुत डिजाइनें उकेरी गई हैं। इसका भीतरी भाग कीमती झाड-फानूसों, ताजियों, अलम आदि धार्मिक चिन्हों से सज्जित है।</strong><br /><br />गाइड ने इस हाल के दूसरे छोर पर, जो करीब 50 मीटर की दूरी पर था, खड़ा हो गया और फुसफुसाया, साथ ही माचिस की तिल्ली जलाई। उसकी प्रतिध्वनि ऐसी थी जैसे पास ही खडे होकर यही गतिविधि की गई हो। दरअसल इस हाल की छत पर पतली किनारियॉं बनाई गई है तो माइक का काम करती हैं। हॉल में इकट्ठे लोगों को भाषण साफ-साफ सुनाई दे, इसके लिए200 साल पहले अपनाई गई यह तकनीक काफी वैज्ञानिक लगी।<br /><br /><br />अगली और अंतिम कड़ी में भुलभुलैया और शाही बावली के बारे में बताऊँगा।<br /><br />यात्रा तिथि: 22-23 नवम्बर 2010.Unknownnoreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-41183744560851200862010-11-21T19:07:00.000+05:302010-11-24T11:18:35.670+05:30बद्रीनाथ-औली यात्रा से वापसी (अंतिम कड़ी)<a href="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9rWo3DDQI/AAAAAAAAAgg/oVn-ku8YY5M/s1600/DSCN7894.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485220907830152450" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 400px; CURSOR: hand; HEIGHT: 300px; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9rWo3DDQI/AAAAAAAAAgg/oVn-ku8YY5M/s400/DSCN7894.JPG" border="0" /></a><br /> ऐसा लग रहा है जैसे स्वर्ग से सीढी लगा कर सीधे पर्वतों पर उतर रहे हों, पर्वत एक विराट दरवाजा हो जिसके आसपास बड़े-बड़े वृक्ष्ा भी हरे-भरे पत्तों के समान फैले हुए हों, घास की हरी घाटियॉं तराई में जाकर जैसे सिमट रही हो.....<br />दिल्ली की गर्मी से बाहर आने के बाद रोपवे से यह सुंदर पर्वतीय दृश्य अचानक आपको और भी हैरान अचंभित कर देगा।<br />रोपवे टावर नं 10 से टावर नं.8 की तरफ चल पड़ी। वहॉं से पर्वतों का विहंगम दृश्य उपर दिए गए उपमान से भी कहीं ज्यादा सुंदर है।<br />मैं यह सोचकर उदास हो रहा था कि ऑली तक कार से आने की वजह से मैं रोपवे का मजा नहीं ले पाउँगा, मगर पता चला कि सुबह-सुबह रोपवे अपने ट्रायल पर टावर नं 10 से टावर नं 8 का एक चक्कर लगाती है और अनुरोध करने पर वे बिठा भी लेते हैं। इसलिए हम ऊपर की तरफ टावर नं 8 से पैदल टावर नं 10 के लिए चल पड़े थे। टावर नं 10 करीब एक किमी. दूर दिखाई दे रहा था पर वहॉं जाना बेकार नहीं गया।<br /><br /> हम सभी केबल कार से वापस टावर नं 8 पर उतर गए। जोशीमठ से परिवार के अन्य सदस्य 10 बजे तक पहुँचने वाले थे और अभी 8 बज रहे थे। <br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9sYq56goI/AAAAAAAAAhI/uLCi4dKQOzI/s1600/DSCN7950.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485222042250412674" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 400px; CURSOR: hand; HEIGHT: 300px; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9sYq56goI/AAAAAAAAAhI/uLCi4dKQOzI/s400/DSCN7950.JPG" border="0" /></a><br />वे सभी सदस्य सीधे टावर नं 10 पर ही उतारे जाते इसलिए हम लोग फिर से 8 नं से उतरकर टावर नं 10 की तरफ चल पड़े। हालॉकि वहॉं दुबारा जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। <br />रास्ते में एक जगह पत्थर और टीले नजर आ रहे थे। हमने शैलेंद्र जी को गब्बर का रॉल देकर 5 मिनट की शोले बनाई- 'कितने आदमी थे' वाला सीन।<br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9r9wL0cZI/AAAAAAAAAg4/ZZ83FNrKXyM/s1600/DSCN7924.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485221579811221906" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 400px; CURSOR: hand; HEIGHT: 300px; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9r9wL0cZI/AAAAAAAAAg4/ZZ83FNrKXyM/s400/DSCN7924.JPG" border="0" /></a><br /> टावर नं 10 औली के ऊपरी हिस्से पर बना हुआ था। वहॉं एक कैंटीन है जहॉं मैगी जैसी चीज खाने-पीने को मिल जाती है। पर्वतों को निहारते हुए समय थम-सा गया था। <br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9qegNgJ6I/AAAAAAAAAgQ/hjxfZ2fjVg0/s1600/DSCN7899.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485219943435741090" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 400px; CURSOR: hand; HEIGHT: 300px; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9qegNgJ6I/AAAAAAAAAgQ/hjxfZ2fjVg0/s400/DSCN7899.JPG" border="0" /></a><br />तभी रोपवे से केबल कार आती हुई नजर आई। एक ग्रूप तो आ गया मगर मेरी पत्नी, बेटा और कुछ अन्य सदस्य अगली पारी में करीब आधे घंटे बाद आते। मैं उन्हें मिस कर रहा था। <br /><br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9rmVsXNkI/AAAAAAAAAgo/SIiPdVfXw9o/s1600/DSCN7905.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485221177562969666" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 400px; CURSOR: hand; HEIGHT: 300px; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9rmVsXNkI/AAAAAAAAAgo/SIiPdVfXw9o/s400/DSCN7905.JPG" border="0" /></a><br /><br /><br />मैं सोच रहा था कि औली से 11 बजे तक सब नीचे जोशीमठ ऊतर जाऍंगे और 12 बजे तक दिल्ली के लिए रवाना हो लेंगे। रात के अंधेरे में पहाड़ो पर कार चलाने से मैं बचना चाहता था और लेट होने का मतलब था श्रीनगर में रात गुजारना। यानी अगले दिन ऋषिकेश तक फिर पहाड़ी रास्ता , और तब दिल्ली....<br />सबने आस पास के दृश्यों का सपरिवार आनंद लिया, फोटो खिंचवाये, पर दूर नहीं गए क्योंकि जल्दी ही सबको वापस लौटना था। <br /><br />सभी सदस्यों के आने के बाद, उनके साथ 20-30 मिनट बिताने के बाद मैं नीतिन, रोहित, अन्नू के साथ अपने बेटे इशान को भी लेकर कार तक जाने के लिए पहाड़ से नीचे ऊतरने लगा।<br /><br /> <br /><br />पूरे रास्ते इशान को खूब मजा आया। तीन साल का बच्चा पहाड़ों की ढलान को पहली बार देख रहा था और उसपर बेलगाम लुढकने के लिए उतारू था। हमें उसे संभालने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। रास्ते में एक बेहद खूबसूरत जगह झूले भी लगे हुए थे।<br />(नीतिन के साथ इशान)<br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9s8XB5aFI/AAAAAAAAAhY/lsb1q8P_VPY/s1600/DSCN7994.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485222655390476370" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 400px; CURSOR: hand; HEIGHT: 300px; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9s8XB5aFI/AAAAAAAAAhY/lsb1q8P_VPY/s400/DSCN7994.JPG" border="0" /></a><br /><br />हम सभी औली से जोशीमठ 12 बजे तक पहुँच गए मगर खाना-पीना नहीं हुआ था, किसी तरह सभी एक जगह इकट्ठे हुए और फिर काफिला चल पड़ा। मैं आगे-आगे चल पड़ा। बस अब एक ही धुन सवार था कि किसी तरह पहाड़ी रास्ता पार कर लूँ।<br />चमोली, कर्णप्रयाग,रूद्रप्रयाग, देवप्रयाग पार करते-करते अंधेरा छा चुका था, और करीब 70 कि.मी. का रास्ता बचा था। 8 बज गए थे और हमें किसी भी तरह ऋषिकेश पहँचकर हॉटल लेना था। देवप्रयाग तक नॉनस्टॉप ड्राइव करते करते पस्त हो चुका था, लेकिन नीतिन रोहित ने रास्ते का ख्याल रखा और मुझे सावधान करते रहे। <br />देवप्रयाग पहुँचने पर पता चला कि पीछे से आने वाली दोनो गाड़ियॉं रूद्रप्रयाग में ही रूक रही हैं क्योंकि अन्नू की तबीयत अचानक काफी खराब हो गई है। <br />खैर मैं किसी तरह ऋषिकेश 10 बजे तक पहुँच ही गया। सब मेरी ड़ाइविंग से हैरान थे और मैं थकान से चूर-चूर।<br />कब खाया, कब सोया कुछ पता नहीं चला। <br />अगले दिन सुबह-सुबह हम ऋषिकेश से दिल्ली के लिए चल पड़े और करीब 2 बजे मैं अपने घर पर आराम कर रहा था।<br />उस वक्त तक काफिले की बाकी दोनों गाड़ियॉं ऋषिकेश तक ही पहुँच पाई थी.....<br />(यात्रा समाप्त।)<br /><br />8वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने बद्रीनाथ के इस तीर्थ की तलाश की थी। आदि शंकराचार्य मलयाली थे। केरल के नम्बुदरी ब्राह्मण बद्रीनारायण मंदिर के प्रति बेहद आस्थावान है। <br />हम सभी इस धार्मिक और पर्वतीय यात्रा से गदगद हुए और एक यादगार लम्हा जीया। <br /><br />अब पिछली कड़ी में पूछे गए प्रश्न का जवाब देता हूँ,क्षमा भी चाहता हूँ कि इस कड़ी का समापन इतने दिनों बाद कर रहा हूँ-<br />पिछली कड़ी में मैंने पूछा था कि ऑली की इस तस्वीर में यह रास्ता किस काम आता है? <br />यह रास्ता स्कीइंग के लिए प्रयोग किया जाता है। इन दिनों अब बर्फ के कृत्रिम फव्वारे भी लगाये जा रहे हैं ताकि कम बर्फबारी में स्कीइंग के लिए पर्याप्त बर्फीला रास्ता बरकरार रहे।<br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9rJauzp4I/AAAAAAAAAgY/SAwdEmTK5xM/s1600/DSCN7880.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9rJauzp4I/AAAAAAAAAgY/SAwdEmTK5xM/s400/DSCN7880.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485220680699193218" /></a><br /><br />पानी का संचय भी इसी लिए किया गया है कि इसे बर्फ के फव्वारे बनाने के लिए इस्तमाल किया जा सके।<br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9sxiWdKgI/AAAAAAAAAhQ/AIm0_3OkcH4/s1600/DSCN7988.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485222469450934786" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 400px; CURSOR: hand; HEIGHT: 300px; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9sxiWdKgI/AAAAAAAAAhQ/AIm0_3OkcH4/s400/DSCN7988.JPG" border="0" /></a><br /><br />दूसरा प्रश्न नीचे दिखाई गई इन दो तस्वीरों से संबंधित था।<br /><br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TCA4yIQCcMI/AAAAAAAAAkw/LwJ5EL9tFls/s1600/DSCN7890.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TCA4yIQCcMI/AAAAAAAAAkw/LwJ5EL9tFls/s400/DSCN7890.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485446779996631234" /></a><br /><br /><br /><br /><br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TCA41kymc0I/AAAAAAAAAk4/h2xKI9siL9w/s1600/DSCN7893.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TCA41kymc0I/AAAAAAAAAk4/h2xKI9siL9w/s400/DSCN7893.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485446839197397826" /></a><br /> मैंने पूछा था कि ऑली में इन खंभों का इस्तमाल किस लिए किया जाता है?<br />दरअसल स्कीइंग के प्रतियोगियों को ऊँचाई पर लाने-ले जाने के लिए यह कुर्सीनुमा ट्राली है जो रोपवे के माध्यम से ऊपर तक जाती है। केबल कार में अधिकतम 25 लोग आ सकते हैं जो जोशीमठ से ऑली तक आना-जाना करती है, मगर यह चेयर-ट्रॉली औली में स्कीइंग के एक स्पॉट से दूसरे स्पॉट पर एक सवारी/प्रतियोगी को लाती-ले जाती है।<br /><a href="http://antarsohil.blogspot.com/2010/11/blog-post_21.html">अंतर सोहिल</a> और <a href="http://neerajjaatji.blogspot.com/2010/11/25.html">नीरज भाई</a> ने पहले सवाल का जवाब सही दिया था।<br /><br />जाते-जाते याद दिलाना चाहुँगा कि औली में एक ही रिसॉर्ट है- क्लीफ टॉप, इसके अलावा वहॉं और कोई हॉटल नहीं है।<br />स्कीइंग का आनंद उठाने की बड़ी तमन्ना है, देखता हूँ क्लीफ टॉप में रूकने का कब अवसर मिलता है। <br /><br />पिछली कड़ियॉं-<br /><br /><a href="http://jitjiten.blogspot.com/2010/06/4.html">पर्वतों से आज मैं टकरा गया........(भाग 4)<br /></a><a href="http://jitjiten.blogspot.com/2010/06/500.html">बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 3)<br /><br /><a href="http://jitjiten.blogspot.com/2010/06/2.html">बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 2)</a><br /><br /></a><a href="http://jitjiten.blogspot.com/2010/06/1.html">बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 1)</a>Unknownnoreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-36062525084460017372010-06-22T10:10:00.009+05:302010-11-24T14:26:59.290+05:30पर्वतों से आज मैं टकरा गया........(भाग 4)बद्रीनाथ से लौटते हुए जोशीमठ में अंधेरा हो चुका था। रात वहीं होटल में रूके। सुबह 4 बजे मैंने नीतिन को औली चलने के लिए उठाया जो यहॉं से 12 कि.मी. ही दूर था। सोचा था, हम दोनों औली से 10 बजे तक लौट आऍंगे और उसके बाद सभी दिल्ली के लिए रवाना हो जाऍंगे। मगर सोचा हुआ होता कहॉं है।<br /><br />जैसे ही हम दोनों चलने को हुए, शैलेंद्र जी और रोहित- दोनों औली जाने के लिए तैयार मिले। पहले तो इरादा था कि जोशीमठ से रोपवे (केबल कार) के द्वारा औली पहुँचा जाए, मगर 6 बजे ये संभव नहीं था। उसका किराया 500/- प्रति व्यक्ति था, और वह 9 बजे से आरंभ होता था। बजट और समय- दोनों का नुक्सान देखते हुए मैंने कार से ही जाना तय किया। ऊपर सड़क मार्ग खत्म होने के बाद 2-3 कि.मी. पैदल चलना पड़ा। कार भी पहले ही खड़ी करनी पड़ी क्योंकि रास्ते में बड़े गड्ढे और उभरी हुई चट्टानें थी। <br /><br />वहॉं से हमारे चारो तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ ही नजर आ रहे थे। माना पर्वत,अल गामिन, कामेट, मुकुट पर्वत, त्रिशूल और नंदा देवी जैसे प्रसिद्ध पर्वतीय चोटियॉं के अलावा हाथी-घोड़ा-पालकी और सुमेरू पर्वत सर उठाए खड़े थे। सुमेरू पर्वत का नाम रामायण में आता है, जब लक्ष्मण के लिए हनुमान संजीवनी बूटी ढूँढते हुए यहॉं आए थे और इस पर्वत को उठा ले गए थे। इसलिए हैरानी की बात नहीं कि यहाँ के गॉंव में हनुमान की पूजा नहीं की जाती है।<br /><br /> मेरा 5 मेगापिक्सल का निकॉन कैमरा धुंध में तस्वीरें लेने में नाकाम रहा क्योंकि उसका ऑटोफोकस खराब हो चुका था। इसलिए जानकारी के लिए गूगल की तस्वीरें दिखाकर काम चला रहा हूँ। <br /><br /> कंचनजंगा( 8,586 मीटर /28,169 फीट) के बाद भारत की दूसरी सबसे ऊँची चोटी नंदा देवी ( 7,816 मीटर/25,643 फीट)मेरी दायीं तरफ ऐसी नजर आ रही थी जैसे गाए बैठी हो, वैसे तेवर शेर-चीते सा था-<br /> <br />नन्दा देवी पर्वत ( 7,816 मीटर/25,643 फीट)<br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9zXkIvcQI/AAAAAAAAAj4/QOZtZlg2Qw4/s1600/nanda-devi-big.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 318px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9zXkIvcQI/AAAAAAAAAj4/QOZtZlg2Qw4/s400/nanda-devi-big.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485229719835078914" /></a><br /><br />ऑली के ठीक सामने त्रिशूल पर्वत नजर आता है- <br /><br />त्रिशूल पर्वत (7,120 मीटर / 23,360 फीट)<br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB90iUQaR7I/AAAAAAAAAko/LPEdLrXMbWo/s1600/trishul-peak-big.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 318px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB90iUQaR7I/AAAAAAAAAko/LPEdLrXMbWo/s400/trishul-peak-big.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485231004062468018" /></a><br /><br />उसके साथ कामेट और मुकुट पर्वत नजर आ रहा था- <br /><br /><br />कामेट (7,756 मीटर / 25,446 फीट) <br /><br /><br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9zWvjBhtI/AAAAAAAAAjo/dwdxWx74TPI/s1600/kamet-peak-big.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 318px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9zWvjBhtI/AAAAAAAAAjo/dwdxWx74TPI/s400/kamet-peak-big.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485229705718236882" /></a><br /><br /><br />मुकुट पर्वत ( 7,242 मीटर / 23,760 फीट)<br /><br /><br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9zXbKhNRI/AAAAAAAAAjw/-Z1_aXSXou0/s1600/mukut-peak-big.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 318px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9zXbKhNRI/AAAAAAAAAjw/-Z1_aXSXou0/s400/mukut-peak-big.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485229717426615570" /></a><br /><br />और बायीं तरफ देखने पर बद्रीनाथ की दिशा में नीलकंठ नजर आ रहा था।<br />नीलकंठ (6,596 मीटर / 21,640 फीट)<br /><br /><br /><br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB90h8-txII/AAAAAAAAAkg/04u2Z1AMvl4/s1600/neelkanth-peak-big.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 318px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB90h8-txII/AAAAAAAAAkg/04u2Z1AMvl4/s400/neelkanth-peak-big.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485230997814232194" /></a><br /><br /><br />उसी के आसपास माना पर्वत और अल-गामिन भी थे-<br /><br />माना पर्वत (7,272 मीटर / 23,858 फीट) <br />अबी गामिन (7,355 मीटर / 24,130 फीट)<br /><br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9zVz9mJMI/AAAAAAAAAjg/_eshCJDYCcs/s1600/Kalindi%2520Khal%2520zum%2520Mukut%2520%2B%2520Abi%2520Gamin%2520%2B%2520Kamet%2520%2B%2520Mana_02.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9zVz9mJMI/AAAAAAAAAjg/_eshCJDYCcs/s400/Kalindi%2520Khal%2520zum%2520Mukut%2520%2B%2520Abi%2520Gamin%2520%2B%2520Kamet%2520%2B%2520Mana_02.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485229689723561154" /></a><br /><br /><br />तुलना के लिए जानकारी दे रहा हूँ कि विश्व की उच्चतम चोटी एवरेस्ट की ऊँचाई 8,848 मीटर / 29,029 फीट है जो नेपाल में है। उसके बाद के-2 (ऊॅंचाई- 8611 मीटर/ 28251) का नंबर आता है जो पाकिस्तान में है।<br /><br /><br />पर्वतों के बीच ईश्वर की इस भव्य और विशालकाय रचना से अपनी लघुता और छुद्रता- दोनों का अहसास हो रहा था। <br />इन पर्वतों को देखकर ऐसा लग रहा था मानों ये सीख दे रही हो कि विशाल होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है विशाल होते हुए स्थिर रहना। इतनी ऊँचाई पर हम सोचते हैं कि हमने पर्वतों पर फतह कर ली। पर सच्चाई ये है कि हमने प्रकृति के मूल रूप को सड़क मार्ग, वृक्ष उन्मूलन और डैम-निर्माण से रौंद डाला। <br />इसलिए मुझे कभी-कभी लगता है कि प्रकृति जहॉ सबसे सुंदर नजर आती है, वहीं वह क्रूरतम रूप में प्रकट होकर मनुष्यों से प्रतिकार लेती है। पिछले 200 सालों में उत्तराखण्ड 116 भूकंप झेल चुका है और उनमें सबसे ज्यादा विनाश 1803, 1905, 1988 और 1991 में हुआ था। <br /><br />ऑली लगभग 3000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित एक बेहद छोटा हिल स्टेशन है जहॉं जी.एम.वी.एन. का एक रिसॉर्ट क्लीफ टॉप ही नजर आता है। इस मकान के अलावा यहॉं रोपवे के टावर और उसके दो स्टेशन नजर आते हैं।<br /><br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB90hgRGxhI/AAAAAAAAAkY/RgXyqq8NNbM/s1600/DSCN7905.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB90hgRGxhI/AAAAAAAAAkY/RgXyqq8NNbM/s400/DSCN7905.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485230990106740242" /></a><br /><br /> पैदल चलते हुए हमने महसूस किया कि यहॉं पशुओं की हडि्डयाँ जहॉं-तहॉं बिखरी पड़ी थी। संभवत: ये जानवर बर्फीली ठंड न झेल पाने के कारण मर जाते होंगे।<br /><br />पार्किंग-स्थल के पास गर्म दूध के साथ ब्रेड-बटर खाते हुए पहाड़ों को निहारना अच्छा लग रहा था। इस बीच शैलेंद्र जी ने महसूस किया कि इतनी दूर आकर इन दृश्यों से बाकी लोग वंचित रह जाऍं, यह ठीक नहीं है। उन्होंने फोन कर दिया कि रोपवे आरंभ होने पर वे सभी ऑली आ जाऍं। अब वे मेरे ऑली आने के निर्णय से खुश नजर आ रहे थे।<br /> <br />आपको ये बताना है कि ऑली की इस तस्वीर में यह रास्ता किस काम आता है? <br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9rJauzp4I/AAAAAAAAAgY/SAwdEmTK5xM/s1600/DSCN7880.JPG"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TB9rJauzp4I/AAAAAAAAAgY/SAwdEmTK5xM/s400/DSCN7880.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485220680699193218" /></a><br /><br />रिसॉर्ट के पास टावर नं. 8 का रोपवे स्टेशन था। उसके बाद आखरी स्टेशन (नं 10) एक कि.मी. ऊपर नजर आ रहा था। हम टहलते हुए वहॉं तक जा पहुँचे।<br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TCA4yIQCcMI/AAAAAAAAAkw/LwJ5EL9tFls/s1600/DSCN7890.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TCA4yIQCcMI/AAAAAAAAAkw/LwJ5EL9tFls/s400/DSCN7890.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485446779996631234" /></a><br /><br /> मैं यह सोचकर उदास हो रहा था कि कार से आने की वजह से मैं रोपवे का मजा नहीं ले पाउॅंगा। इस यात्रा के <strong>अगले और अंतिम भाग</strong> में बताऊँगा कि मैं रोपवे की सवारी कर पाया या नहीं!<br /><br /><br /><br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TCA41kymc0I/AAAAAAAAAk4/h2xKI9siL9w/s1600/DSCN7893.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TCA41kymc0I/AAAAAAAAAk4/h2xKI9siL9w/s400/DSCN7893.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5485446839197397826" /></a><br />फिलहाल आपको बॉंयी तरफ दो तस्वीरें दिखा रहा हूँ। आपको बताना है कि ऑली में इन खंभों का इस्तमाल किस लिए किया जाता है?<br /><br />क्रमश: <br /><br />अन्य कड़ियॉं-<br /><a href="http://jitjiten.blogspot.com/2010/06/blog-post.html">बद्रीनाथ- औली से वापसी(अंतिम कड़ी)</a><br /><a href="http://jitjiten.blogspot.com/2010/06/500.html">बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 3)<br /><a href="http://jitjiten.blogspot.com/2010/06/2.html">बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 2)</a><br /></a><a href="http://jitjiten.blogspot.com/2010/06/1.html">बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 1)</a>Unknownnoreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-25497131786632572362010-06-12T22:10:00.002+05:302010-11-24T14:19:48.363+05:30बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 2)सोनिया श्रृषिकेश से 70 कि.मी. आगे देवप्रयाग तक आ चुकी थी और मैं देवप्रयाग से लगभग 40 कि.मी. आगे श्रीनगर में होटल तलाश रहा था। <br /><br />देवप्रयाग में अलकनंदा नदी और भगीरथी- दोनों का संगम है। यहीं से इनकी धारा मिलकर गंगा कहलाती है। देवप्रयाग से श्रीनगर की तरफ मुड़ते ही बद्रीनाथ तक के सफर में अलकनंदा नदी ही मार्गदर्शिका थी! <br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TBLs5sXkcvI/AAAAAAAAAdY/Pk1YUjShI_4/s1600/DSCN7737.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TBLs5sXkcvI/AAAAAAAAAdY/Pk1YUjShI_4/s400/DSCN7737.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5481704172370031346" /></a><br />देवप्रयाग पहुँचने से पहले बोर्ड पर लिखी दूरियाँ- लोगों का हौसला तोड़ रही थी!<br /><br /><br />मैं और नीतिन-दोनों श्रीनगर के दो चक्कर काट आए। पर अंत में जी.एम.वी.एन.( गढ़वाल मंडल विकास निगम) के टूरिस्ट बंगले में खाने और रूकने का सही इंतजाम लगा।<br /><br /><br /><br /> बुधवार, करीब साढ़े बारह बजे तब दोनों गाड़ियॉं श्रीनगर आ गई। सबने पहले खाना खाया, उसके बाद ये तय किया गया कि सोनिया का यहॉं अकेले रूकना ठीक नहीं है, इसलिए वह बद्रीनाथ तक साथ चले। रही 'उलटी' की बात, दवाई और बाकी चीजें श्रीनगर से खरीद ली गई।<br /><br />करीब दो बजे हमारा काफिला श्रीनगर से आगे चल पड़ा। अगला मुख्य स्थल था- <strong>रूद्रप्रयाग</strong>। यहीं से एक रास्ता (एन.एच.109)ओखीमठ, गुप्तकाशी होते हुए <em>केदारनाथ</em> के लिए जाता है। सोनिया और इशान अब मेरे साथ मेरी कार में थे।<br /><br /> रूद्रप्रयाग से केदारनाथ का 75 कि.मी. का सफर तीन घंटे में पूरा किया जा सकता है, जबकि रूद्रप्रयाग से बद्रीनाथ करीब 165 कि.मी.दूर है और आगे <em>जोशीमठ</em> में एक समय-सीमा के बाद गाड़ियों को रोक दिया जाता है। मैंने ये बात सोनिया को बताई। <br /><br />- वैसे तो मैं यहीं से लौट जाना चाहती हूँ मगर केदारनाथ पास है तो वहीं चल पड़ो। क्या फर्क पड़ता है!<br />- फर्क बस उतना ही है जितना शिव और विष्णु में है। तुम्हारी जिधर श्रद्धा हो उधर चल पड़ो!<br /><br />वह चुप हो गई। शायद उसके मन में कम दूरी की वजह से शिवधाम केदारनाथ जाने का इरादा बन रहा था।<br /><br />- केदारनाथ के लिए गौरीकुंड से 14 कि.मी. पैदल चढ़ाई करनी पड़ती है- कहो तो चल पड़ूँ!<br />- नहीं-नहीं, फिर तो बद्रीनाथ ही ठीक है, कार वहॉं तक चली तो जाएगी न!<br />- ये तो कार पर निर्भर करती है, वैसे सड़क तो बद्रीनाथ से 4 कि.मी. आ्गे आखिरी गॉंव <strong>माना</strong> तक जाती है,जहॉं से आगे चाइना बार्डर है।<br />- अच्छा, तो क्या हम चीन के बिल्कुल नजदीक जा रहे हैं!!<br />- हॉं!<br />- वहॉं से हम कुछ चाइनिज सामान तो खरीद सकते हैं ना!!<br />- लगता है तबीयत ठीक हो रही है,खरीदारी के नाम पर तो तुम लोग I.C.U. से बाहर निकलने के लिए तैयार हो जाती हो!<br />- ऐसी बात नहीं है!<br />सोनिया ने मुस्कुराते हुए कहा।<br />- फिर ?<br />- अब तुम्हारे साथ हूँ ना, इसलिए तबीयत ठीक लग रही है!<br /><br /><br />रूद्रप्रयाग से 32 कि.मी. आगे<strong> कर्णप्रयाग</strong> आता है। नैनीताल की तरफ से आने वाली एन.एच 87 यहीं पर खत्म होती है। यहॉं से सड़क काफी चौड़ी हो गई थी और मैं यहॉं कार को औसतन 80 कि.मी. प्रति घंटे की गति से चलाने का जोखिम उठा रहा था। मेरे साथ समस्या ये है कि जब किसी मंजिल पर पहुँचना होता है तो मुझे बीच में न रूकना अच्छा लगता है न ही खाना-पीना।<br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TBL_mbK974I/AAAAAAAAAdg/a0Mxnv0yrBk/s1600/chipko.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 220px; height: 350px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TBL_mbK974I/AAAAAAAAAdg/a0Mxnv0yrBk/s400/chipko.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5481724732057186178" /></a><br />- तुम्हारा व्रत तो बद्रीनाथ में ही खुलेगा, पर हम दीन-हीन प्राणियों पर दया करो,कहीं गाड़ी रोको और नाश्ता-पानी कराओ, बच्चा भी साथ है।<br /><br />- कर्णप्रयाग से बस 16 कि.मी. ही दूर है चमोली। तुम्हे पता है इृस जगह की खासियत?<br /><br />- हॉं , 'कोई मिल गया' की शूटिंग यहॉं हुई थी।<br /><br />- गलत, यहीं से व्यापक स्तर पर 'चिपको आंदोलन' चलाया गया था।<br /><br /><br />अलकनंदा नदी सामने से इठलाती आ रही थी, मानो कह रही हो, जल्दी जाओ बद्रीनाथ, मैं वहीं से आ रही हूँ!! चमोली में हम आधे घंटे के लिए रूके। तब तक हौंडा सिटी और स्कॉर्पियो भी चमोली पहुँच चुकी थी।<br /><br /><br />चमोली से <strong>जोशीमठ</strong> की दूरी 58 कि.मी. रह गई थी। शाम के 5 बजनेवाले थे, पर जून के पहले हफ्ते में सूरज की तपीश अपने चरम पर थी। पहाड़ तो था, पर ठंड नहीं थी। कुछ लोग इस बात से परेशान थे कि उन्होंने गरम कपड़ो से अपने बस्ते का बोझ यूँ ही बढ़ाया! <br /><br />जोशीमठ पहॅुचने के बाद एक-दो जगह बैरियर लगा हुआ था,जहॉं से पुलिसवाले गाड़ियों को बायीं तरफ खड़ी करवा रहे थे। मुझसे चुक हो गई या फिर पुलिसवालों ने मुश्तैदी नहीं दिखाई, इसलिए मैं उस बैरियर की अनदेखी कर जोशीमठ से एक-दो कि.मी. बाहर निकल आया। मुझे संदेह तो था, इसलिए आगे एक पेट्रोल पंप पर टंकी फुल कराने के बाद पिछली गाड़ियों का इंतजार करने लगा।<br /><br />तभी शैलेन्द्र जी का फोन आया कि जोशीमठ में दोनों गाड़ियॉं रोक दी गई हैं,वापस आ जाओ, रात को यहीं हॉटल में रूकना पड़ेगा! मैंने तय किया कि अगर मैं अब बद्रीनाथ नहीं जा सकता, तो जोशीमठ से 15 कि.मी. ऊपर <strong>'औली' हिल स्टेशन</strong> में रात गुजारूँगा! सुबह वहॉं से उतरकर बाकी दोनों गाड़ियों के साथ बद्रीनाथ के लिए चल पड़ुँगा।<br /><br />-'आपको अभी रात में ही जाना है तो जाओ, कल सुबह 5 बजे हम सभी आपको वहीं मिलेंगे।'<br /><br />शैलेंद्र जी की इस बात से मैं शर्मिदा हो गया। बाद में पता चला कि औली में बस एक ही रिसौर्ट है और वहॉं जाने के लिए दो-तीन कि.मी. पैदल भी चलना पड़ता है।<br /><br />जोशीमठ में खाना खाते,बच्चे के लिए दूध आदि का इंतजाम करते-करते रात बारह बजे बिस्तर नसीब हुआ। कल सुबह बद्रीनाथ के लिए करीब 44 कि.मी. का सफर तय करना था, यह सोचते हुए मैं नींद के आगोश में चला गया।<br /><br />पिछली कड़ी पढने के लिए क्लिक करें -<br /><a href="http://jitjiten.blogspot.com/2010/06/blog-post.html">बद्रीनाथ- औली से वापसी(अंतिम कड़ी)</a><br /><a href="http://jitjiten.blogspot.com/2010/06/4.html">पर्वतों से आज में टकरा गया (भाग 4)</a><br /><a href="http://jitjiten.blogspot.com/2010/06/500.html">बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 3)<br /></a><a href="http://jitjiten.blogspot.com/2010/06/1.html">बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 1)</a>क्रमश:Unknownnoreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-68946579392123319852010-06-11T20:08:00.003+05:302010-11-24T14:22:16.075+05:30बद्रीनाथ : एक रोमांचक सफर (भाग 1)हरिद्वार में गंगा के घाट पर बैठा मैं सोच रहा था- कहॉं आज सुबह दिल्ली की गर्मी में अपने जरूरी काम को निपटा रहा था और अब कहॉं सारे काम छोड़कर कपड़े और पर्स आदि की रखवाली कर रहा हूँ। <br />शाम हो चली थी।<br />-'फुफा अब आप जाकर ड़ुबकी लगा आओ। सामान मैं देख लूँगा।'<br />रोहित ने तौलिया उठाते हुए कहा।<br />मैं अपने तीन वर्षीय बेटे इशान को लेकर डुबकी लगा आया। पानी पहले तो ठंडा लगा फिर बाद में ठीक लगने लगा। इशान पहले तो गंगा की लहरें देखकर तैरने की जीद कर रहा था पर पानी में उतरते ही चीखें मारकर रोने लगा। अपने मामा नीतिन के साथ वह जल्दी ही बाहर आ गया।<br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TBJPXn1yg1I/AAAAAAAAAdI/5F0V_KaYaxA/s1600/Haridwar_Uttarakhand,_India.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 258px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TBJPXn1yg1I/AAAAAAAAAdI/5F0V_KaYaxA/s400/Haridwar_Uttarakhand,_India.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5481530963713491794" /></a><br /><br />खैर, गंगा स्नान सम्पन्न हुआ। सम्पन्न इसलिए कि मेरे ससुराल पक्ष में इस स्नान के लिए महिनों से कार्यक्रम बन रहा था। मंगलवार की यह रात हरिद्वार के एक होटल में कटी। <br />अगली सुबह तीनों गाड़ियाँ आगे की यात्रा के लिए तैयार हो गई। मैं एसेंट चला रहा था, जो बिल्कुल नई थी - मात्र 3000 कि.मी. चली हुई। यात्रा से एक दिन पहले ही नीतिन ने यह गाड़ी अपनी छोटी बहन से माँग ली थी। दूसरे की गाड़ी चलाते हुए मैं वैसे ही हिचकता हूँ और यदि नई गाड़ी हो तो यह हिचक और भी बढ़ जाती है। सुरक्षित आने-जाने के साथ-साथ उसे डेंट से बचाने की चिंता तो रहती ही है।<br />पहले मेरा इरादा था कि इनोवा बुक करा लेते हैं, पर उसके लिए लगभग 18 हजार का खर्च आ रहा था, और वे सात दिन का वक्त ले रहे थे। हम सभी का सिड्यूल बहुत टाइट था इसलिए मंगलवार (1 जून 2010) चलकर शुक्रवार को ही दिल्ली लौटने की असंभव समय-सीमा तय की गई थी।<br />1) मंगलवार- दिल्ली से हरिद्वार 250 कि.मी. (मैदानी रास्ता)<br />2) बुधवार - हरिद्वार से बद्रीनाथ 350 कि.मी.(पहाड़ी रास्ता)<br />3) वीरवार - बद्रीनाथ से हरिद्वार <br />4) शुक्रवार - हरिद्वार से दिल्ली।<br /><br /> यही कारण है कि तीनों परिवार अपनी-अपनी गाड़ियों में चल पड़े। <br /><br />(नोट: दिल्ली से पानीपत का रास्ता (एन.एच 1)एकदम मस्त है, थोड़ी दिक्कत अलिपुर के आसपास जाम में आती है। पानीपत में फ्लाइओवर के नीचे से दाई तरफ कैराना, शामली होते हुए मुजफ्फरनगर आता है और वहीं से हमें मेरठ की ओर से आनेवाली नेशनल हाईवे 58 मिल जाती है। जी हॉं, ये वही हाइवे है जो हमें हरिद्वार, देवप्रयाग, श्रीनगर, रूद्रप्रयाग,कर्णप्रयाग,चमोली, जोशीमठ होते हुए बद्रीनाथ तक ले जाती है।) <br /><br /> श्रृषिकेश के बाद पहाड़ी रास्ता शुरू हो जाता है। पहाड़ी रास्तों पर ड्राइविंग करना मेरा पैशन है। पर यह कुछ यात्रियों के लिए बुरा अनुभव होता है। मैं जब श्रृषिकेश से देवप्रयाग होते हुए श्रीनगर तक का सफर कर चुका था, तब तक इस कार में बैठे पॉच यात्रियों में से चार लोग 'उल्टी' गंगा बहा चुके थे। सिर्फ मैं ही बचा था और पहाड़ी रास्ते और गंगा की तेज धार के साथ कार चलाने का आनंद ले रहा था। ये भी अजीब संयोग हुआ कि सोनिया (मेरी पत्नी) अपने मौसेरे भार्इ शैलेन्द्र जी के साथ हौंडा सिटी में बैठी थी और इशान मेरे साथ। हौंडा सिटी अच्छी कार है मगर कुछ नीची होने की वजह से उसे ब्रेकर और ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर बहुत धीरे-धीरे निकालना होता है। <br />जब मैं दोपहर 11 बजे तक श्रीनगर तक पहुँचा तब मेरे मोबाइल नेटवर्क ने काम करना शुरू किया। घंटी बजी, फोन उठाया तो उधर से गुस्से से भरी आवाज आई-<br />-कहॉं पहुँच गए ?<br />-श्रीनगर, और तुम लोग ?<br />-इतनी जल्दी है पहुँचने की तो परिवार के साथ आने की जरूरत क्या थी !! मुझे और भाभी को कई बार उल्टी आ चुकी है और तुम्हारा फोन भी नहीं लग रहा था!<br />मैंने पूछा- अभी कहॉं तक पहुँचे हो?<br />-मैं देवप्रयाग में ही होटल लेकर रूक रही हूँ! तुम और बाकी लोग बद्रीनाथ हो आओ! उधर से लौटोगे मैं यहीं मिलूँगी। <br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TBJQUr0TnSI/AAAAAAAAAdQ/_EVn3zn-xTk/s1600/1168350468_devprayag.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 274px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/TBJQUr0TnSI/AAAAAAAAAdQ/_EVn3zn-xTk/s400/1168350468_devprayag.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5481532012753034530" /></a><br /><br />यह सुनकर मैं हैरान रह गया! सफर का जोश पल भर में गायब हो गया और जो अब तक महसूस नहीं हो रहा था, अचानक वो थकान भी मुझे ग्रसने लगा। मेरा घुटना जकड चुका था और कमर भी अकड़ चुका था। सोनिया के साथ मैं अमरनाथ जैसी कठिन यात्रा कर चुका हूँ। उसके बाद से ही उसने तय कर लिया था कि वह आगे से पहाड़ी यात्रा कभी नहीं करेगी। वह इस यात्रा में यही सोचकर आई थी कि सभी लोग हरिद्वार से ही दिल्ली लौट जाऍगे। <br /> अंतत: यह तय हुआ कि देवप्रयाग की बजाए श्रीनगर में रहने की व्यवस्था अच्छी है, इसलिए पहले सभी वहॉं इकटठे होंगे। मेरे पास एकाध घंटे का समय था, जिसमें मुझे बीमार लोगों के लिए हॉटल ढूँढना था।<br /><br /> क्रमश:<br /><br />(पहाड़ो पर ड्राइविंग करने का अलग ही आनंद है (और खतरा भी) मगर नुक्सान ये है कि आप न पहाड़ देख सकते हैं न ही नदी, अपनी निगाहों को सिर्फ सड़क पर गड़ाए रखनी पड़ती है। सबसे बुरी बात तो ये है कि आप कैमरे में इन दृश्यों को कैद नहीं कर पाते! ऊपर की तस्वीरें गूगल से साभार)<br />अन्य कड़ियॉं-<br /><a href="http://jitjiten.blogspot.com/2010/06/blog-post.html">बद्रीनाथ- औली से वापसी(अंतिम कड़ी)</a><br /><a href="http://jitjiten.blogspot.com/2010/06/4.html">पर्वतों से आज में टकरा गया (भाग 4)</a><br /><a href="http://jitjiten.blogspot.com/2010/06/500.html">बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 3)</a><br /><br /><a href="http://jitjiten.blogspot.com/2010/06/2.html">बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 2)</a>Unknownnoreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-42954342874446521862010-05-04T22:01:00.008+05:302010-05-05T00:00:34.030+05:30उफ् बुढ़ापा हाय जवानी.........तुम्हें नजर नहीं आता, इस सीट के ऊपर क्या लिखा है!!<br />-इस तीखी आवाज को सुनकर मेट्रो ट्रेन में अचानक सन्नाटा छा गया। सभी का ध्यान उस बूढे की तरफ गया जो उस गरीब-से नौजवान को दहकती ऑंखों से घूर रहा था। उसके बगल में एक बूढ़ा सरदार बैठा था-<br />हुण् माफ कर दो, मुंडा नादान है। उन्नानू त्वानू सीट तो देत्ती।<br /><br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/S-A7Jmk3qaI/AAAAAAAAAcw/p8dLloBDotA/s1600/Image012.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/S-A7Jmk3qaI/AAAAAAAAAcw/p8dLloBDotA/s400/Image012.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5467434983787833762" /></a>बूढे ने नौजवान को डॉटते हुए कहा-'विकलांग' से पहले क्या लिखा है, वह तुम्हें नजर नहीं आता!<br />-मुझे पढ़ना नहीं आता!<br />इस बात पर बूढ़े को जैसे भरोसा नहीं हुआ और वह लगभग चिल्लाने लगा-<br />-तुम्हें पता है, अगर मैं चाहूँ तो अगले ही स्टेशन पे पुलिस में एरैस्ट करवा सकता हूँ, साथ ही तुम्हें 200 रूपये का जुर्माना भरना पड़ सकता है।<br />-मेरे पास टिकट है!<br />-तो क्या तू कहीं भी बैठ जाएगा!बता?<br />पतला-दुबला-सा नौजवान,जिसके चेहरे पर लंबी उम्र के मुँहासे जगह-जगह भरे हुए थे, उसने सकपकाते हुए कहा-<br />-बूढ़े और विकलांग की सीट पर तबतक तो कोई भी बैठ सकता है जबतक कोई बूढ़ा या विकलांग आकर सीट न मॉंगे।<br />इसपर बूढे ने कहा-<br />-तो तू इस तरह कैसे बोल रहा था कि पैर तो ठीक नजर आ रहे हैं!!<br /><br /><br />मेट्रो में खड़ी कुछ अल्हड़ लड़कियॉं उनकी बहस सुनते हुए मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं और बेबात मुस्कुरा देने की अपनी छवि से बाहर नजर आ रही थी। उनके अलावा मुझ जैसे कई जवान इस तरह गंभीर बने हुए थे कि ये बूढ़ों की लड़ाई नहीं, मैदान में खेलते हुए बच्चों की चिक-चिक है, इसलिए इसमें पड़ना बेकार है।<br />दूसरे लोगों ने उस नौजवान से कहा कि वह मेट्रो के अगले दरवाजे की तरफ बढ़ जाए। <br />वह बूढ़ा गुस्से में बड़बड़ा रहा था-<br />-तुमने इस देश के लिए किया क्या है?<br /> वह नौजवान भी बड़बडाते हुए उस जगह से आगे बढ़ गया कि-<br />मैंने तो झक मारी है पर 'तुमने' इस देश के लिए क्या किया है?<br />बाकी यात्रियों को यह समझ नहीं आया कि सीट न देने पर यह सवाल कहॉं उठता है कि उसने देश के लिए किया क्या है।<br />किसी ने हवा में एक बात उछाली-<br />सीट दे दो भाई,आजादी की लड़ाई में गॉंधी के पीछे यही तो खड़े थे!<br />इस पर बूढे को और गुस्सा आ गया-<br />बततमीजी की भी एक हद होती है, नौजवानों की इस पीढ़ी को भविष्य में उसके बच्चे ही बेघर, बेसहारा करके छोड़ेंगे।<br />भीड़ में से किसी ने चुटकी ली-<br />-लगता है आपको इसी दौर से गुजरना पड़ रहा है!<br />बूढ़े सरदार ने उसे समझाया-<br />क्यों एक सीट के पीछे अपनी मटिया पलित करने पर तुले हो। वह लड़का तो चला गया जिसे सुनाना था।<br />उस बूढे का गुस्सा और भड़क गया-<br />आप और उसका साथ दे रहे हो!! यू डोन्ट लिसन वाट ही सैड- 'पैर तो सही नजर आ रहा है।'<br />सच ए नॉनसेंस पीपल थ्रोइंग दिस कंन्ट्री इन टू दी हेल, यू नो वैरी वेल!!<br /><br />बूढ़ा सरदार बोला- बट यू डॉन्ट आस्क फॉर द सीट इन प्रोपर मैनर! अंदर आते ही आपने उसके कंधे को पकड़कर ऐसे उठाया जैसे चोरी करके आया हो!<br />तभी दूसरी तरफ से किसी बूढे व्यक्ति की आवाज आई- .... कोई और होता तो ऐसा कहने पर वह उसे एक थप्पड़ जड़ देता!<br /><br />पीड़ित बूढे को यह बात समझ नहीं आई-<br />थप्पड़ कैसे जड़ देता! आपसब लोग अगर गलत का साथ दोगे तो इसी तरह ये नौजवान लड़के सर पर चढ़कर पेशाब करेंगे!<br />-अरे भाई मैं आप ही के फेवर में बोल रहा हूँ कि आपको उसे एक थप्पड़ जड़ना था। पर अब जिसे सुनाना था, वह तो पिछले स्टॉप पर उतर गया!<br /> बूढ़ा बड़बड़ाता रहा-<br />कहता है पढ़ना नहीं आता, ऊपर इशारे कर कैसे बता रहा था कि यहॉं विकलांग लिखा है, वृद्ध नहीं!<br />लोगों को इस बहस से मनोरंजन होने लगा था और वह उस बूढ़े की तरफ इस तरह देख रहे थे कि देखें अब यह क्या कहता है!<br /><br /> <a href="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/S-A7jwxV1KI/AAAAAAAAAdA/BBvlJ3w-XJA/s1600/Image016.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 300px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/S-A7jwxV1KI/AAAAAAAAAdA/BBvlJ3w-XJA/s400/Image016.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5467435433201095842" /></a><br />पॉंच मिनट के बाद दूसरे स्टेशन पर वह बूढ़ा भी उतर गया। भीड़ छट गई थी और मेरे सामने वो सीट खाली थी, जिसके लिए अभी दस मिनट पहले इतना तमाशा हुआ था......। <br /><br />मैंने सीट के ऊपर लिखी ईबारत को गौर से पढा-<br />हिंदी में लिखा था- 'वृद्ध एंव विकलांगों के लिए' <br />जबकि अ्ंग्रेजी में लिखा था- 'FOR OLD <strong>OR</strong> PHYSICALLY CHALLENGED'। <br /><strong>अंग्रेजी</strong> की माने तो उस सीट पर या तो वृद्ध बैठेगा या विकलांग जबकि <strong>हिंदी</strong> के अनुसार वह सीट दोनों के लिए है। '<strong>एंव</strong>' तथा '<strong>OR</strong>' के फर्क को मेट्रोवालों ने क्यों नहीं सोचा? <br /><br />खैर, प्लेटफार्म की लिफ्ट से नीचे उतरते हुए एक बूढ़े व्यक्ति ने मुझे ऐसे देखा, जैसे पूछना चाह रहा हो-<br />सीढियॉ खराब हो गई हैं क्या.........???Unknownnoreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-30363437218595871202010-05-01T12:12:00.006+05:302010-05-01T13:26:29.348+05:30लैंसडाउन....... फिर कभी :('जितेन, मेरी कार का शीशा फूट गया है, मैं नहीं जा सकूँगा!'<br />विजय ने जैसे दो टूक फैसला सुना दिया।<br />मैंने कहा-<br />-जाना तो सरबजीत के कार से है, तब तक के लिए तू अपने कार पर कवर चढाकर चल पड़!<br /><br />-नहीं, मेरा मूड ऑफ हो गया है! कल किसी बच्चे ने कुत्ता भगाने के चक्कर में एक पत्थर मेरी कार को दे मारा! <br />इंश्यारेंसवाले को दस दिन से कह रहा था, पेपर तैयार करा दे-करा दे, पर अब क्या होगा, बैठे-बिठाये 6 हजार का चूना लग गया!<br /><br />यह सुबह की बात थी, तब तो मैंने उसे मना लिया था कि जो फूटना था, वो तो फूट चुका, अब सब लोग जब तैयार बैठे हैं, मना मत कर!<br />शाम होते-होते मैं अपना बैग लेकर तैयार हो गया। मेरा भाई मुझे विजय के पास ड्रॉप करने के लिए साथ चल पड़ा। अंधेरा होने लगा था और आसमान भी साफ था कि तभी तेज हवाओं के साथ ऑंधी आ गई और कार के शीशे पर बूँदे पड़ने लगी। मौसम का ये बदला मिजाज कुछ अच्छा नहीं लगा! मेरी पत्नी बिल्कुल ही नहीं चाह रही थी कि इसबार मैं इस टूर पर जाऊॅ। और इस तूफान में मुझे निकलते देखकर वह न जाने क्यों, चुप रह गई। विजय ने जाने के लिए हामी तो भर दी थी, लेकिन शायद अजमेर से भाभी के रिश्तेदार इस बीच दिल्ली आने वाले थे,इसलिए वह भी आरंभ में थोड़ा विचलित था। <br /><br />मैंने विजय को फोन लगाया-<br />मैं मार्केट में हूँ,सफर के लिए कुछ खरीदना है तो बता!<br />उधर से सुस्त-सी आवाज आई-<br />दो मिनट के लिए पहले घर आ जा!<br />यह कहकर उसने फोन काट दिया या शायद कट गया....<br /><br />मैंने दुबारा फोन किया-<br /> मार्केट दुबारा आया नहीं जाएगा, सुबह चार बजे निकलना है फिर जरूरी सामान कब खरीदोगे!<br />तू एकबार घर आ तो सही, सरबजीत के पापा के पेट में तेज दर्द उठा है! <br />- यह कहकर उसने फोन काट दिया।<br /><br />बूँदें तेज हो गई। वाइपर चलने के साथ मेरे दिमाग में सफर का ख्याल मिटने-सा लगा। मेरे हफ्ते-भर की तैयारी खटाई में पड़ने वाली थी। तैयारी भी क्या थी, बस मानसिक रूप से जाने के लिए पूरी तरह बेचैन था।<br /><br /> विजय का घर आ गया था, मैंने डोरबेल बजाने से पहले उसके कार के शीशे को चेक किया। शीशा वाकई फूटा हुआ था लेकिन इतना नहीं कि उसे बदलवाने की जरूरत पड़े! ये जरूर था कि इंश्योरेंस कराने में अब दिक्कत आती। जब अंदर कमरे में आया तो विजय किचन में खाना बना रहा था। तैयारी के नाम पर कहीं कुछ भी बिखरा हुआ नहीं था। मैंने महसूस किया कि ऐसी हालत में अपने गुस्से को कैसे काबू करना चाहिए! <br />मुझे कुछ-कुछ अंदेशा तो हो ही चुका था, इसलिए मैंने अपने भाई को वापस भेजा नहीं कि शायद घर लौटना पड़े। हम दोनों विजय के कमरे में यूँ ही बैठे हुए थे।<br /> थोड़ी देर में विजय किचन से आया और सरबजीत को फोन लगाकर पूछा-<br />चलना है या नहीं, जितेन आकर बैठा हुआ है......... <br />यह कहता हुआ विजय अपनी बाल्कनी की तरफ चला गया। <br /><br />विजय ने आकर बताया कि सरबजीत के पापा को अभी दर्द का इंजेक्शन दिया गया है, अगर दस मिनट में हालत सुधरती है तो सरबजीत चल पड़ेगा अपनी गाड़ी लेकर!<br /><br />पॉंच मिनट तब मैं सकते में बैठा रहा, फिर अपने भाई को बोला-<br />चलो घर चलते हैं। सरबजीत के पापा अगर दस मिनट में ठीक हो भी गए और जाने के बाद दुबारा दर्द उठा तो उसके जिम्मेदार हम सब होंगे। वैसे भी सरबजीत उनका इकलौता लड़का है, उन्हें पड़ोसी के सहारे छोड़कर घूमने जाने की बात शर्मनाक है!!<br />विजय ने ये सब सुना, पर बोला कुछ नहीं। <br /><br />मैं बारिश की बूँदो को देखता हुआ घर आ गया। सिरदर्द में अब तक आराम नहीं हुआ था हालॉकि मौसम बहुत सुहाना हो चुका था। जिस चीज को पाने के लिए मैं दिल्ली से बाहर जाना चाहता था, अब वह यहीं नजर आ रहा था.......... अपने दिल को और कैसे तसल्ली देता........ सोच रहा हूँ सरबजीत के पापा से मिलने कल जाऊँगा।<br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/S9vT67jH4iI/AAAAAAAAAco/1YfQMTtSUJM/s1600/broken-glass-3.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 250px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/S9vT67jH4iI/AAAAAAAAAco/1YfQMTtSUJM/s400/broken-glass-3.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5466195582115111458" /></a><br /> (शीशा हो या दिल हो, आखिर.....)<br /><br />अंतर सोहिल,नीरज जाट,मुनीश जी,सुजाता जी और मुन्ना पांडेय ने मेरे सफर का जो खाका तैयार कर दिया था, <br /> मुझे अफसोस है कि मैं अमल नहीं कर पाया! मैं इन सबका आभार व्यक्त करता हूँ और महसूस करता हूँ कि ऐसे इवेंट पर ब्लॉग कितने काम की चीज होती है! बाकी सब लोगों ने जो शुभकामनाऍं दी हैं, उन्हें मैं वापस नहीं करूँगा और जल्दी ही दुबारा जाने का प्रोग्राम बनाऊँगा!Unknownnoreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-86754282431290789672010-04-27T14:02:00.008+05:302010-04-27T15:36:20.675+05:30लैंसडाउन! मैं आ रहा हूँ...........सफर के नाम पर ही मैं रोमांच से भर जाता हूँ! अभी-अभी नीरज जी मुंबई के पास का एक <a href="http://ngoswami.blogspot.com/2010/04/blog-post_26.html">हिल स्टेशन 'माथेरान'</a> घूमकर आए हैं। पिछली बार<a href="http://jitjiten.blogspot.com/2009/06/blog-post.html"> मसूरी यात्रा वाली पोस्ट </a>पर अनुराग जी ने लैंसडाउन का जिक्र किया था। उसके बाद से मैं अपने एकमात्र यायावर दोस्त विजय की हामी का इंतजार कर रहा था जिसे साल में सिर्फ एक बार मई में ही फुर्सत मिलती है। फुर्सत इसलिए कि उसकी बीवी, यानी मेरी भाभी जी बच्चे को लेकर मायके (अजमेर) चली जाती है:)<br /> डिजलवाली इंडिका का इंतजाम हो चुका है। उसकी लाइट, ब्रेक,टायर आदि चेक करवाई जा रही है। विजय ने साफ-साफ कह दिया है कि खर्चा ज्यादा नहीं होना चाहिए! और ये भी कि पास के हिल स्टेशन पर जाना है और दो दिन में लौट आना है। मैंने कहा दो दिन में कुछ भी देखा नहीं जाएगा और इस बार नई जगह जाना है तो रहने-खाने का कुछ सिस्टम पता भी नहीं है। इसलिए न खर्चे की लिमिट बता सकता हूँ और न ही दिन की!<br />मिला-जुलाकर मैंने विजय और बाकी तीन और सहयात्रियों को सहमत करा लिया है कि सफर में दो नहीं चार-पॉंच दिन लग सकते हैं। 1 मई की सुबह चलेंगे और 5 मई की शाम तक दिल्ली वापस। विजय ने तीन सहयात्री इसलिए लिया है कि सफर का मजा चार गुना किया जा सके, साथ ही खर्चे पॉच हिस्से में बॉंटा जा सके। अब मैं ये नहीं बता सकता कि विजय के लिए इसमें पहला कारण महत्वपूर्ण है या दूसरा:)<br /><br /> डलहौजी,खज्जियार, धर्मशाला , मैक्लॉडगंज, मनाली की दूरी की वजह से और मसूरी शिमला, नैनीताल से बोर होने के बाद, और अनुराग जी के सुझाव पर इसबार लैंसडाउन जाने का रिस्क ले रहा हूँ:)<br />जब ऐसी जगह जाना होता है तो मैं सबसे पहले <a href="http://maps.google.co.in/?ie=UTF8&ll=29.987055,78.487701&spn=0.573318,1.400757&z=10">गूगल मैप (लिंक के लिए क्लिक करें)</a> से रास्ते और दूरियाँ पता करता हूँ।<br /><br />सफर का रूट:<br />क) दिल्ली-पानीपत-शामली-मुजफ्फरनगर- रूड़की- हरिद्वार<br /> ऋषिकेश- देवप्रयाग- श्रीनगर<br />ख) श्रीनगर- खिरसू-पौड़ी-लैंसडाउन<br />ग) लैंसडाउन- दुगादा- कोटद्वारा-नजीबाबाद -बिजनौर- मवाना- मेरठ- दिल्ली<br /><br />खाना खाते हुए मैं हमेशा ध्यान रखता हूँ कि सबसे स्वादिष्ट चीज अंत में खाउँ ताकि उसका स्वाद खाने के बाद भी बना रहे। इसी आधार पर अब मेरे मन में उलझन ये है कि मैं दिल्ली की ओर लौटते हुए ऋषिकेश-पानीपत की तरफ से आउँ या लैंसडाउन-मेरठ की तरफ से। मैंने अपने दोस्तों से पूछा कि वे पहले नदी की घाटियों से गुजरकर हिल स्टेशन जाना चाहेंगे या इससे ठीक उलटा रास्ता तय करेंगे। उन्होंने मेरे ऊपर छोड़ दिया है और अब यह जिम्मेदारी ही मेरी समस्या है। यदि सफर का रास्ता मजेदार नहीं रहा तो सब दिल्ली लौटकर मुझे गालियॉं देंगे:(<br /><br />पौड़ी से एक रास्ता श्रीनगर की तरफ जाता है, पर मैंने एक और हॉल्ट तय किया है- खिरसू। सुना है वह भी एक सुंदर हिल स्टेशन है। अब वहॉं जाकर ही पता चलेगा कि वह जगह कैसी है?<br />लैंसडाउन की तरफ से खिरसू आना हो तो-<br />क) लैंसडाउन- गुमखल- सतपुली-बानाघाट-मोहर-पौड़ी<br />ख) पौड़ी- बाबूखल-फरकल-चौबाटा- खिरसू<br /><br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/S9ac13tpd2I/AAAAAAAAAcQ/nR7BYgYJ6TQ/s1600/pauri+khirsu+route+30+km.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 272px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/S9ac13tpd2I/AAAAAAAAAcQ/nR7BYgYJ6TQ/s400/pauri+khirsu+route+30+km.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5464727647163086690" /></a>(मैप को बड़ा करने के लिए कृप्या उसपर क्लिक करें)<br /><br /><br />गूगल अर्थ से मैंने पौड़ी- खिरसू-श्रीनगर का रूट-मैप तैयार करने और रास्ता तलाशने की कोशिश की, पता नहीं ये सही भी है या नहीं -<br />खिरसू-कोठसी-मारकोला-बुधानी<br />बुधानी से दो रूट नजर आया-<br />क) श्रीनगर हाइवे 58 पर<br />ख) सुमारी- खल्लू- चमरडा- खंडा- श्रीनगर <br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/S9ac2U8CzNI/AAAAAAAAAcY/X8yLCoXzLCI/s1600/srinagar+-khirsu+20+km.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 272px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/S9ac2U8CzNI/AAAAAAAAAcY/X8yLCoXzLCI/s400/srinagar+-khirsu+20+km.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5464727655008095442" /></a><br /><br />अभी ये सफर का ड्राफ्ट भर है। इसमें दर्शाए गए मार्ग की सत्यता मेरे द्वारा प्रमाणित नहीं है क्योंकि मैं एक तरफ ऋषिकेश तक गया हूँ, दूसरी तरफ मेरठ तक। मेरठ से लैंसडाउन तक और ऋषिकेश से श्रीनगर-पौड़ी-खिरसू तक के रास्ते के बारे में मुझे कुछ पता नहीं है। अगर इस रूट के बारे में आपको कुछ पता हो तो जरूर बताएँ- जैसे, सही रास्ता क्या है/ सड़कें कैसी हैं/ आसपास देखने की और कोई जगह/ रूकने और खाने की सही जगह। बाकी जब मैं उधर से लौटुँगा तब इस सफर के अनुभव और रास्ते की स्थिति का ब्योरा दूँगा।<br />तो बोलिए हैप्पी जर्नी:)Unknownnoreply@blogger.com20tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-50468643326930399802010-04-23T09:09:00.006+05:302010-04-23T09:33:46.845+05:30टक-टक.............मोबाइल पर मुझे होल्ड पर रखकर वो किसी से कह रही थी-<br />'रख लो बाबा, कोई बात नहीं।'<br />पीछे सब्जी-मंडी का शोर मुझे सैलाब-सा लग रहा था-<br />टमाटर तीस-टमाटर तीस-टमाटर तीस<br />गोभी बीस-प्याज बीस<br />धड़ी सौ-धड़ी सौ.......... <br />मैंने चिल्लाकर कहा-<br /> -मेरा बी.पी. लो हो गया है, वहॉं से जल्दी निकलो!!<br />यह कहकर मैंने फोन काट दिया।<br /><br />स्ट्रीट लाइट के नीचे मैंने कार के लिए किसी तरह जगह बनाई। बंद कार में मेरा दम घुट रहा था और बाहर शोर, प्याजनुमा बदबू के साथ मिलकर वातावरण में पूरी तरह फैला हुआ था। एकदम भड़भडाता-सा बाजार अपने लौ में बहा जा रहा था। वहॉं सभी लोग किसी-न-किसी काम में व्यस्त थे-कहीं लोग गोल-गप्पे खा रहे थे, कहीं लोग मोल-भाव में जुटे थे,कोई खाली नहीं था..... सिवाये मेरे।<br />' सब्जी अकेले जाकर लाया करो, न मुझे भीड़ अच्छी लगती है न इंतजार!' <br />'कॉफी पिओगे'- उसने मुस्कुराकर पूछा।<br />-'इस मंडी में तुम मुझे कॉफी पिलाओगी'<br />सी.सी.डी.* भी चल सकते हैं।<br />-माफ करो, वहॉं की महंगी काफी से घर की दाल भली। तुम फिजूलखर्ची बंद करो, अब मैं पैसे का हिसाब लेना शुरू करूँगा।<br />मेरे पतिदेव,कॉफी 'लो बी.पी.' को कंट्रोल करती है, इसलिए कह रही हूँ'<br />-उसने अपने रूमाल से मेरे सर का पसीना पोंछ दिया।<br /><br />मैंने ड्राइव करते हुए पूछा-<br />फोन पर किसी बाबा से बात करते सुना, कोई भीखारी था क्या?<br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/S9EaIum1ARI/AAAAAAAAAb4/GI3DxK7PyfQ/s1600/Poor_Man__s_Santa_by_phatpuppy.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 300px; height: 400px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/S9EaIum1ARI/AAAAAAAAAb4/GI3DxK7PyfQ/s400/Poor_Man__s_Santa_by_phatpuppy.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5463176560229286162" /></a><br /><br />-नहीं, एक बूढ़ा बाबा था। मैं आम खरीद रही थी तो देखा कि वह बूढ़ा बाबा एक आम हाथ में लिए दुकानदार से पूछ रहा है ये एक आम कितने का है?<br />दस रूपये!<br />यह कहकर दुकानदार दूसरी तरफ व्यस्त हो गया।<br />उसने दबी हुई आवाज से कहा- <br />पॉंच रूपये में दोगे?<br />दुकानदार ने सुना नहीं तब उसने दुबारा कहा, तब भी दुकानदार तक उसकी आवाज पहुँची नहीं या उसने जानबूझकर अनसुना कर दिया। वह थोड़ी देर तक हाथ में आम को देखता रहा और वापस आम के ढेर पर रखकर आगे चल पड़ा।<br />गाड़ी रेडलाइट पर आकर खड़ी हो गई। कार के शीशे पर सिक्के से किसी ने जोर से टक-टक की आवाज की। मैंने घूरकर उस लड़की की तरफ देखा जिसकी गोद में एक मरियल-सा बच्चा टंगा पड़ा था। मेरी बेरूखी देखकर वह दूसरी कार की तरफ बढ़ गई।<br />कार चलते ही मैंने पूछा-<br />बूढ़े बाबा की बात पूरी हो गई?<br />नहीं, जब मैंने देखा कि वह बाबा बड़ा मायूस होकर आगे चला गया तो मुझे बहुत तकलीफ हुई।<br />मैंने दुकानदार से कहा कि उस बाबा को बुलाओ और दो किलो आम तौलकर दे दो। पैसे मुझसे ले लेना।<br />दुकानदार तपाक से उसे बुला लाया। बाबा ने मुझसे कहा कि मुझे इनमें से सिर्फ दो ही आम चाहिए, मेरे पोते को आम बहुत पसंद है पर मेरे पास सिर्फ पॉंच रूपये ही थे।<br />मैंने कहा- बाबा आप सारे आम ले जाओ। बाबा ने जैसे अहसान से दबकर आभार जताया। तभी तुम्हारा फोन आया और तुम बड़बड़ कर रहे थे।<br />मुझे क्या पता था कि तुम आम बॉट रही हो! <br />मैंने उसके चेहरे की तरफ देखा, उसके चेहरे पर सकून की एक आभा चमक रही थी।<br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/S9EYXjf340I/AAAAAAAAAbw/aUxNZaqdmS0/s1600/beggars-in-india.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 187px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/S9EYXjf340I/AAAAAAAAAbw/aUxNZaqdmS0/s400/beggars-in-india.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5463174615922107202" /></a><br />अगली रेडलाइट पर कार की खिड़की पर फिर टक-टक की आवाज हुई........<br />लेकिन तबतक ग्रीन लाइट हो चुकी थी।<br /><br />* सी.सी.डी.= cafe coffee day<br />(चित्र गूगल से साभार)Unknownnoreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-12556658171327403442010-04-03T10:01:00.000+05:302010-04-03T10:01:34.442+05:30शहर के चौक पर टखना सिंहटखना सिंह ने अपने दोस्त करेजा से पूछा-<br />मुझे शहर जाना है हर संडे!<br />करेजा सिंह लगभग हर संडे हास्टल से भागकर फिल्म देखने शहर जाता था और कभी पकड़ा भी नहीं गया।<br />क्या फिल्म देखनी है?<br />नहीं!<br />किसी रिश्तेदार के घर जाना है?<br />नहीं!<br />किसी लड़की से मिलना है क्या?<br />अरे नहीं भाई!!<br />उसे कोई बहाना भी नहीं सूझ रहा था कि क्या कहे! उसने ये कहकर टाल दिया कि बाद में बताऊँगा।<br />उस हॉस्टल का कानून हॉस्टल-परिसर से बाहर जाने की इजाजत नहीं देता था। टखना सिंह तब दसवीं क्लास का छात्र था और उसके उपर इसका भी काफी दबाव था। <br /><br />शहर के चौक पर टखना का यह पहला संडे था। वह एक लाचार बुढिया को तलाश रहा था जिसे वह रास्ता पार करा सके। वह एक ऐसे भूखे-गरीब को तलाश रहा था जिसने दस दिन से कुछ न खाया हो। दो-चार भीखारी उसे मिले पर टखना को उनपर विश्वास नहीं हुआ। <br /> सुबह का एक घंटा इसी तलाश में निकल गया। फिर उसने सोचा कि किसी रिक्शेवाले की मदद कर दे। दो चार रिक्शेवाले गुजरे भी लेकिन उनके रिक्शे पर कोई वजनदार सामान भी नहीं रखा था। दोपहर होते-होते वह निराश हो चला था कि तभी एक रिक्शे पर उसे भारी-भरकम सामान नजर आया। वह भागकर उसके पीछे पहुँचा और धक्का लगाने लगा। रिक्शेवाले ने रिक्शे का ब्रेक लगा दिया और पीछे मुड़कर चिल्लाया-<br />अबे कौन है बे, क्या निकाल रहा है कट्टे से??<br />टखना ने सकपकाकर कहा<br />- कुछ निकाल.. नहीं रहा.., मैं तो वजन देखकर.. आपकी मदद के लिए... आया था।<br />-भाग जा यहॉं से, मदद के नाम पे चले हैं चोरी करने!<br /><br />चौक पर आते-जाते दो-चार लोगों ने चोरी की बात सुनी। आज संडे था और सब लोग किसी शगूफे की तलाश में थे।<br />तभी उस चौक का एक दुकानदार आकर बोला- <br />-यह लड़का सुबह से मेरी दुकान के आगे न जाने किस मतलब से खड़ा था। मुझे भी शक है इस पर। <br /><br />बात हो ही रही थी कि किसी ने उसे एक थप्पड़ जड़ दिया। किसी ने बढकर कॉलर पकड़ लिया। <br />तभी एक आदमी भीड़ चीरकर उस तक पहुँचा और बोला-<br />-अरे टखना, तू यहॉं क्या कर रहा है?<br />-मास्टर जी मुझे बचाइए!!<br />मास्टर जी ने सबको समझा-बुझाकर वहॉं से भेजा और टखना का कान पकड़कर स्कूल ले आए। <br />उसके बाद टखना ने उस किताब को जला दिया जिसमें लिखा था-<br />किसी की नि:स्वार्थ भाव से मदद करो तो जो आत्मिक खुशी मिलती है- उसे बयॉं करना आसान नहीं!! <br />टखना को लगा कि इस अनुभूति को भी बयॉं करना आसान नहीं है। उसने समझ लिया कि हर दिन या कम से कम हर संडे किसी लाचार की मदद करने का ख्याल दिमागी दिवालियेपन की निशानी है। <br /> करेजा सिंह शाम को सिनेमा देखकर लौटा और पूछा-<br />कैसा रहा संडे?Unknownnoreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-68929871121738260592010-03-27T10:10:00.000+05:302010-03-27T10:36:08.727+05:30कलर्ड बनाम ब्लैक एण्ड वाइट'थोड़ा और सटकर खड़े हो जाइए!'<br />'थोड़ा और.......'<br />कैमरे का फ्लैश अब तक शांत था।<br />'भाई साब् बस थोड़ा-सा और। अपना सिर भाभी जी की तरफ झुकाइए, भाभी जी आप भी।'<br />अब भी फ्लैश नहीं चमका।<br />'अब मुस्कुराइए, एक इंच और, हॉ.......'<br />पर अब भी फ्लैश नहीं चमका।<br />मैं खीज गया, कहा-<br />'ये फोटो किसी ऑफिस में देना है भाई, तुम तो फोटो इतना रोमांटिक बना रहे हो जैसे बेडरूम में लगाना हो!'<br /><br />कैमरामैन के दॉंत चमके , पर फ्लैश अब भी नहीं चमका। मेरे सामने स्टैंड पर दो-तीन लैंप जगमगा रहे थे, वह उसका फोकस ठीक करने लगा। श्रीमती ने छेड़ा- कमर पर हाथ रखा हुआ है, फोटो में ये भी आएगा क्या?<br />मैंने बनावटी गुस्से में कहा-<br /><br />-'कैमरा आगे है, पीछे नहीं!!'<br /><br /> क्या होता है न कि शादी के कुछ सालों या कुछ महिनों तक ऐसा खुमार छाया रहता है जैसे सारे फोटो इस पोजीशन में लिए जाएँ जिससे लगे कि हम एक-दूसरे के लिए ही बने हैं और हमारी हर अदा और हर पोज में जबरदस्त प्यार छलक रहा हो! पर अब, जब हमारा तीन साल का बेटा अपनी नानी के साथ घर में हम दोनों के आने का इंतजार कर रहा हो, तो ऐसा लगता है कि चिपककर खड़े रहने की अच्छी जबरदस्ती है यार!<br />अचानक फ्लैश चमका। फोटो खिंच चुकी थी। आज श्रीमती को गर्लफ्रेंड होने का सा आभास हो रहा था पर मैं अपने ब्यॉय-फ्रेंडीय छवि को जाहिर नहीं करना चाहता था। मैं चाहता था कि लोग मुझे इसका पति ही समझे, कुछ और नहीं। <br />समाज भी कितने ड्रामे करवाता है पता नहीं!!<br /><br />कैमरामैन ने मायूसी से मुझे टोका- <br />'जी आपकी ऑंखे बंद हो गई है, फोटो दुबारा लेना पड़ेगा।'<br /><br />लो, फिर से वही घटनाक्रम दुहराया जाएगा- चिपको जी, फिर झुको जी, फिर मुस्कुराओ जी!<br /><br />अंदर से तो मैं भी इसका आनंद ले रहा था मगर पत्नी को खुशी दिखा दी तो समझो मार्केट में दो-तीन घंटे और घूमना पड़ सकता है!<br />शादी के बाद ये पहला मौका था तब हम इस तरह फोटो खिंचवाने आए थे। फोटो तैयार होकर 15 मिनट में मिल गई। मेरे हाथ में जब ये कलर्ड फोटो आया तो अचानक ही मेरे जेहन में एक ब्लैक एण्ड वाइट तस्वीर कौंध गई! उस तस्वीर में मेरे मम्मी-पापा यूँ ही सटकर खड़े हैं और यूँ ही वे (एक-दूसरे की तरफ? ) झुके हैं और हॉं.. मंद-मंद मुस्कुरा भी रहें है!<br /><br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/S614itmeUDI/AAAAAAAAAbg/Wd2Bl5pVIpg/s1600/VIJAY.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 400px; height: 270px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_j0vuC22BItI/S614itmeUDI/AAAAAAAAAbg/Wd2Bl5pVIpg/s400/VIJAY.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5453147261567389746" /></a><br /><br />1975-80 के आसपास ली गई ये तस्वीर न जाने किस स्टूडियो से ली गई होगी, कभी पूछूँगा। ये भी पूछूँगा कि वे किस तरह तैयार होकर स्टूडियो तक गए होंगे। इतिहास इस तरह सजीव हो जाता है मानो कल-परसो की ही बात हो! सभी लोगों के पास यादों की ऐसी सौगाद तस्वीरों में जरूर मौजूद होती है। आप लोगों के पास भी ऐसी कोई तस्वीर जरूर मिल जाएगी। अगर आपको अपना एलबम निकाले करीब साल भर हो गया है तो छुट्टी के दिन सब मिलकर एलबम निकालकर जरूर देखें।<br />ब्लैक एण्ड वाइट फोटो में इस तरह कलर भरकर आप भी खुश हो जाऍगें, मेरा वादा है ये!<br /><br /><br /><br />(ये तस्वीर मेरे छोटे भाई विजय के पास एलबम में थी, जो दूसरे शहर में रहता है। मैंने उससे कहा कि ये तस्वीर स्कैन करवा के भिजवा दो। वैसे तो वह मेरा कोई काम दो-चार दिन लेकर आराम से करता है मगर इस काम के लिए वह उसी शाम बाजार गया। उसे अमिताभ की 'बागवॉं' फिल्म बहुत पसंद जो है !!)Unknownnoreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-4337029721230821036.post-56201500802291293222010-01-31T21:39:00.000+05:302010-01-31T21:38:09.064+05:30‘बीप-बीप’ के बीच इमोशनल अत्याचार !!साल में ऐसे मौके कम ही होते हैं जब आपको टीवी देखने का अवसर कुछ ज्यादा ही प्राप्त होता है। अभी मेरा दौर ऐसा ही चल रहा है। कुछ-कुछ खाली भी हू या यूँ कहिए कुछ खाली महसूस करने के लिए टीवी देखने लगा हूँ। लंबे सफर की थकान तब थोड़ी-बहुत उतर ही जाती है जब आधी रात को, आधे रास्ते के बाद, भोजन पानी के लिए बस किसी ढाबे पर रूकती है। व्यस्तता की इस लंबी सडक पर मुझे ये तो नहीं पता कि रास्ता आधा तय हो गया है या रात आधी हो गई है, पर कहीं ठहरकर इस बारे में सोचना अच्छा लगता है। <br /> ‘यू टीवी बिंदास’ पर ‘इमोशनल अत्याचार’ के दो एपिसोड को देखकर सोच में पड़ गया कि पुरूष प्रेमियों का इम्तिहान जिस तरह लिया जा रहा है, उससे कितने मर्द बच सकते हैं? इस सीरियल में पूर्वनियोजित योजना के तहत एक सुंदर-सी लड़की को किसी के प्रेमी के पास भेजकर ऐसा माहौल तैयार किया जाता है कि उसकी आपत्तिजनक विडियो तैयार की जा सके। साथ ही ऐसे संवाद उगलवाये जाते हैं जो उस पुरूष के व्यभिचार को उभारता है। पुरूषों की मूलभूत कमजोरियों को इस सीरियल का आधार बनाकर उसकी प्रेमिका या पत्नी के सामने उसके आपतिजनक दृश्यों को दिखाकर पूछा जाता है कि देखो, आपके प्रेमी ने आपके साथ कितना बड़ा विश्वासघात किया है! फिर उसे रंगे हाथों पकड़वाकर नाटकीय दृश्य पैदा किया जाता है। गालियों की बौछार को बीप-बीप में छिपाया जाता है। झगड़े की इन्टेनसिटी (तीव्रता) को नापना हो तो कितनी बार बीप-बीप बजा, उसे नोट करते जाओ।<br />दूसरे एंगिल से सोचूँ तो ये मसाला सीरियल तैयार करने के लिए प्रेमी-युगल को सहमति में लेकर भी तैयार किया जा सकता है। अगर ऐसा है फिर भी यह एक प्रश्न मन में तो छोड़ ही जाता है कि आप अपनी पत्नी या प्रेमिका के साथ कितने वफादार हैं। क्या् आपका विश्वामित्रीय मन मेनका टाइप लड़की को आपकी तरफ आकर्षित होते देख अपनी वफादारी कायम रख सकते हैं? इस आपातकाल में इन चार-पॉंच विकल्पों में से आपका निर्णय क्या होता-<br />1 आप घरवाली-बाहरवाली की जिम्मेदारी एक साथ उठाते। <br />2 आप अपनी प्रेमिका या पत्नी को इस घटना/दुर्घटना से अवगत कराते।<br />3 आप उस स्त्री को धिक्कारते जो जबरदस्ती आपके जीवन में प्रवेश करना चाहती है।<br />4 आप ‘क्या करूँ या ना करूँ’ की स्थिति से पगलाए रहते। <br />5 आप कुछ और ही रास्ता अपनाते तो क्या अपनाते।<br /><br />दिमाग तो ये कहता है कि मैं नम्बर टू विकल्प अपनाता, मगर दिल का भरोसा कैसे करूँ :)<br /> <br /><br />Unknownnoreply@blogger.com4