तहसील नूरपूर (कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश) के जसूर इलाके में जो रेलवे स्टेशन पड़ता है, उसका नाम नूरपूर रोड है। वहॉं के स्टेशन मास्टर ने सलाह दी कि दिल्ली जाने के लिए अगर कन्फर्म टिकट नहीं है तो पठानकोट की बजाय चक्की बैंक स्टेशन जाओ।
चक्की बैंक से दिल्ली के लिए कई गाड़िया गुजरती है। चक्की बैंक के एक ट्रेवल-एजेंट ने सलाह दी कि अगर जम्मू मेल से जाना है तो पठानकोट जाओ क्योंकि वहॉं यह गाड़ी लगभग आधे घंटे रूकती है, जहॉं टी.टी. को सेट करने के लिए काफी समय मिल जाएगा।
पठानकोट में जम्मू मेल पौने सात बजे आती है, इसलिए मैंने सबसे पहले स्टेशन के पास खालसा हिंदू ढाबे में खाना खाया। उसके बाद दिल्ली के लिए 115/- की जेनरल टिकट ली और जम्मू मेल के एसी डब्बों के पास काले-कोटवाले की तलाश करने लगा।
मेरे पास नवंबर की ठंड से बचने और स्लीपर में सोने के लिए पर्याप्त कपड़े नहीं थे, इसलिए मैं चाहता था कि कम-से-कम 3एसी में जगह मिल जाए, मगर 2एसी और 3एसी के लिए आर.ए.सी. वाले पहले से ही टी.टी को घेरकर खड़े थे। मैं समझ गया अब स्लीपर में शरण लेनी पड़ेगी। स्लीपरवाले टी.टी. ने 350/- लेकर पक्की रसीद दी मगर कोई सीट नम्बर नही। उसने कहा कि गाड़ी चलने के एकाध घंटे बाद मिलना।
जम्मू मेल दिल्ली के लिए चल पड़ी। मैं स्लीपर बॉगी के दरवाजे के पास खड़ा था। वहीं एक कबाड़ीवाला गंदा और बदबूदार लबादा ओढे अपने कट्टे के ऊपर बैठा था। मै टी.टी. का इंतजार करने लगा ताकि सीट का पता चले। थोड़ी देर बाद टी.टी. आया और मुझे किनारे ले जाकर बोला
- सर, बड़ी मुश्किल से आर.ए.सी. वाले की सीट निकालकर आपको दे रहा हूँ, आप वहॉं जाकर लेट सकते हैं।
आप इतना रिक्वेस्ट कर रहे थे इसलिए मैंने आपका ध्यान रखा।
मैंने टी.टी. को धन्यवाद देते हुए धीरे से पूछा
- कितने?
- जो आप चाहें।
मैंने 200/- निकाल कर दिए।
200/- जेब में डालते हुए टी.टी. ने कहा कि ये सीट आर.ए.सी को जाना था और एक सवारी मुझे 400/- भी देने के लिए तैयार थी, पर चलिए आप 100/- और दे दीजिए।
इस बीच पास खड़ा कबाड़ीवाला दयनीय-सा चेहरा बनाए टी.टी. की ओर हाथ फैलाए खड़ा था। मैं टी.टी. से बात करने के दौरान सोच रहा था कि ये कबाड़ीवाला टी.टी. से यहॉं भीख कैसे मांग रहा है! वहॉं बल्ब की रौशनी काफी मद्धिम थी। गौर से देखने पर पता चला कि वह कबाड़ीवाला मुड़े-चुड़े 10-20 रूपये टी.टी. को पकड़ाने की कोशिश कर रहा था। टी.टी. की हैसियत पर यह किसी तमाचे से कम नहीं था। उसने कबाड़ीवाले पर थप्पड़ जड़ने शुरू कर दिए। वह बेचारा लड़खड़ाता, गिरता-पड़ता अपना कट्टा लेकर दूसरी तरफ चला गया।
अपनी सीट पर लेटे हुए मैं बॉगी के भीतर 3डी साउण्ड का अहसास कर रहा था- चलती ट्रेन की ताबड़-तोड़ आवाज,, कहीं लड़कियों का शोर-गुल, कहीं नवजात बच्चे का रोना, कहीं किसी बूढ़े की खॉंसी तो किसी का खर्राटा, किसी की पॉलीथीन और उसमें मूँगफली के चटखने की आवाजें। भाषाऍं भी अलग-अलग। मगर कुल मिलाकर यह एक शोर ही था, जिसमे मुझे सोने की कोशिश करनी थी ताकि कल दिल्ली पहुँचकर डाटा अपलोड करने के लिए सर में थकान हावी न रहे।
तभी ध्यान आया कि मैंने ब्रश नहीं की है। मैंने जल्दी से जूते पहने और ब्रश लेकर बाहर वाश बेसिन की तरफ आ गया।
ब्रश करना अभी शुरू ही किया था कि मेरी नजर दरवाजे के पास बैठे शख्स पर गई। वह वही कबाड़ीवाला था जो हाड़ कपॉंती ठंड की इस रात में लबादे में लिपटा कोने में बैठा हुआ था। उसकी दयनीय-सी सूरत पर मेरे लिए क्या भाव था- मैं ये नहीं समझ पाया मगर उसकी मुट्ठी में 10-20 रूपये अभी भी मुड़ी-चुड़ी हालत में फॅसे नजर आ रहे थे......
जितेन्द्र
Sunday 27 November 2011
Saturday 19 November 2011
हवा-हवाई
नवम्बर का महिना था। दिल्ली में मस्त बयार चल रही थी।
ऐसे ही एक खुशनुमा सुबह, जब राजस्थान से चलने वाली बस दिल्ली के धौलाकुँआ क्षेत्र से सरसराती हुई तेजी से गुजर रही थी।
स्लीपिंग कोचवाले इस बस में ऊपर की तरफ 4-5 साल के दो बच्चे आपस में बातें कर रहे थे।
-अले चुन्नू!
-हॉं मुन्नू!
-वहॉं देख क्या लिखा है!
-क्या लिखा है?
-इंडिया गेट!
-अले हॉं, दिल्ली आ गया! आ गया! आ गया!
-अरे मुन्नू, इतना मत लटक, गिर जाएगा!
-तू अपनी चिंता कर, तूने ऊपर नहीं पढ़ा क्या?
-नहीं तो!
- ठीक से पढ, ऊपर लिखा है एम्स!
- तो!
- तो क्या, गिरे तो बस को एम्स ले चलेंगे, नहीं तो इंडिया गेट !!
जितेन्द्र भगत
ऐसे ही एक खुशनुमा सुबह, जब राजस्थान से चलने वाली बस दिल्ली के धौलाकुँआ क्षेत्र से सरसराती हुई तेजी से गुजर रही थी।
स्लीपिंग कोचवाले इस बस में ऊपर की तरफ 4-5 साल के दो बच्चे आपस में बातें कर रहे थे।
-अले चुन्नू!
-हॉं मुन्नू!
-वहॉं देख क्या लिखा है!
-क्या लिखा है?
-इंडिया गेट!
-अले हॉं, दिल्ली आ गया! आ गया! आ गया!
-अरे मुन्नू, इतना मत लटक, गिर जाएगा!
-तू अपनी चिंता कर, तूने ऊपर नहीं पढ़ा क्या?
-नहीं तो!
- ठीक से पढ, ऊपर लिखा है एम्स!
- तो!
- तो क्या, गिरे तो बस को एम्स ले चलेंगे, नहीं तो इंडिया गेट !!
जितेन्द्र भगत
Thursday 3 November 2011
रिमोट कंट्रोल
(1)
-बेटा
-.............
-तुम पॉंच साल के होने वाले हो
-पॉंच यानी फाइव इयर, मेरा बर्ड-डे कब आ रहा है पापा। बताओ ना!
- बस आने ही वाला है। पर ये बताओ तुम मम्मा, नानू,नानी मॉं और दूसरे लोगों से बात करते हुए 'अबे' बोलने लगे हो।
बड़े लोगों को 'अबे' नहीं बोलते
, ठीक है!
-तो छोटे बच्चे को तो बोल सकते हैं!
-हॉं... नहीं किसी को नहीं बोलना चाहिए।
अच्छी बात नहीं है।
-मोहित और आदि को तो बोल सकता हूँ, वो तो मेरे साथ ही पढ़ता है।
- मैंने कहा ना- 'अबे' किसी को नहीं बोलना,ठीक है
- ठीक है 'अबे' नहीं बोलूँगा।
- याद रखना
, तुम्हे दुबारा कहना ना पड़े।
- 'अबे' बोला ना, नहीं बोलूँगा!!
(2)
- बेटा!
- हॉं पापा!
- तुम बदमाश होते जा रहे हो। तुमने मोहित को मारा।
-
नहीं पापा, पहले उसने ही मारा था। मैंने उसे कहा कि मुझसे दूर बैठो मगर वह मेरे पास आकर मेरी कॉपी............
- चुप रहो, मुझे तुम्हारी टीचर ने सब बता दिया है, तुमने उसकी कॉपी फाड़ी और उसे मारा भी
अब माफी के लिए गिड़गिड़ाओ वर्ना इस बार न बर्ड डे मनेगा ना गिफ्ट मिलेगा!
- ठीक है- गिड़-गिड़- गिड़-गिड़- गिड़-गिड़-................
(3)
- पापा, ये रिमोट वाली कार दिला दो ना!
- नहीं, अभी चार दिन पहले ही तो मौसा ने गिफ्ट किया था।
- पर वो तो खराब हो गई!
- उससे पहले संजय चाचू और मामू भी ने भी तो रिमोट वाली कार दिलवाई थी बेटा!
- पर आपने तो नहीं दिलवाई ना, प्लीज पापा, दिला दो ना- दिला दो ना!
मैं फिर दुबारा नहीं मॉंगूँगा, प्लीज-प्लीज!
- ठीक है, पर ध्यान रखना, दुबारा नहीं मॉंगना,और कार टूटनी नहीं चाहिए। ये लो!
-ठीक है
!
- अरे मोहित, तू कहॉं जा रहा है ? पापा ये मोहित है, मेरे स्कूल में पढता है।
पापा मैं इसके साथ खेलने जा रहा हूँ, बाय
!
- अरे कार तो लेता जा.....रिमोट वाली.......!!??
- आप इसे घर ले जाओ, ठीक से रख देना मैं आकर इससे खेलूँगा!
मैं मार्केट से घर जाते हुए सोचता रहा कि बचपन में मेरे पिता जी का मुझपर कितना कंट्रोल रहा होगा........
-बेटा
-.............
-तुम पॉंच साल के होने वाले हो
-पॉंच यानी फाइव इयर, मेरा बर्ड-डे कब आ रहा है पापा। बताओ ना!
- बस आने ही वाला है। पर ये बताओ तुम मम्मा, नानू,नानी मॉं और दूसरे लोगों से बात करते हुए 'अबे' बोलने लगे हो।
बड़े लोगों को 'अबे' नहीं बोलते
, ठीक है!
-तो छोटे बच्चे को तो बोल सकते हैं!
-हॉं... नहीं किसी को नहीं बोलना चाहिए।
अच्छी बात नहीं है।
-मोहित और आदि को तो बोल सकता हूँ, वो तो मेरे साथ ही पढ़ता है।
- मैंने कहा ना- 'अबे' किसी को नहीं बोलना,ठीक है
- ठीक है 'अबे' नहीं बोलूँगा।
- याद रखना
, तुम्हे दुबारा कहना ना पड़े।
- 'अबे' बोला ना, नहीं बोलूँगा!!
(2)
- बेटा!
- हॉं पापा!
- तुम बदमाश होते जा रहे हो। तुमने मोहित को मारा।
-
नहीं पापा, पहले उसने ही मारा था। मैंने उसे कहा कि मुझसे दूर बैठो मगर वह मेरे पास आकर मेरी कॉपी............
- चुप रहो, मुझे तुम्हारी टीचर ने सब बता दिया है, तुमने उसकी कॉपी फाड़ी और उसे मारा भी
अब माफी के लिए गिड़गिड़ाओ वर्ना इस बार न बर्ड डे मनेगा ना गिफ्ट मिलेगा!
- ठीक है- गिड़-गिड़- गिड़-गिड़- गिड़-गिड़-................
(3)
- पापा, ये रिमोट वाली कार दिला दो ना!
- नहीं, अभी चार दिन पहले ही तो मौसा ने गिफ्ट किया था।
- पर वो तो खराब हो गई!
- उससे पहले संजय चाचू और मामू भी ने भी तो रिमोट वाली कार दिलवाई थी बेटा!
- पर आपने तो नहीं दिलवाई ना, प्लीज पापा, दिला दो ना- दिला दो ना!
मैं फिर दुबारा नहीं मॉंगूँगा, प्लीज-प्लीज!
- ठीक है, पर ध्यान रखना, दुबारा नहीं मॉंगना,और कार टूटनी नहीं चाहिए। ये लो!
-ठीक है
!
- अरे मोहित, तू कहॉं जा रहा है ? पापा ये मोहित है, मेरे स्कूल में पढता है।
पापा मैं इसके साथ खेलने जा रहा हूँ, बाय
!
- अरे कार तो लेता जा.....रिमोट वाली.......!!??
- आप इसे घर ले जाओ, ठीक से रख देना मैं आकर इससे खेलूँगा!
मैं मार्केट से घर जाते हुए सोचता रहा कि बचपन में मेरे पिता जी का मुझपर कितना कंट्रोल रहा होगा........
Wednesday 19 October 2011
अब कहॉं मिलेंगें वो साथी
यहॉं आना ठीक वैसा ही लगता है जैसे ऑफिस और मीटिंग से निकलकर खेल के उस मैदान पर चले आना जहॉं बचपन में अपने दोस्तों के साथ खूब खेला करते थे। ऐसा महसूस होता है जैसे मैं अपने काम में ज्यादा ही व्यस्त हो गया और साथ खेलने वाले लोग अब न जाने क्या कर रहे होंगे, कहॉं होंगे।
खुशी होती है उन लोगों को अब तक सक्रिय देखकर जो 2-3 साल पहले भी इतने ही सक्रिय थे। जो लोग इस रिश्ते को निभा पाए हैं मैं आश्वस्त होकर कह सकता हूँ कि नेट के नेटवर्क के बाहर भी उनके रिश्ते भी इतने ही गहरे होंगे।
कुछ दिन पहले मोबाइल गुम होने के बाद मुझे एंड्रायड फीचर वाला मोबाइल फोन (एल जी- ऑप्टीमस ब्लैक-पी 970) खरीदने का मौका मिला। उसमें मैंने वाइ-फाई से सेट हिंदी का टूल लोड किया जिससे मैं हिंदी ब्लाग पढ़ पा रहा हूँ।
शायद ये मुझे फिर से ब्लॉग की तरफ खींच पाए।
ब्लॉगवाणी के चले जाने के बाद ब्लॉग पढना-लिखना बंद सा हो गया था। अब इसकी जगह कौन सा एग्रीगेटर ज्यादा चलन में हैं, उसका लिंक दे तो अच्छा रहे।
क्या कोई बंधू बता सकता है कि मेरे एड़ायड फोन में हिंदी को पढ पाने का बेहतर तरीका/टूल कौन सा हो सकता है।
जल्दी ही मिलूँगा
जितेन
खुशी होती है उन लोगों को अब तक सक्रिय देखकर जो 2-3 साल पहले भी इतने ही सक्रिय थे। जो लोग इस रिश्ते को निभा पाए हैं मैं आश्वस्त होकर कह सकता हूँ कि नेट के नेटवर्क के बाहर भी उनके रिश्ते भी इतने ही गहरे होंगे।
कुछ दिन पहले मोबाइल गुम होने के बाद मुझे एंड्रायड फीचर वाला मोबाइल फोन (एल जी- ऑप्टीमस ब्लैक-पी 970) खरीदने का मौका मिला। उसमें मैंने वाइ-फाई से सेट हिंदी का टूल लोड किया जिससे मैं हिंदी ब्लाग पढ़ पा रहा हूँ।
शायद ये मुझे फिर से ब्लॉग की तरफ खींच पाए।
ब्लॉगवाणी के चले जाने के बाद ब्लॉग पढना-लिखना बंद सा हो गया था। अब इसकी जगह कौन सा एग्रीगेटर ज्यादा चलन में हैं, उसका लिंक दे तो अच्छा रहे।
क्या कोई बंधू बता सकता है कि मेरे एड़ायड फोन में हिंदी को पढ पाने का बेहतर तरीका/टूल कौन सा हो सकता है।
जल्दी ही मिलूँगा
जितेन
Sunday 19 June 2011
चीटियों की लाश!!
कमरे की दीवारों के तमाम मोड़ों और फर्श पर बारीक गड्ढो से होकर चीटियों की लंबी कतार आवागमन में इस तरह व्यस्त थीं जैसे कोई त्योहार हो इनके यहॉं। सबके हाथों में सफेद रंग की कोई चीज थी।
इन दिनों घर के हरेक कोने में, किचन में, यहॉं तक कि फ्रिज में भी चीटियों का कब्जा हो गया था। बेड पर सोते हुए काट लेती थी, हैंगर और सर्ट के कॉलर में भी ये छिपकर बैठी होती थी। कल बेटे के बाजू में इनके काटने से मैं काफी परेशान था और किसी उपाय की तलाश में था। पर इन्हें अपने घर से निकालना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन लग रहा था। इसलिए लक्ष्मण-रेखा हाथ में लेकर मैं इनकी यात्रा मार्ग में जगह-जगह रेडलाइट बनाने लगा।
सभी यात्री अपनी जगह ऐसे अटक कर खड़े होने लगे थे जैसे पहाड़ी रास्तों पर बर्फबारी या चट्टानें खिसकने से गाड़ियॉं अटककर खड़ी हो जाती है।
लक्ष्मण रेखा काफी प्रभावी लग रहा था। सैकड़ों की संख्या में चीटियॉं बेहोश लगने लगी थी। मुझे ऐसा लगा जैसे उसके आसपास की चीटियॉं उसे घेरकर खड़ी हो। समझ नहीं आया मैंने ये सही किया या गलत! मेरे परिवार के कुछ सदस्य मैंदानों में रोज सुबह चीटियों को आटा/चीनी देकर आते हैं, पर वे भी मेरे इस नृशंस कृत्य पर आलोचना करने की बजाए इन्हें बाहर करने के दूसरे उपायों पर चर्चा करते पाए गए।
15 मिनट बाद सैकड़ों चीटियों की लाश फर्श पर अपनी जगह पड़ी हुई थी,और इन लाशों को ठिकाने लगाने के लिए झाड़ू-पोछा ढूँढा जा रहा था.....
एक बेतुका-सा ख्याल आया कि सरकार और अनशनकारियों के बीच कुछ ऐसा ही तो नहीं चल रहा है.......
इन दिनों घर के हरेक कोने में, किचन में, यहॉं तक कि फ्रिज में भी चीटियों का कब्जा हो गया था। बेड पर सोते हुए काट लेती थी, हैंगर और सर्ट के कॉलर में भी ये छिपकर बैठी होती थी। कल बेटे के बाजू में इनके काटने से मैं काफी परेशान था और किसी उपाय की तलाश में था। पर इन्हें अपने घर से निकालना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन लग रहा था। इसलिए लक्ष्मण-रेखा हाथ में लेकर मैं इनकी यात्रा मार्ग में जगह-जगह रेडलाइट बनाने लगा।
सभी यात्री अपनी जगह ऐसे अटक कर खड़े होने लगे थे जैसे पहाड़ी रास्तों पर बर्फबारी या चट्टानें खिसकने से गाड़ियॉं अटककर खड़ी हो जाती है।
लक्ष्मण रेखा काफी प्रभावी लग रहा था। सैकड़ों की संख्या में चीटियॉं बेहोश लगने लगी थी। मुझे ऐसा लगा जैसे उसके आसपास की चीटियॉं उसे घेरकर खड़ी हो। समझ नहीं आया मैंने ये सही किया या गलत! मेरे परिवार के कुछ सदस्य मैंदानों में रोज सुबह चीटियों को आटा/चीनी देकर आते हैं, पर वे भी मेरे इस नृशंस कृत्य पर आलोचना करने की बजाए इन्हें बाहर करने के दूसरे उपायों पर चर्चा करते पाए गए।
15 मिनट बाद सैकड़ों चीटियों की लाश फर्श पर अपनी जगह पड़ी हुई थी,और इन लाशों को ठिकाने लगाने के लिए झाड़ू-पोछा ढूँढा जा रहा था.....
एक बेतुका-सा ख्याल आया कि सरकार और अनशनकारियों के बीच कुछ ऐसा ही तो नहीं चल रहा है.......
Saturday 9 April 2011
शिमला के बहाने ट्रेन का सफर (भाग-3)
माल रोड से हमें गाड़ी समय पर मिल गई और हम शिमला स्टेशन करीब 15:40 तक पहुँच गए। इशान इस खाली-से स्टेशन पर बेखौफ इधर-उधर भाग रहा था। अब हमारे सफर में एक नई कड़ी जुड़ने वाली थी- रेल मोटर।
इशान की खुशी का ठिकाना नहीं था, उसके लिए यह ट्रेन के इंजन में बैठने जैसा अनुभव था, वह भाग कर उसमें जा बैठा।
आप इसे पटरी पर दौड़नेवाली बस या मोटर-कार मान सकते हैं, जिसमें मात्र 16 सीटें ही होती हैं। आगे-पीछे, अगल-बगल और ऊपर की तरफ रेल-मोटर की खिड़कियॉं पारदर्शी होती हैं जिससे आसमान के अलावा आप पटरी के दोनों तरफ पेड़-पौधे, पहाड़ और सुरंगों को आसानी से देख सकते हैं।
रेल-मोटर के आगे-पीछे पटरियों का नजर आना एक अच्छा अनुभव था। इस अनुभव में खटकनेवाली अगर कोई बात थी तो यही कि यह डी.टी.सी. बस की तरह शोर मचाती हुई और हिलती हुई भाग रही थी।
इसके बावजूद इशान और सोनिया अपनी सीट पर कुछ देर बाद सोते हुए पाए गए। एक बात तो बताना भूल ही गया कि इस रेल मोटर के ड्राइवर एक सरदार जी थे।
रेल-मोटर में निक और हाइडी श्रीम्प्टन तथा उनके दोनो बच्चे एमीजन और और एलियट से मिलना भी एक अच्छा इत्तफाक रहा। इस तरह करीब दो-ढाई घंटे बाद हम बड़ोग पहुँच गए, जो 33 नंबर टनल के ठीक साथ बना हुआ है।
33 नंबर टनल इस पूरे सफर का सबसे खास पड़ाव है, और सही मायने में मेरी मंजिल तो यही थी। शिमला जाते हुए मैंने कई बार यहॉं रूकने का मन बनाया था, लेकिन मौका आज मिला, और वह भी सपरिवार।
जब मैंने बड़ोग रूकने का कार्यक्रम बनाया तब मुझे पक्का नहीं था कि एक छोटे बच्चे के साथ वहॉं रूकने और खाने-पीने की क्या व्यवस्था होगी। ट्रेन के ऑन-लाइन रिजर्वेशन कराने के दौरान ये पता करने के लिए मैंने बड़ोग स्टेशन का फोन नंबर( 01792238814) इंटरनेट से बहुत मुश्िकल से ढूँढ निकाला। स्टेशन मास्टर अपेक्षाकृत सभ्य भाषा में बोला, जिसके हम आदी नहीं हैं। तब उसने बताया था कि यहॉं किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं आएगी।
रेल-मोटर से उतरने के बाद ऐसा लगा जैसे अचानक ही अंधेरा घिर आया हो क्योंकि यह घने वृक्षों और पहाड़ के ठीक साथ ही था।अब मुझे इस स्टेशन पर रहने-खाने की चिंता सता रही थी।
क्रमश:
अन्ना हजारे की बात सरकार ने मान ली है और भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल का ड़ाफ्ट 30 जून तक तैयार हो जाएगा, और उसके बाद मानसून सत्र में इस बील को पेश किया जाएगा। इस आंदोलन ने गॉंधी के प्रति आस्था और आम जनता के आत्मविश्वास को पुनर्जीवित कर दिया है।
लेकिन.......क्या यह कह देने मात्र से हमारा कर्तव्य पूरा हो जाता है कि हम इस आंदोलन के साथ है- इस सवाल का संबंध सिर्फ इस आंदोलन से नहीं है, बल्कि यहॉं खुद के भीतर झॉंकने की जरूरत है कि हम कहॉं-कहॉं दूसरों का काम करने के लिए रिश्वत लेते हैं और अपना काम कराने के लिए रिश्वत देते हैं।
सतत क्रमश:
इशान की खुशी का ठिकाना नहीं था, उसके लिए यह ट्रेन के इंजन में बैठने जैसा अनुभव था, वह भाग कर उसमें जा बैठा।
आप इसे पटरी पर दौड़नेवाली बस या मोटर-कार मान सकते हैं, जिसमें मात्र 16 सीटें ही होती हैं। आगे-पीछे, अगल-बगल और ऊपर की तरफ रेल-मोटर की खिड़कियॉं पारदर्शी होती हैं जिससे आसमान के अलावा आप पटरी के दोनों तरफ पेड़-पौधे, पहाड़ और सुरंगों को आसानी से देख सकते हैं।
रेल-मोटर के आगे-पीछे पटरियों का नजर आना एक अच्छा अनुभव था। इस अनुभव में खटकनेवाली अगर कोई बात थी तो यही कि यह डी.टी.सी. बस की तरह शोर मचाती हुई और हिलती हुई भाग रही थी।
इसके बावजूद इशान और सोनिया अपनी सीट पर कुछ देर बाद सोते हुए पाए गए। एक बात तो बताना भूल ही गया कि इस रेल मोटर के ड्राइवर एक सरदार जी थे।
रेल-मोटर में निक और हाइडी श्रीम्प्टन तथा उनके दोनो बच्चे एमीजन और और एलियट से मिलना भी एक अच्छा इत्तफाक रहा। इस तरह करीब दो-ढाई घंटे बाद हम बड़ोग पहुँच गए, जो 33 नंबर टनल के ठीक साथ बना हुआ है।
33 नंबर टनल इस पूरे सफर का सबसे खास पड़ाव है, और सही मायने में मेरी मंजिल तो यही थी। शिमला जाते हुए मैंने कई बार यहॉं रूकने का मन बनाया था, लेकिन मौका आज मिला, और वह भी सपरिवार।
जब मैंने बड़ोग रूकने का कार्यक्रम बनाया तब मुझे पक्का नहीं था कि एक छोटे बच्चे के साथ वहॉं रूकने और खाने-पीने की क्या व्यवस्था होगी। ट्रेन के ऑन-लाइन रिजर्वेशन कराने के दौरान ये पता करने के लिए मैंने बड़ोग स्टेशन का फोन नंबर( 01792238814) इंटरनेट से बहुत मुश्िकल से ढूँढ निकाला। स्टेशन मास्टर अपेक्षाकृत सभ्य भाषा में बोला, जिसके हम आदी नहीं हैं। तब उसने बताया था कि यहॉं किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं आएगी।
रेल-मोटर से उतरने के बाद ऐसा लगा जैसे अचानक ही अंधेरा घिर आया हो क्योंकि यह घने वृक्षों और पहाड़ के ठीक साथ ही था।अब मुझे इस स्टेशन पर रहने-खाने की चिंता सता रही थी।
क्रमश:
अन्ना हजारे की बात सरकार ने मान ली है और भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल का ड़ाफ्ट 30 जून तक तैयार हो जाएगा, और उसके बाद मानसून सत्र में इस बील को पेश किया जाएगा। इस आंदोलन ने गॉंधी के प्रति आस्था और आम जनता के आत्मविश्वास को पुनर्जीवित कर दिया है।
लेकिन.......क्या यह कह देने मात्र से हमारा कर्तव्य पूरा हो जाता है कि हम इस आंदोलन के साथ है- इस सवाल का संबंध सिर्फ इस आंदोलन से नहीं है, बल्कि यहॉं खुद के भीतर झॉंकने की जरूरत है कि हम कहॉं-कहॉं दूसरों का काम करने के लिए रिश्वत लेते हैं और अपना काम कराने के लिए रिश्वत देते हैं।
सतत क्रमश:
Thursday 7 April 2011
शिमला के बहाने ट्रेन का सफर भाग-2
शिमला स्टेशन बहुत खूबसूरत स्टेशन है, जहॉं बैठकर आप बोर नहीं हो सकते। वैसे भी मेरी यही इच्छा रहती थी कि मैं शिमला आऊँ तो स्टेशन से ही वापस लौट जाऊँ।
इसके पीछे कारण है- शिमला की बढ़ती आबादी,घटते पेड़ और बढ़ते मकान,व्यवसायीकरण, ट्रैफिक और अत्यधिक शोर।
हम यहॉं 12 बजे तक पहुँच गए थे, और शाम को वापस 4 बजे यहीं आकर हमें बड़ोग के लिए रेल मोटर पकड़ना था। सबसे पहले हमने स्टेशन पर ही रेस्टॉरेंट में खाना खाया। अब 4 घंटे में हमें माल रोड से घुमकर वापस आना था, इसलिए हमने लिफ्ट तक जाने के लिए टैक्सी ली।
15-20 मिनट में हम माल रोड पर आ चुके थे। ऊपर जाने तक के रास्ते में कपड़ों की मार्केट लगी हुई थी। मुझे वहॉं कुछ जैकेट काफी पसंद आए, पर समय की कमी की वजह से मैंने सोचा कि दिल्ली से खरीद लूँगा।(वापस लौटने पर दिल्ली में मैंने वैसे जैकेट ढ़ँढने की कोशिश की पर वे पसंद नहीं आई )।
उसी मार्केट में चलते हुए इशान खिलौने की जिद करने लगा। मैंने उसे 50 रूपये का एक छोटा-सा टेलिस्कोप दिलवाकर पीछा छुटवाया। हमें यहॉं पर दो घंटे बिताने थे, पर ये समय जाते देर न लगी।
लाल रंग के उस टेलिस्कोप को इशान कैमरा ही समझ रहा था। जैसे मैं उसका फोटो ले रहा था, वह भी मुँह से 'खिच-खिच' की आवाज निकाल लेकर मेरा फोटो ले रहा था।
उसके बाद मैंने आसपास के मनोरम दृश्यों का फोटो लिया-
और अपने हमसफर का भी-
फिर इशान को आइसक्रीम दिलाया और स्टेशन के लिए चल पड़े।
नीचे की तस्वीर में ऊपर की तरफ जाखू पर्वत पर हनुमान जी की सबसे ऊँची मूर्ति नजर आ रही है, जिसका अनावरण इसी साल हुआ था और उस अवसर पर अभिषेक बच्चन भी मौजूद थे।
माल रोड से पश्चिम की तरफ,जिधर बी.एस.एन.एल का ऑफिस और विधानसभा है, उधर हर एकाध-घंटे पर टवेरा टाइप की सरकारी गाड़ी चलती है। हम उसका इंतजार करने लगे।
3 बज गए पर तबतक कोई गाड़ी नहीं आई। वहॉं खड़े ट्रैफिक पुलिस से हम 3-4 बार गाड़ी का समय पूछ चुके थे, पर उसने इंतजार करने को कहा। हमें लगा यदि समय पर हम स्टेशन न पहुँचे तो रात हमें शिमला में बितानी पड़ेगी और रेल मोटर के मजेदार सफर से भी हम वंचित रह सकते थे।
क्रमश:
इसके पीछे कारण है- शिमला की बढ़ती आबादी,घटते पेड़ और बढ़ते मकान,व्यवसायीकरण, ट्रैफिक और अत्यधिक शोर।
हम यहॉं 12 बजे तक पहुँच गए थे, और शाम को वापस 4 बजे यहीं आकर हमें बड़ोग के लिए रेल मोटर पकड़ना था। सबसे पहले हमने स्टेशन पर ही रेस्टॉरेंट में खाना खाया। अब 4 घंटे में हमें माल रोड से घुमकर वापस आना था, इसलिए हमने लिफ्ट तक जाने के लिए टैक्सी ली।
15-20 मिनट में हम माल रोड पर आ चुके थे। ऊपर जाने तक के रास्ते में कपड़ों की मार्केट लगी हुई थी। मुझे वहॉं कुछ जैकेट काफी पसंद आए, पर समय की कमी की वजह से मैंने सोचा कि दिल्ली से खरीद लूँगा।(वापस लौटने पर दिल्ली में मैंने वैसे जैकेट ढ़ँढने की कोशिश की पर वे पसंद नहीं आई )।
उसी मार्केट में चलते हुए इशान खिलौने की जिद करने लगा। मैंने उसे 50 रूपये का एक छोटा-सा टेलिस्कोप दिलवाकर पीछा छुटवाया। हमें यहॉं पर दो घंटे बिताने थे, पर ये समय जाते देर न लगी।
लाल रंग के उस टेलिस्कोप को इशान कैमरा ही समझ रहा था। जैसे मैं उसका फोटो ले रहा था, वह भी मुँह से 'खिच-खिच' की आवाज निकाल लेकर मेरा फोटो ले रहा था।
उसके बाद मैंने आसपास के मनोरम दृश्यों का फोटो लिया-
और अपने हमसफर का भी-
फिर इशान को आइसक्रीम दिलाया और स्टेशन के लिए चल पड़े।
नीचे की तस्वीर में ऊपर की तरफ जाखू पर्वत पर हनुमान जी की सबसे ऊँची मूर्ति नजर आ रही है, जिसका अनावरण इसी साल हुआ था और उस अवसर पर अभिषेक बच्चन भी मौजूद थे।
माल रोड से पश्चिम की तरफ,जिधर बी.एस.एन.एल का ऑफिस और विधानसभा है, उधर हर एकाध-घंटे पर टवेरा टाइप की सरकारी गाड़ी चलती है। हम उसका इंतजार करने लगे।
3 बज गए पर तबतक कोई गाड़ी नहीं आई। वहॉं खड़े ट्रैफिक पुलिस से हम 3-4 बार गाड़ी का समय पूछ चुके थे, पर उसने इंतजार करने को कहा। हमें लगा यदि समय पर हम स्टेशन न पहुँचे तो रात हमें शिमला में बितानी पड़ेगी और रेल मोटर के मजेदार सफर से भी हम वंचित रह सकते थे।
क्रमश:
शिमला के बहाने ट्रेन का सफर भाग-1
6 दिसम्बर 2010 की रात हमदोनों अपने बेटे इशान के साथ पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँचे। वैसे टिकट सब्जी मंडी से थी, लेकिन ट्रेन लेट थी और सब्जी मंडी का रेलवे स्टेशन काफी सुनसान रहता है, इसलिए वहॉं इंतजार करना हमें उचित नहीं लगा।
इस सफर का पूरा सिड्यूल इस प्रकार था-
6 दिसंबर - दिल्ली से कालका - 20:45 से 4:40 हावड़ा दिल्ली कालका मेल(2311)फर्स्ट एसी 900/-प्रति व्यक्ति
7 दिसंबर - कालका से शिमला - 5:30 से 10-15 शिवालिक डिलक्स एक्सप्रेस(241) 280/- प्रति व्यक्ति
7 दिसंबर - शिमला से बड़ोग - 16:40 से 17:15 रेल मोटर प्रति व्यक्ति
8 दिसंबर - बड़ोग से कालका - 13:30 से 16:40 हिमालयन क्वीन(256) 167/- प्रति व्यक्ति
8 दिसंबर - कालका से दिल्ली - 17:45 से 21:50 कालका शताब्दी(2012) फर्स्ट सीसी 990/- प्रति व्यक्ति
रात का सफर आरामदायक रहा,फर्स्ट एसी होने के बावजूद और लेट नाइट ट्रेन होने की वजह से चाय-पानी की सुविधा यहॉं नहीं मिली। खैर, सुबह 6 बजे के करीब हम कालका जी पहुँच गए, सही समय से करीब 2 घंटे लेट। इशान की नींद अभी पूरी नहीं हुई थी।
वास्तव में इशान ट्रेन को लेकर काफी क्रेजी रहता है, इसलिए यह पूरा सफर मैंने मुख्यत: ट्रेन पर फोकस किया था, किसी टूरिस्ट आकर्षक के लिए नहीं। इसलिए टॉय ट्रेन, रेल कार, चेयर कार आदि को ध्यान में रखकर मैंने टिकट कटाया था।
दूसरी बात ये थी कि सोनिया को कार से उलटी की शिकायत रहती है, इसलिए उसके साथ सफर करने के लिए मेरे पास ट्रेन एक आसान विकल्प था।
ट्रेन कोहरे की वजह से हावड़ा से दिल्ली लेट पहुँची थी, इसलिए कालका भी लेट पहूँची, लेकिन कालका से चलनेवाली शिवालिक ट्रेन इससे कनेक्टेड है, इसलिए वह भी इस ट्रेन के कालका पहुँचने का इंतजार करती है।
धीरे-धीरे भोर हो चला था। बीच में इशान की नींद खुली, पर बोतल से दूध पीने के बाद वह फिर सो गया। इशान को मैंने अपने गोद में सुलाया हुआ था, और सीट काफी छोटी होने की वजह से काफी दिक्कत हो रही थी। कभी दुबारा आना हो तो बच्चे के लिए भी सीट बुक कराना समझदारी रहेगी।
पहाड़ों के बीच ट्रेन चली जा रही थी। कालका से शिमला के बीच 105 सुरंग है। मैं इंतजार कर रहा था कि कब टनल नंबर 33 आए और हम वहॉं उतर कर नाश्ता वगैरह ले सके।
क्रमश:
इस सफर का पूरा सिड्यूल इस प्रकार था-
6 दिसंबर - दिल्ली से कालका - 20:45 से 4:40 हावड़ा दिल्ली कालका मेल(2311)फर्स्ट एसी 900/-प्रति व्यक्ति
7 दिसंबर - कालका से शिमला - 5:30 से 10-15 शिवालिक डिलक्स एक्सप्रेस(241) 280/- प्रति व्यक्ति
7 दिसंबर - शिमला से बड़ोग - 16:40 से 17:15 रेल मोटर प्रति व्यक्ति
8 दिसंबर - बड़ोग से कालका - 13:30 से 16:40 हिमालयन क्वीन(256) 167/- प्रति व्यक्ति
8 दिसंबर - कालका से दिल्ली - 17:45 से 21:50 कालका शताब्दी(2012) फर्स्ट सीसी 990/- प्रति व्यक्ति
रात का सफर आरामदायक रहा,फर्स्ट एसी होने के बावजूद और लेट नाइट ट्रेन होने की वजह से चाय-पानी की सुविधा यहॉं नहीं मिली। खैर, सुबह 6 बजे के करीब हम कालका जी पहुँच गए, सही समय से करीब 2 घंटे लेट। इशान की नींद अभी पूरी नहीं हुई थी।
वास्तव में इशान ट्रेन को लेकर काफी क्रेजी रहता है, इसलिए यह पूरा सफर मैंने मुख्यत: ट्रेन पर फोकस किया था, किसी टूरिस्ट आकर्षक के लिए नहीं। इसलिए टॉय ट्रेन, रेल कार, चेयर कार आदि को ध्यान में रखकर मैंने टिकट कटाया था।
दूसरी बात ये थी कि सोनिया को कार से उलटी की शिकायत रहती है, इसलिए उसके साथ सफर करने के लिए मेरे पास ट्रेन एक आसान विकल्प था।
ट्रेन कोहरे की वजह से हावड़ा से दिल्ली लेट पहुँची थी, इसलिए कालका भी लेट पहूँची, लेकिन कालका से चलनेवाली शिवालिक ट्रेन इससे कनेक्टेड है, इसलिए वह भी इस ट्रेन के कालका पहुँचने का इंतजार करती है।
धीरे-धीरे भोर हो चला था। बीच में इशान की नींद खुली, पर बोतल से दूध पीने के बाद वह फिर सो गया। इशान को मैंने अपने गोद में सुलाया हुआ था, और सीट काफी छोटी होने की वजह से काफी दिक्कत हो रही थी। कभी दुबारा आना हो तो बच्चे के लिए भी सीट बुक कराना समझदारी रहेगी।
पहाड़ों के बीच ट्रेन चली जा रही थी। कालका से शिमला के बीच 105 सुरंग है। मैं इंतजार कर रहा था कि कब टनल नंबर 33 आए और हम वहॉं उतर कर नाश्ता वगैरह ले सके।
क्रमश:
Tuesday 1 March 2011
इन दिनों !!
जिंदगी के कई रंग होते हैं
कुछ रंग वह खुद दिखाती है,
कुछ हमें भरना पड़ता है!
उन्हीं रंगो की तलाश में
भटक रहा हूँ मैं इन दिनों!
(1)
अनजाने किसी मोड़ पर
पता न पूछ लेना!
हर शख्स की निगाह
शक से भरी है इन दिनों!
मौसम से करें क्या शिकवा
हर साल वह तो आता है!
इस बार की बयार है कुछ और
कयामत आई है इन दिनों!
फरेबी बन गया हूँ मैं
खाया है जो मैंने धोखा!
अब रोटी से नहीं
भूख मिटती है इन दिनों!
(2)
सुना है उनकी तस्वीर
बदली-बदली सी लग रही है!
सच तो ये है कि वे खुद भी
बदले-बदले-से हैं इन दिनों।
पहले इक नजर के इशारे में
हाजिर हो जाते थे!
अब तो पुकारने पर भी
नजर नहीं आते हैं इन दिनों!
तुम हँसती थी
बेवजह
चहकती थी हर वक्त!
आज वजह तो नहीं है मगर
काश हँस देती इन दिनों!
(3)
मुझसे न पूछो यारों
है घर कहॉं तुम्हारा!
घर बसाने की चाहत में
बेघर-सा हूँ इन दिनों!
बहुत दूर आ गया हूँ
पीछे रह गई हैं यादे!
बेगाने शहर में ओ मॉं!
बरबस याद आती हो इन दिनो!
यूँ तो जिंदगी है काफी लंबी
और हसरतों की उम्र उससे भी लंबी!
जिंदा रहने की हसरत बनी रहे
इतना भी काफी है इन दिनों!!
-जितेन्द्र भगत
कुछ रंग वह खुद दिखाती है,
कुछ हमें भरना पड़ता है!
उन्हीं रंगो की तलाश में
भटक रहा हूँ मैं इन दिनों!
(1)
अनजाने किसी मोड़ पर
पता न पूछ लेना!
हर शख्स की निगाह
शक से भरी है इन दिनों!
मौसम से करें क्या शिकवा
हर साल वह तो आता है!
इस बार की बयार है कुछ और
कयामत आई है इन दिनों!
फरेबी बन गया हूँ मैं
खाया है जो मैंने धोखा!
अब रोटी से नहीं
भूख मिटती है इन दिनों!
(2)
सुना है उनकी तस्वीर
बदली-बदली सी लग रही है!
सच तो ये है कि वे खुद भी
बदले-बदले-से हैं इन दिनों।
पहले इक नजर के इशारे में
हाजिर हो जाते थे!
अब तो पुकारने पर भी
नजर नहीं आते हैं इन दिनों!
तुम हँसती थी
बेवजह
चहकती थी हर वक्त!
आज वजह तो नहीं है मगर
काश हँस देती इन दिनों!
(3)
मुझसे न पूछो यारों
है घर कहॉं तुम्हारा!
घर बसाने की चाहत में
बेघर-सा हूँ इन दिनों!
बहुत दूर आ गया हूँ
पीछे रह गई हैं यादे!
बेगाने शहर में ओ मॉं!
बरबस याद आती हो इन दिनो!
यूँ तो जिंदगी है काफी लंबी
और हसरतों की उम्र उससे भी लंबी!
जिंदा रहने की हसरत बनी रहे
इतना भी काफी है इन दिनों!!
-जितेन्द्र भगत
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