सफर के नाम पर ही मैं रोमांच से भर जाता हूँ! अभी-अभी नीरज जी मुंबई के पास का एक हिल स्टेशन 'माथेरान' घूमकर आए हैं। पिछली बार मसूरी यात्रा वाली पोस्ट पर अनुराग जी ने लैंसडाउन का जिक्र किया था। उसके बाद से मैं अपने एकमात्र यायावर दोस्त विजय की हामी का इंतजार कर रहा था जिसे साल में सिर्फ एक बार मई में ही फुर्सत मिलती है। फुर्सत इसलिए कि उसकी बीवी, यानी मेरी भाभी जी बच्चे को लेकर मायके (अजमेर) चली जाती है:)
डिजलवाली इंडिका का इंतजाम हो चुका है। उसकी लाइट, ब्रेक,टायर आदि चेक करवाई जा रही है। विजय ने साफ-साफ कह दिया है कि खर्चा ज्यादा नहीं होना चाहिए! और ये भी कि पास के हिल स्टेशन पर जाना है और दो दिन में लौट आना है। मैंने कहा दो दिन में कुछ भी देखा नहीं जाएगा और इस बार नई जगह जाना है तो रहने-खाने का कुछ सिस्टम पता भी नहीं है। इसलिए न खर्चे की लिमिट बता सकता हूँ और न ही दिन की!
मिला-जुलाकर मैंने विजय और बाकी तीन और सहयात्रियों को सहमत करा लिया है कि सफर में दो नहीं चार-पॉंच दिन लग सकते हैं। 1 मई की सुबह चलेंगे और 5 मई की शाम तक दिल्ली वापस। विजय ने तीन सहयात्री इसलिए लिया है कि सफर का मजा चार गुना किया जा सके, साथ ही खर्चे पॉच हिस्से में बॉंटा जा सके। अब मैं ये नहीं बता सकता कि विजय के लिए इसमें पहला कारण महत्वपूर्ण है या दूसरा:)
डलहौजी,खज्जियार, धर्मशाला , मैक्लॉडगंज, मनाली की दूरी की वजह से और मसूरी शिमला, नैनीताल से बोर होने के बाद, और अनुराग जी के सुझाव पर इसबार लैंसडाउन जाने का रिस्क ले रहा हूँ:)
जब ऐसी जगह जाना होता है तो मैं सबसे पहले गूगल मैप (लिंक के लिए क्लिक करें) से रास्ते और दूरियाँ पता करता हूँ।
सफर का रूट:
क) दिल्ली-पानीपत-शामली-मुजफ्फरनगर- रूड़की- हरिद्वार
ऋषिकेश- देवप्रयाग- श्रीनगर
ख) श्रीनगर- खिरसू-पौड़ी-लैंसडाउन
ग) लैंसडाउन- दुगादा- कोटद्वारा-नजीबाबाद -बिजनौर- मवाना- मेरठ- दिल्ली
खाना खाते हुए मैं हमेशा ध्यान रखता हूँ कि सबसे स्वादिष्ट चीज अंत में खाउँ ताकि उसका स्वाद खाने के बाद भी बना रहे। इसी आधार पर अब मेरे मन में उलझन ये है कि मैं दिल्ली की ओर लौटते हुए ऋषिकेश-पानीपत की तरफ से आउँ या लैंसडाउन-मेरठ की तरफ से। मैंने अपने दोस्तों से पूछा कि वे पहले नदी की घाटियों से गुजरकर हिल स्टेशन जाना चाहेंगे या इससे ठीक उलटा रास्ता तय करेंगे। उन्होंने मेरे ऊपर छोड़ दिया है और अब यह जिम्मेदारी ही मेरी समस्या है। यदि सफर का रास्ता मजेदार नहीं रहा तो सब दिल्ली लौटकर मुझे गालियॉं देंगे:(
पौड़ी से एक रास्ता श्रीनगर की तरफ जाता है, पर मैंने एक और हॉल्ट तय किया है- खिरसू। सुना है वह भी एक सुंदर हिल स्टेशन है। अब वहॉं जाकर ही पता चलेगा कि वह जगह कैसी है?
लैंसडाउन की तरफ से खिरसू आना हो तो-
क) लैंसडाउन- गुमखल- सतपुली-बानाघाट-मोहर-पौड़ी
ख) पौड़ी- बाबूखल-फरकल-चौबाटा- खिरसू
(मैप को बड़ा करने के लिए कृप्या उसपर क्लिक करें)
गूगल अर्थ से मैंने पौड़ी- खिरसू-श्रीनगर का रूट-मैप तैयार करने और रास्ता तलाशने की कोशिश की, पता नहीं ये सही भी है या नहीं -
खिरसू-कोठसी-मारकोला-बुधानी
बुधानी से दो रूट नजर आया-
क) श्रीनगर हाइवे 58 पर
ख) सुमारी- खल्लू- चमरडा- खंडा- श्रीनगर
अभी ये सफर का ड्राफ्ट भर है। इसमें दर्शाए गए मार्ग की सत्यता मेरे द्वारा प्रमाणित नहीं है क्योंकि मैं एक तरफ ऋषिकेश तक गया हूँ, दूसरी तरफ मेरठ तक। मेरठ से लैंसडाउन तक और ऋषिकेश से श्रीनगर-पौड़ी-खिरसू तक के रास्ते के बारे में मुझे कुछ पता नहीं है। अगर इस रूट के बारे में आपको कुछ पता हो तो जरूर बताएँ- जैसे, सही रास्ता क्या है/ सड़कें कैसी हैं/ आसपास देखने की और कोई जगह/ रूकने और खाने की सही जगह। बाकी जब मैं उधर से लौटुँगा तब इस सफर के अनुभव और रास्ते की स्थिति का ब्योरा दूँगा।
तो बोलिए हैप्पी जर्नी:)
Tuesday 27 April 2010
Friday 23 April 2010
टक-टक.............
मोबाइल पर मुझे होल्ड पर रखकर वो किसी से कह रही थी-
'रख लो बाबा, कोई बात नहीं।'
पीछे सब्जी-मंडी का शोर मुझे सैलाब-सा लग रहा था-
टमाटर तीस-टमाटर तीस-टमाटर तीस
गोभी बीस-प्याज बीस
धड़ी सौ-धड़ी सौ..........
मैंने चिल्लाकर कहा-
-मेरा बी.पी. लो हो गया है, वहॉं से जल्दी निकलो!!
यह कहकर मैंने फोन काट दिया।
स्ट्रीट लाइट के नीचे मैंने कार के लिए किसी तरह जगह बनाई। बंद कार में मेरा दम घुट रहा था और बाहर शोर, प्याजनुमा बदबू के साथ मिलकर वातावरण में पूरी तरह फैला हुआ था। एकदम भड़भडाता-सा बाजार अपने लौ में बहा जा रहा था। वहॉं सभी लोग किसी-न-किसी काम में व्यस्त थे-कहीं लोग गोल-गप्पे खा रहे थे, कहीं लोग मोल-भाव में जुटे थे,कोई खाली नहीं था..... सिवाये मेरे।
' सब्जी अकेले जाकर लाया करो, न मुझे भीड़ अच्छी लगती है न इंतजार!'
'कॉफी पिओगे'- उसने मुस्कुराकर पूछा।
-'इस मंडी में तुम मुझे कॉफी पिलाओगी'
सी.सी.डी.* भी चल सकते हैं।
-माफ करो, वहॉं की महंगी काफी से घर की दाल भली। तुम फिजूलखर्ची बंद करो, अब मैं पैसे का हिसाब लेना शुरू करूँगा।
मेरे पतिदेव,कॉफी 'लो बी.पी.' को कंट्रोल करती है, इसलिए कह रही हूँ'
-उसने अपने रूमाल से मेरे सर का पसीना पोंछ दिया।
मैंने ड्राइव करते हुए पूछा-
फोन पर किसी बाबा से बात करते सुना, कोई भीखारी था क्या?
-नहीं, एक बूढ़ा बाबा था। मैं आम खरीद रही थी तो देखा कि वह बूढ़ा बाबा एक आम हाथ में लिए दुकानदार से पूछ रहा है ये एक आम कितने का है?
दस रूपये!
यह कहकर दुकानदार दूसरी तरफ व्यस्त हो गया।
उसने दबी हुई आवाज से कहा-
पॉंच रूपये में दोगे?
दुकानदार ने सुना नहीं तब उसने दुबारा कहा, तब भी दुकानदार तक उसकी आवाज पहुँची नहीं या उसने जानबूझकर अनसुना कर दिया। वह थोड़ी देर तक हाथ में आम को देखता रहा और वापस आम के ढेर पर रखकर आगे चल पड़ा।
गाड़ी रेडलाइट पर आकर खड़ी हो गई। कार के शीशे पर सिक्के से किसी ने जोर से टक-टक की आवाज की। मैंने घूरकर उस लड़की की तरफ देखा जिसकी गोद में एक मरियल-सा बच्चा टंगा पड़ा था। मेरी बेरूखी देखकर वह दूसरी कार की तरफ बढ़ गई।
कार चलते ही मैंने पूछा-
बूढ़े बाबा की बात पूरी हो गई?
नहीं, जब मैंने देखा कि वह बाबा बड़ा मायूस होकर आगे चला गया तो मुझे बहुत तकलीफ हुई।
मैंने दुकानदार से कहा कि उस बाबा को बुलाओ और दो किलो आम तौलकर दे दो। पैसे मुझसे ले लेना।
दुकानदार तपाक से उसे बुला लाया। बाबा ने मुझसे कहा कि मुझे इनमें से सिर्फ दो ही आम चाहिए, मेरे पोते को आम बहुत पसंद है पर मेरे पास सिर्फ पॉंच रूपये ही थे।
मैंने कहा- बाबा आप सारे आम ले जाओ। बाबा ने जैसे अहसान से दबकर आभार जताया। तभी तुम्हारा फोन आया और तुम बड़बड़ कर रहे थे।
मुझे क्या पता था कि तुम आम बॉट रही हो!
मैंने उसके चेहरे की तरफ देखा, उसके चेहरे पर सकून की एक आभा चमक रही थी।
अगली रेडलाइट पर कार की खिड़की पर फिर टक-टक की आवाज हुई........
लेकिन तबतक ग्रीन लाइट हो चुकी थी।
* सी.सी.डी.= cafe coffee day
(चित्र गूगल से साभार)
'रख लो बाबा, कोई बात नहीं।'
पीछे सब्जी-मंडी का शोर मुझे सैलाब-सा लग रहा था-
टमाटर तीस-टमाटर तीस-टमाटर तीस
गोभी बीस-प्याज बीस
धड़ी सौ-धड़ी सौ..........
मैंने चिल्लाकर कहा-
-मेरा बी.पी. लो हो गया है, वहॉं से जल्दी निकलो!!
यह कहकर मैंने फोन काट दिया।
स्ट्रीट लाइट के नीचे मैंने कार के लिए किसी तरह जगह बनाई। बंद कार में मेरा दम घुट रहा था और बाहर शोर, प्याजनुमा बदबू के साथ मिलकर वातावरण में पूरी तरह फैला हुआ था। एकदम भड़भडाता-सा बाजार अपने लौ में बहा जा रहा था। वहॉं सभी लोग किसी-न-किसी काम में व्यस्त थे-कहीं लोग गोल-गप्पे खा रहे थे, कहीं लोग मोल-भाव में जुटे थे,कोई खाली नहीं था..... सिवाये मेरे।
' सब्जी अकेले जाकर लाया करो, न मुझे भीड़ अच्छी लगती है न इंतजार!'
'कॉफी पिओगे'- उसने मुस्कुराकर पूछा।
-'इस मंडी में तुम मुझे कॉफी पिलाओगी'
सी.सी.डी.* भी चल सकते हैं।
-माफ करो, वहॉं की महंगी काफी से घर की दाल भली। तुम फिजूलखर्ची बंद करो, अब मैं पैसे का हिसाब लेना शुरू करूँगा।
मेरे पतिदेव,कॉफी 'लो बी.पी.' को कंट्रोल करती है, इसलिए कह रही हूँ'
-उसने अपने रूमाल से मेरे सर का पसीना पोंछ दिया।
मैंने ड्राइव करते हुए पूछा-
फोन पर किसी बाबा से बात करते सुना, कोई भीखारी था क्या?
-नहीं, एक बूढ़ा बाबा था। मैं आम खरीद रही थी तो देखा कि वह बूढ़ा बाबा एक आम हाथ में लिए दुकानदार से पूछ रहा है ये एक आम कितने का है?
दस रूपये!
यह कहकर दुकानदार दूसरी तरफ व्यस्त हो गया।
उसने दबी हुई आवाज से कहा-
पॉंच रूपये में दोगे?
दुकानदार ने सुना नहीं तब उसने दुबारा कहा, तब भी दुकानदार तक उसकी आवाज पहुँची नहीं या उसने जानबूझकर अनसुना कर दिया। वह थोड़ी देर तक हाथ में आम को देखता रहा और वापस आम के ढेर पर रखकर आगे चल पड़ा।
गाड़ी रेडलाइट पर आकर खड़ी हो गई। कार के शीशे पर सिक्के से किसी ने जोर से टक-टक की आवाज की। मैंने घूरकर उस लड़की की तरफ देखा जिसकी गोद में एक मरियल-सा बच्चा टंगा पड़ा था। मेरी बेरूखी देखकर वह दूसरी कार की तरफ बढ़ गई।
कार चलते ही मैंने पूछा-
बूढ़े बाबा की बात पूरी हो गई?
नहीं, जब मैंने देखा कि वह बाबा बड़ा मायूस होकर आगे चला गया तो मुझे बहुत तकलीफ हुई।
मैंने दुकानदार से कहा कि उस बाबा को बुलाओ और दो किलो आम तौलकर दे दो। पैसे मुझसे ले लेना।
दुकानदार तपाक से उसे बुला लाया। बाबा ने मुझसे कहा कि मुझे इनमें से सिर्फ दो ही आम चाहिए, मेरे पोते को आम बहुत पसंद है पर मेरे पास सिर्फ पॉंच रूपये ही थे।
मैंने कहा- बाबा आप सारे आम ले जाओ। बाबा ने जैसे अहसान से दबकर आभार जताया। तभी तुम्हारा फोन आया और तुम बड़बड़ कर रहे थे।
मुझे क्या पता था कि तुम आम बॉट रही हो!
मैंने उसके चेहरे की तरफ देखा, उसके चेहरे पर सकून की एक आभा चमक रही थी।
अगली रेडलाइट पर कार की खिड़की पर फिर टक-टक की आवाज हुई........
लेकिन तबतक ग्रीन लाइट हो चुकी थी।
* सी.सी.डी.= cafe coffee day
(चित्र गूगल से साभार)
Saturday 3 April 2010
शहर के चौक पर टखना सिंह
टखना सिंह ने अपने दोस्त करेजा से पूछा-
मुझे शहर जाना है हर संडे!
करेजा सिंह लगभग हर संडे हास्टल से भागकर फिल्म देखने शहर जाता था और कभी पकड़ा भी नहीं गया।
क्या फिल्म देखनी है?
नहीं!
किसी रिश्तेदार के घर जाना है?
नहीं!
किसी लड़की से मिलना है क्या?
अरे नहीं भाई!!
उसे कोई बहाना भी नहीं सूझ रहा था कि क्या कहे! उसने ये कहकर टाल दिया कि बाद में बताऊँगा।
उस हॉस्टल का कानून हॉस्टल-परिसर से बाहर जाने की इजाजत नहीं देता था। टखना सिंह तब दसवीं क्लास का छात्र था और उसके उपर इसका भी काफी दबाव था।
शहर के चौक पर टखना का यह पहला संडे था। वह एक लाचार बुढिया को तलाश रहा था जिसे वह रास्ता पार करा सके। वह एक ऐसे भूखे-गरीब को तलाश रहा था जिसने दस दिन से कुछ न खाया हो। दो-चार भीखारी उसे मिले पर टखना को उनपर विश्वास नहीं हुआ।
सुबह का एक घंटा इसी तलाश में निकल गया। फिर उसने सोचा कि किसी रिक्शेवाले की मदद कर दे। दो चार रिक्शेवाले गुजरे भी लेकिन उनके रिक्शे पर कोई वजनदार सामान भी नहीं रखा था। दोपहर होते-होते वह निराश हो चला था कि तभी एक रिक्शे पर उसे भारी-भरकम सामान नजर आया। वह भागकर उसके पीछे पहुँचा और धक्का लगाने लगा। रिक्शेवाले ने रिक्शे का ब्रेक लगा दिया और पीछे मुड़कर चिल्लाया-
अबे कौन है बे, क्या निकाल रहा है कट्टे से??
टखना ने सकपकाकर कहा
- कुछ निकाल.. नहीं रहा.., मैं तो वजन देखकर.. आपकी मदद के लिए... आया था।
-भाग जा यहॉं से, मदद के नाम पे चले हैं चोरी करने!
चौक पर आते-जाते दो-चार लोगों ने चोरी की बात सुनी। आज संडे था और सब लोग किसी शगूफे की तलाश में थे।
तभी उस चौक का एक दुकानदार आकर बोला-
-यह लड़का सुबह से मेरी दुकान के आगे न जाने किस मतलब से खड़ा था। मुझे भी शक है इस पर।
बात हो ही रही थी कि किसी ने उसे एक थप्पड़ जड़ दिया। किसी ने बढकर कॉलर पकड़ लिया।
तभी एक आदमी भीड़ चीरकर उस तक पहुँचा और बोला-
-अरे टखना, तू यहॉं क्या कर रहा है?
-मास्टर जी मुझे बचाइए!!
मास्टर जी ने सबको समझा-बुझाकर वहॉं से भेजा और टखना का कान पकड़कर स्कूल ले आए।
उसके बाद टखना ने उस किताब को जला दिया जिसमें लिखा था-
किसी की नि:स्वार्थ भाव से मदद करो तो जो आत्मिक खुशी मिलती है- उसे बयॉं करना आसान नहीं!!
टखना को लगा कि इस अनुभूति को भी बयॉं करना आसान नहीं है। उसने समझ लिया कि हर दिन या कम से कम हर संडे किसी लाचार की मदद करने का ख्याल दिमागी दिवालियेपन की निशानी है।
करेजा सिंह शाम को सिनेमा देखकर लौटा और पूछा-
कैसा रहा संडे?
मुझे शहर जाना है हर संडे!
करेजा सिंह लगभग हर संडे हास्टल से भागकर फिल्म देखने शहर जाता था और कभी पकड़ा भी नहीं गया।
क्या फिल्म देखनी है?
नहीं!
किसी रिश्तेदार के घर जाना है?
नहीं!
किसी लड़की से मिलना है क्या?
अरे नहीं भाई!!
उसे कोई बहाना भी नहीं सूझ रहा था कि क्या कहे! उसने ये कहकर टाल दिया कि बाद में बताऊँगा।
उस हॉस्टल का कानून हॉस्टल-परिसर से बाहर जाने की इजाजत नहीं देता था। टखना सिंह तब दसवीं क्लास का छात्र था और उसके उपर इसका भी काफी दबाव था।
शहर के चौक पर टखना का यह पहला संडे था। वह एक लाचार बुढिया को तलाश रहा था जिसे वह रास्ता पार करा सके। वह एक ऐसे भूखे-गरीब को तलाश रहा था जिसने दस दिन से कुछ न खाया हो। दो-चार भीखारी उसे मिले पर टखना को उनपर विश्वास नहीं हुआ।
सुबह का एक घंटा इसी तलाश में निकल गया। फिर उसने सोचा कि किसी रिक्शेवाले की मदद कर दे। दो चार रिक्शेवाले गुजरे भी लेकिन उनके रिक्शे पर कोई वजनदार सामान भी नहीं रखा था। दोपहर होते-होते वह निराश हो चला था कि तभी एक रिक्शे पर उसे भारी-भरकम सामान नजर आया। वह भागकर उसके पीछे पहुँचा और धक्का लगाने लगा। रिक्शेवाले ने रिक्शे का ब्रेक लगा दिया और पीछे मुड़कर चिल्लाया-
अबे कौन है बे, क्या निकाल रहा है कट्टे से??
टखना ने सकपकाकर कहा
- कुछ निकाल.. नहीं रहा.., मैं तो वजन देखकर.. आपकी मदद के लिए... आया था।
-भाग जा यहॉं से, मदद के नाम पे चले हैं चोरी करने!
चौक पर आते-जाते दो-चार लोगों ने चोरी की बात सुनी। आज संडे था और सब लोग किसी शगूफे की तलाश में थे।
तभी उस चौक का एक दुकानदार आकर बोला-
-यह लड़का सुबह से मेरी दुकान के आगे न जाने किस मतलब से खड़ा था। मुझे भी शक है इस पर।
बात हो ही रही थी कि किसी ने उसे एक थप्पड़ जड़ दिया। किसी ने बढकर कॉलर पकड़ लिया।
तभी एक आदमी भीड़ चीरकर उस तक पहुँचा और बोला-
-अरे टखना, तू यहॉं क्या कर रहा है?
-मास्टर जी मुझे बचाइए!!
मास्टर जी ने सबको समझा-बुझाकर वहॉं से भेजा और टखना का कान पकड़कर स्कूल ले आए।
उसके बाद टखना ने उस किताब को जला दिया जिसमें लिखा था-
किसी की नि:स्वार्थ भाव से मदद करो तो जो आत्मिक खुशी मिलती है- उसे बयॉं करना आसान नहीं!!
टखना को लगा कि इस अनुभूति को भी बयॉं करना आसान नहीं है। उसने समझ लिया कि हर दिन या कम से कम हर संडे किसी लाचार की मदद करने का ख्याल दिमागी दिवालियेपन की निशानी है।
करेजा सिंह शाम को सिनेमा देखकर लौटा और पूछा-
कैसा रहा संडे?
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