Sunday, 21 November 2010
बद्रीनाथ-औली यात्रा से वापसी (अंतिम कड़ी)
ऐसा लग रहा है जैसे स्वर्ग से सीढी लगा कर सीधे पर्वतों पर उतर रहे हों, पर्वत एक विराट दरवाजा हो जिसके आसपास बड़े-बड़े वृक्ष्ा भी हरे-भरे पत्तों के समान फैले हुए हों, घास की हरी घाटियॉं तराई में जाकर जैसे सिमट रही हो.....
दिल्ली की गर्मी से बाहर आने के बाद रोपवे से यह सुंदर पर्वतीय दृश्य अचानक आपको और भी हैरान अचंभित कर देगा।
रोपवे टावर नं 10 से टावर नं.8 की तरफ चल पड़ी। वहॉं से पर्वतों का विहंगम दृश्य उपर दिए गए उपमान से भी कहीं ज्यादा सुंदर है।
मैं यह सोचकर उदास हो रहा था कि ऑली तक कार से आने की वजह से मैं रोपवे का मजा नहीं ले पाउँगा, मगर पता चला कि सुबह-सुबह रोपवे अपने ट्रायल पर टावर नं 10 से टावर नं 8 का एक चक्कर लगाती है और अनुरोध करने पर वे बिठा भी लेते हैं। इसलिए हम ऊपर की तरफ टावर नं 8 से पैदल टावर नं 10 के लिए चल पड़े थे। टावर नं 10 करीब एक किमी. दूर दिखाई दे रहा था पर वहॉं जाना बेकार नहीं गया।
हम सभी केबल कार से वापस टावर नं 8 पर उतर गए। जोशीमठ से परिवार के अन्य सदस्य 10 बजे तक पहुँचने वाले थे और अभी 8 बज रहे थे।
वे सभी सदस्य सीधे टावर नं 10 पर ही उतारे जाते इसलिए हम लोग फिर से 8 नं से उतरकर टावर नं 10 की तरफ चल पड़े। हालॉकि वहॉं दुबारा जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी।
रास्ते में एक जगह पत्थर और टीले नजर आ रहे थे। हमने शैलेंद्र जी को गब्बर का रॉल देकर 5 मिनट की शोले बनाई- 'कितने आदमी थे' वाला सीन।
टावर नं 10 औली के ऊपरी हिस्से पर बना हुआ था। वहॉं एक कैंटीन है जहॉं मैगी जैसी चीज खाने-पीने को मिल जाती है। पर्वतों को निहारते हुए समय थम-सा गया था।
तभी रोपवे से केबल कार आती हुई नजर आई। एक ग्रूप तो आ गया मगर मेरी पत्नी, बेटा और कुछ अन्य सदस्य अगली पारी में करीब आधे घंटे बाद आते। मैं उन्हें मिस कर रहा था।
मैं सोच रहा था कि औली से 11 बजे तक सब नीचे जोशीमठ ऊतर जाऍंगे और 12 बजे तक दिल्ली के लिए रवाना हो लेंगे। रात के अंधेरे में पहाड़ो पर कार चलाने से मैं बचना चाहता था और लेट होने का मतलब था श्रीनगर में रात गुजारना। यानी अगले दिन ऋषिकेश तक फिर पहाड़ी रास्ता , और तब दिल्ली....
सबने आस पास के दृश्यों का सपरिवार आनंद लिया, फोटो खिंचवाये, पर दूर नहीं गए क्योंकि जल्दी ही सबको वापस लौटना था।
सभी सदस्यों के आने के बाद, उनके साथ 20-30 मिनट बिताने के बाद मैं नीतिन, रोहित, अन्नू के साथ अपने बेटे इशान को भी लेकर कार तक जाने के लिए पहाड़ से नीचे ऊतरने लगा।
पूरे रास्ते इशान को खूब मजा आया। तीन साल का बच्चा पहाड़ों की ढलान को पहली बार देख रहा था और उसपर बेलगाम लुढकने के लिए उतारू था। हमें उसे संभालने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। रास्ते में एक बेहद खूबसूरत जगह झूले भी लगे हुए थे।
(नीतिन के साथ इशान)
हम सभी औली से जोशीमठ 12 बजे तक पहुँच गए मगर खाना-पीना नहीं हुआ था, किसी तरह सभी एक जगह इकट्ठे हुए और फिर काफिला चल पड़ा। मैं आगे-आगे चल पड़ा। बस अब एक ही धुन सवार था कि किसी तरह पहाड़ी रास्ता पार कर लूँ।
चमोली, कर्णप्रयाग,रूद्रप्रयाग, देवप्रयाग पार करते-करते अंधेरा छा चुका था, और करीब 70 कि.मी. का रास्ता बचा था। 8 बज गए थे और हमें किसी भी तरह ऋषिकेश पहँचकर हॉटल लेना था। देवप्रयाग तक नॉनस्टॉप ड्राइव करते करते पस्त हो चुका था, लेकिन नीतिन रोहित ने रास्ते का ख्याल रखा और मुझे सावधान करते रहे।
देवप्रयाग पहुँचने पर पता चला कि पीछे से आने वाली दोनो गाड़ियॉं रूद्रप्रयाग में ही रूक रही हैं क्योंकि अन्नू की तबीयत अचानक काफी खराब हो गई है।
खैर मैं किसी तरह ऋषिकेश 10 बजे तक पहुँच ही गया। सब मेरी ड़ाइविंग से हैरान थे और मैं थकान से चूर-चूर।
कब खाया, कब सोया कुछ पता नहीं चला।
अगले दिन सुबह-सुबह हम ऋषिकेश से दिल्ली के लिए चल पड़े और करीब 2 बजे मैं अपने घर पर आराम कर रहा था।
उस वक्त तक काफिले की बाकी दोनों गाड़ियॉं ऋषिकेश तक ही पहुँच पाई थी.....
(यात्रा समाप्त।)
8वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने बद्रीनाथ के इस तीर्थ की तलाश की थी। आदि शंकराचार्य मलयाली थे। केरल के नम्बुदरी ब्राह्मण बद्रीनारायण मंदिर के प्रति बेहद आस्थावान है।
हम सभी इस धार्मिक और पर्वतीय यात्रा से गदगद हुए और एक यादगार लम्हा जीया।
अब पिछली कड़ी में पूछे गए प्रश्न का जवाब देता हूँ,क्षमा भी चाहता हूँ कि इस कड़ी का समापन इतने दिनों बाद कर रहा हूँ-
पिछली कड़ी में मैंने पूछा था कि ऑली की इस तस्वीर में यह रास्ता किस काम आता है?
यह रास्ता स्कीइंग के लिए प्रयोग किया जाता है। इन दिनों अब बर्फ के कृत्रिम फव्वारे भी लगाये जा रहे हैं ताकि कम बर्फबारी में स्कीइंग के लिए पर्याप्त बर्फीला रास्ता बरकरार रहे।
पानी का संचय भी इसी लिए किया गया है कि इसे बर्फ के फव्वारे बनाने के लिए इस्तमाल किया जा सके।
दूसरा प्रश्न नीचे दिखाई गई इन दो तस्वीरों से संबंधित था।
मैंने पूछा था कि ऑली में इन खंभों का इस्तमाल किस लिए किया जाता है?
दरअसल स्कीइंग के प्रतियोगियों को ऊँचाई पर लाने-ले जाने के लिए यह कुर्सीनुमा ट्राली है जो रोपवे के माध्यम से ऊपर तक जाती है। केबल कार में अधिकतम 25 लोग आ सकते हैं जो जोशीमठ से ऑली तक आना-जाना करती है, मगर यह चेयर-ट्रॉली औली में स्कीइंग के एक स्पॉट से दूसरे स्पॉट पर एक सवारी/प्रतियोगी को लाती-ले जाती है।
अंतर सोहिल और नीरज भाई ने पहले सवाल का जवाब सही दिया था।
जाते-जाते याद दिलाना चाहुँगा कि औली में एक ही रिसॉर्ट है- क्लीफ टॉप, इसके अलावा वहॉं और कोई हॉटल नहीं है।
स्कीइंग का आनंद उठाने की बड़ी तमन्ना है, देखता हूँ क्लीफ टॉप में रूकने का कब अवसर मिलता है।
पिछली कड़ियॉं-
पर्वतों से आज मैं टकरा गया........(भाग 4)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 3)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 2)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 1)
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4 comments:
दृश्य देखकर आनन्द ही आ गया।
इतने दिन बाद?
पहले बता देते तो मैं बद्रीनाथ जाते-जाते ऊखीमठ नहीं जाता। रुद्रप्रयाग में रात बिताई और मैं अगले दिन बद्रीनाथ ना जाकर ऊखीमठ चला गया।
इसके लिये कुछ-कुछ आप भी जिम्मेदार हो।
माफी मांगनी पडेगी।
बहुत इंतजार करवाया जी
निरन्तरता बनाये रखें
इस पोस्ट के लिये धन्यवाद
प्रणाम स्वीकार करें
Bhai Wah! sab ke sab Ghumane pe lage huyen hain aur main office main batiha hun had ho gai, ab to jaldi hi niklana padega.
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