बद्रीनाथ से लौटते हुए जोशीमठ में अंधेरा हो चुका था। रात वहीं होटल में रूके। सुबह 4 बजे मैंने नीतिन को औली चलने के लिए उठाया जो यहॉं से 12 कि.मी. ही दूर था। सोचा था, हम दोनों औली से 10 बजे तक लौट आऍंगे और उसके बाद सभी दिल्ली के लिए रवाना हो जाऍंगे। मगर सोचा हुआ होता कहॉं है।
जैसे ही हम दोनों चलने को हुए, शैलेंद्र जी और रोहित- दोनों औली जाने के लिए तैयार मिले। पहले तो इरादा था कि जोशीमठ से रोपवे (केबल कार) के द्वारा औली पहुँचा जाए, मगर 6 बजे ये संभव नहीं था। उसका किराया 500/- प्रति व्यक्ति था, और वह 9 बजे से आरंभ होता था। बजट और समय- दोनों का नुक्सान देखते हुए मैंने कार से ही जाना तय किया। ऊपर सड़क मार्ग खत्म होने के बाद 2-3 कि.मी. पैदल चलना पड़ा। कार भी पहले ही खड़ी करनी पड़ी क्योंकि रास्ते में बड़े गड्ढे और उभरी हुई चट्टानें थी।
वहॉं से हमारे चारो तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ ही नजर आ रहे थे। माना पर्वत,अल गामिन, कामेट, मुकुट पर्वत, त्रिशूल और नंदा देवी जैसे प्रसिद्ध पर्वतीय चोटियॉं के अलावा हाथी-घोड़ा-पालकी और सुमेरू पर्वत सर उठाए खड़े थे। सुमेरू पर्वत का नाम रामायण में आता है, जब लक्ष्मण के लिए हनुमान संजीवनी बूटी ढूँढते हुए यहॉं आए थे और इस पर्वत को उठा ले गए थे। इसलिए हैरानी की बात नहीं कि यहाँ के गॉंव में हनुमान की पूजा नहीं की जाती है।
मेरा 5 मेगापिक्सल का निकॉन कैमरा धुंध में तस्वीरें लेने में नाकाम रहा क्योंकि उसका ऑटोफोकस खराब हो चुका था। इसलिए जानकारी के लिए गूगल की तस्वीरें दिखाकर काम चला रहा हूँ।
कंचनजंगा( 8,586 मीटर /28,169 फीट) के बाद भारत की दूसरी सबसे ऊँची चोटी नंदा देवी ( 7,816 मीटर/25,643 फीट)मेरी दायीं तरफ ऐसी नजर आ रही थी जैसे गाए बैठी हो, वैसे तेवर शेर-चीते सा था-
नन्दा देवी पर्वत ( 7,816 मीटर/25,643 फीट)
ऑली के ठीक सामने त्रिशूल पर्वत नजर आता है-
त्रिशूल पर्वत (7,120 मीटर / 23,360 फीट)
उसके साथ कामेट और मुकुट पर्वत नजर आ रहा था-
कामेट (7,756 मीटर / 25,446 फीट)
मुकुट पर्वत ( 7,242 मीटर / 23,760 फीट)
और बायीं तरफ देखने पर बद्रीनाथ की दिशा में नीलकंठ नजर आ रहा था।
नीलकंठ (6,596 मीटर / 21,640 फीट)
उसी के आसपास माना पर्वत और अल-गामिन भी थे-
माना पर्वत (7,272 मीटर / 23,858 फीट)
अबी गामिन (7,355 मीटर / 24,130 फीट)
तुलना के लिए जानकारी दे रहा हूँ कि विश्व की उच्चतम चोटी एवरेस्ट की ऊँचाई 8,848 मीटर / 29,029 फीट है जो नेपाल में है। उसके बाद के-2 (ऊॅंचाई- 8611 मीटर/ 28251) का नंबर आता है जो पाकिस्तान में है।
पर्वतों के बीच ईश्वर की इस भव्य और विशालकाय रचना से अपनी लघुता और छुद्रता- दोनों का अहसास हो रहा था।
इन पर्वतों को देखकर ऐसा लग रहा था मानों ये सीख दे रही हो कि विशाल होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है विशाल होते हुए स्थिर रहना। इतनी ऊँचाई पर हम सोचते हैं कि हमने पर्वतों पर फतह कर ली। पर सच्चाई ये है कि हमने प्रकृति के मूल रूप को सड़क मार्ग, वृक्ष उन्मूलन और डैम-निर्माण से रौंद डाला।
इसलिए मुझे कभी-कभी लगता है कि प्रकृति जहॉ सबसे सुंदर नजर आती है, वहीं वह क्रूरतम रूप में प्रकट होकर मनुष्यों से प्रतिकार लेती है। पिछले 200 सालों में उत्तराखण्ड 116 भूकंप झेल चुका है और उनमें सबसे ज्यादा विनाश 1803, 1905, 1988 और 1991 में हुआ था।
ऑली लगभग 3000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित एक बेहद छोटा हिल स्टेशन है जहॉं जी.एम.वी.एन. का एक रिसॉर्ट क्लीफ टॉप ही नजर आता है। इस मकान के अलावा यहॉं रोपवे के टावर और उसके दो स्टेशन नजर आते हैं।
पैदल चलते हुए हमने महसूस किया कि यहॉं पशुओं की हडि्डयाँ जहॉं-तहॉं बिखरी पड़ी थी। संभवत: ये जानवर बर्फीली ठंड न झेल पाने के कारण मर जाते होंगे।
पार्किंग-स्थल के पास गर्म दूध के साथ ब्रेड-बटर खाते हुए पहाड़ों को निहारना अच्छा लग रहा था। इस बीच शैलेंद्र जी ने महसूस किया कि इतनी दूर आकर इन दृश्यों से बाकी लोग वंचित रह जाऍं, यह ठीक नहीं है। उन्होंने फोन कर दिया कि रोपवे आरंभ होने पर वे सभी ऑली आ जाऍं। अब वे मेरे ऑली आने के निर्णय से खुश नजर आ रहे थे।
आपको ये बताना है कि ऑली की इस तस्वीर में यह रास्ता किस काम आता है?
रिसॉर्ट के पास टावर नं. 8 का रोपवे स्टेशन था। उसके बाद आखरी स्टेशन (नं 10) एक कि.मी. ऊपर नजर आ रहा था। हम टहलते हुए वहॉं तक जा पहुँचे।
मैं यह सोचकर उदास हो रहा था कि कार से आने की वजह से मैं रोपवे का मजा नहीं ले पाउॅंगा। इस यात्रा के अगले और अंतिम भाग में बताऊँगा कि मैं रोपवे की सवारी कर पाया या नहीं!
फिलहाल आपको बॉंयी तरफ दो तस्वीरें दिखा रहा हूँ। आपको बताना है कि ऑली में इन खंभों का इस्तमाल किस लिए किया जाता है?
क्रमश:
अन्य कड़ियॉं-
बद्रीनाथ- औली से वापसी(अंतिम कड़ी)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 3)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 2)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 1)
Tuesday 22 June 2010
Saturday 12 June 2010
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 2)
सोनिया श्रृषिकेश से 70 कि.मी. आगे देवप्रयाग तक आ चुकी थी और मैं देवप्रयाग से लगभग 40 कि.मी. आगे श्रीनगर में होटल तलाश रहा था।
देवप्रयाग में अलकनंदा नदी और भगीरथी- दोनों का संगम है। यहीं से इनकी धारा मिलकर गंगा कहलाती है। देवप्रयाग से श्रीनगर की तरफ मुड़ते ही बद्रीनाथ तक के सफर में अलकनंदा नदी ही मार्गदर्शिका थी!
देवप्रयाग पहुँचने से पहले बोर्ड पर लिखी दूरियाँ- लोगों का हौसला तोड़ रही थी!
मैं और नीतिन-दोनों श्रीनगर के दो चक्कर काट आए। पर अंत में जी.एम.वी.एन.( गढ़वाल मंडल विकास निगम) के टूरिस्ट बंगले में खाने और रूकने का सही इंतजाम लगा।
बुधवार, करीब साढ़े बारह बजे तब दोनों गाड़ियॉं श्रीनगर आ गई। सबने पहले खाना खाया, उसके बाद ये तय किया गया कि सोनिया का यहॉं अकेले रूकना ठीक नहीं है, इसलिए वह बद्रीनाथ तक साथ चले। रही 'उलटी' की बात, दवाई और बाकी चीजें श्रीनगर से खरीद ली गई।
करीब दो बजे हमारा काफिला श्रीनगर से आगे चल पड़ा। अगला मुख्य स्थल था- रूद्रप्रयाग। यहीं से एक रास्ता (एन.एच.109)ओखीमठ, गुप्तकाशी होते हुए केदारनाथ के लिए जाता है। सोनिया और इशान अब मेरे साथ मेरी कार में थे।
रूद्रप्रयाग से केदारनाथ का 75 कि.मी. का सफर तीन घंटे में पूरा किया जा सकता है, जबकि रूद्रप्रयाग से बद्रीनाथ करीब 165 कि.मी.दूर है और आगे जोशीमठ में एक समय-सीमा के बाद गाड़ियों को रोक दिया जाता है। मैंने ये बात सोनिया को बताई।
- वैसे तो मैं यहीं से लौट जाना चाहती हूँ मगर केदारनाथ पास है तो वहीं चल पड़ो। क्या फर्क पड़ता है!
- फर्क बस उतना ही है जितना शिव और विष्णु में है। तुम्हारी जिधर श्रद्धा हो उधर चल पड़ो!
वह चुप हो गई। शायद उसके मन में कम दूरी की वजह से शिवधाम केदारनाथ जाने का इरादा बन रहा था।
- केदारनाथ के लिए गौरीकुंड से 14 कि.मी. पैदल चढ़ाई करनी पड़ती है- कहो तो चल पड़ूँ!
- नहीं-नहीं, फिर तो बद्रीनाथ ही ठीक है, कार वहॉं तक चली तो जाएगी न!
- ये तो कार पर निर्भर करती है, वैसे सड़क तो बद्रीनाथ से 4 कि.मी. आ्गे आखिरी गॉंव माना तक जाती है,जहॉं से आगे चाइना बार्डर है।
- अच्छा, तो क्या हम चीन के बिल्कुल नजदीक जा रहे हैं!!
- हॉं!
- वहॉं से हम कुछ चाइनिज सामान तो खरीद सकते हैं ना!!
- लगता है तबीयत ठीक हो रही है,खरीदारी के नाम पर तो तुम लोग I.C.U. से बाहर निकलने के लिए तैयार हो जाती हो!
- ऐसी बात नहीं है!
सोनिया ने मुस्कुराते हुए कहा।
- फिर ?
- अब तुम्हारे साथ हूँ ना, इसलिए तबीयत ठीक लग रही है!
रूद्रप्रयाग से 32 कि.मी. आगे कर्णप्रयाग आता है। नैनीताल की तरफ से आने वाली एन.एच 87 यहीं पर खत्म होती है। यहॉं से सड़क काफी चौड़ी हो गई थी और मैं यहॉं कार को औसतन 80 कि.मी. प्रति घंटे की गति से चलाने का जोखिम उठा रहा था। मेरे साथ समस्या ये है कि जब किसी मंजिल पर पहुँचना होता है तो मुझे बीच में न रूकना अच्छा लगता है न ही खाना-पीना।
- तुम्हारा व्रत तो बद्रीनाथ में ही खुलेगा, पर हम दीन-हीन प्राणियों पर दया करो,कहीं गाड़ी रोको और नाश्ता-पानी कराओ, बच्चा भी साथ है।
- कर्णप्रयाग से बस 16 कि.मी. ही दूर है चमोली। तुम्हे पता है इृस जगह की खासियत?
- हॉं , 'कोई मिल गया' की शूटिंग यहॉं हुई थी।
- गलत, यहीं से व्यापक स्तर पर 'चिपको आंदोलन' चलाया गया था।
अलकनंदा नदी सामने से इठलाती आ रही थी, मानो कह रही हो, जल्दी जाओ बद्रीनाथ, मैं वहीं से आ रही हूँ!! चमोली में हम आधे घंटे के लिए रूके। तब तक हौंडा सिटी और स्कॉर्पियो भी चमोली पहुँच चुकी थी।
चमोली से जोशीमठ की दूरी 58 कि.मी. रह गई थी। शाम के 5 बजनेवाले थे, पर जून के पहले हफ्ते में सूरज की तपीश अपने चरम पर थी। पहाड़ तो था, पर ठंड नहीं थी। कुछ लोग इस बात से परेशान थे कि उन्होंने गरम कपड़ो से अपने बस्ते का बोझ यूँ ही बढ़ाया!
जोशीमठ पहॅुचने के बाद एक-दो जगह बैरियर लगा हुआ था,जहॉं से पुलिसवाले गाड़ियों को बायीं तरफ खड़ी करवा रहे थे। मुझसे चुक हो गई या फिर पुलिसवालों ने मुश्तैदी नहीं दिखाई, इसलिए मैं उस बैरियर की अनदेखी कर जोशीमठ से एक-दो कि.मी. बाहर निकल आया। मुझे संदेह तो था, इसलिए आगे एक पेट्रोल पंप पर टंकी फुल कराने के बाद पिछली गाड़ियों का इंतजार करने लगा।
तभी शैलेन्द्र जी का फोन आया कि जोशीमठ में दोनों गाड़ियॉं रोक दी गई हैं,वापस आ जाओ, रात को यहीं हॉटल में रूकना पड़ेगा! मैंने तय किया कि अगर मैं अब बद्रीनाथ नहीं जा सकता, तो जोशीमठ से 15 कि.मी. ऊपर 'औली' हिल स्टेशन में रात गुजारूँगा! सुबह वहॉं से उतरकर बाकी दोनों गाड़ियों के साथ बद्रीनाथ के लिए चल पड़ुँगा।
-'आपको अभी रात में ही जाना है तो जाओ, कल सुबह 5 बजे हम सभी आपको वहीं मिलेंगे।'
शैलेंद्र जी की इस बात से मैं शर्मिदा हो गया। बाद में पता चला कि औली में बस एक ही रिसौर्ट है और वहॉं जाने के लिए दो-तीन कि.मी. पैदल भी चलना पड़ता है।
जोशीमठ में खाना खाते,बच्चे के लिए दूध आदि का इंतजाम करते-करते रात बारह बजे बिस्तर नसीब हुआ। कल सुबह बद्रीनाथ के लिए करीब 44 कि.मी. का सफर तय करना था, यह सोचते हुए मैं नींद के आगोश में चला गया।
पिछली कड़ी पढने के लिए क्लिक करें -
बद्रीनाथ- औली से वापसी(अंतिम कड़ी)
पर्वतों से आज में टकरा गया (भाग 4)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 3)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 1)क्रमश:
देवप्रयाग में अलकनंदा नदी और भगीरथी- दोनों का संगम है। यहीं से इनकी धारा मिलकर गंगा कहलाती है। देवप्रयाग से श्रीनगर की तरफ मुड़ते ही बद्रीनाथ तक के सफर में अलकनंदा नदी ही मार्गदर्शिका थी!
देवप्रयाग पहुँचने से पहले बोर्ड पर लिखी दूरियाँ- लोगों का हौसला तोड़ रही थी!
मैं और नीतिन-दोनों श्रीनगर के दो चक्कर काट आए। पर अंत में जी.एम.वी.एन.( गढ़वाल मंडल विकास निगम) के टूरिस्ट बंगले में खाने और रूकने का सही इंतजाम लगा।
बुधवार, करीब साढ़े बारह बजे तब दोनों गाड़ियॉं श्रीनगर आ गई। सबने पहले खाना खाया, उसके बाद ये तय किया गया कि सोनिया का यहॉं अकेले रूकना ठीक नहीं है, इसलिए वह बद्रीनाथ तक साथ चले। रही 'उलटी' की बात, दवाई और बाकी चीजें श्रीनगर से खरीद ली गई।
करीब दो बजे हमारा काफिला श्रीनगर से आगे चल पड़ा। अगला मुख्य स्थल था- रूद्रप्रयाग। यहीं से एक रास्ता (एन.एच.109)ओखीमठ, गुप्तकाशी होते हुए केदारनाथ के लिए जाता है। सोनिया और इशान अब मेरे साथ मेरी कार में थे।
रूद्रप्रयाग से केदारनाथ का 75 कि.मी. का सफर तीन घंटे में पूरा किया जा सकता है, जबकि रूद्रप्रयाग से बद्रीनाथ करीब 165 कि.मी.दूर है और आगे जोशीमठ में एक समय-सीमा के बाद गाड़ियों को रोक दिया जाता है। मैंने ये बात सोनिया को बताई।
- वैसे तो मैं यहीं से लौट जाना चाहती हूँ मगर केदारनाथ पास है तो वहीं चल पड़ो। क्या फर्क पड़ता है!
- फर्क बस उतना ही है जितना शिव और विष्णु में है। तुम्हारी जिधर श्रद्धा हो उधर चल पड़ो!
वह चुप हो गई। शायद उसके मन में कम दूरी की वजह से शिवधाम केदारनाथ जाने का इरादा बन रहा था।
- केदारनाथ के लिए गौरीकुंड से 14 कि.मी. पैदल चढ़ाई करनी पड़ती है- कहो तो चल पड़ूँ!
- नहीं-नहीं, फिर तो बद्रीनाथ ही ठीक है, कार वहॉं तक चली तो जाएगी न!
- ये तो कार पर निर्भर करती है, वैसे सड़क तो बद्रीनाथ से 4 कि.मी. आ्गे आखिरी गॉंव माना तक जाती है,जहॉं से आगे चाइना बार्डर है।
- अच्छा, तो क्या हम चीन के बिल्कुल नजदीक जा रहे हैं!!
- हॉं!
- वहॉं से हम कुछ चाइनिज सामान तो खरीद सकते हैं ना!!
- लगता है तबीयत ठीक हो रही है,खरीदारी के नाम पर तो तुम लोग I.C.U. से बाहर निकलने के लिए तैयार हो जाती हो!
- ऐसी बात नहीं है!
सोनिया ने मुस्कुराते हुए कहा।
- फिर ?
- अब तुम्हारे साथ हूँ ना, इसलिए तबीयत ठीक लग रही है!
रूद्रप्रयाग से 32 कि.मी. आगे कर्णप्रयाग आता है। नैनीताल की तरफ से आने वाली एन.एच 87 यहीं पर खत्म होती है। यहॉं से सड़क काफी चौड़ी हो गई थी और मैं यहॉं कार को औसतन 80 कि.मी. प्रति घंटे की गति से चलाने का जोखिम उठा रहा था। मेरे साथ समस्या ये है कि जब किसी मंजिल पर पहुँचना होता है तो मुझे बीच में न रूकना अच्छा लगता है न ही खाना-पीना।
- तुम्हारा व्रत तो बद्रीनाथ में ही खुलेगा, पर हम दीन-हीन प्राणियों पर दया करो,कहीं गाड़ी रोको और नाश्ता-पानी कराओ, बच्चा भी साथ है।
- कर्णप्रयाग से बस 16 कि.मी. ही दूर है चमोली। तुम्हे पता है इृस जगह की खासियत?
- हॉं , 'कोई मिल गया' की शूटिंग यहॉं हुई थी।
- गलत, यहीं से व्यापक स्तर पर 'चिपको आंदोलन' चलाया गया था।
अलकनंदा नदी सामने से इठलाती आ रही थी, मानो कह रही हो, जल्दी जाओ बद्रीनाथ, मैं वहीं से आ रही हूँ!! चमोली में हम आधे घंटे के लिए रूके। तब तक हौंडा सिटी और स्कॉर्पियो भी चमोली पहुँच चुकी थी।
चमोली से जोशीमठ की दूरी 58 कि.मी. रह गई थी। शाम के 5 बजनेवाले थे, पर जून के पहले हफ्ते में सूरज की तपीश अपने चरम पर थी। पहाड़ तो था, पर ठंड नहीं थी। कुछ लोग इस बात से परेशान थे कि उन्होंने गरम कपड़ो से अपने बस्ते का बोझ यूँ ही बढ़ाया!
जोशीमठ पहॅुचने के बाद एक-दो जगह बैरियर लगा हुआ था,जहॉं से पुलिसवाले गाड़ियों को बायीं तरफ खड़ी करवा रहे थे। मुझसे चुक हो गई या फिर पुलिसवालों ने मुश्तैदी नहीं दिखाई, इसलिए मैं उस बैरियर की अनदेखी कर जोशीमठ से एक-दो कि.मी. बाहर निकल आया। मुझे संदेह तो था, इसलिए आगे एक पेट्रोल पंप पर टंकी फुल कराने के बाद पिछली गाड़ियों का इंतजार करने लगा।
तभी शैलेन्द्र जी का फोन आया कि जोशीमठ में दोनों गाड़ियॉं रोक दी गई हैं,वापस आ जाओ, रात को यहीं हॉटल में रूकना पड़ेगा! मैंने तय किया कि अगर मैं अब बद्रीनाथ नहीं जा सकता, तो जोशीमठ से 15 कि.मी. ऊपर 'औली' हिल स्टेशन में रात गुजारूँगा! सुबह वहॉं से उतरकर बाकी दोनों गाड़ियों के साथ बद्रीनाथ के लिए चल पड़ुँगा।
-'आपको अभी रात में ही जाना है तो जाओ, कल सुबह 5 बजे हम सभी आपको वहीं मिलेंगे।'
शैलेंद्र जी की इस बात से मैं शर्मिदा हो गया। बाद में पता चला कि औली में बस एक ही रिसौर्ट है और वहॉं जाने के लिए दो-तीन कि.मी. पैदल भी चलना पड़ता है।
जोशीमठ में खाना खाते,बच्चे के लिए दूध आदि का इंतजाम करते-करते रात बारह बजे बिस्तर नसीब हुआ। कल सुबह बद्रीनाथ के लिए करीब 44 कि.मी. का सफर तय करना था, यह सोचते हुए मैं नींद के आगोश में चला गया।
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बद्रीनाथ- औली से वापसी(अंतिम कड़ी)
पर्वतों से आज में टकरा गया (भाग 4)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 3)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 1)क्रमश:
Friday 11 June 2010
बद्रीनाथ : एक रोमांचक सफर (भाग 1)
हरिद्वार में गंगा के घाट पर बैठा मैं सोच रहा था- कहॉं आज सुबह दिल्ली की गर्मी में अपने जरूरी काम को निपटा रहा था और अब कहॉं सारे काम छोड़कर कपड़े और पर्स आदि की रखवाली कर रहा हूँ।
शाम हो चली थी।
-'फुफा अब आप जाकर ड़ुबकी लगा आओ। सामान मैं देख लूँगा।'
रोहित ने तौलिया उठाते हुए कहा।
मैं अपने तीन वर्षीय बेटे इशान को लेकर डुबकी लगा आया। पानी पहले तो ठंडा लगा फिर बाद में ठीक लगने लगा। इशान पहले तो गंगा की लहरें देखकर तैरने की जीद कर रहा था पर पानी में उतरते ही चीखें मारकर रोने लगा। अपने मामा नीतिन के साथ वह जल्दी ही बाहर आ गया।
खैर, गंगा स्नान सम्पन्न हुआ। सम्पन्न इसलिए कि मेरे ससुराल पक्ष में इस स्नान के लिए महिनों से कार्यक्रम बन रहा था। मंगलवार की यह रात हरिद्वार के एक होटल में कटी।
अगली सुबह तीनों गाड़ियाँ आगे की यात्रा के लिए तैयार हो गई। मैं एसेंट चला रहा था, जो बिल्कुल नई थी - मात्र 3000 कि.मी. चली हुई। यात्रा से एक दिन पहले ही नीतिन ने यह गाड़ी अपनी छोटी बहन से माँग ली थी। दूसरे की गाड़ी चलाते हुए मैं वैसे ही हिचकता हूँ और यदि नई गाड़ी हो तो यह हिचक और भी बढ़ जाती है। सुरक्षित आने-जाने के साथ-साथ उसे डेंट से बचाने की चिंता तो रहती ही है।
पहले मेरा इरादा था कि इनोवा बुक करा लेते हैं, पर उसके लिए लगभग 18 हजार का खर्च आ रहा था, और वे सात दिन का वक्त ले रहे थे। हम सभी का सिड्यूल बहुत टाइट था इसलिए मंगलवार (1 जून 2010) चलकर शुक्रवार को ही दिल्ली लौटने की असंभव समय-सीमा तय की गई थी।
1) मंगलवार- दिल्ली से हरिद्वार 250 कि.मी. (मैदानी रास्ता)
2) बुधवार - हरिद्वार से बद्रीनाथ 350 कि.मी.(पहाड़ी रास्ता)
3) वीरवार - बद्रीनाथ से हरिद्वार
4) शुक्रवार - हरिद्वार से दिल्ली।
यही कारण है कि तीनों परिवार अपनी-अपनी गाड़ियों में चल पड़े।
(नोट: दिल्ली से पानीपत का रास्ता (एन.एच 1)एकदम मस्त है, थोड़ी दिक्कत अलिपुर के आसपास जाम में आती है। पानीपत में फ्लाइओवर के नीचे से दाई तरफ कैराना, शामली होते हुए मुजफ्फरनगर आता है और वहीं से हमें मेरठ की ओर से आनेवाली नेशनल हाईवे 58 मिल जाती है। जी हॉं, ये वही हाइवे है जो हमें हरिद्वार, देवप्रयाग, श्रीनगर, रूद्रप्रयाग,कर्णप्रयाग,चमोली, जोशीमठ होते हुए बद्रीनाथ तक ले जाती है।)
श्रृषिकेश के बाद पहाड़ी रास्ता शुरू हो जाता है। पहाड़ी रास्तों पर ड्राइविंग करना मेरा पैशन है। पर यह कुछ यात्रियों के लिए बुरा अनुभव होता है। मैं जब श्रृषिकेश से देवप्रयाग होते हुए श्रीनगर तक का सफर कर चुका था, तब तक इस कार में बैठे पॉच यात्रियों में से चार लोग 'उल्टी' गंगा बहा चुके थे। सिर्फ मैं ही बचा था और पहाड़ी रास्ते और गंगा की तेज धार के साथ कार चलाने का आनंद ले रहा था। ये भी अजीब संयोग हुआ कि सोनिया (मेरी पत्नी) अपने मौसेरे भार्इ शैलेन्द्र जी के साथ हौंडा सिटी में बैठी थी और इशान मेरे साथ। हौंडा सिटी अच्छी कार है मगर कुछ नीची होने की वजह से उसे ब्रेकर और ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर बहुत धीरे-धीरे निकालना होता है।
जब मैं दोपहर 11 बजे तक श्रीनगर तक पहुँचा तब मेरे मोबाइल नेटवर्क ने काम करना शुरू किया। घंटी बजी, फोन उठाया तो उधर से गुस्से से भरी आवाज आई-
-कहॉं पहुँच गए ?
-श्रीनगर, और तुम लोग ?
-इतनी जल्दी है पहुँचने की तो परिवार के साथ आने की जरूरत क्या थी !! मुझे और भाभी को कई बार उल्टी आ चुकी है और तुम्हारा फोन भी नहीं लग रहा था!
मैंने पूछा- अभी कहॉं तक पहुँचे हो?
-मैं देवप्रयाग में ही होटल लेकर रूक रही हूँ! तुम और बाकी लोग बद्रीनाथ हो आओ! उधर से लौटोगे मैं यहीं मिलूँगी।
यह सुनकर मैं हैरान रह गया! सफर का जोश पल भर में गायब हो गया और जो अब तक महसूस नहीं हो रहा था, अचानक वो थकान भी मुझे ग्रसने लगा। मेरा घुटना जकड चुका था और कमर भी अकड़ चुका था। सोनिया के साथ मैं अमरनाथ जैसी कठिन यात्रा कर चुका हूँ। उसके बाद से ही उसने तय कर लिया था कि वह आगे से पहाड़ी यात्रा कभी नहीं करेगी। वह इस यात्रा में यही सोचकर आई थी कि सभी लोग हरिद्वार से ही दिल्ली लौट जाऍगे।
अंतत: यह तय हुआ कि देवप्रयाग की बजाए श्रीनगर में रहने की व्यवस्था अच्छी है, इसलिए पहले सभी वहॉं इकटठे होंगे। मेरे पास एकाध घंटे का समय था, जिसमें मुझे बीमार लोगों के लिए हॉटल ढूँढना था।
क्रमश:
(पहाड़ो पर ड्राइविंग करने का अलग ही आनंद है (और खतरा भी) मगर नुक्सान ये है कि आप न पहाड़ देख सकते हैं न ही नदी, अपनी निगाहों को सिर्फ सड़क पर गड़ाए रखनी पड़ती है। सबसे बुरी बात तो ये है कि आप कैमरे में इन दृश्यों को कैद नहीं कर पाते! ऊपर की तस्वीरें गूगल से साभार)
अन्य कड़ियॉं-
बद्रीनाथ- औली से वापसी(अंतिम कड़ी)
पर्वतों से आज में टकरा गया (भाग 4)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 3)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 2)
शाम हो चली थी।
-'फुफा अब आप जाकर ड़ुबकी लगा आओ। सामान मैं देख लूँगा।'
रोहित ने तौलिया उठाते हुए कहा।
मैं अपने तीन वर्षीय बेटे इशान को लेकर डुबकी लगा आया। पानी पहले तो ठंडा लगा फिर बाद में ठीक लगने लगा। इशान पहले तो गंगा की लहरें देखकर तैरने की जीद कर रहा था पर पानी में उतरते ही चीखें मारकर रोने लगा। अपने मामा नीतिन के साथ वह जल्दी ही बाहर आ गया।
खैर, गंगा स्नान सम्पन्न हुआ। सम्पन्न इसलिए कि मेरे ससुराल पक्ष में इस स्नान के लिए महिनों से कार्यक्रम बन रहा था। मंगलवार की यह रात हरिद्वार के एक होटल में कटी।
अगली सुबह तीनों गाड़ियाँ आगे की यात्रा के लिए तैयार हो गई। मैं एसेंट चला रहा था, जो बिल्कुल नई थी - मात्र 3000 कि.मी. चली हुई। यात्रा से एक दिन पहले ही नीतिन ने यह गाड़ी अपनी छोटी बहन से माँग ली थी। दूसरे की गाड़ी चलाते हुए मैं वैसे ही हिचकता हूँ और यदि नई गाड़ी हो तो यह हिचक और भी बढ़ जाती है। सुरक्षित आने-जाने के साथ-साथ उसे डेंट से बचाने की चिंता तो रहती ही है।
पहले मेरा इरादा था कि इनोवा बुक करा लेते हैं, पर उसके लिए लगभग 18 हजार का खर्च आ रहा था, और वे सात दिन का वक्त ले रहे थे। हम सभी का सिड्यूल बहुत टाइट था इसलिए मंगलवार (1 जून 2010) चलकर शुक्रवार को ही दिल्ली लौटने की असंभव समय-सीमा तय की गई थी।
1) मंगलवार- दिल्ली से हरिद्वार 250 कि.मी. (मैदानी रास्ता)
2) बुधवार - हरिद्वार से बद्रीनाथ 350 कि.मी.(पहाड़ी रास्ता)
3) वीरवार - बद्रीनाथ से हरिद्वार
4) शुक्रवार - हरिद्वार से दिल्ली।
यही कारण है कि तीनों परिवार अपनी-अपनी गाड़ियों में चल पड़े।
(नोट: दिल्ली से पानीपत का रास्ता (एन.एच 1)एकदम मस्त है, थोड़ी दिक्कत अलिपुर के आसपास जाम में आती है। पानीपत में फ्लाइओवर के नीचे से दाई तरफ कैराना, शामली होते हुए मुजफ्फरनगर आता है और वहीं से हमें मेरठ की ओर से आनेवाली नेशनल हाईवे 58 मिल जाती है। जी हॉं, ये वही हाइवे है जो हमें हरिद्वार, देवप्रयाग, श्रीनगर, रूद्रप्रयाग,कर्णप्रयाग,चमोली, जोशीमठ होते हुए बद्रीनाथ तक ले जाती है।)
श्रृषिकेश के बाद पहाड़ी रास्ता शुरू हो जाता है। पहाड़ी रास्तों पर ड्राइविंग करना मेरा पैशन है। पर यह कुछ यात्रियों के लिए बुरा अनुभव होता है। मैं जब श्रृषिकेश से देवप्रयाग होते हुए श्रीनगर तक का सफर कर चुका था, तब तक इस कार में बैठे पॉच यात्रियों में से चार लोग 'उल्टी' गंगा बहा चुके थे। सिर्फ मैं ही बचा था और पहाड़ी रास्ते और गंगा की तेज धार के साथ कार चलाने का आनंद ले रहा था। ये भी अजीब संयोग हुआ कि सोनिया (मेरी पत्नी) अपने मौसेरे भार्इ शैलेन्द्र जी के साथ हौंडा सिटी में बैठी थी और इशान मेरे साथ। हौंडा सिटी अच्छी कार है मगर कुछ नीची होने की वजह से उसे ब्रेकर और ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर बहुत धीरे-धीरे निकालना होता है।
जब मैं दोपहर 11 बजे तक श्रीनगर तक पहुँचा तब मेरे मोबाइल नेटवर्क ने काम करना शुरू किया। घंटी बजी, फोन उठाया तो उधर से गुस्से से भरी आवाज आई-
-कहॉं पहुँच गए ?
-श्रीनगर, और तुम लोग ?
-इतनी जल्दी है पहुँचने की तो परिवार के साथ आने की जरूरत क्या थी !! मुझे और भाभी को कई बार उल्टी आ चुकी है और तुम्हारा फोन भी नहीं लग रहा था!
मैंने पूछा- अभी कहॉं तक पहुँचे हो?
-मैं देवप्रयाग में ही होटल लेकर रूक रही हूँ! तुम और बाकी लोग बद्रीनाथ हो आओ! उधर से लौटोगे मैं यहीं मिलूँगी।
यह सुनकर मैं हैरान रह गया! सफर का जोश पल भर में गायब हो गया और जो अब तक महसूस नहीं हो रहा था, अचानक वो थकान भी मुझे ग्रसने लगा। मेरा घुटना जकड चुका था और कमर भी अकड़ चुका था। सोनिया के साथ मैं अमरनाथ जैसी कठिन यात्रा कर चुका हूँ। उसके बाद से ही उसने तय कर लिया था कि वह आगे से पहाड़ी यात्रा कभी नहीं करेगी। वह इस यात्रा में यही सोचकर आई थी कि सभी लोग हरिद्वार से ही दिल्ली लौट जाऍगे।
अंतत: यह तय हुआ कि देवप्रयाग की बजाए श्रीनगर में रहने की व्यवस्था अच्छी है, इसलिए पहले सभी वहॉं इकटठे होंगे। मेरे पास एकाध घंटे का समय था, जिसमें मुझे बीमार लोगों के लिए हॉटल ढूँढना था।
क्रमश:
(पहाड़ो पर ड्राइविंग करने का अलग ही आनंद है (और खतरा भी) मगर नुक्सान ये है कि आप न पहाड़ देख सकते हैं न ही नदी, अपनी निगाहों को सिर्फ सड़क पर गड़ाए रखनी पड़ती है। सबसे बुरी बात तो ये है कि आप कैमरे में इन दृश्यों को कैद नहीं कर पाते! ऊपर की तस्वीरें गूगल से साभार)
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बद्रीनाथ- औली से वापसी(अंतिम कड़ी)
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