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Saturday 18 July 2009

कैसेट !!

एक दि‍न मैं अलमारी साफ कर रहा था। एक कोने में हैलमेट का एक डि‍ब्बा पड़ा था। जब मैंने उसे खोलकर देखा तो समझ नहीं आया कि‍ इसे फेंक दूँ या यूँ ही रहने दूँ। उसमें 1990-97 में रीलीज फि‍ल्मों के हि‍ट कैसेट्स थे।

ये वो जमाना था जब स्कूल-कॉलेज के दि‍नों में रंग, बलमा, कभी हाँ- कभी ना, दी‍वाना, चॉंदनी, लाल दुपट्टा मलमल का, तेजाब, साजन, खि‍लाड़ी, बाजीगर, तड़ीपार, आशि‍की, सलामी, इम्तेहान, चोर और चॉंद, दि‍ल है कि‍ मानता नहीं, जुनून, दि‍ल का क्या कसूर जैसे फि‍ल्मों के गाने लोगों के जुबान पर चढ़े हुए थे।


आज जब 20-30 रूपये के एक एम.पी.थ्री. में 50 से लेकर 150 गाने तक आ जाते हैं तब वे दि‍न याद आते हैं जब इसी कीमत पर एक कैसेट मि‍ला करता था- A साइड में 4-5 गाने और B साइड में भी इतने ही गाने। कम ही फि‍ल्मों में 10 गाने होते थे इसलि‍ए एक कैसेट को संपूर्ण बनाने के लि‍ए चार फॉर्मूले आजमाए जाते थे-
1)हि‍ट गाने को एक बार गायक की आवाज में,
2)उसी गाने को गायि‍का की आवाज में
3) उसी गाने को दोनों की आवाज में
4) उसी गाने का सैड वर्जन।


मेरा ख्याल है यह फॉर्मूला हि‍ट गानों के साथ तो आजमाया जा सकता था लेकि‍न सभी गानों के साथ नहीं। इसलि‍ए बाद के दि‍नों में दो चीजें सामने आईं-

पहली बात तो ये थी कि‍ कैसेट की कीमतों में इजाफा हुआ, वे 35 से 50 रूपये में मि‍लने लगीं। तब भी टी.सीरीज़ की कैसेट सबसे सस्ती हुआ करती थी और एच.एम.वी. सबसे महंगी। बाकि‍यों के नाम तो अब याद करने पड़ेंगे- वीनस,टि‍प्‍स, टाइम और न जाने क्‍या-क्‍या।


दूसरी बात, एक ही कैसेट में दो फि‍ल्मों के गाने रखे जाने लगे। और बाद में तो 3-4 फि‍ल्मों के गाने भी एक ही कैसेट में नजर आने लगे।


इन कैसेट्स को ज्यादा दि‍न तक इस्तमाल न करने पर उनमें सीलन आ जाती थी, रील फँसने का डर रहता था। जो कैसेट बर्बाद हो जाते थे, उसकी रील से मैंने पतंग उड़ाने की नाकाम कोशि‍श भी की थी।


खैर, एम.पी.थ्री. और सीडी, डीवीडी के आने के बाद मनोरंजन संसार में क्रांति‍-सी आ गई और कैसेट्स इति‍हास के पन्नों में दफन होने लगे। हालॉंकि‍ उक्‍त कंपनि‍यॉं घाटे के बावजूद अब भी चल रही हैं।



एक छोटे से कस्बे की सीडी की दुकान से मैं एम.पी.थ्री. पसंद कर रहा था, और मेरे बगल में एक बुजुर्ग महि‍ला कैसेट खरीद रही थी। उसने मुझसे पूछा कि‍ बेटा देखकर बताना ये कैसेट चल तो जाएगा ना! मैंने कैसेट चेक करते हुए यूँ ही पूछ लि‍या कि‍ दादी अम्मा, कैसेट पर इतने पैसे खराब क्यों कर रही हो। सीडी प्लेपयर क्यों नहीं ले लेती?
अम्मा मुस्कुराती हुई बोली- बेटा बात कैसेट की नहीं है, यह उस रि‍कॉर्डर पर चलती है, जि‍से मेरे पति‍ ने खास मेरे लि‍ए खरीदा था, सन् 1980 में!

Wednesday 15 July 2009

‘ब्‍लॉग-साहि‍त्‍य’ पर शोध की संभावना !!

ज्ञानदत्‍त जी ने ब्‍लॉग पर लि‍खे जाने वाले साहि‍त्‍य के लि‍ए 'साइबेरि‍त्‍य' नाम दि‍या है।
मैं ब्‍लॉग में लि‍खी जाने वाले साहि‍त्‍य के लि‍ए ‘ब्‍लॉगि‍त्‍य’ या 'ब्‍लॉगहि‍त्‍य' शब्‍द सुझाना चाहूँगा। वैसे साधारण शब्‍दों में ‘ब्‍लॉग-साहि‍त्‍य’ कहने पर भी वह अपने अर्थ को सही संप्रेषि‍त करता है। सवाल ये है कि‍ इस नाम को पहचान देने वाली प्रवृति‍यों को कैसे सीमाबद्ध कि‍या जाए, और कबाड़ में से काम की चीज कैसे ढ़ूँढ़ी जाए यानी साहि‍त्‍यि‍क सामग्री को कैसे सूचीबद्ध कि‍या जाए। इस शोध-कार्य के लि‍ए चि‍ट्ठा-चर्चा की भूमि‍का ऐति‍हासि‍क साबि‍त होने वाली है, और उसके बि‍ना ब्‍लॉग-साहि‍त्‍य की समझ अधूरी ही रह जाएगी।

हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य में रामचंद्र शुक्‍ल जी जैसे आलोचकों ने साहि‍त्‍य को कई वि‍भागों में वि‍भाजि‍त कि‍या है, काल और प्रवृति‍ के अनुसार उनको वि‍वेचि‍त कि‍या है। मेरा मानना है कि‍ वह दि‍न दूर नहीं, जब ब्‍लॉग पर लि‍खी जाने वाली कहानि‍यों, कवि‍ताओं, यात्रा-वृतांतों, संस्‍मरण, आत्‍मकथा आदि‍ पर शोधकार्य होना आरंभ हो जाएगा।
इसका स्‍पष्‍ट कारण ये है कि‍ ब्‍लॉग पर लि‍खी जानेवाली अच्‍छी रचनाओं को ज्‍यादा दि‍न तक उपेक्षि‍त नहीं रखा जा सकता। एक समय यह भी संभव है कि‍ ब्‍लॉग ही साहि‍त्‍य की कसौटी बन जाए, और पुस्‍तक रूप में छपने पर पाइरेटेड मानी जाए।
ब्‍लॉग साहि‍त्‍य है या नहीं, इस पर काफी चर्चा हुई। मैं अपना मत यहॉं रखते हुए कहना चाहूँगा कि‍ प्रिंट मीडि‍या की तरह ही ब्‍लॉग एक माध्‍यम भर है अपनी रचनाओं को प्रस्‍तुत करने के लि‍ए। अब जैसे प्रिंट मीडि‍या स्‍थापि‍त साहि‍त्‍यकारों को छापते रहते हैं और कोई नवोदि‍त रचनाकार अपनी पाण्‍डुलि‍पि‍ लि‍ए चार-पॉंच साल के लि‍ए कतार में खड़े रहते हैं, ब्‍लॉग ने वह कतार तोड़ दी है। ब्‍लॉग एक ऐसा ‘बि‍ग-बाजार’ है कि‍ यहॉं चौबीसो घंटे सेल लगा रहता है, इसलि‍ए इसमें बेतहाशा भीड़ होना लाजमी है। साथ ही कंपनी का लेबल चि‍पकाकर यहॉं कई बार खराब माल भी धड़ल्‍ले से बि‍क जाता है, तो कई बार उम्‍दा माल ग्राहकों को या तो महंगा लगता है या समझ से परे। खैर, ये तो ब्‍लॉग-साहि‍त्‍य की बात है।

आज जो साहि‍त्‍य पत्रि‍काओं में छप रही हैं, उसकी भाषा गरि‍ष्ठ और दार्शनि‍क होती जा रही हैं, और यही कारण है कि‍ उसे पढ़ने के लि‍ए अब आम आदमी की अभि‍रूचि घटी है और‍ उसका एकेडेमि‍क महत्‍व ज्‍यादा रह गया है। पत्रि‍काऍं अब वैचारि‍क हथि‍यार के रूप में इस्‍तमाल हो रही है जि‍समें संपादक/लेखक एक दूसरे पर प्रहार करते ज्‍यादा नजर आते हैं। अलबत्‍ता इनमें अच्‍छी कवि‍ताऍं/कहानि‍यॉं जरूर पढ़ने को मि‍ल जाती हैं।

साहि‍त्‍य के क्षेत्र में प्रति‍वर्ष नगण्‍य शोधकार्य ही अपनी मौलि‍कता और सर्जनात्‍मकता के कारण चर्चा का वि‍षय बनते हैं। आज जब एक से एक घटि‍या वि‍षयों पर शोध-कार्य हो सकता है, कि‍सी प्रोफेसर/प्राध्‍यापक के मि‍त्र कवि‍ के रद्दी काव्‍य-संग्रह को शोध के काबि‍ल समझा जा सकता है तो मुझे लगता है कि‍ हमारे ब्‍लॉग जगत में एक-से-एक अनमोल हीरे हैं, जि‍नके रचनात्‍मक वि‍वेक को कि‍सी महान रचनाकार से कम नहीं ऑका जा सकता। सवाल है कि‍ हम ऐसी रचनाओं को एकमत से स्‍वीकार करें और नि‍रपेक्ष भाव के साथ उसके साहि‍त्‍यि‍क महत्‍व का मूल्‍यांकन करें।
तो मि‍त्रों, भरोसा रखें, आप इति‍हास रच रहे हैं,ब्‍लॉग में साहि‍त्‍य रच रहे हैं, अभी शैशवावस्‍था में कुछ अस्‍थि‍रता जरूर नजर आ रही है मगर इसका भवि‍ष्‍य अत्‍यंत उज्‍ज्‍वल है।

जाते-जाते:
आशा जोगलेकर जी की कवि‍ता इस संदर्भ में प्रि‍य लगी-
कितनों ने यहाँ देखो कितने कलाम लिख्खे
संपादकों के दफ्तर कितने पयाम रख्खें ।
जूते ही घिस गये रे चक्कर लगा लगा कर
फिर देखा प्रकाशक की भी हाजिरी लगा कर ।
कविता की ये किताबें बिकती नही है यारों
शायर की मुफलिसी है दुनिया में आम यारों ।
इसी से तो ब्लॉग पर ही लिखने की हमने ठानी।
.......

Friday 10 July 2009

बूँदो को कहीं देखा है !!

बेरंग पत्तों पर सरसराती बूँदों को
देखे एक अरसा हुआ!
मुरझाए चेहरों के पीछे
मन तक है तरसा हुआ!

अभी एक कार रूकी है रेड लाइट पर
कि‍ यकायक चल पड़ा है वाइपर!
भीखू की हथेली पर पड़ी है चार बूँदें
मचलकर अपनी बहन को दि‍खा रहा है,
जो अभी छल्ले का करतब दि‍खाके
सुस्ता रही है छॉव में।
कभी जोर की बारि‍श में
छतरी उड़ा करती थी,
चहकते कदमों तले
राहें मुड़ा करती थी!
अब धूल है, ऑंधी है
गर्म हवाओं में होश उड़ा करता है!
आसमॉं पे होते थे
परींदों के घेरे।
नजरें तलाशती-सी हैं
बादलों के डेरे!

सुना है तेरे शहर में
हुई है बारि‍श!
कि‍ हवा का कोई झोंका
सि‍हराता है मन को
और बूँदे तन को!

कि‍ भीखू के चेहरे पर
चमक लौट आई है!
साथ ही लौटी है
खेतीहरों के खेतों में
सूखे फसलों की जीजि‍वि‍षा!!


और
अभी एक सपना देखा था
और अभी एक सपना टूटा है!!
बारि‍श की कोई बूँद
ऑंखों से छलक आई है...........

-जि‍तेन्‍द्र भगत

(सभी चि‍त्र गूगल से साभार)

Sunday 5 July 2009

ताकतवर-कमजोर और सही-गलत का युग्म क्‍या एक दूसरे के वि‍रोधी हैं?

जिंदगी के अनुभव के दौरान कई सवाल पैदा होते हैं। एक ऐसा ही सवाल जेहन में आता है- ताकतवर-कमजोर और सही-गलत का युग्म क्या एक दूसरे के वि‍रोधी हैं? जब मैं सही-गलत की बात सोचता हूँ तब डार्विन की बात याद आती है- वही जीवि‍त रह पाता है जो ताकतवर है। इसका मतलब यह है कि‍ संसार सि‍र्फ ताकतवर लोगों के लि‍ए है। क्या यह सार्वभौम सि‍द्धांत है? अगर यह सही होता तो सामाजी‍करण की प्रक्रि‍या में सही-गलत का कभी कोई सवाल उठाया ही नहीं गया होता ?
हम सभी ये जानते हैं कि‍ आज प्राय: हर देश का एक संवि‍धान है। वहॉं सही-गलत को ही आधार बनाकर सामाजि‍क संरचना नीर्मित की जाती है। नगर का ताकतवर समुदाय या व्यक्ति‍ कि‍सी कमजोर समुदाय या व्यक्ति को दबाने का प्रयास न करे, इसी चीज़ के लि‍ए कानून-कायदे बनाए जाते हैं, यानी सभ्यता के क्रमि‍क वि‍कास में इस बात पर जोर दि‍या गया कि‍ ताकत को नि‍यंत्रि‍त करने के लि‍ए सही-गलत को आधार बनाया जाए। इस आधार को नैति‍क माना गया।
सि‍कंदर, नेपोलि‍यन, हि‍टलर ने वि‍श्व वि‍जेता बनने के लि‍ए कई देशों पर कब्जा कि‍या, खून की नदि‍यॉं बहाई, नगरों में घुस-घुसकर आम लोगों की नृशंस हत्याऍं कीं।

इन वि‍जेताओं ने अपने नजरि‍ए से यह सुनि‍श्चि‍त कि‍या कि‍ सही क्या है। तो क्या ये मान लि‍या जाए कि‍ सही-गलत का वि‍चार एक वैयक्ति‍क वि‍चार है, एक भावात्माक वि‍चार है। और इस आधार पर यह तो सुनि‍श्चि‍‍त कि‍या जा सकता है कि‍ कौन ताकतवर है और कौन कमजोर मगर यह कभी सुनि‍श्चित‍ नहीं कि‍या जा सकता कि‍ क्या गलत है और क्या सही। पता नहीं कि‍सने कहा था- सत्‍य की हमेशा जीत होती है !!!!