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Wednesday 29 October 2008

डि‍ब्‍बा-पर्व और जेब में पटाखा !!

इस बार उत्‍तर प्रदेश, हरि‍याणा के चावल के खेतों से कीट-पतंगों की एक प्रजाति‍ दि‍वाली मनाने दि‍ल्‍ली आई थी और लगभग दो-तीन हफ्ते से दि‍ल्‍ली में डेरा डाले हुए थी। शाम को स्‍ट्रीट लाइट के नीचे से नि‍कलना दूभर हो जाता था, क्‍योंकि‍ ये ऑंख-मुँह,सर्ट में चले जाते थे। लोगों ने शाम को टहलना लगभग बंदकर दि‍या था। शम्‍मा पर नि‍सार होनेवाले इन परवानों को सुबह की झाड़ू के दौरान थोक के भाव में इकट्ठे कर बोरे में भर-भरकर फेंका जा रहा था। दुकानदारों को खासी परेशानी का सामना करना पड़ा, क्‍योंकि‍ त्‍योहार के इस मौसम में उन्‍हें हल्‍की रौशनी में सामान बेचना पड़ा। ज्‍यादा रौशनी में कीट-पतंगे ज्‍यादा आ रहे थे, इसलि‍ए ग्राहक या तो अंदर आ नहीं रहे थे या आकर जल्‍दी भाग रहे थे। जि‍नसे भी पूछो, यही कहते पाए गए कि‍ इतनी बड़ी तादाद में इन कीट-पतंगों को पहले कभी नहीं देखा गया।
तो, पि‍छले साल के लिहाज से इस बार बाजार में कीट-पतंगों की रौनक रही, और दुकानदारी फीकी।

ये तो थी कीड़ो की दि‍वाली, अब हम बड़कीड़ों ने दि‍वाली कैसे मनायी, इस पर भी एक नजर डालते हैं। मि‍ठाई की दुकानों पर ऑर्डर गया हुआ है कि‍ ऑफि‍स में इतने स्‍टाफ हैं, इतने डि‍ब्‍बे पैक करने हैं, बॉस का डि‍ब्‍बा अलग, मेमसाब का डि‍ब्‍बा अलग, शर्मा जी का अलग, वर्मा जी का अलग, अजी त्‍योहार न हुआ डि‍ब्‍बा-पर्व हो गया। जैसे हर धर्म में, उपासना गृह में भगवान बसते हैं, वैसे ही हर पर्व में डि‍ब्‍बा बसता है।
पूँजी के बाजार ने पर्व मनाने की नई परम्‍परा का ईजाद कि‍या है। शायद इसलि‍ए अचानक हर पर्व दो-दो दि‍न मनाने की कवायद चल पड़ी है। छोटी दि‍वाली है- क्‍या कि‍या जी, उपहार बॉंटे, आज बड़ी दि‍वाली है, क्‍या कि‍या जी, आज भी उपहार बॉंटे। इस तरह होली, ईद और दूसरे पर्व भी दो-दो दि‍न मनाए जाने लगे हैं। पहले भी ये दो बार मनाए जाते होंगे, मगर बाजार और मीडि‍या ने इसे अपने मतलब से अचानक उछाला है। दि‍क्‍कत तो ये है कि‍ शेयर बाजार में कभी आए उछाल के बाद आज जि‍तनी गि‍रावट दर्ज की गई है, पर्वाश्रि‍त इस बाजार में भी वह गि‍रावट नजर आएगी, यह सोचना बेमानी है। वैलेंटाइन डे, फादर्स डे, मदर्स डे, ये डे, वो डे- हर डे को मीडि‍यावाले अपने लि‍ए खबर का एक नया मसाला मानते हैं और बाजार माल खपाने के लि‍ए मार्केटिंग का एक और अवसर।

दि‍ल्‍ली एक महानगर है, गॉव तो है नहीं कि‍ दरवाजे से बाहर नि‍कले कि‍ पड़ोस में ही रि‍श्‍तेदार या दोस्‍त मि‍ल जाऍगे। यहॉं कि‍सी को उपहार देने नि‍कलो तो पता चलता है एक उत्‍तर में रहता है दूसरा दक्षि‍ण में। बि‍ना फोन कि‍ए जाओ तो पता चलता है कि‍ वह पूरब गया हुआ है उपहार बॉंटने। महानगरों में पर्व मनाने के नाम पर लोगों को सि‍र्फ और सि‍र्फ उपहार का आदान-प्रदान करते देखा है मैंने। सि‍र्फ इस वजह से भारी ट्रैफि‍क जाम और दुकानों में मेला देखने को मि‍लता है। चीजों की खपत पर्व त्‍योहारों पर इतनी बढ़ जाती है कि‍ दाम बेलगाम हो जाते हैं।

उपहार बॉंटने का सि‍लसि‍ला जि‍नका खत्‍म हो जाता है, वे बम-पटाखे नि‍कालते हैं तथा शोर और धुँओं में नोट को जलते देख खुशि‍यॉं मनाते हैं। मि‍.आहूजा एण्‍ड फैमि‍ली इंतजार करती है कि‍ जब उनके पटाखे खत्‍म हो जाऍगे तब ये पटाखे फोड़ना शुरू करेंगे और अगले दि‍न चर्चा का वि‍षय बनेंगे कि‍ इस बार आहूजा जी ने देर रात तक, जमकर दि‍वाली मनायी। इस तरह, पर्व पर अनेक लोग मानो अपनी जेब में बम-पटाखे फोड़ते हैं और उस फटी जेब को अगले कई महि‍नों तक छि‍पकर रफ्फू करवाते फि‍रते हैं।

उम्‍मीद है हम बाजार और मीडि‍या की इस मंशा को समझेंगे और कठि‍न होती महानगरीय जिंदगी के लि‍ए पैसे जोड़ने के साथ-साथ पर्व को मनाने के व्‍यवहारि‍क तरीके की तलाश करेंगे तथा पर्यावरण, परम्‍परा और जेब के बीच सामंजस्‍य और संतुलन बनाने का जतन करेंगे।

Sunday 26 October 2008

सावधान !! यहॉं जेबरा क्रौसिंग नहीं होता !!

दृश्‍य 1
गाड़ी सडक पर अपनी रफ्तार से दौड़ी जा रही है, आगे मार्केट की भीड़ है। वहॉं कहीं भी जेबरा क्रौसिंग नहीं है, इसलि‍ए माना जाए कि‍ हर जगह जेबरा-क्रौसिंग है। एक संभ्रांत-सी दि‍खनेवाली महि‍ला अचानक कार के आगे आ जाती है, अचानक ब्रेक लेना पड़ता है, वह अपनी गल्‍ती छि‍पाने के लि‍ए मुझे देखकर मुस्‍कुराती है, और सड़क-पार चली जाती है। आगे चलकर एक गरीब महि‍ला सर पर टोकरी लि‍ए सड़क पार कर रही है। उसे कोई परवाह नहीं है कि‍ सामने से कार आ रही है। अचानक ब्रेक लेना पड़ता है, वह मेरी तरफ न देखती है, न ही मुस्‍कुराती है, उसमें न कोई खौफ है न कोई हि‍चकि‍चाहट और वह सड़क-पार चली जाती है।



दृश्‍य 2
सीढ़ि‍यॉं चढ़ते या उतरते हुए जब एक जवान के आगे कोई वृद्ध/वृद्धा सुस्‍त चाल से चढ़ते या उतरते हैं तब उसके मन में क्‍या चल रहा होता है- उफ्, जब तक सीढि‍यॉं खत्‍म नहीं हो जाती,अब इनके पीछे-पीछे चलते रहो। उसे खीज होती है कि‍ ये देखते भी नहीं कि‍ कोई जल्‍दी में है।

वृद्ध/वृद्धा के मन में क्‍या चल रहा होता है- हे भगवान, ये जवान मेरे पीछे-पीछे चलने के लि‍ए मजबूर हो गया है, अनजाने ही सही, कहीं जल्‍दी में ठोकर मारता हुआ नि‍कल गया तो संभलना मुश्‍कि‍ल हो जाएगा। और अगर पॉव लड़खड़ा ही गए तो दुबारा उठ न सकेंगें।



दृश्‍य 3
कनाट प्‍लेस का व्‍यस्‍ततम चौराहा। मैं पैदल जा रहा हूँ। फुटपाथ पर खुराफाती-से लगने वाले दो लड़के बैठे हुए हैं। सामने से दो वृद्ध वि‍देशी दम्‍पत्‍ति‍ आ रहे हैं। उनमें से एक लड़का गोबरनुमा कोई चीज़ उठाकर वृद्ध के जूते पर लगा देता है। दम्‍पत्‍ति‍ को या तो पता नहीं चलता या वे उसकी हरकतों की उपेक्षा कर देते हैं। वे लड़के उनके जाने के बाद आपस में बंदरों की तरह खि‍खयाते हैं, ये देखता हुआ मैं आगे बढ़ जाता हूँ।

Thursday 23 October 2008

और रोटी तो नहीं चाहि‍ए ?

इंसान के पास दो चीजें ऐसी है जि‍से अच्‍छे खुराक की सख्‍त जरूरत होती है- पेट और दि‍माग। आदि‍म युग का इति‍हास बताता है कि‍ वह पेट की आग ही थी, जि‍से बुझाने के लि‍ए तरह-तरह से दि‍माग लगाए गए। अब आदि‍म युग तो समाप्‍त हो चुका है,आज लोग दि‍माग लगाने में ज्‍यादा व्‍यस्‍त हैं, जि‍ससे पेट की तरफ ध्‍यान ही नहीं जा रहा है, पर यहॉं मेरा मकसद मोटापे पर चर्चा करना नहीं है।
मुझे याद है- मैं गर्मियों की छुट्टि‍यों में हॉस्‍टल से घर आता था, घर कर बड़ा लड़का होने के नाते मेरी मां मेरे आराम का, खाने-पीने का हमेशा ध्‍यान रखती थी और अक्‍सर कहती रहती थी कि‍ बेटा ये खा ले, वो खा ले; ऑखें धॅस रही हैं, हड्डि‍यॉं नजर आने लगी हैं, वगैरह-वगैरह। मैं पन्‍द्रह साल का रहा हूंगा। पसीने से तरबतर, मुझसे दो साल छोटी मेरी बहन, मेरे लि‍ए रोटी बनाती थी। मेरे लि‍ए मां की इतनी जी-हुजउव्‍वत उसे चि‍ढ़ा-सी देती थी- कहती-मैं भी तो तीन भाइयों के बीच इकलौती हूँ , माँ मेरे लि‍ए इतना क्‍यों नहीं मरती ! फि‍र पलटकर मुझसे गुस्‍से में कहती- और रोटी तो नहीं लोगे ? मैं हॅसकर शि‍कायत करता-बहन, तू मुझसे ये नहीं पूछ सकती कि‍ और रोटी दूँ क्‍या? हमेशा उलटे सवाल क्‍यों करती है ?
मेरी पत्‍नी मुझसे ऐसे सवाल नहीं करती, क्‍योंकि मैं गि‍न कर रोटि‍यॉं खाता हूँ। घर के बड़े-बूढ़े कहते हैं- गि‍नकर खाने से शरीर को खाना नहीं लगता। मेरा मानना है कि‍ बि‍ना गि‍ने खाने से शरीर को खाना कुछ ज्‍यादा ही लग जाता है। कुछ जागरूक लोगों का मानना है कि‍ भूख से एक रोटी कम खानी चाहि‍ए। कुछ कहते हैं कि‍ हर तीन घंटे पर कुछ-न-कुछ लेते रहना चाहि‍ए।

एक जमाना था, जब डायनिंग टेबल का कॉन्‍सेप्‍ट नहीं था, लोग जमीन पर चादर बि‍छाकर,(या पीढ़ा पर) पालथी मारकर खाना खाते थे। तब संयुक्‍त परि‍वार हुआ करता था या एकल परि‍वार में सगे रि‍श्‍तेदारों का लंबे समय तक मजमा लगा रहता था और उनका चले जाना काफी तकलीफदेह लगा करता था।
इस माहौल में खाने का अपना मजा था, कि‍सी को कोई खास जल्‍दी नहीं रहती थी, जैसा कि‍ आज रहती है। आज हर दूसरा आदमी कहता है, भई, खाने तक को वक्‍त नहीं मि‍लता। जो खाने के लि‍ए समय नि‍काल लेते हैं, वे भी खाने की मेज पर ऐसे हड़बड़ाए रहते हैं जैसे नौकरी छूट रही हो।

मै सोचता हूँ कि‍ क्‍या कमाया यदि‍ ढ़ंग से नहीं खाया। मेरा मतलब ये नहीं है कि‍ आप फाइव-स्‍टार होटल में खाऍगे तभी आपका कमाना सार्थक होगा। आपके सामने थाली हो तो आप अपना ताम-झाम भुलाकर, सारा ध्‍यान खाने पर लगाऍं, तब जाकर खाने का मकसद पूरा होता है।
वैसे मेरे लि‍ए भी ये कहना आसान है, करना मुश्‍कि‍ल। जि‍स तरह से नगरों-महानगरों में व्‍यस्‍तताऍं बढ़ रही हैं, उस तरह दि‍माग भी लगातार दौड़ रहा है। उसकी दौड़ नींद को भी खराब करती रही है। कई लोग बत्‍ति‍यॉं बुझाकर सोने के लि‍ए लेट तो जाते हैं, पर नींद कई करवटों के बाद आती है। दुनि‍या में उन्‍हें खुशनसीब माना जाता है जि‍न्‍हें चैन की नींद और भोजन के साथ उसे खाने का वक्‍त मि‍लता है। वे बदनसीब हैं जि‍नके पास खाना है, पर खाने का वक्‍त नहीं। उनकी बदनसीबी पर तो क्‍या कहना जि‍नके पास खाना ही नहीं !

Friday 17 October 2008

इश्‍क-वि‍श्‍क, प्‍‍यार- व्‍यार, मैं क्‍या जानूँ रे !!

कॉलेज को अधि‍कतर लोग इश्‍क फरमाने की सही जगह मानते हैं। हालॉकि‍ जो कॉलेज नहीं जा पाते, वे ऑफि‍स और पड़ोस में ही कि‍स्‍मत आजमाते हैं। इश्‍क करना कोई गुनाह नहीं है, बशर्ते उसमें बेवफाई ना हो। जब मैं कॉलेज में ‘एडमि‍ट’ हुआ तो पाया, वहॉं इस मर्ज से कई मरीज तड़प रहे थे। कुछ तो घायल अवस्‍था में यहॉ पहुँचे थे और सही दवा की तलाश कर रहे थे। कुछ को सि‍र्फ मामूली बुखार था, मगर उन्‍होंने उसे डेंगू-मलेरि‍या बताया, डॉक्‍टर को उनके खुराफात की खबर हो गई, उनकी दवा ने ऐसा रि‍ऐक्‍ट कि‍या कि उन्‍होंने तो आगे इस मर्ज के नाम से ही तौबा कर ली। इसके बावजूद कई लोग तो कई बीमारि‍यों को गले लगाए बैठे थे, और कहते थे कि‍ अब तो बीमारी के साथ जीने की आदत-सी पड़ गई है। कुछ खास मरीज ऐसे भी थे, जो कार से आकर यहॉं एडमि‍ट हुए थे, इसलि‍ए उनका तुरंत इलाज हो गया। इन्‍हें देखा-देखी कुछ गरीबों को भी अमीरों की ये बीमारी लग रही थी। इस बीमारी का खर्चा-पानी गरीबों के बस की बात नहीं थी; उन्‍हें क्‍या मालूम था कि‍ गरीब रोगी को समाज का कोढ समझकर मार दि‍या जाता है। गरीब समाज में माना जाता है कि‍ बीमार को मार दो, बीमारी अपने आप मर जाएगी।

खैर, मैं तो इस मर्ज से काफी घबराता था और मानता था कि‍ precaution is better than cure. लक्षण के आधार पर मर्ज की पहचान को डायग्‍नोसि‍स (Diagnosis ) कहा जाता है। उमर की खुमारी में जि‍न लोगों को ये रोग लग गया था, मैंने उनका डायग्‍नोसि‍स 1996 में कि‍या था, और इसकी फाइल आपके सामने (एक लाइन छोड़कर) ज्‍यों का त्‍यों रख रहा हूँ-


ऐसी है एक चीज़ जि‍सपे,
लुट जाते हैं लोग,
जि‍सकी कोई दवा नहीं,
इश्‍क है ऐसा रोग।




दर्पण देख-देख मुस्‍काना
अंधों में है राजा काना
खोने पर तो जी घबराना
पाने पर जी-भर इतराना



जुगत लगाते कटते दि‍न
व बेचैनी में कटती रात।
धीर,अधीर या हो गंभीर
बनते-बनते बनती बात।


दि‍न लगती है रात
पतझड़ लगता बहार।
छवि‍ बनाने के चक्‍कर में
देना पड़ता उपहार।



चूड़ी-कंगन की फरमाइश
सब कुछ लुटने की गुँजाइश
एक-दूजे की है अजमाइश
जीने-मरने की भी ख्‍वाइश


नेल,शूज और फेस की पॉलि‍श
कुछ बॉडी-शॉडी की भी मालि‍श
शेव, फेशि‍यल, फैशन व जीम
कार सफारी हो या क्‍वालि‍स।



ड्रेस को हरदम प्रेस कि‍या,
गीफ्ट दे-देके इम्‍प्रेस कि‍या
ऑंखों ही ऑंखों में
भावों को इक्‍सपैस कि‍या।


बात फि‍र भी नहीं बनी,
घरवालों से भी खूब ठनी,
प्रति‍योगी भी कम थे नहीं,
जेब से नि‍कली खूब मनी।


दस लोगों के बीच से छँटके
रह गए थे सबसे कटके
खामोशी का आलम होता
सह न पाये इश्‍क के झटके।


ऑखें सपनो में जो खोई
कब जागी व कब-कब सोई
लाईलाज है मान भी लो जी
इस मर्ज की दवा न कोई।




-जि‍तेन्‍द्र भगत(1996)
(सभी चि‍त्रों के लि‍ए गूगल का आभार)

Monday 13 October 2008

ओ.के.सेब !!

एक स्‍टॉल पर लाल-लाल सेब रखे हैं। दुकानदार उसे चाइनीज़ सेब बता रहा है। पास में भारतीय सेब भी रखा है, उस पर कहीं-कहीं हल्‍के-काले धब्‍बे हैं, मगर साथ में ओ.के. लि‍खा हुआ स्‍टीकर चि‍पका हुआ है। चाइनीज़ इलेक्‍ट्रौनि‍क सामान के ऊपर भी ओ.के. चि‍पका होता है, पर वह कि‍तना ओ.के. होता है, यह सबको पता है। सोचता हूँ इस पर आई.एस.आई का मार्का चि‍पका होता तो बेहि‍चक खरीद लेता! फि‍र भी एक कि‍लो ओ.के.सेब खरीद लि‍या है। खाने से पहले ओ.के. का स्‍टीकर हटा रहा हूँ। स्‍टीकर के नीचे एक सुराख नजर आ रही है। हैरान होकर दूसरा सेब उठाता हूँ,फि‍र तीसरा,चौथा....., कुछ को छोड़कर सभी स्‍टीकर के नीचे सुराख है।



सवाल: क्‍या यह स्‍टीकर हम लोगों के वि‍चारों पर भी नहीं चि‍पका हुआ है?



(क्‍या यह पोस्‍ट माइक्रो टाइटि‍ल और माइक्रो पोस्‍ट के खॉंचे में आता है?)

Sunday 12 October 2008

पुरानी जींस और गि‍टार.......

अमेरि‍का में 19वीं सदी के मध्‍य में जब मजदूर वर्ग ने जींस को पहले-पहल अपनाया, तब मार्क्‍स भी यह नहीं जानते होंगे कि‍ आनेवाले दि‍नों में यह अमीरों के बीच भी खासा लोकप्रि‍य हो जाएगा। 1930 के दौर में हॉलीवुड में काऊ-बॉय ने जींस के फैशन को और लोकप्रि‍य बनाया। द्वि‍तीय वि‍श्‍व-युद्ध के दौरान अमेरि‍कन सैनि‍क ऑफ-ड्यूटी में जींस पहनना ही पसंद करते थे। 1950 के बाद यह अमेरि‍का में नौजवानों के बगावत का प्रतीक बन गया और वहॉं के कुछ स्‍कूलों में इसे पहनने पर प्रति‍बंध भी लगा दि‍या गया। आगे चलकर यही जींस भारत में मस्‍ती और मौज का पहनावा बन गया। 1990 के दशक से बॉलीवुड में भी इसको लोकप्रि‍यता मि‍लने लगी।


सलमान खान ने तो जींस की नीक्‍कर और फटी जींस को नौजवानों के बीच लोकप्रि‍य बनाया। टी.वी. पर एक ऐड भी आपने जरूर देखा होगा-एक जींस पहनी हुई लड़की चहकती हुई आती है,फटी जींस बि‍स्‍तर पर छोड़कर बाथरूम की तरफ चली जाती है,इस बीच मॉं आती है, फटी जींस देखकर मुँह बनाती है और‍ बड़ी मासूमीयत के साथ सि‍लाई-मशीन चलाकर खुद उस जींस की सि‍लाई कर देती है।
बहरहाल, फर्ज कीजि‍ए,कोई छात्र धोती-कुर्ता पहनकर महानगरीय कॉलेज में आ जाए,तब क्‍या होगा। वैसे कुर्ता-पाजामा के दि‍न अभी नहीं लदे हैं, नेताओं का संरक्षण भी इसे प्राप्‍त है और कुछ छात्र-छात्राओं में भी जींस के ऊपर कुर्ता पहनने का फैशन है।ऐसा माना जाता है कि‍ कॉलेज में जि‍सने जींस पहना है वह लड़का या लड़की मॉड है। हालॉकि‍ मॉड बनने के लि‍ए जींस को पैमाना मानना सही नहीं है। गर्मी हो या सर्दी, जींस पहनने में फैशनपरस्‍तों को तकलीफदेह नहीं लगती। जींस की कुछ खूबि‍यों का मैं कायल हूँ-
1)उसे प्रैस नहीं करना पड़ता, अब तो रिंकल्‍ड जींस भी चलन में आ गया है।
2)जब तक बदबू न आने लगे, उसे धोने की भी जरुरत नहीं पड़ती, कुछ लोग 15-20 बार पहनने के बाद भी उसे धोने से कतराते हैं। उनका कहना है कि‍ इसका मैलापन भी एक फैशन है।
3) ज्‍यादा पहनने पर जींस कहीं से फट जाए(मूल स्‍थान को छोड़कर), तो उसे भगवान की नि‍यामत समझी जाती है, उसकी सि‍लाई करना फैशन के अदालत में गुनाह है। और अगर न फटे तो उसे पत्‍थर से रगड़ा जाता है, साथ ही सुई लेकर सावधानी से उसे जगह-जगह से उधेड़ी जाती है।


हालॉकि‍ मैंने जींस ज्‍यादा नहीं पहना है और पुरानी होने से पहले ही पहनना छोड़ दि‍या था। पर हैदर अली के इस गीत में जींस के साथ कॉलेज के दि‍नों को फि‍र से जीता हुआ देखता हूँ। सि‍गरेट कभी नहीं पी क्‍योंकि‍ खेतों के ऊपर जमी हुई धुंध सि‍गरेट की धुओं से ज्यादा आकर्षक लगती रही है। खेत देखे अरसा हो गया है, अब सर्दियों की धुंध का इंतजार है।

हैदर अली की आवाज में ये मस्‍त गीत सुनने के लि‍ए हम्‍टी-डम्‍टी के पैर के पास क्‍लीक कीजि‍ए, मजा न आए तो समझि‍एगा कि‍ आपका जवॉं दि‍ल इस अहसास में ड़ूबने से चुक गया। इस हालत में आपको आपके जमाने की गीत भी सुनाउँगा- चुप-चुप बैठे हो जरुर कोई बात है.....

Ali Haider - Puran...


जो सुन ना सके, उनकी सहूलि‍यत के लि‍ए इस गीत के बोल लि‍ख देता हूँ-


पुरानी जींस और गि‍टार
मोहल्‍ले की वो छत और मेरे यार
वो रातों को जागना
सुबह घर जाना कूद के दीवार

वो सि‍गरेट पीना गली में जाके।
वो दॉतों को घड़ी-घड़ी साफ
पहुँचना कॉलेज हमेशा लेट
वो कहना सर का- ‘गेट आउट फ्रॉम दी क्‍लास!

वो बाहर जाके हमेशा कहना-
यहॉं का सि‍स्‍टम ही है खराब।
वो जाके कैंटि‍न में टेबल बजाके
वो गाने गाना यारों के साथ
बस यादें, यादें रह जाती हैं
कुछ छोटी,छोटी बातें रह जाती हैं।
बस यादें............

वो पापा का डॉटना
वो कहना मम्‍मी का- छोड़ि‍ए जी आप!
तुम्‍हें तो नजर आता है
जहॉं में बेटा मेरा ही खराब!

वो दि‍ल में सोचना करके कुछ दि‍खा दें
वो करना प्‍लैनिंग रोज़ नयी यार।
लड़कपन का वो पहला प्‍यार
वो लि‍खना हाथों पे ए प्‍लस आर.

वो खि‍ड़की से झॉंकना
वो लि‍खना लेटर तुम्‍हें बार-बार
वो देना तोहफे में सोने की बालि‍यॉं
वो लेना दोस्‍तों से पैसे उधार
बस यादें, यादें रह जाती हैं
कुछ छोटी,छोटी बातें रह जाती हैं।
बस यादें............

ऐसी यादों का मौसम चला
भूलता ही नहीं दि‍ल मेरा
पुरानी जींस और गि‍टार.....

(पोस्‍ट में संगीत लोड करने की प्रक्रि‍या से मैं अनभि‍ज्ञ था। प्रशांत प्रि‍यदर्शी जी का आभारी हूँ, जि‍न्‍होंने मेल के माध्‍यम से मुझे इसकी वि‍धि‍ से अवगत कराया। शुक्रि‍या प्रशांत जी।)
(सभी चि‍त्रों के लि‍ए गूगल का आभार)