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Tuesday, 1 March 2011

इन दि‍नों !!

जिंदगी के कई रंग होते हैं
कुछ रंग वह खुद दि‍खाती है,
कुछ हमें भरना पड़ता है!

उन्‍हीं रंगो की तलाश में
भटक रहा हूँ मैं इन दि‍नों!

(1)

अनजाने कि‍सी मोड़ पर
पता न पूछ लेना!
हर शख्‍स की नि‍गाह
शक से भरी है इन दि‍नों!

मौसम से करें क्‍या शि‍कवा
हर साल वह तो आता है!
इस बार की बयार है कुछ और
कयामत आई है इन दि‍नों!

फरेबी बन गया हूँ मैं
खाया है जो मैंने धोखा!
अब रोटी से नहीं
भूख मि‍टती है इन दि‍नों!

(2)
सुना है उनकी तस्‍वीर
बदली-बदली सी लग रही है!
सच तो ये है कि‍ वे खुद भी
बदले-बदले-से हैं इन दि‍नों।

पहले इक नजर के इशारे में
हाजि‍र हो जाते थे!
अब तो पुकारने पर भी
नजर नहीं आते हैं इन दि‍नों!


तुम हँसती थी
बेवजह
चहकती थी हर वक्‍त!
आज वजह तो नहीं है मगर
काश हँस देती इन दि‍नों!

(3)

मुझसे न पूछो यारों
है घर कहॉं तुम्‍हारा!
घर बसाने की चाहत में
बेघर-सा हूँ इन दि‍नों!


बहुत दूर आ गया हूँ
पीछे रह गई हैं यादे!
बेगाने शहर में ओ मॉं!
बरबस याद आती हो इन दि‍नो!

यूँ तो जिंदगी है काफी लंबी
और हसरतों की उम्र उससे भी लंबी!
जिंदा रहने की हसरत बनी रहे
इतना भी काफी है इन दि‍नों!!

-जि‍तेन्‍द्र भगत

Friday, 10 July 2009

बूँदो को कहीं देखा है !!

बेरंग पत्तों पर सरसराती बूँदों को
देखे एक अरसा हुआ!
मुरझाए चेहरों के पीछे
मन तक है तरसा हुआ!

अभी एक कार रूकी है रेड लाइट पर
कि‍ यकायक चल पड़ा है वाइपर!
भीखू की हथेली पर पड़ी है चार बूँदें
मचलकर अपनी बहन को दि‍खा रहा है,
जो अभी छल्ले का करतब दि‍खाके
सुस्ता रही है छॉव में।
कभी जोर की बारि‍श में
छतरी उड़ा करती थी,
चहकते कदमों तले
राहें मुड़ा करती थी!
अब धूल है, ऑंधी है
गर्म हवाओं में होश उड़ा करता है!
आसमॉं पे होते थे
परींदों के घेरे।
नजरें तलाशती-सी हैं
बादलों के डेरे!

सुना है तेरे शहर में
हुई है बारि‍श!
कि‍ हवा का कोई झोंका
सि‍हराता है मन को
और बूँदे तन को!

कि‍ भीखू के चेहरे पर
चमक लौट आई है!
साथ ही लौटी है
खेतीहरों के खेतों में
सूखे फसलों की जीजि‍वि‍षा!!


और
अभी एक सपना देखा था
और अभी एक सपना टूटा है!!
बारि‍श की कोई बूँद
ऑंखों से छलक आई है...........

-जि‍तेन्‍द्र भगत

(सभी चि‍त्र गूगल से साभार)

Wednesday, 3 September 2008

अमीरों की मर्मांतक पीड़ा !

मैं क्‍या करुँ जो कहीं बाढ़ कहीं सूखा है,
मेरा डॉगी भी तो सुबह से भूखा है।

मुर्ग-मसल्‍लम, वि‍स्‍की- इनसे बड़ा सहारा है।
कमबख्‍त रोटी से कि‍सका हुआ गुजारा है!

रफ्तार कम लग रही है ट्रेनों की,
उसपर टि‍कट मि‍ल नहीं रही प्‍लेनों की।

चोर-उचक्‍के हैं काहि‍ल, मैं क्‍या दूँ उनको गाली।
हफ्ता नहीं वसूला, है ति‍जोरी कुछ-कुछ खाली।

कुछ लोग मर गए हैं, गर्मी कहीं पड़ी है,
कल कम्‍बल नि‍काला है,ए.सी. की ठंडक बढ़ी है।

दुबई तो गया था, पर दुबका ही लौट आया।
अफसोस मन में रह गया, मुजरा न देख पाया।

कार तो कई हैं, पर इस बात का बेहद गि‍ला है,
दो-चार को छोड़,वी.आई.पी.नम्‍बर नहीं मि‍ला है।

भूखे-नंगे, अधमरों को बखूबी सबने देखा है,
अमीरों की गरीबी-रेखा को मगर कि‍सने देखा है!

दुख झेले हैं ये मैंने, तो दुआ करें सभी,
कि‍सी को न ये दि‍न देखना पड़े कभी।
-जि‍तेन्‍द्र भगत

Friday, 8 August 2008

पेश है शेर !

गर्दि‍श में है चमन , जो ऐसी हवा चली है !
बुझाकर आग चूल्‍हे की, जमाने में लगा दी है !

आज शाम तक UGLY POST में टखना सिंह पर मजेदार अंक जरुर पढ़ें कि‍ टखना सिंह चेयरमैन की गाड़ी के आगे क्‍यों नहीं लेटा!
(शीर्षक है- टखना सिंह चला दफ़्तर !)

Tuesday, 5 August 2008

पेश है शेर !

फितरत ज़माने की, जो ना बदली तो क्या बदला !!
ज़मीं बदली ज़हॉं बदला , ना हम बदले तो क्या बदला!!


(आज शाम तक मेरे सफरनामें में जरुर पढ़ें - मैंने खज्जियार (डलहौजी) में पैराग्लाइडिंग करते हुए मौत को कितने करीब से देखा !)

Monday, 4 August 2008

पेश है अगला शेर !

दिल कहता है तमाम उम्र ये ज़हमत है बेकार

वफ़ा मैं करता रहा और वे करते रहे इन्कार ।

(मेरी UGLY POST में शाम तक जरुर पढ़ें- टखना सिंह का टखना कैसे टूटा ? व्यंग-कथा का शीर्षक है-

एक दो तीन, आजा मौसम है ग़मग़ीन !)

पेश है शेर !

भीड़ में जब कभी तन्‍हाई चली आती है।


मैं रुका रहता हूँ परछाई चली जाती है।