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Sunday 16 November 2008

मारे गए संकोच में !!

त्‍योहारों पर उपहार/मि‍ठाई बॉंटने की परंपरा है, लेकि‍न मेरे शोध-नि‍र्देशक इस अवसर पर भी उपहार देने के लि‍ए मना करते हैं। पर यदि‍ काफी समय बाद जाओ और मौसम भी त्‍योहारों का हो तो सर के पास खाली हाथ जाना अजीब लगता है।
तो एक बार त्‍योहार के अवसर पर मैं मि‍ठाई का एक डि‍ब्‍बा लेकर सर के घर गया, सर अपने कमरे में काम कर रहे थे और दरवाजा नौकरानी ने खोला। हाथ में मि‍ठाई पकड़ाने पर डॉंट सुनना तय था, इसलि‍ए मैंने यह सोचकर मि‍ठाई का डि‍ब्‍बा मेज पर रख दि‍या कि‍ जाने के बाद सर को पता तो चल जाएगा कि‍ यह डि‍ब्‍बा जि‍तेन दे गया है।
मैं सर के पास कमरे में चला गया। वहीं काफी देर बातें होती रही। तभी डोर-बेल बजी, नौकरानी कि‍चन में व्‍यस्‍त थी, इसलि‍ए मैं दरवाजा खोलने चला गया। आगंतुक मेरे सर का कोई करीबी था और उपहार के तीन-चार पैकेट लेकर आया था। उसने वो पैकेट मेरे मि‍ठाई के डि‍ब्‍बे के बगल में लाकर रख दि‍या।
>तभी सर भी ड्रॉइंग रूम में आ गए और आगंतुक को स्‍नेह से डॉंटने लगे कि‍ उपहार क्‍यों लाए। मेज काफी भरी-भरी सी लगनी लगी, सर ने नौकरानी को आवाज दी कि‍ ये पैकेट कि‍चन में ले जाए। मैं मन ही मन ये सोचकर दुखी हो रहा था कि‍ इतनी अच्‍छी मि‍ठाई खरीदकर लाया, मगर वह आगंतुक के नाम पर कि‍चन में रख दी गई।
सर के हाथ में डि‍ब्‍बा नहीं पकड़ाने का मतलब यह तो नहीं था कि‍ उनको मेरे उपहार का पता भी नहीं चले। मैं चाहता था कि‍ सर आज मुझे डॉंट ही दें कि‍ तुमने डि‍ब्‍बा लाने की गल्‍ती तो नहीं की है, पर सर ने न डॉंटा न ही पूछा.... वहाँ से लौटते हुए मैं बड़ा उदास था। 


U टर्न  :सोचता हूँ त्‍योहारों पर मि‍ठाई का सि‍र्फ डि‍ब्‍बा ले जाऊँ, मि‍ठाई नहीं:)

Wednesday 5 November 2008

शुक्र है, उनके हाथ में पि‍स्‍तौल नहीं थी!!

सर्दि‍यों की रात थी, मैं करीब आठ बजे अपनी मोटर-साईकि‍ल से शक्‍ति‍नगर चौक से गुजर रहा था। मुझे एक जरूरी फोन करना था और मेरे पास मोबाइल नहीं था इसलि‍ए मैं एक टेलीफोन-बूथ के सामने रूका। हैलमेट उतार ही रहा था कि‍ संभ्रांत घरों के कुछ लड़के आसपास से दौड़ते हुए नि‍कले, कुछ लड़के बूथ के सामने ही खड़े होकर परेशान-हैरान-से बातें करने लगे-

‘’भाई, तू घबरा मत, तेरे को कुछ नहीं होगा। राहुल, करण भी तेरे साथ हैं। प्रि‍या का फोन आया था, वह भी साथ देने के लि‍ए तैयार है, बस तू हौसला रख। रोहन का दि‍माग आज ही ठीक कर देंगे, लौटेगा तो इसी रास्‍ते से ना! चार लड़के साथ क्‍या कर लि‍ए उस *** ने, शेर बन रहा है !’’
उन लड़कों की बातचीत और हरकतों से लग रहा था जैसे टपोरी और संभ्रांत लड़कों के बीच पहनावे के सि‍वा और कोई फर्क नहीं है। मैंने गौर से देखा, जि‍स लड़के को हौसला बंधाया जा रहा था, उसका चमन उजड़ा-सा लग रहा था, चेहरे पर चोट के भी नि‍शान नजर आ रहे थे, ठंड के बावजूद वे सभी पसीने से तर-बतर थे। उनके बीच बेचैनी और अफरा-तफरी का माहौल साफ नजर आ रहा था।
‘‘जाकर बाइक ले आ, अभी देखकर आता हूँ कि‍ कहॉं गया है *** ‘’
बात-बात में उनके मुँह से गाली ऐसे झर रहा था, जैसे पतझर में पत्‍ते झरते हैं। इससे पहले कि‍ मैं समझ पाता कि‍ मामला क्‍या है, उसमें से एक लड़का आव देखा न ताव, सीधे मेरी बाइक की तरफ लपकते हुए बोला-

‘’भाई दो मि‍नट के लि‍ए मुझे बाइक देना, मैं अभी आया।‘’
मैं बाइक से तबतक उतरा भी नहीं था, मैंने कहा-

‘’मुझे दूर जाना है और मैं पहले ही लेट हो चुका हूँ।‘’
पर उसे मेरी बात सुनाई कहॉ दे रही थी, उसपर तो मानों जुनून सवार था। लफंगों की इस बौखलाई जमात में मुझे यह कहने की हि‍म्‍मत नहीं पड़ी कि‍ तेरे बाप की बाइक है जो तूझे दूँ। इससे पहले कि‍ मैं स्‍टार्ट कि‍क लगाता, उसने बाइक की चाबी नि‍काल ली।
जब दि‍ल्‍ली ट्रैफि‍क पुलि‍स चालान के लि‍ए बाइक रूकवाती है तो सबसे पहले चाबी कब्‍जे में लेती है क्‍योंकि‍ बाइकवाले पतली गली से नि‍कलने में माहि‍र होते हैं, इस तरह तो मेरी चाबी जब भी जब्‍त हुई है, चालान देकर ही छुटी है। पर आज चालान का मामला नहीं है।

वह लड़का मेरी चाबी लेकर अपने साथि‍यों के साथ तय करने लगा कि‍स तरफ जाऊँ। मेरी जान सांसत में थी, मैंने कहा- ’’भई आपको जहॉं जाना है मैं वहॉं छोड़ देता हूँ।‘’
उन्‍हें फि‍र कुछ सुनाई नहीं पड़ा। वे सुनने के लि‍ए नहीं, सि‍र्फ बकने के लि‍ए जो इकट्ठा हुए थे। मैंने कहा-
‘’अगर चाबी नहीं दोगे तो मैं तुम लोगों की शि‍कायत थाने में कर दूँगा।‘’
उनमें से ये बात कि‍सी को सुनाई पड़ गई, वह तपाक से मेरी तरफ आया और गुर्राते हुए बोला-
’’कर फोन कि‍सको करेगा, डी.सी.पी. को, एस.पी. को या एस.आई. को ? ऊपर से नीचे तक सब मेरे रि‍श्‍तेदार हैं। जा लगा फोन, बैठा क्‍या है! ओय इसकी बाइक की चाबी मुझे दे जरा!’’

एक आम आदमी, जि‍सकी कोई ऊँची जान-पहचान नहीं है, यह सुनकर जैसे सकते में आ जाता है, वैसे मैं भी आ गया। उसने चाबी लेकर अपने जेब में डाल ली, मैं बाइक पर असहाय-सा बैठा यह सोचता रहा कि‍ कि‍सी का गुस्‍सा कि‍सी पर लोग कैसे उतारते हैं। उन नवाबजादों को आपस में बात करते हुए ख्‍याल भी नहीं था कि‍ अपनी लड़ाई में उन्‍होंने मुझे कि‍स तरह, बेवजह शामि‍ल कर लि‍या है।

मैं रह-रहकर उन्‍हें टोकता रहा कि‍ भई मुझे दूर जाना है, चाबी दे दो। मन ही मन खुद को कोसता भी रहा कि‍ क्‍यों फोन करने के लि‍ए यहॉं रूका! पर मुसीबत दस्‍तक देकर नहीं आती, वह न जगह देखती है न समय!

इस बीच मैं यही सोचता रहा कि‍ अमीरजादों की ये नस्‍लें महानगरीय अपसंस्‍कृति‍ की ऊपज है, जि‍नके बाप ने इतना काला धन जोड़ रखा है कि‍ उन्‍हें अपने कपूतों के लि‍ए भी कुछ करने की जरूरत नहीं है। पर कुछ-न-कुछ तो करना जरूरी होता है इसलि‍ए ये मारा-मारी, लड़कीबाजी में ही दि‍न खपातें हैं और इस झगड़े की जड़ में भी शायद वही बात थी। ऐसे अमीरजादों को‍ चोरी-डकैती में जो थ्रील मि‍लता है, वह पढ़ाई में कहॉं मि‍ल सकता है! तो सब तरह के दुराचार में ये भी लि‍प्‍त होते हैं। ऐसे बच्‍चों के बाप इनपर ये सोचकर अंकुश नही लगाते कि‍ उन्‍होंने अपनी जवानी में यही गुल तो खि‍लाए थे!
अचानक वे लड़के आगे चल पड़े। मैंने उन्‍हें याद दि‍लाया कि‍ चाबी उनके पास रह गई है। करीब आधे घंटे की इस तनावपूर्ण मन:स्‍थि‍ति‍ के बाद चाबी लेकर मैं वहॉ से नि‍कल पड़ा। मैं यही सोचता जा रहा था कि‍ उनके हाथ में पि‍स्‍तौल नहीं थी, वर्ना ऐसे मामलों में बेगुनाहों की खैर नहीं होती!

इस तरह की घटना 21वीं सदी के महानगर की एक नई पीढ़ी की दि‍शाहीनता को दर्शाता है। यह भी तय है कि‍ आने वाले समय में यह घटना महानगरों के लि‍ए एक आम शक्‍ल अख्‍ति‍यार कर लेगी। हम ऐसे समाज में ही जीने के लि‍ए अभि‍शप्‍त हैं और इसके समाधान की संभावनाओं का गुम होना दुखद है।

Wednesday 29 October 2008

डि‍ब्‍बा-पर्व और जेब में पटाखा !!

इस बार उत्‍तर प्रदेश, हरि‍याणा के चावल के खेतों से कीट-पतंगों की एक प्रजाति‍ दि‍वाली मनाने दि‍ल्‍ली आई थी और लगभग दो-तीन हफ्ते से दि‍ल्‍ली में डेरा डाले हुए थी। शाम को स्‍ट्रीट लाइट के नीचे से नि‍कलना दूभर हो जाता था, क्‍योंकि‍ ये ऑंख-मुँह,सर्ट में चले जाते थे। लोगों ने शाम को टहलना लगभग बंदकर दि‍या था। शम्‍मा पर नि‍सार होनेवाले इन परवानों को सुबह की झाड़ू के दौरान थोक के भाव में इकट्ठे कर बोरे में भर-भरकर फेंका जा रहा था। दुकानदारों को खासी परेशानी का सामना करना पड़ा, क्‍योंकि‍ त्‍योहार के इस मौसम में उन्‍हें हल्‍की रौशनी में सामान बेचना पड़ा। ज्‍यादा रौशनी में कीट-पतंगे ज्‍यादा आ रहे थे, इसलि‍ए ग्राहक या तो अंदर आ नहीं रहे थे या आकर जल्‍दी भाग रहे थे। जि‍नसे भी पूछो, यही कहते पाए गए कि‍ इतनी बड़ी तादाद में इन कीट-पतंगों को पहले कभी नहीं देखा गया।
तो, पि‍छले साल के लिहाज से इस बार बाजार में कीट-पतंगों की रौनक रही, और दुकानदारी फीकी।

ये तो थी कीड़ो की दि‍वाली, अब हम बड़कीड़ों ने दि‍वाली कैसे मनायी, इस पर भी एक नजर डालते हैं। मि‍ठाई की दुकानों पर ऑर्डर गया हुआ है कि‍ ऑफि‍स में इतने स्‍टाफ हैं, इतने डि‍ब्‍बे पैक करने हैं, बॉस का डि‍ब्‍बा अलग, मेमसाब का डि‍ब्‍बा अलग, शर्मा जी का अलग, वर्मा जी का अलग, अजी त्‍योहार न हुआ डि‍ब्‍बा-पर्व हो गया। जैसे हर धर्म में, उपासना गृह में भगवान बसते हैं, वैसे ही हर पर्व में डि‍ब्‍बा बसता है।
पूँजी के बाजार ने पर्व मनाने की नई परम्‍परा का ईजाद कि‍या है। शायद इसलि‍ए अचानक हर पर्व दो-दो दि‍न मनाने की कवायद चल पड़ी है। छोटी दि‍वाली है- क्‍या कि‍या जी, उपहार बॉंटे, आज बड़ी दि‍वाली है, क्‍या कि‍या जी, आज भी उपहार बॉंटे। इस तरह होली, ईद और दूसरे पर्व भी दो-दो दि‍न मनाए जाने लगे हैं। पहले भी ये दो बार मनाए जाते होंगे, मगर बाजार और मीडि‍या ने इसे अपने मतलब से अचानक उछाला है। दि‍क्‍कत तो ये है कि‍ शेयर बाजार में कभी आए उछाल के बाद आज जि‍तनी गि‍रावट दर्ज की गई है, पर्वाश्रि‍त इस बाजार में भी वह गि‍रावट नजर आएगी, यह सोचना बेमानी है। वैलेंटाइन डे, फादर्स डे, मदर्स डे, ये डे, वो डे- हर डे को मीडि‍यावाले अपने लि‍ए खबर का एक नया मसाला मानते हैं और बाजार माल खपाने के लि‍ए मार्केटिंग का एक और अवसर।

दि‍ल्‍ली एक महानगर है, गॉव तो है नहीं कि‍ दरवाजे से बाहर नि‍कले कि‍ पड़ोस में ही रि‍श्‍तेदार या दोस्‍त मि‍ल जाऍगे। यहॉं कि‍सी को उपहार देने नि‍कलो तो पता चलता है एक उत्‍तर में रहता है दूसरा दक्षि‍ण में। बि‍ना फोन कि‍ए जाओ तो पता चलता है कि‍ वह पूरब गया हुआ है उपहार बॉंटने। महानगरों में पर्व मनाने के नाम पर लोगों को सि‍र्फ और सि‍र्फ उपहार का आदान-प्रदान करते देखा है मैंने। सि‍र्फ इस वजह से भारी ट्रैफि‍क जाम और दुकानों में मेला देखने को मि‍लता है। चीजों की खपत पर्व त्‍योहारों पर इतनी बढ़ जाती है कि‍ दाम बेलगाम हो जाते हैं।

उपहार बॉंटने का सि‍लसि‍ला जि‍नका खत्‍म हो जाता है, वे बम-पटाखे नि‍कालते हैं तथा शोर और धुँओं में नोट को जलते देख खुशि‍यॉं मनाते हैं। मि‍.आहूजा एण्‍ड फैमि‍ली इंतजार करती है कि‍ जब उनके पटाखे खत्‍म हो जाऍगे तब ये पटाखे फोड़ना शुरू करेंगे और अगले दि‍न चर्चा का वि‍षय बनेंगे कि‍ इस बार आहूजा जी ने देर रात तक, जमकर दि‍वाली मनायी। इस तरह, पर्व पर अनेक लोग मानो अपनी जेब में बम-पटाखे फोड़ते हैं और उस फटी जेब को अगले कई महि‍नों तक छि‍पकर रफ्फू करवाते फि‍रते हैं।

उम्‍मीद है हम बाजार और मीडि‍या की इस मंशा को समझेंगे और कठि‍न होती महानगरीय जिंदगी के लि‍ए पैसे जोड़ने के साथ-साथ पर्व को मनाने के व्‍यवहारि‍क तरीके की तलाश करेंगे तथा पर्यावरण, परम्‍परा और जेब के बीच सामंजस्‍य और संतुलन बनाने का जतन करेंगे।

Sunday 26 October 2008

सावधान !! यहॉं जेबरा क्रौसिंग नहीं होता !!

दृश्‍य 1
गाड़ी सडक पर अपनी रफ्तार से दौड़ी जा रही है, आगे मार्केट की भीड़ है। वहॉं कहीं भी जेबरा क्रौसिंग नहीं है, इसलि‍ए माना जाए कि‍ हर जगह जेबरा-क्रौसिंग है। एक संभ्रांत-सी दि‍खनेवाली महि‍ला अचानक कार के आगे आ जाती है, अचानक ब्रेक लेना पड़ता है, वह अपनी गल्‍ती छि‍पाने के लि‍ए मुझे देखकर मुस्‍कुराती है, और सड़क-पार चली जाती है। आगे चलकर एक गरीब महि‍ला सर पर टोकरी लि‍ए सड़क पार कर रही है। उसे कोई परवाह नहीं है कि‍ सामने से कार आ रही है। अचानक ब्रेक लेना पड़ता है, वह मेरी तरफ न देखती है, न ही मुस्‍कुराती है, उसमें न कोई खौफ है न कोई हि‍चकि‍चाहट और वह सड़क-पार चली जाती है।



दृश्‍य 2
सीढ़ि‍यॉं चढ़ते या उतरते हुए जब एक जवान के आगे कोई वृद्ध/वृद्धा सुस्‍त चाल से चढ़ते या उतरते हैं तब उसके मन में क्‍या चल रहा होता है- उफ्, जब तक सीढि‍यॉं खत्‍म नहीं हो जाती,अब इनके पीछे-पीछे चलते रहो। उसे खीज होती है कि‍ ये देखते भी नहीं कि‍ कोई जल्‍दी में है।

वृद्ध/वृद्धा के मन में क्‍या चल रहा होता है- हे भगवान, ये जवान मेरे पीछे-पीछे चलने के लि‍ए मजबूर हो गया है, अनजाने ही सही, कहीं जल्‍दी में ठोकर मारता हुआ नि‍कल गया तो संभलना मुश्‍कि‍ल हो जाएगा। और अगर पॉव लड़खड़ा ही गए तो दुबारा उठ न सकेंगें।



दृश्‍य 3
कनाट प्‍लेस का व्‍यस्‍ततम चौराहा। मैं पैदल जा रहा हूँ। फुटपाथ पर खुराफाती-से लगने वाले दो लड़के बैठे हुए हैं। सामने से दो वृद्ध वि‍देशी दम्‍पत्‍ति‍ आ रहे हैं। उनमें से एक लड़का गोबरनुमा कोई चीज़ उठाकर वृद्ध के जूते पर लगा देता है। दम्‍पत्‍ति‍ को या तो पता नहीं चलता या वे उसकी हरकतों की उपेक्षा कर देते हैं। वे लड़के उनके जाने के बाद आपस में बंदरों की तरह खि‍खयाते हैं, ये देखता हुआ मैं आगे बढ़ जाता हूँ।

Thursday 23 October 2008

और रोटी तो नहीं चाहि‍ए ?

इंसान के पास दो चीजें ऐसी है जि‍से अच्‍छे खुराक की सख्‍त जरूरत होती है- पेट और दि‍माग। आदि‍म युग का इति‍हास बताता है कि‍ वह पेट की आग ही थी, जि‍से बुझाने के लि‍ए तरह-तरह से दि‍माग लगाए गए। अब आदि‍म युग तो समाप्‍त हो चुका है,आज लोग दि‍माग लगाने में ज्‍यादा व्‍यस्‍त हैं, जि‍ससे पेट की तरफ ध्‍यान ही नहीं जा रहा है, पर यहॉं मेरा मकसद मोटापे पर चर्चा करना नहीं है।
मुझे याद है- मैं गर्मियों की छुट्टि‍यों में हॉस्‍टल से घर आता था, घर कर बड़ा लड़का होने के नाते मेरी मां मेरे आराम का, खाने-पीने का हमेशा ध्‍यान रखती थी और अक्‍सर कहती रहती थी कि‍ बेटा ये खा ले, वो खा ले; ऑखें धॅस रही हैं, हड्डि‍यॉं नजर आने लगी हैं, वगैरह-वगैरह। मैं पन्‍द्रह साल का रहा हूंगा। पसीने से तरबतर, मुझसे दो साल छोटी मेरी बहन, मेरे लि‍ए रोटी बनाती थी। मेरे लि‍ए मां की इतनी जी-हुजउव्‍वत उसे चि‍ढ़ा-सी देती थी- कहती-मैं भी तो तीन भाइयों के बीच इकलौती हूँ , माँ मेरे लि‍ए इतना क्‍यों नहीं मरती ! फि‍र पलटकर मुझसे गुस्‍से में कहती- और रोटी तो नहीं लोगे ? मैं हॅसकर शि‍कायत करता-बहन, तू मुझसे ये नहीं पूछ सकती कि‍ और रोटी दूँ क्‍या? हमेशा उलटे सवाल क्‍यों करती है ?
मेरी पत्‍नी मुझसे ऐसे सवाल नहीं करती, क्‍योंकि मैं गि‍न कर रोटि‍यॉं खाता हूँ। घर के बड़े-बूढ़े कहते हैं- गि‍नकर खाने से शरीर को खाना नहीं लगता। मेरा मानना है कि‍ बि‍ना गि‍ने खाने से शरीर को खाना कुछ ज्‍यादा ही लग जाता है। कुछ जागरूक लोगों का मानना है कि‍ भूख से एक रोटी कम खानी चाहि‍ए। कुछ कहते हैं कि‍ हर तीन घंटे पर कुछ-न-कुछ लेते रहना चाहि‍ए।

एक जमाना था, जब डायनिंग टेबल का कॉन्‍सेप्‍ट नहीं था, लोग जमीन पर चादर बि‍छाकर,(या पीढ़ा पर) पालथी मारकर खाना खाते थे। तब संयुक्‍त परि‍वार हुआ करता था या एकल परि‍वार में सगे रि‍श्‍तेदारों का लंबे समय तक मजमा लगा रहता था और उनका चले जाना काफी तकलीफदेह लगा करता था।
इस माहौल में खाने का अपना मजा था, कि‍सी को कोई खास जल्‍दी नहीं रहती थी, जैसा कि‍ आज रहती है। आज हर दूसरा आदमी कहता है, भई, खाने तक को वक्‍त नहीं मि‍लता। जो खाने के लि‍ए समय नि‍काल लेते हैं, वे भी खाने की मेज पर ऐसे हड़बड़ाए रहते हैं जैसे नौकरी छूट रही हो।

मै सोचता हूँ कि‍ क्‍या कमाया यदि‍ ढ़ंग से नहीं खाया। मेरा मतलब ये नहीं है कि‍ आप फाइव-स्‍टार होटल में खाऍगे तभी आपका कमाना सार्थक होगा। आपके सामने थाली हो तो आप अपना ताम-झाम भुलाकर, सारा ध्‍यान खाने पर लगाऍं, तब जाकर खाने का मकसद पूरा होता है।
वैसे मेरे लि‍ए भी ये कहना आसान है, करना मुश्‍कि‍ल। जि‍स तरह से नगरों-महानगरों में व्‍यस्‍तताऍं बढ़ रही हैं, उस तरह दि‍माग भी लगातार दौड़ रहा है। उसकी दौड़ नींद को भी खराब करती रही है। कई लोग बत्‍ति‍यॉं बुझाकर सोने के लि‍ए लेट तो जाते हैं, पर नींद कई करवटों के बाद आती है। दुनि‍या में उन्‍हें खुशनसीब माना जाता है जि‍न्‍हें चैन की नींद और भोजन के साथ उसे खाने का वक्‍त मि‍लता है। वे बदनसीब हैं जि‍नके पास खाना है, पर खाने का वक्‍त नहीं। उनकी बदनसीबी पर तो क्‍या कहना जि‍नके पास खाना ही नहीं !

Friday 17 October 2008

इश्‍क-वि‍श्‍क, प्‍‍यार- व्‍यार, मैं क्‍या जानूँ रे !!

कॉलेज को अधि‍कतर लोग इश्‍क फरमाने की सही जगह मानते हैं। हालॉकि‍ जो कॉलेज नहीं जा पाते, वे ऑफि‍स और पड़ोस में ही कि‍स्‍मत आजमाते हैं। इश्‍क करना कोई गुनाह नहीं है, बशर्ते उसमें बेवफाई ना हो। जब मैं कॉलेज में ‘एडमि‍ट’ हुआ तो पाया, वहॉं इस मर्ज से कई मरीज तड़प रहे थे। कुछ तो घायल अवस्‍था में यहॉ पहुँचे थे और सही दवा की तलाश कर रहे थे। कुछ को सि‍र्फ मामूली बुखार था, मगर उन्‍होंने उसे डेंगू-मलेरि‍या बताया, डॉक्‍टर को उनके खुराफात की खबर हो गई, उनकी दवा ने ऐसा रि‍ऐक्‍ट कि‍या कि उन्‍होंने तो आगे इस मर्ज के नाम से ही तौबा कर ली। इसके बावजूद कई लोग तो कई बीमारि‍यों को गले लगाए बैठे थे, और कहते थे कि‍ अब तो बीमारी के साथ जीने की आदत-सी पड़ गई है। कुछ खास मरीज ऐसे भी थे, जो कार से आकर यहॉं एडमि‍ट हुए थे, इसलि‍ए उनका तुरंत इलाज हो गया। इन्‍हें देखा-देखी कुछ गरीबों को भी अमीरों की ये बीमारी लग रही थी। इस बीमारी का खर्चा-पानी गरीबों के बस की बात नहीं थी; उन्‍हें क्‍या मालूम था कि‍ गरीब रोगी को समाज का कोढ समझकर मार दि‍या जाता है। गरीब समाज में माना जाता है कि‍ बीमार को मार दो, बीमारी अपने आप मर जाएगी।

खैर, मैं तो इस मर्ज से काफी घबराता था और मानता था कि‍ precaution is better than cure. लक्षण के आधार पर मर्ज की पहचान को डायग्‍नोसि‍स (Diagnosis ) कहा जाता है। उमर की खुमारी में जि‍न लोगों को ये रोग लग गया था, मैंने उनका डायग्‍नोसि‍स 1996 में कि‍या था, और इसकी फाइल आपके सामने (एक लाइन छोड़कर) ज्‍यों का त्‍यों रख रहा हूँ-


ऐसी है एक चीज़ जि‍सपे,
लुट जाते हैं लोग,
जि‍सकी कोई दवा नहीं,
इश्‍क है ऐसा रोग।




दर्पण देख-देख मुस्‍काना
अंधों में है राजा काना
खोने पर तो जी घबराना
पाने पर जी-भर इतराना



जुगत लगाते कटते दि‍न
व बेचैनी में कटती रात।
धीर,अधीर या हो गंभीर
बनते-बनते बनती बात।


दि‍न लगती है रात
पतझड़ लगता बहार।
छवि‍ बनाने के चक्‍कर में
देना पड़ता उपहार।



चूड़ी-कंगन की फरमाइश
सब कुछ लुटने की गुँजाइश
एक-दूजे की है अजमाइश
जीने-मरने की भी ख्‍वाइश


नेल,शूज और फेस की पॉलि‍श
कुछ बॉडी-शॉडी की भी मालि‍श
शेव, फेशि‍यल, फैशन व जीम
कार सफारी हो या क्‍वालि‍स।



ड्रेस को हरदम प्रेस कि‍या,
गीफ्ट दे-देके इम्‍प्रेस कि‍या
ऑंखों ही ऑंखों में
भावों को इक्‍सपैस कि‍या।


बात फि‍र भी नहीं बनी,
घरवालों से भी खूब ठनी,
प्रति‍योगी भी कम थे नहीं,
जेब से नि‍कली खूब मनी।


दस लोगों के बीच से छँटके
रह गए थे सबसे कटके
खामोशी का आलम होता
सह न पाये इश्‍क के झटके।


ऑखें सपनो में जो खोई
कब जागी व कब-कब सोई
लाईलाज है मान भी लो जी
इस मर्ज की दवा न कोई।




-जि‍तेन्‍द्र भगत(1996)
(सभी चि‍त्रों के लि‍ए गूगल का आभार)

Monday 13 October 2008

ओ.के.सेब !!

एक स्‍टॉल पर लाल-लाल सेब रखे हैं। दुकानदार उसे चाइनीज़ सेब बता रहा है। पास में भारतीय सेब भी रखा है, उस पर कहीं-कहीं हल्‍के-काले धब्‍बे हैं, मगर साथ में ओ.के. लि‍खा हुआ स्‍टीकर चि‍पका हुआ है। चाइनीज़ इलेक्‍ट्रौनि‍क सामान के ऊपर भी ओ.के. चि‍पका होता है, पर वह कि‍तना ओ.के. होता है, यह सबको पता है। सोचता हूँ इस पर आई.एस.आई का मार्का चि‍पका होता तो बेहि‍चक खरीद लेता! फि‍र भी एक कि‍लो ओ.के.सेब खरीद लि‍या है। खाने से पहले ओ.के. का स्‍टीकर हटा रहा हूँ। स्‍टीकर के नीचे एक सुराख नजर आ रही है। हैरान होकर दूसरा सेब उठाता हूँ,फि‍र तीसरा,चौथा....., कुछ को छोड़कर सभी स्‍टीकर के नीचे सुराख है।



सवाल: क्‍या यह स्‍टीकर हम लोगों के वि‍चारों पर भी नहीं चि‍पका हुआ है?



(क्‍या यह पोस्‍ट माइक्रो टाइटि‍ल और माइक्रो पोस्‍ट के खॉंचे में आता है?)

Sunday 12 October 2008

पुरानी जींस और गि‍टार.......

अमेरि‍का में 19वीं सदी के मध्‍य में जब मजदूर वर्ग ने जींस को पहले-पहल अपनाया, तब मार्क्‍स भी यह नहीं जानते होंगे कि‍ आनेवाले दि‍नों में यह अमीरों के बीच भी खासा लोकप्रि‍य हो जाएगा। 1930 के दौर में हॉलीवुड में काऊ-बॉय ने जींस के फैशन को और लोकप्रि‍य बनाया। द्वि‍तीय वि‍श्‍व-युद्ध के दौरान अमेरि‍कन सैनि‍क ऑफ-ड्यूटी में जींस पहनना ही पसंद करते थे। 1950 के बाद यह अमेरि‍का में नौजवानों के बगावत का प्रतीक बन गया और वहॉं के कुछ स्‍कूलों में इसे पहनने पर प्रति‍बंध भी लगा दि‍या गया। आगे चलकर यही जींस भारत में मस्‍ती और मौज का पहनावा बन गया। 1990 के दशक से बॉलीवुड में भी इसको लोकप्रि‍यता मि‍लने लगी।


सलमान खान ने तो जींस की नीक्‍कर और फटी जींस को नौजवानों के बीच लोकप्रि‍य बनाया। टी.वी. पर एक ऐड भी आपने जरूर देखा होगा-एक जींस पहनी हुई लड़की चहकती हुई आती है,फटी जींस बि‍स्‍तर पर छोड़कर बाथरूम की तरफ चली जाती है,इस बीच मॉं आती है, फटी जींस देखकर मुँह बनाती है और‍ बड़ी मासूमीयत के साथ सि‍लाई-मशीन चलाकर खुद उस जींस की सि‍लाई कर देती है।
बहरहाल, फर्ज कीजि‍ए,कोई छात्र धोती-कुर्ता पहनकर महानगरीय कॉलेज में आ जाए,तब क्‍या होगा। वैसे कुर्ता-पाजामा के दि‍न अभी नहीं लदे हैं, नेताओं का संरक्षण भी इसे प्राप्‍त है और कुछ छात्र-छात्राओं में भी जींस के ऊपर कुर्ता पहनने का फैशन है।ऐसा माना जाता है कि‍ कॉलेज में जि‍सने जींस पहना है वह लड़का या लड़की मॉड है। हालॉकि‍ मॉड बनने के लि‍ए जींस को पैमाना मानना सही नहीं है। गर्मी हो या सर्दी, जींस पहनने में फैशनपरस्‍तों को तकलीफदेह नहीं लगती। जींस की कुछ खूबि‍यों का मैं कायल हूँ-
1)उसे प्रैस नहीं करना पड़ता, अब तो रिंकल्‍ड जींस भी चलन में आ गया है।
2)जब तक बदबू न आने लगे, उसे धोने की भी जरुरत नहीं पड़ती, कुछ लोग 15-20 बार पहनने के बाद भी उसे धोने से कतराते हैं। उनका कहना है कि‍ इसका मैलापन भी एक फैशन है।
3) ज्‍यादा पहनने पर जींस कहीं से फट जाए(मूल स्‍थान को छोड़कर), तो उसे भगवान की नि‍यामत समझी जाती है, उसकी सि‍लाई करना फैशन के अदालत में गुनाह है। और अगर न फटे तो उसे पत्‍थर से रगड़ा जाता है, साथ ही सुई लेकर सावधानी से उसे जगह-जगह से उधेड़ी जाती है।


हालॉकि‍ मैंने जींस ज्‍यादा नहीं पहना है और पुरानी होने से पहले ही पहनना छोड़ दि‍या था। पर हैदर अली के इस गीत में जींस के साथ कॉलेज के दि‍नों को फि‍र से जीता हुआ देखता हूँ। सि‍गरेट कभी नहीं पी क्‍योंकि‍ खेतों के ऊपर जमी हुई धुंध सि‍गरेट की धुओं से ज्यादा आकर्षक लगती रही है। खेत देखे अरसा हो गया है, अब सर्दियों की धुंध का इंतजार है।

हैदर अली की आवाज में ये मस्‍त गीत सुनने के लि‍ए हम्‍टी-डम्‍टी के पैर के पास क्‍लीक कीजि‍ए, मजा न आए तो समझि‍एगा कि‍ आपका जवॉं दि‍ल इस अहसास में ड़ूबने से चुक गया। इस हालत में आपको आपके जमाने की गीत भी सुनाउँगा- चुप-चुप बैठे हो जरुर कोई बात है.....

Ali Haider - Puran...


जो सुन ना सके, उनकी सहूलि‍यत के लि‍ए इस गीत के बोल लि‍ख देता हूँ-


पुरानी जींस और गि‍टार
मोहल्‍ले की वो छत और मेरे यार
वो रातों को जागना
सुबह घर जाना कूद के दीवार

वो सि‍गरेट पीना गली में जाके।
वो दॉतों को घड़ी-घड़ी साफ
पहुँचना कॉलेज हमेशा लेट
वो कहना सर का- ‘गेट आउट फ्रॉम दी क्‍लास!

वो बाहर जाके हमेशा कहना-
यहॉं का सि‍स्‍टम ही है खराब।
वो जाके कैंटि‍न में टेबल बजाके
वो गाने गाना यारों के साथ
बस यादें, यादें रह जाती हैं
कुछ छोटी,छोटी बातें रह जाती हैं।
बस यादें............

वो पापा का डॉटना
वो कहना मम्‍मी का- छोड़ि‍ए जी आप!
तुम्‍हें तो नजर आता है
जहॉं में बेटा मेरा ही खराब!

वो दि‍ल में सोचना करके कुछ दि‍खा दें
वो करना प्‍लैनिंग रोज़ नयी यार।
लड़कपन का वो पहला प्‍यार
वो लि‍खना हाथों पे ए प्‍लस आर.

वो खि‍ड़की से झॉंकना
वो लि‍खना लेटर तुम्‍हें बार-बार
वो देना तोहफे में सोने की बालि‍यॉं
वो लेना दोस्‍तों से पैसे उधार
बस यादें, यादें रह जाती हैं
कुछ छोटी,छोटी बातें रह जाती हैं।
बस यादें............

ऐसी यादों का मौसम चला
भूलता ही नहीं दि‍ल मेरा
पुरानी जींस और गि‍टार.....

(पोस्‍ट में संगीत लोड करने की प्रक्रि‍या से मैं अनभि‍ज्ञ था। प्रशांत प्रि‍यदर्शी जी का आभारी हूँ, जि‍न्‍होंने मेल के माध्‍यम से मुझे इसकी वि‍धि‍ से अवगत कराया। शुक्रि‍या प्रशांत जी।)
(सभी चि‍त्रों के लि‍ए गूगल का आभार)

Sunday 28 September 2008

ब्‍लॉग: रि‍श्‍तों की समानांतर दुनि‍या और दोहरी छवि‍!!

दोहरी जि‍न्‍दगी जीने का इतना सुखद अर्थ मैंने कभी नहीं सोचा था। ब्‍लॉग पर जो आभासी रि‍श्‍ते बनते हैं या बि‍गड़ते हैं, कि‍सी टी.वी. धारावाहि‍क की कहानी की तरह ही वे आगे बढ़ते हैं। एक सूत्र से कथा दूसरे सूत्र तक जाती है, दूसरे से तीसरे और इस तरह कभी न खत्‍म होनेवाले इस सीरि‍यल से हम जुड़ते चले जाते हैं। यहॉ हम ही नायक, हम ही खलनायक और हम ही नि‍र्देशक।

कभी-कभी अवसाद मन में भर जाता है कि‍ इससे बाहर चला जाऊँ, अपनी जिंदगी संभालने का वक्‍त नहीं नि‍कल पाता, परि‍वार-रि‍श्‍तेदार भी वक्‍त देने के लि‍ए ताने मारते रहते हैं। इसके बाद, एक साथ इतने लोगों से ब्‍लॉग पर मि‍लने-जुलने की ताकत चाहि‍ए, प्रबल इच्‍छा-शक्‍ति‍ चाहि‍ए। और यह ताकत कई लोगों के पास है, जि‍नके जज्बे की मैं कद्र करता हूँ।

इस छद्म भरी दुनि‍या में व्‍यक्‍ति‍ अपनेआप को जि‍स तरह प्रोजेक्‍ट करता है, क्‍या यही उसका असली चरि‍त्र है? बहरूपि‍या बनकर लोगों की भावनाओं को भुनाना क्‍या सही है? परदे पर आए बि‍ना स्‍वांग करना आसान नहीं है। कभी शीशा देखते हुए आपने राक्षसी चेहरा बनाया है, (आज बनाकर देखि‍एगा) कि‍तना भयावह रूप होता है वह! फोटो खिंचवाते हुए हम अपने चेहरे पर मुस्‍कान लाने की कोशि‍श क्यों करते हैं? हम अपनी लेखनी से जो छवि‍ नि‍र्मि‍त करते हैं, क्‍या उसी उत्‍कंठा से हम उसे जी पाते हैं?

हर आदमी की अपने बारे में एक राय होती है, कई बार अपने बारे में बनी राय दूसरों के राय से भि‍न्‍न और कई बार वि‍परीत भी होती है। बहुत चुप रहनेवाले व्‍यक्‍ति‍ को आप ब्‍लॉग पर बतरस के बादशाह के रूप में स्‍थापि‍त पा सकते हैं। बहुत मजाकि‍या आदमी गंभीर लेखन के लि‍ए जाना जाता हो, गंभीर आदमी ब्‍लॉग पर सतही बातें करते हुए मि‍ल सकते हैं। बहुत मि‍लनसार लगनेवाला आदमी शायद मि‍लने पर झल्‍लाते हुए नजर आ सकता है। अहंकारी लगनेवाला आदमी क्‍या पता खाति‍रदारी में कोई कसर न रहने दे। सुंदर लगने वाला आदमी बदसूरत और बदसूरत लगनेवाला आदमी सुंदर नजर आ सकता है। जरुरी नहीं कि‍ यह वि‍रोधाभास मि‍लता ही हो। अपनी छवि‍ को टूटता या बनता देख अफसोस या संतोष होना आम बात है।

एक सहज मानवीय अवगुण के तहत खास लोगों के साथ आम लोग जल्‍दी रि‍श्‍ता बनाने के फि‍राक में रहते हैं। वे सोचते हैं कि‍ इस दोहरी जिंदगी के भेद को धीरे-धीरे खत्‍म कर देंगे और व्‍यक्‍ति‍गत रि‍श्‍ता कायम कर उनसे अपना स्‍वहि‍त सि‍द्ध करेंगे। इसमें सफल होंगे या नहीं यह वे भी नहीं जानते। इसलि‍ए कहा जा सकता है कि‍ ब्‍लॉग को ब्‍लॉग ही रहने दो, इस रि‍श्‍ते को कोई नाम न दो। अधि‍कांश ब्‍लॉगर एक-दूसरे से न कभी मि‍लें हैं और न ही मि‍लना चाहेंगे। शायद मैं भी इन्हीं में से एक हूँ। यह एक रोमांटि‍क वि‍चार है। ब्‍लॉगर्स-मि‍ट इस वि‍चार में मि‍सफि‍ट बैठता है, पर रोमांटि‍क वि‍चार अक्‍सर क्षण-भंगुर होते हैं। अनुराग जी ने मेरी एक पोस्‍ट पर एक बड़ी अर्थपूर्ण टि‍प्‍पणी की थी, जि‍सपर मैं सोचता ही रह गया था-

‘कभी किसी ने ये भी कहा था की लिखने वालो से मत मिलो वरना उनकी रचनायों से शायद उतना मोह नही रहेगा।‘

मैं एक नामी रचनाकार से बड़े अनौपचारि‍क माहौल में कि‍सी के फ्लैट पर मि‍ला था, उनका नामोल्‍लेख करना इसलि‍ए यहॉं जरूरी नहीं समझता क्‍यूँकि‍ इस खॉचें में अपना भी नाम डालने की सहूलि‍यत बचाए रखूँ और आपका भी। शराब के नशे में उसकी ऑंखें अंगारे की तरह दहक रही थी, और वो कुछ बड़े लोगों के नाम के साथ गालि‍यॉं लगाकर संबोधि‍त कर रहा था। मैं जि‍नके साथ गया था, इशारे से उनको जल्‍दी चल नि‍कलने के लि‍ए कहा। उसकी अन्‍य रचनाऍ भी मैंने पढ़ी थी, घर जाकर दुबारा पढ़ी कि‍ कोई इतनी अच्‍छी बातें कैसे लि‍ख सकता है!

सि‍गरेट पीने वाले एंटीस्‍मोकिंग कैम्‍पेन चला रहे हैं। नि‍शस्‍त्रीकरण के पैरोकार बेहि‍चक शस्‍त्र उठा रहे हैं। बाबा जी वैराग का प्रवचन दे रहे है, पर स्‍वयं घोर वासना में डूबे हैं। घर के पुरुष अपनी स्‍त्रि‍यों को पर्दे में रखने की कोशि‍श कर रहे हैं और दूसरों की स्‍त्रि‍यों को बेपर्दा कर रहे हैं। इस दोहरी जिंदगी से मुझे कोफ्त होती है। आपको भी जरुर होती होगी!

(इस पोस्‍ट को कि‍सी के संदर्भ में नही लि‍खा गया है, सप्रयास अन्यथा न लें)

Thursday 25 September 2008

सर(दार)! आपकी क्‍लास है!

सर्दियों की गुनगुनी धूप में कॉलेज का मैदान मेले में तब्‍दील हो जाता था। लोग रंग-बि‍रंगे गर्म कपड़ों में चहलकदमी करते रहते थे। क्‍लास में बैठकर भी लोग बाहर की धूप में जाने के लि‍ए बेचैन लगते थे। सर को स्‍टाफ-रूम में जाकर याद दि‍लाना पड़ता था कि‍ सर(दार) आपकी क्‍लास है। वे पूछते थे-

हूँ..., कि‍तने बच्‍चे हैं?
सरदार दो बच्‍चे हैं।
हूँ..., दो बच्‍चे,
(चीखकर) सर के बच्‍चे!! तुम दो हो, बाकी 20 कहॉं हैं?
सरदार बाकी 20 तो धूप खा रहे हैं।

फि‍र भी क्‍लास के लि‍ए बुलाने आ गए, वो भी खाली हाथ(न कलम न कॉपी)
क्‍या समझकर आए थे कि‍ सरदार बहुत खुश होगा, शब्‍बासी देगा, क्‍यों!
धि‍क्‍कार है!!
[सरदार जेब से चश्‍मा नि‍कालता है और उसका शीशा रूमाल से साफ करने लगता है।]

अरे ओ शंभू (सफाईकर्मी)! कि‍तने पैसे देती है सरकार हमें पढाने को?
शंभू सीढ़ि‍यों पर चढ़कर पंखा साफ कर रहा है-
-पूरे 30 हजार!
-सुना! [सरदार चश्‍मा ऑखों पर चढ़ाते हुए कहता है]
पूरे 30 हजार!
और ये पैसे इसलि‍ए मि‍लते हैं कि‍ हम कॉलेज आँए और यहॉं स्‍टाफ-रूम की शोभा बढ़ायें, यहॉं की चाय पीकर प्‍यालों पर अहसान जताऍं।

यहॉं से पचास-पचास कोस दूर गॉव से जब बच्‍चा कॉलेज के लि‍ए नि‍कलता है तो मॉं कहती है बेटे मत जा, मत जा क्‍योंकि‍ सर(दार) क्‍लास लेने नहीं आएगा।
सरदार फि‍र चीख पड़ता है-
और ये दो शहजादे, इस कॉलेज का नाम पूरा मि‍ट्टी में मि‍लाए दि‍ए।
इसकी सजा मि‍लेगी,बराबर मि‍लेगी।
क्‍या रॉल-नम्‍बर है,
-आयें
सरदार चीखकर पूछता है- रॉल नम्‍बर बताओ!
छ: सर(दार)!
छ: रॉल-नम्‍बर है तुम्‍हारा!!
बहुत नाइंसाफी है ये! रजीस्‍टर लाओ!

सरदार रजीस्‍टर में दोनों के ऐटेंडेंस लगा देता है। एक बच्‍चा सरदार का मुँह देखने लगता है।
सरदार पूछता है अब क्‍या हुआ?
सर(दार) हम दरअसल तीन हैं, बसंती का भी एटेंडेंस लगा दो, वो बगीचे में आम तोड़ रही है।

सरदार नाराज हो जाता है, बसंती बगीचे में है और तुम कहते हो एटेंडेंस लगा दूँ। बच्‍चे कहॉं है, कहॉं नहीं, हमको नहीं पता! हमको कुछ नहीं पता!
इस रजीस्‍टर में 22 बच्‍चों की उपस्‍थि‍ति‍ और अनुपस्‍थि‍ति‍ दर्ज है। देखें कि‍से क्‍या मि‍लता है!
सरदार वीरु का नाम देखकर कहता है- बच गया साला।
फि‍र जय का नाम देखता है- ये भी बच गया।
तभी झोले में आम लि‍ए बसंती भी वहॉं आ जाती है।
सरदार उससे पूछता है- तेरा क्‍या होगा बसंती?

बसंती कहती है- सरदार! मैंने आपको अपना टीफि‍न खि‍लाया है सरदार।
अब आम खि‍ला।
कमाल हो गया, सबके ऐटेंडेंस लग गए- यह कहकर सरदार पागलों की तरह हॅसने लगता है, शंभु और बाकी बच्‍चे भी सरदार के सुर में सुर मि‍लाकर हँसने लगते हैं। हॅसते-हॅसते दि‍न कट जाता है और फि‍र सभी घोड़े पर सवार होकर घर के लि‍ए रवाना हो जाते हैं। सरदार पहले ऑफि‍स जाता है और अपना चेक लेकर तब कॉलेज से चेक-आउट करता है।

Friday 19 September 2008

मूँछ नहीं तो पूछ नहीं......

स्‍कूल से नि‍कलकर कॉलेज में आया तो यहाँ का फैशन परेड देखकर आश्‍चर्य में पड़ गया। कुछ ही लड़के ऐसे होंगे जि‍नकी नाक के नीचे मूँछें टँगी हो। यहॉं तक कि‍ जि‍न प्राध्‍यापकों की मूँछे नहीं थी, वे भी मुझे अजीब नि‍गाह से देखते थे, एक प्राध्‍यापक तो कहने से भी नहीं चुके-
‘यार, स्‍कूल में ही मूँछे छोड़ आते, इसका भी माइग्रेसन सर्टीफि‍केट बनवा लि‍या था क्‍या!'लडकों के साथ-साथ लड़कि‍या भी हँस रही थी। इतनी बेइज्‍जती सहकर भी मैं चुप था। मेरा एक दोस्‍त सच्‍ची सलाह के लि‍ए जाना जाता था। उसने कहा इसे मुँड़वा दो, बाद में चाहे तो फि‍र रख लेना।
मैने कहा बाप के जीते जी मैं ये कुकर्म नहीं कर सकता।
दोस्‍त को गुस्‍सा आ गया-

‘तो क्‍या यहाँ जि‍तने मुँछमुण्‍डे घूम रहे हैं, उनके बाप मर गए हैं! यार, कि‍स गॉव की बात मूँछ में लपेटकर घूम रहे हो तुम! ऐसे ही रहे तो लोग तुम्‍हारी मूँछों की कस्‍में खाने लगेंगे,अमि‍ताभ बच्‍चन अपने डायलॉग से नत्‍थूलाल को रि‍टायर करके तुम्‍हे रख लेगा- ''मूँछे हो तो जीत्तू लाल जैसी''। बैंक और सुनारों की दुकान के आगे नौकरी लेनी है तो मूँछे बढ़ा!‘

इतनी भी बड़ी नहीं है भाई कि‍ तुम ऐसे ताने मारो- मैने दुखी होकर कहा।
’तो अनि‍ल कपूर की तरह भी नहीं है कि‍ इसे सजाकर घूमो, शीशे में गौर से जाकर देखना,
लगेगा कि‍ ‘गोलमाल’ के राम प्रसाद और लक्ष्‍मण प्रसाद का नकली मूँछोंवाला एक और भाई है। अब यार तेरे साथ चलने में भी बुरा लगता है, तेरी वजह से कोई लड़की मुझे भी भाव नहीं देती!‘
’मैं क्‍या करूँ दोस्‍त, अभी-अभी कोंपलें फूटी है, फलने-फूलने से पहले ही इसे कतर दूँ, ये मुझसे नहीं होता!‘

‘तुम्‍हें कुछ नहीं करना है, सब उस्‍तरे पर छोड़ दो!‘


आखि‍र वो दि‍न आ ही गया। शर्म से अपने पसीने में ही डूबा जा रहा था मैं। शीशे में लगता था मेरे सामने कोई दूसरा आदमी खड़ा है। हर जगह घूमते हुए मेरी अंगुलि‍याँ अक्‍सर ओठों के ऊपर कुछ ढ़ूँढ़ती-सी रहती थी, लोग सोचते थे शायद मनोज कुमार है या कोई चिंतक है।

कोई ये नहीं सोचता था कि‍ मैं अपने खेत में फसल के उजड़ जाने से व्‍यथि‍त हूँ। सि‍र्फ कॉलेज के लोगों को ही मेरे मुँह छि‍पाने की वजह का अंदाजा था।

अपने गुनाह के लि‍ए मन ही मन मैं ईश्‍वर और अपने पि‍ता जी से कई बार माफी मॉंग चुका था। लेकि‍न बाकी लोगों की तरह मैं भी धीरे-धीरे इस आपदा को भूलने लगा कि‍ नाक के नीचे जो ऑंधी आई थी, उसमें सि‍र्फ बाल ही बॉंका हुआ था, कि‍सी और के हताहत होने की कोई सूचना नहीं आई।

(पहली फोटो राज भाटि‍या जी के सौजन्‍य से, शेष के लि‍ए गूगल का आभार)

Monday 15 September 2008

एकजुटता और गुटबाजी में फर्क !!

अनूप जी ने चि‍ट्ठा-चर्चा में मुझसे गि‍रोह का नाम पूछा है। वैसे वे ‘एक लाइना’ को जि‍स वि‍नोद के साथ प्रस्तुत करते हैं, उसमें गंभीर होकर सोचना गलत होगा, और वैसे भी उनके इस प्रश्‍न में चुहल ही ज्‍यादा होगी, फि‍र भी जवाब में कुछ कहना चाहूँगा। जैसे ‘धर्म’ अपने प्रारंभि‍क दौर में सभी मर्यादाओं से युक्‍त एक पवि‍त्र वि‍चारों से प्रेरि‍त हुआ था, पर बाद में ‘सम्‍प्रदायों’ में बँटकर वह दूषि‍त होने लगा, ठीक ऐसा ही संदेह ब्‍लॉग-जगत की नि‍ष्‍पक्षता और प्रति‍बद्धता को लेकर मेरे सहज मन में उपजा था।

धार्मिक आस्‍था और सांप्रदायि‍क एकजुटता में फर्क है, ठीक उसी तरह साम्‍प्रदायि‍क एकजुटता और साम्‍प्रदायि‍क गुटबाजी में भी गहरा अंतर है। साम्प्रदायि‍क एकजुटता में प्रति‍बद्धता को एक सामूहि‍क वि‍कास के रूप मे देखा जाता है मगर साम्प्रदायि‍क गुटबाजी की प्रति‍बद्धता, दूसरे को नीचा दि‍खाने में ही अपना उत्‍थान समझती है। ब्‍लॉग के संदर्भ में कहा जाए तो मुझे एकजुटता से कोई ऐतराज नहीं है,( ईर्ष्‍यावश कुछ को हो तो मैं कुछ कह नहीं सकता) पर कहीं कोई गुटबाजी का प्रयास कर रहा हो तो मैं उसके खि‍लाफ हूँ और अनूप जी, मैं भवि‍ष्‍य में भी ब्‍लॉग-जगत से जुड़ा रहा तो ऐसी गुटबाजी को सामने जरुर लाऊंगा। मैंने कल सि‍र्फ इतना ही कहा था कि‍-
‘’ब्‍लॉग-जगत में अभी मामूली गि‍रोहबंदी है, कट्टरता के स्‍थान पर स्‍वस्‍थ हास-परि‍हास है, आनंद और दि‍ल्‍लगी की छुअन है। पर जि‍स दि‍न गि‍रोह-बंदी और बाबागि‍री यहॉं चरम पर होगी, ब्‍लॉग भी उन्‍हीं आरोपों से ग्रस्‍त होगा, जि‍सके लि‍ए तथाकथि‍त साहि‍त्‍य जगत और मीडि‍या पत्रकारि‍ता बदनाम है।‘’

यह कट्टरता ही एकजुटता को गुटबाजी में तब्‍दील कर देती है। बस इसी कट्टरता को ब्‍लॉग से दूर रखने की गुजारि‍श कर रहा था।

ज्ञानदत्‍त जी को पि‍छले कुछ दि‍नों से ही पढ़ना आरंभ कि‍या है। वे प्रभावी लेखक हैं और आत्‍मवि‍श्‍लेषण उनके लेखन का उम्‍दा पक्ष है, पर एक जि‍म्‍मेदार लेखक से जि‍स बात की उम्‍मीद नहीं होती, अनायास वैसी बात पढ़कर मन में कुछ खटक जाता है। वही बात खटक गई और ऐतराज करने की भूल कर बैठा। मैं भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि‍ मेरी इस बात को उन्‍होंने बड़ी सहजता से लि‍या होगा, लेकि‍न उनको चाहनेवाले इस बात से ज्‍यादा आहत हुए। कि‍सी के लेखन को पसंद करने का मतलब ये नहीं होता कि‍ उनकी हर बात को हम डि‍फेंड करें। गड़बड़ी यहीं से होती है, ऑख पर पर्दा पड़ जाता है और अनायास ही कि‍सी के लि‍ए हम पूर्वाग्रह से ग्रस्‍त होते चले जाते हैं।

मेरा आग्रह है कि‍ मेरी पि‍छली पोस्‍ट को कोई ब्‍लॉगर व्‍यक्‍ति‍गत आक्षेप के तौर पर न लें। मैंने यही कहने की चेष्‍टा की थी कि‍ वास्‍तवि‍क प्रकाशन संस्‍थानों में जि‍स तरह की गुटबाजी है, वह ब्‍लॉग जगत में न आए, इसे रोकने के लि‍ए भी जो गुटबाजी अनामदास आदि‍ के रूप में सामने आ रही है, मैं उसके भी खि‍लाफ हूँ।

मैं जानता हूँ ऐसा लि‍खकर मैं हर तरफ से सहानुभूति‍ खो दूँगा, पर जो मुझे सही लगा, मैंने कह दि‍या। इसे चाहे आत्‍मवि‍श्‍वास कह लें, चाहे बेवकूफी!

Saturday 13 September 2008

ब्‍लॉगिंग में गि‍रोहबंदी : एक अप्रि‍य सच!!

कुछ दि‍न पहले ब्‍लॉगरों को एक-दूसरे की पोस्‍ट पर टि‍प्‍पणी करने के लि‍ए समीर जी और शास्‍त्री जी द्वारा एक सार्वजनि‍क आग्रह कि‍या गया था, तब मुझे लगा था कि‍ हि‍न्दी के प्रचार-प्रसार के लि‍ए कुछ लोग तहे-दि‍ल से प्रयास कर रहे हैं, और इसके लि‍ए लोगों को ब्‍लॉग के माध्‍यम से हि‍न्‍दी लि‍खने-पढ़ने के लि‍ए प्रेरि‍त कि‍या जा रहा है। यह शुभ संकेत था। लेकि‍न ज्ञानदत्‍त जी अपने लेख- ‘टीपेरतंत्र के चारण’ में जि‍स राजशाही की कामना करते देखे गए, वह ब्‍लॉग-जगत की संरचना और मनोवि‍ज्ञान पर गहरे आघात से कम नहीं था!

ज्ञानदत्‍त पाण्‍डेय जी के लेख में कल इस ओर चि‍न्‍ता जाहि‍र की गई थी कि‍ ब्‍लॉग के लोकतंत्र में टि‍प्‍पणी करने वाले ज्‍यादातर लोग चापलूस हैं और चारण बनकर प्रशस्‍ति‍ गायन के लि‍ए दो-चार घि‍सी-पीटी टीपी गई टि‍प्‍पणि‍यों के सहारे अपनी जीवि‍का चला रहे हैं। मेरे ख्‍याल से ब्‍लॉग-जगत के लि‍ए यह एक खतरनाक वि‍चार था।

ब्‍लॉग-जगत में अभी तक तो अच्‍छे लेखन को तवज्‍जो दी जाती है, लेखक की हैसि‍यत को नहीं, और यह हमारी इस दुनि‍या से बि‍ल्‍कुल अलग है, जहॉं छपने के लि‍ए आपकी सि‍फारि‍श, खानदान, सि‍यासी रि‍श्‍ते और पार्टी लाइन की पहुँच देखी जाती है।
मैं ये नहीं जानता कि‍ मैं कैसा लि‍खता हूँ, और मेरी तरह दूसरे ब्‍लॉगर भी ये नहीं जानते, पर सबसे ज्यादा सकून इस बात का है कि‍ हमें यहॉं अपने दि‍ल की बात, अपनी सोच, अपनी रचना दुनि‍या में प्रकाशि‍त करने के लि‍ए भ्रष्‍ट-तंत्र से होकर नहीं गुजरना पड़ता।

जब मैंने 1999 में अपना एक पहला उपन्‍यास लि‍खा था,(जि‍से आखि‍री उपन्‍यास कहने के लि‍ए बाध्‍य हूँ) तब उसे दरवाजे के बाहर यह कहकर फेंक दि‍या गया था कि‍ बड़े-बड़े और नामी लेखक अभी लाइन में हैं और आपका नाम तो कहीं सुना भी नहीं! जाइए, पहले छोटी-मोटी पत्रि‍काओं में नाम कमाइए, फि‍र बड़े प्रकाशकों का दरवाजा खटखटाइए। उन्‍हीं दि‍नों एक सेमि‍नार में एक घटि‍या उपन्‍यास का बाइज्‍जत लोकार्पण हुआ था, क्‍योंकि‍ उस उपन्‍यास के लेखक की सि‍यासी पहुँच थी।

प्रति‍ष्‍ठि‍त पत्रि‍काओं में अब जो कुछ लि‍खा जा रहा है, जरा पूज्‍यभाव त्‍यागकर उसे पढ़ें और उसके स्‍तर का अंदाजा लगाऍं। मेहनत और सच्चे दि‍ल से लि‍खी गई रचनाओं में ईमानदारी दूर से ही झलकती है। पर अधि‍कांश लेखों की वायवीय बातें, सतही बातें, दार्शनि‍क मुद्रा बनाकर धमकाती, डराती बातें और भी न जाने क्‍या-क्‍या चीज़ें आपमें आकर्षण-वि‍कर्षण पैदा कर जाती हैं! इसलि‍ए वहॉं की लफ्फाजी और गि‍रोहबंदी से घबराकर कई लोगों की तरह मैं भी ब्लॉग-लेखन के तालाब में कूद गया। अभी तो छोटी-बड़ी सभी मछलि‍यों में यहॉं भाईचारा है, पर यह भी सत्‍य है कि‍ छोटी मछलि‍यॉं बड़ी मछलि‍यों का चारा है।

ब्‍लॉग-जगत में अभी मामूली गि‍रोहबंदी है, कट्टरता के स्‍थान पर स्‍वस्‍थ हास-परि‍हास है, आनंद और दि‍ल्‍लगी की छुअन है। पर जि‍स दि‍न गि‍रोह-बंदी और बाबागि‍री यहॉं चरम पर होगी, ब्‍लॉग भी उन्‍हीं आरोपों से ग्रस्‍त होगा, जि‍सके लि‍ए तथाकथि‍त साहि‍त्‍य जगत और मीडि‍या पत्रकारि‍ता बदनाम है।

आइए, हि‍न्‍दी दि‍वस के अवसर पर अपनी मनोभावना को हि‍न्‍दी में लि‍खकर उस भ्रष्‍टतंत्र को ठेंगा दि‍खाऍं, जहॉं प्रकाशन-तंत्र की उपेक्षा और उदासीनता से कई लेखकों को जन्‍म से पहले भ्रूण में ही मार दि‍या गया था, लेकि‍न ब्‍लॉग-जगत में उनका पुर्नजन्‍म हुआ, इस भरोसे के साथ कि‍ यहॉं तुम खुद ही लेखक हो, खुद ही प्रकाशक हो और खुद ही प्रमोटर। ज्ञानदत्‍त जी, हमारा ये भरोसा टूटने मत दीजि‍एगा!



(अगर कुछ लोगों को नए ब्‍लॉगर की हैसि‍यत से मेरी यह हि‍माकत ‘छोटी मुँह बड़ी बात’ लगती हो तो समझ जाइए कि‍ लोकतंत्र और राजतंत्र के बीच का फासला घट रहा है!)
(सभी चि‍त्रों के लि‍ए गूगल का आभार।)

Monday 8 September 2008

थू !! थू !! हर जगह थू-थू !!

'आक्-थू’ और ‘पि‍च्‍च’ जैसी ध्‍वनि‍यों से कौन परि‍चि‍त नहीं होगा! इससे बड़ा मुँह-लगा मैंने न देखा है न सुना है! जब टाइटेनि‍क मूवी में ‘जैक’ और ‘रोज़’ को समुंदर की लहरों पर थूकते हुए देखा था, तब वह फूहड़ नहीं लगा था। चेहरे पर मुस्‍कान दौड़ गई थी। जो ज्‍यादा दि‍लदार थे, वे मुँह खोलकर हँस भी रहे थे।

तब एक ‘इलि‍ट’ लड़की का इलि‍टपन टूटता देख लोग इस अहसास से भरे जा रहे थे कि‍ वह जैक को नहीं, एक आम आदमी को भाव दे रही है, एक आम आदत को भाव दे रही है और ऐसा करते हुए उसमे लज्‍जा के स्‍थान पर रोमांच और कौतुहल ज्‍यादा दि‍ख रहा था।

इस खि‍लंदड़पन के अलावा थूकने का एक सामाजि‍क पक्ष भी है। हॉलीवुड के साथ-साथ बॉलीवुड में भी नायि‍काऍं खलनायकों पर थूकती दि‍खाई जाती हैं। तब हमारे भीतर बदले की भावना और खौफ का मि‍श्रि‍त रूप पैदा होता है। जब हम फि‍ल्‍मों से नि‍कलकर हकीकत की दुनि‍या में आते हैं, तब भी तमाम थूकने वाले लोग जहॉं-तहॉं मि‍ल जाते हैं। कोई सरकार पर थूक रहा होता है, कोई पड़ोसी पर तो कोई रि‍श्‍तेदारों पर! कि‍सी के पास धीरज नहीं होता कि‍ थूक नि‍गलकर कोई रास्‍ता नि‍काल ले! आक्रोश को शब्‍दों से नहीं, इस तरह की चेष्‍टा से अभि‍व्‍यक्‍त करने की परंपरा कि‍तनी पुरानी होगी, कहा नहीं जा सकता, पर यह तो तय है कि‍ सारी दुनि‍या में इसके मायने एक जैसे ही रहे होंगे!

इस थूकचर्चा में मानवीय चि‍न्‍ता के साथ-साथ पर्यावरण के संकट पर भी गौर कर लें। जहॉं हम-आप रहते हैं, या काम करते हैं या कहीं भी सार्वजनि‍क जगह पर कुछ समय बि‍ताते हैं, वहॉं कुछ खास तरह के लोग जुगाली करते मि‍ल जाएंगे। उसके बाद वे कोना इसी तरह ढूढेंगे जैसे कुत्‍ते दीवार ढूँढते हैं। इस मामले में इनका आपस में गहरा रि‍श्‍ता होता है। पर एक फर्क भी है। कुत्‍ते अपना पैर गंदा होने से बचाते हैं, जबकि‍ जुगाली करनेवाले महाशय कोने में लाल-छाप छोड़कर अपनी पहचान बनाने में ही आत्‍मीय सुख महसूस करते हैं। वो इस लाल थूक को जि‍तनी गहरी छाप छोड़ते देखते हैं , उतना कि‍लो इनके खून का वजन बढ़ जाता है। अब मान लीजि‍ए आप इनसे रास्‍ता पूछने की भूल कर बैठे, और आपने सफेद सर्ट पहन रखी है, फि‍र....! या मान लीजि‍ए, इन्‍हें यूरोप या यू.एस. का वीज़ा मि‍ल जाए तब....! अपनी भारतीय संस्‍कृति‍ की पहचान ऐसे लोगों से भी तो बनी है।

पूँजीवादी व्‍यवस्‍था के उदय के बाद च्‍वींगम का ईजाद हुआ, जि‍समे लोगों का घंटो मुँह बंद रखने की क्षमता थी, फि‍र थूकने का सवाल ही नहीं था! इस दोहरे फायदे को देखते हुए इसे व्‍यापक पैमाने पर खपाने की कोशि‍श की गई, मगर बच्‍चों के अलावा कि‍सी ने इसे मुँह नहीं लगाया। बाकी जनता अपने रंग से ही मुँह लाल कि‍ए रही।

सरकार अपने कर्मचारि‍यों को लेकर इस मामले में जहॉं-जहॉं संजीदा है, वो अपने भवनों को लाल ईंटों से बनवा रही है, पर थूकने वाले तब भी सफेद और साफ-सुथरा कोना ढ़ूँढ ही लेते हैं। वो तय करके आते हैं कि‍ वे रोज उसी जगह थूकेंगे और उसे अपनी औलाद की तरह नि‍हारेंगे कि‍ तू न होता तो मैं कहॉं जाता! मुन्‍ना भाई की सलाह पर हम बाल्टी- मग लेकर या थूकदान की कटोरी लि‍ए खड़े तो हो नहीं सकते कि‍ आइये जनाब, शर्माइये मत, इसमें थूकि‍ये, मुँह ज्‍यादा भरा हो तो मुझपर ही थूक दीजि‍ए!

जो लोग इसे नवाबों का चलन मानते हैं, उनसे मेरा कोई गुरेज नहीं है। वस गुजारि‍श है कि‍ इस तरह की क्रि‍या का संपादन नौकर के हाथ में सोने का थूकदान देकर अपने महलों में कि‍या करें! सार्वजनि‍क भवनों को ‘लाल’ कि‍ला बनाने का टेंडर बेच दें! वैसे तो तंबाकू-गुटका वगैरह न खाऍं और फि‍र भी मन न माने तो थूकने का संस्‍कार सीख लें! और जो फि‍र भी इसे मौलि‍क अधि‍कार का हनन मानते हैं, वे मुझे माफ करें और जाकर मुँह साफ करें!

Wednesday 3 September 2008

अमीरों की मर्मांतक पीड़ा !

मैं क्‍या करुँ जो कहीं बाढ़ कहीं सूखा है,
मेरा डॉगी भी तो सुबह से भूखा है।

मुर्ग-मसल्‍लम, वि‍स्‍की- इनसे बड़ा सहारा है।
कमबख्‍त रोटी से कि‍सका हुआ गुजारा है!

रफ्तार कम लग रही है ट्रेनों की,
उसपर टि‍कट मि‍ल नहीं रही प्‍लेनों की।

चोर-उचक्‍के हैं काहि‍ल, मैं क्‍या दूँ उनको गाली।
हफ्ता नहीं वसूला, है ति‍जोरी कुछ-कुछ खाली।

कुछ लोग मर गए हैं, गर्मी कहीं पड़ी है,
कल कम्‍बल नि‍काला है,ए.सी. की ठंडक बढ़ी है।

दुबई तो गया था, पर दुबका ही लौट आया।
अफसोस मन में रह गया, मुजरा न देख पाया।

कार तो कई हैं, पर इस बात का बेहद गि‍ला है,
दो-चार को छोड़,वी.आई.पी.नम्‍बर नहीं मि‍ला है।

भूखे-नंगे, अधमरों को बखूबी सबने देखा है,
अमीरों की गरीबी-रेखा को मगर कि‍सने देखा है!

दुख झेले हैं ये मैंने, तो दुआ करें सभी,
कि‍सी को न ये दि‍न देखना पड़े कभी।
-जि‍तेन्‍द्र भगत

Monday 1 September 2008

...... मॉं की याद आती है, पर माँ नहीं आती!

मैने सुना था कि‍ औरतों का काम कभी खत्‍म नहीं होता! मेरी मॉं उन्‍हीं औरतों में से एक है। हर वक्‍त व्‍यस्‍त! रह-रह कर बेचारी घड़ी की तरफ देखेंगी और आश्‍चर्य से कहेंगी- आईं! 7 बज गये! एक घंटे बाद फि‍र कहेंगी- आईं! 8 बज गए! इस तरह 9 और 10 भी बज जाते हैं। पहले मॉं 9 बजे तक सो जाया करती थी, इसलि‍ए मैं 9 बजे तक एस.टी.डी. फोन कर लि‍या करता था, पर अब जमाना बदल गया है। मॉं जमाने के साथ बदल गई है। उन्‍हें एक ऐसी लत लग गई है, जि‍सका उन्‍हें रत्ती भर भी रंज नहीं, (मैं रंज देता भी नहीं!) मैं उन्‍हें अब रात के 10 बजे से 12 बजे के बीच भी फोन करके बात कर सकता हूँ, शनि‍वार और रवि‍वार को छोड़कर। फोन उठाने के बाद भी मॉं का ध्‍यान मेरी बातों पर नहीं रहता। कहती हैं- दो मि‍नट ठहरो। ज़ी टी.वी.पर ‘तीन बहुरानि‍यॉं’ आ रही है। .......अब ऐड आ गया। हॉं अब बोलो, मेरा पोता ठीक है? बात करते हुए मैं सोचता जाता हूँ, शायद जी सि‍नेमा पर 10-15 मि‍नट का ऐड आता है, पर मॉं तो ज़ी टी.वी. देख रही है, 3-4 मि‍नट में ही फोन रख दूँ तो ठीक रहेगा, कोई ऐसी जरुरी बात भी नहीं। मैं भी थोड़ी बातें करके, ऐड खत्‍म होने का अनुमान लगाकर हँस-बोलकर फोन रख देता हूँ।

मॉं अपनी बहू और पोते से सैकड़ों मि‍ल दूर है, उनके पास हम नहीं हैं, पर उनके पास ‘’तीन बहुरानि‍याँ’’ हैं। साथ ही, और भी न जाने कौन-कौन से सीरि‍यल्स हैं! वे उन्‍हीं में स्‍वयं को दि‍नभर भुलाए रखती हैं। माँ को मेरे पास इस महानगर में रहना अच्छा नहीं लगता। वे उस छोटे शहर के दूरदराज इलाके से अपना घर छोड़कर कहीं नहीं नि‍कलना चाहतीं। आखि‍र उसकी एक-एक ईट को उन्‍होंने अपने सपनों की तरह संजोया है। वो हमें वहीं बसने पर जोर भी नहीं डालतीं। नौकरी का तकाजा है, इसलि‍ए मैं भी इस बात से बचता हूँ! इन सब मन:स्‍थि‍ति‍यों के बीच मॉं की याद आती रहती है, पर माँ नहीं आती!

Saturday 30 August 2008

जो 10 दि‍न तक चुप रहना चाहते हैं!

सरदर्द, अनीद्रा, थकान जैसी बीमारियाँ तो इस साधना से जरुर दूर हो जाती हैं (ये लि‍खते हुए लग रहा है जैसे मैं कोई तेल बेच रहा हूँ।) पर वि‍पश्‍यना के कुछ अन्‍य लाभ भी हैं। दि‍न भर कुछ-न-कुछ खाते रहने वाले लोगों के मुँह पर लगाम लग जाती है, और जि‍न्‍हें खूब बकबक करने की आदत है, उनकी जुबान पर भी 10 दि‍न के लि‍ए ताला लग जाता है। इस तरह, 10 दि‍न का खाना भी बच जाता है और लोग भी 10 दि‍न तक उसकी बकबक से बच जाते हैं।
अब आप मुझे उन ब्‍लॉगरों का नाम दें, जि‍नसे आप 10 दि‍न की छुट्टी चाहते हैं, मैं उनका नाम वि‍पश्‍यना केन्‍द्र में रजीस्‍टर्ड करवा दूँगा! (मुझे बख्‍श देंगे, मैं अभी हाल में ही होकर आया हूँ और अभी मैंने लोगों को पकाना शुरु नहीं कि‍या है।)

अब कुछ काम की बात- जो लोग यहॉं जाना चाहते हैं, वे इस रुटीन को ठीक से देख-समझ लें-
THE COURSE TIMETABLE
The following timetable for the course has been designed to maintain the continuity of practice. For best results students are advised to follow it as closely as possible.
4:00 am Morning wake-up bell
4:30-6:30 am Meditate in the hall or in your room
6:30-8:00 am Breakfast break
8:00-9:00 am Group meditation in the hall
9:00-11:00 am Meditate in the hall or in your room according to the teacher's instructions
11:00-12:00 noon Lunch break
12noon-1:00 pm Rest and interviews with the teacher
1:00-2:30 pm Meditate in the hall or in your room
2:30-3:30 pm Group meditation in the hall
3:30-5:00 pm Meditate in the hall or in your own room according to the teacher's instructions
5:00-6:00 pm Tea break
6:00-7:00 pm Group meditation in the hall
7:00-8:15 pm Teacher's Discourse in the hall
8:15-9:00 pm Group meditation in the hall
9:00-9:30 pm Question time in the hall
9:30 pm Retire to your own room--Lights out

इसको पढ़ने के बाद भी कि‍सी की इच्‍छा-शक्‍ति‍ प्रबल है तो मैं उनके लि‍ए मैक्‍लॉडगंज स्‍थि‍त धम्‍म शि‍खर वि‍पश्‍यना केन्‍द्र के वेब साइट का लिंक यहॉं दे रहा हूँ , पर ध्‍यान रहे, बाद में आप मुझे मत कहना कि‍ जीतेन ने कहॉं फँसा दि‍या यार!
भारत के अन्‍य वि‍पश्‍यना शि‍वि‍र का पता इस लिंक पर देखें।
कुछ लोग सोचते होंगे 10 दि‍न की जगह दो-चार दि‍न का शि‍वि‍र होता तो कि‍तना अच्‍छा होता! यदि‍ आप पहली बार 10 दि‍न का शि‍वि‍र सम्‍पन्न कर लेते हैं तब अगली बार से आप कभी भी सि‍र्फ तीन दि‍न के शि‍वि‍र में रहकर एक सीनि‍यर साधक की तरह नये साधकों की मदद कर सकते हैं। पर चुप तो तब भी रहना पड़ेगा। एक बात कहना चाहूँगा- इस चुप्‍पी का संबंध सि‍र्फ मुँह बंद करने से नहीं है, इसे NOBLE SILENCE कहा जाता है, जि‍सका मतलब है- silence of body, speech, and mind.
भारत के तमाम राज्‍यों में वि‍पश्‍यना केन्‍द्र है, बौद्ध देशों के अलावा कैलि‍फोर्नि‍या समेत बड़े-बड़े राज्‍यों/देशों में भी इसके केन्‍द्र खुले हुए हैं।(बाकी सूचनाऍं आप गुगल पर सर्च कर सकते हैं।) और हॉं, वि‍पश्‍यना शि‍वि‍र में जाने के लि‍ए कम-से-कम एक-दो महि‍ने पहले ही अपने पसंदीदा केन्‍द्र में अपना नाम-पता रजीस्‍टर्ड करवाना पड़ता है।
तो देर कि‍स बात की! जाइए और जाकर खुद को रि‍चार्ज कीजि‍ए। वि‍पश्‍यना शि‍वि‍र में जाकर पहली बार 10 दि‍न का रि‍चार्ज कूपन लीजि‍ए, फि‍र अगली बार, तीन दि‍न के टॉप-अप से ही शि‍वि‍र में रहने का लाभ ले सकते हैं।

Friday 29 August 2008

जहॉं मैं 10 दि‍न तक बि‍ल्‍कुल चुप रहा !! (अंति‍म भाग)

हर रात, पहाड़ों की तलहटी से लोक-संगीत की धुन सुनाई पड़ती थी, इतनी मधुर कि‍ नींद जैसे पहाड़ों से सरकती जाए! धवलाधर के शि‍खर पर जमी हुई बर्फ चॉंदनी रात में चॉंदी का ढेर बन जाती थी और सुबह के भोर में सूरज की पहली कि‍रण उसे सोने का ताज पहना जाती थी।
मुझे एकल शयन कक्ष नहीं मि‍ल पाया था। मेरे डॉरमेटरी में लगभग 10-12 वि‍देशी थे। मोटे परदे से पार्टीशन कि‍या गया था। मुझे याद आया, मेरा रुम पार्टनर इटली का एक छह फुटा नौजवान था। रात 9:30 बजे बत्ती बुझा दी जाती थी (काश, नींद भी स्‍वीच से नि‍यंत्रि‍त होती!) एक तो नींद जल्‍दी नहीं आती थी, दूसरा, ठंड जैसे कम्‍बल को चीरकर हाड़ कंपा देती थी, तीसरा, मेरे बगल की चौकी पर वह इटैलि‍यन प्रोडक्‍ट रह-रहकर खर्राटे भरने लगता था। उसके पास बैगनुमा रजाई था, जि‍सके अंदर वह घुसकर जो सोता, तो सुबह ही उठता।(इस बैगनुमा रजाई का नाम भूल गया हूँ, कि‍न्‍हीं को मालूम हो तो कृप्या बताऍं)।
रात को कई बार लगा कि‍ गला खराब होने वाला है, जुकाम हो सकता है। तब रात में ही एक-दो बार मेस के गेट के पास चला जाता, जहॉं हर्बल-टी का नल-युक्‍त कंटेनर बाहर ही रखा होता था। इस वि‍शेष प्रकार की हर्बल-टी में गजब का स्‍वाद था। इलाइची, काली मि‍र्च और कुछ पहाड़ी बूटि‍यों से इसे तैयार कि‍या गया था। सर्दी के हर मौसम में इस चाय की याद आती है, पर तब बि‍ना बोले चाय बनाने की वि‍धि‍ कैसे पूछी जा सकती थी!

मेस में सि‍र्फ एक बार (11बजे) खाना और सुबह-शाम दो बार नाश्‍ता मि‍लता था। बाद के दि‍नों में यही खाना हमें पर्याप्‍त लगने लगा था। वि‍देशि‍यों के साथ खाना खाने का अनुभव भी बड़ा रोचक रहा। इज्रायली युवक जोसफ संतरे के छि‍लके को तो उतार देता था, पर गुद्दे को बीज-समेत ही खा जाता था।
पहले दि‍न, जब नाम पता दर्ज कि‍या जा रहा था, तब वह साधु मेरे पास आकर मुझसे बातें करने लगा। वह हरि‍द्वार से आया था और उसे इस बात का गर्व था। जब मैने बताया कि‍ मैं दि‍ल्‍ली से आया हूँ तब उसकी बात सुनकर मैं दंग रह गया। उसने कहा कि‍ दि‍ल्‍ली के सभी लोग शाति‍र हैं और वह मेरी ऑंख देखकर बता सकता है कि‍ मैं कि‍तना शाति‍र हूँ। मैने कहा- इस साधना से शायद मेरे भीतर का शाति‍रपना मर जाए, पर आप यहॉं कि‍स लि‍ए आए हैं? साधु ने अकड़कर जवाब दि‍या- मैं ये देखने आया हूँ कि‍ साधना के नाम पर यहॉं क्‍या पाखण्‍ड चल रहा है। मैने मन ही मन कहा कि‍ इस भावना के साथ कोई अमृत पीए तो अमृत भी जहर बन जाए! मुझे लगता है वह साधु साधना पर अपनी बि‍रादरी का एकाधि‍कार समझता था, पर हम नौजवानों को इस बात का कोई दंभ नहीं था।


खैर, साधना के अभ्‍यास से एक शक्‍ति‍ हासि‍ल होने लगी थी। एक ही आसन में बैठे रहने पर पॉव सुन्‍न होने लगते थे, पर धीरे-धीरे उस सुन्‍न स्‍थान तक चेतस मन को सहजतापूर्वक संचरि‍त करने पर दर्द गायब होने लगता था। यह एक अलौकि‍क अहसास था! यह अहसास होने लगा कि‍ महात्‍मा बुद्ध या अन्य मुनि‍जनों ने एक ही अवस्‍था में तप करने के लि‍ए इन सूत्रों को अभ्‍यास से ही अर्जित कि‍या होगा! मैने तय कि‍या कि‍ बोधगया स्‍थि‍त बोधि‍ वृक्ष के पास जाकर देखुंगा कि‍ साधना के एकांत में कि‍तना आकर्षण है!


शि‍वि‍र से बाहर जाते हुए मन में एक अजीब-सी बेचैनी हो रही थी। पंछि‍यों के जो कलरव मैंने यहॉं सुने थे, वह शहर की गाड़ि‍यों के शोर में रौंदे जाने वाले थे। पॉंव के नीचे सूखे पत्‍तों की खड़-खड़, मानो चुप्‍पी को तोड़कर जहान के शोर में लौट आने का नि‍मंत्रण दे रही थी।


नीचे उतरते ही मैक्‍लॉडगंज का बाजार नजर आया। इतने दि‍नों बाद बाजार में खड़ा होना भी सुखद लग रहा था। थोड़ा आगे बढ़ा तो 100-150 वि‍देशि‍यों की लंबी कतार देखकर हैरान हो गया। पता चला, दलाई लामा आए हुए हैं और लोग उनसे हाथ मि‍लाकर उनसे पवि‍त्र धागा बंधवा रहे हैं। मुझे कोई जल्‍दी नहीं थी, इसलि‍ए मैं भी कतार में खड़ा हो गया। मैं जब नजदीक पहुँचा, तो देखने में वे आम बौद्ध भि‍क्षु ही लगे, जो ति‍ब्‍बति‍यों की आजादी के लि‍ए लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं। दलाई लामा 1959 में चीन से नि‍र्वासि‍त हुए थे, तब उन्‍होंने ‘अपर धर्मशाला’ यानी मैक्‍लॉडगंज को ही अपना नि‍वास स्‍थल बनाया था। अव यह क्षेत्र little Tibet के रूप में जाना जाता है।


दि‍ल्‍ली आने के बाद एक-दो महि‍ने तक मैं इस साधना का नि‍यमि‍त अभ्‍यास करता रहा। क्रोध पर काबू पाने में इससे काफी सहायता मि‍ली, पर बाद में महानगर ने अपने तेवर दि‍खाए और मैं सबकुछ भूल-भाल गया। न जाने क्‍यों, ब्‍लॉग में आप सबसे ये बातें शेयर करते हुए वहॉं जाने की चाहत, मेरे मन में एक बार फि‍र उमड़ने लगी है। अब गुस्‍सा भी काफी आता है, सोचता हूँ समता में रहने का अभ्‍यास कर ही आऊँ! बैटरी कुछ महि‍ने तो रि‍चार्ज रहेगी।

(इसकी पि‍छली कड़ी भाग 1 , भाग 2 और भाग 3 में पढ़ सकते हैं।)

Thursday 28 August 2008

जहॉं मैं 10 दि‍न तक बि‍ल्‍कुल चुप रहा !! (भाग 3)


बंदरों का हुजूम अचानक उमड़ पड़ा था, चार दि‍न की चुप्‍पी में एक ब्रेक मुस्‍कान बनकर आया था। वि‍पश्‍यना शि‍वि‍र में मौन व्रत के कठि‍न नि‍यम थे, यहॉं हाथ मि‍लाना तो दूर की बात थी, ऑंखों-ऑंखों में इशारे से बात करने की भी मनाही थी। ऐसा नहीं कि‍ ये सब देखने के लि‍ए हमारे पीछे कोई इंस्पेक्‍टर लगा था! ये हमारा चुनाव था, पर हम इसे दि‍ल से नहीं, दि‍माग से नि‍भा रहे थे। ये सच्‍चाई थी। दि‍ल कहता था, आपस में हम बात करें कि‍ यहॉं के सि‍स्‍टम में क्‍या-क्‍या खराबी है, पानी नहीं आता, खाने में आईटम कम क्‍यों है, प्रश्‍नकाल में टीचर जी बोलने का थोड़ा ही अवसर क्‍यों देते हैं, लड़कि‍यों के लि‍ए अलग से साधना-कक्ष क्‍यों नहीं है, जबकि‍ मेस में दोनो के डायनिंग टेबल के बीच परदा लगाया गया है। जवाब तो हमें मालूम ही था, पर जैसे भौति‍क जगत में हम सभी को बोलने-बड़बड़ाने के लि‍ए कुछ चाहि‍ए, ताकि‍ हम अपने विचारों के कम्‍बल से दूसरों की सॉंसे उखाड़ सकें, वैसे ही यहॉं भी लोगों का मन कुछ भी बोलने को कुलबुलाता रहता था।

ऐसे हालात में, जब बि‍ना बोले मुँह में थकान-सी महसूस हो रही थी, अचानक बंदर देवदूत-से प्रकट हुए, और इस बार सभी साधकों का मुँह खुला, पर खाने के लि‍ए नहीं, मुस्‍कुराने के लि‍ए। दबी जुबान से कहना तो आप सबने देखा-सुना होगा, पर मास स्‍केल पर दबी जुबान से मुस्‍कुराना मैंने यहीं देखा था! बंदरो की धमाचौकड़ी भी जबरदस्‍त थी कि‍ खि‍लखि‍लाकर हँसने का जी चाहे, पर हमने शि‍वि‍र की लाज रख ली।

देर तक जगते हुए सुबह चार बजे तो कई बार सोया हूँ, लेकि‍न जल्‍दी सोकर सुबह चार बजे उठना शायद ही याद हो! वि‍पश्‍यना शि‍वि‍र में मुझ जैसे नि‍शाचर के लि‍ए लगातार 10 दि‍न, इतनी सुबह-सुबह उठना एक सदमे के समान था।(वैसे भी, दि‍ल्‍ली में 10-11 बजे से पहले सो जाने वाले लोगों को बीमार समझा जाता है।) तो, शि‍वि‍र में चार बजे की मादक सुबह में ही घंटा बज उठता था। दस मि‍नट बाद फि‍र घंटा बजता था, और तब भी कोई न उठे तो एक सीनि‍यर साधक मूक रहकर स्‍पर्श से उठाने का प्रयत्‍न करता था। बोझि‍ल ऑंखों से हम साधना कक्ष में जा बैठते, ऑंखे बंदकर साधना के नाम पर बैठकर नींद नि‍कालते। लगभग सभी साधक दो-चार तकि‍ए लगाकर कम्‍बल ओढ़कर बैठे होते थे। एक-दो साधकों को ज्‍यादा ठंड लगती थी, इसलि‍ए वे दो-तीन कम्‍बल लगा लेते थे। पर साधु तो टीपिकल इंडि‍यन साधु था, बढ़ी हुई दाढ़ी, गेरुआ वस्‍त्र, ति‍लक छापा के साथ चेहरे पर एक दुर्वासाई अकड़- जैसे नि‍गाहें टेढ़ी क्‍या की, सामनेवाला जलकर भस्‍म! ( शुक्र है डंडा वगैरह हथि‍यार पहले ही जमा करा लि‍ए गए थे।)

तो, ठंड के उन दि‍नों में साधु वैदि‍क परंपरा के साधकों का तपोबल दि‍खाने के लि‍ए बगैर कम्‍बल लि‍ए बैठता था। वि‍देशी साधकों के लि‍ए यह उतना ही बड़ा कौतुक था, जैसे बंदरों का उत्‍पात्। कैमरा होता तो वे इसे रील में कैदकर ले जाते! मजे की बात तो ये थी कि‍ क्‍लास मे जैसे छोटे बच्‍चे आगे बैठने के लि‍ए ललकते हैं, वैसे ही यह टीचर जी के सामने आसन लगाकर जा बैठता था। तीसरे दि‍न लोग यह देखकर मन ही मन मुस्‍कुरा रहे थे कि‍ साधु ने कम्‍बल लाना शुरु कर दि‍या है।

सातवें दि‍न स्‍पेनी लड़के चावी को जुकाम हो गया और साधना कक्ष में वह बेचारा, साधु के पीछे बैठने की भूल कर बैठा। जब-जब चावी नाक सुड़ुक रहा था, उसकी आवाज़ से साधू का ध्‍यान भंग हो रहा था। आपको पता ही है, वि‍श्‍वामि‍त्र का ध्‍यान मेनका ने भंग कि‍या था, उससे वि‍श्‍वा भाई का तो भला हो गया, पर बाकि‍यों को तो चावी जैसे लोग ही मि‍ले। साधु गर्दन घुमा-घुमाकर अपनी हुँकार से अपना गुस्‍सा जाहि‍र करने लगा, बोलने की छूट होती तो शापवश चावी बेचारा तक्षण् स्‍पेन के पाताल में जा समाता! उसकी ऑंखों से क्रोध टपकने लगा था और साथ बैठे सभी साधक साधु की इस हरकत को नोटि‍स कर रहे थे। साधना अब अपने समापन दि‍वस तक पहुँच रही थी, पर साधु होते हुए भी वह अपने क्रोध का दमन न कर सका, शमन तो दूर की बात है। हम उसके बारे में आपस में बात करने को व्‍याकुल थे, यानी हम सभी के मन से भी द्वेष, निंदा आदि‍ भाव दूर नहीं हो पाया था।......
जारी....... (इसपर चौथा पोस्‍ट इसका अंति‍म अध्‍याय होगा।)

(वि‍पश्‍यना शि‍वि‍र तक पहुँचने का वृतांत भाग 1 में पढ़ें और शि‍वि‍र में साधना और साधकों के साथ के कुछ अनुभव भाग 2 में पढ़ें।)

Wednesday 27 August 2008

जहॉं मैं 10 दि‍न तक बि‍ल्‍कुल चुप रहा !! (भाग 2)


नाम पता दर्ज कराते वक्‍त आपस में बात करने की मनाही नहीं थी, तभी मुझे ये मालूम हुआ कि‍ इस शि‍वि‍र में इंग्लैंड से चार युवक, इज़्राइल से सात, स्‍पेन से एक, अमेरि‍का से तीन, जर्मनी से दो लोग साधना के लि‍ए आए थे और तीन-चार ऐसे थे जि‍नके बारे में मुझे याद नहीं कि‍ वे कहॉं से थे। हैरत की बात ये थी कि‍ यहॉं सभी युवा-उम्र के लोग थे। लगभग इतनी ही वि‍देशी लड़कि‍यॉं थीं जो अपने पुरुष मि‍त्रों के साथ भारत घूमने आई थी। न जाने ये साथी-संगी वि‍पश्‍यना की तरफ भटकते हुए कैसे आ गए! जल्‍दी ही मेरी दोस्‍ती स्‍पेन के उस युवक से हो गई, जि‍ससे बाद तक ई-मेल के जरि‍ए संपर्क बना रहा। उसने जो अपना नाम बताया, वह स्‍पष्‍ट नहीं था, तब उसने अंग्रेजी शब्‍द key का हि‍न्दी में रुपांतरण करने को कहा। उसका नाम चावी था। एक इज़्राइली लड़का भी था, नाम ध्‍यान नहीं, उससे भी दोस्‍ती हो गई थी (संदर्भ के लि‍ए उसका नाम जोसफ रख रहा हूँ)। भारतीयों में मेरे अलावा एक साधु और एक एम.बी.ए. युवक ही था।

मैं सोचता था मेरे पापा न जाने कि‍स आध्‍यात्‍मि‍क गुरू के लपेटे में आ गए हैं! जैसा कि‍ सबलोगों को मालूम है, सभी आध्‍यात्‍मि‍क बाबाओं का एक-एक बाजार है जहॉं भक्‍ति‍ का व्‍यापार है। ये पौराणि‍क कथाओं को रोचक और नाटकीय ढंग से सुना-सुनाकर आम के साथ खास लोगों को भी अपने पीछे मस्‍ताना बनाए रहते हैं और राशि‍, अंगूठी,यज्ञ,अनुष्‍ठान जैसी वायवीय चीज़ों में उलझाकर जीवन की उलझनों को सुलझाने का दावा करते हैं। मैंने सोचा वि‍पश्‍यना के आध्‍यात्मि‍क गुरू एस.एन.गोयन्‍का भी इसी तरह का चक्‍कर चला रहे होंगे, लेकि‍न तमाम प्रवचन सुनने के बाद इसी नि‍ष्‍कर्ष पर पहुँचा कि‍ यहॉं कि‍सी धर्म की वकालत नहीं की गई है, मात्र अपने भीतर तल्‍लीन होकर झॉंकने का अभ्‍यास कराया गया है। यहॉं बताया गया कि‍ क्रोध जैसी तामसि‍क प्रवृत्‍ति‍यों के कारण तन में जो-जो और जहाँ-जहाँ मेटाबोलि‍क बदलाव आता है, उस बदलाव का अपने भीतर पीछा करो, उसे देखो, महसूस करो, इससे उनका शमन हो जाएगा। बलपूर्वक कि‍सी वि‍कार को दबाया तो जा सकता है, पर वह रह-रहकर सामने आता ही रहेगा। इस लि‍ए यहॉ दमन की नहीं,शमन की बात की जाती है। इस तरह राग-द्वेष के वि‍कारों को जड़ से नष्‍ट कि‍या जा सकता है।

पहाड़ो पर पानी को एकत्रि‍त करना काफी मुश्‍कि‍ल काम होता है। हमारा शि‍वि‍र सर्वाधि‍क ऊँचाई पर स्‍थि‍त था। ऊपर के टैंक में मोटर द्वारा नीचे से पानी खींचकर इकट्ठा कि‍या जाता था, जो पर्याप्‍त नहीं था। इसलि‍ए सुबह-सुबह कुछ साधक पेट साफ करने की जल्‍दी में रहते थे ताकि‍ पानी खत्‍म न हो जाए। वैसे अधि‍कांश वि‍देशी साधकों का काम टीसू पेपर से चल जाता था। आपको बताऊँ मैं, कुछ वि‍लक्षण साधकों को बि‍स्‍तर छोड़कर सीधे साधना-कक्ष की ओर जाते हुए देखा गया था।
शुक्र है मेडि‍टेशन हॉल काफी बड़ा था और वायु आवागमन के लि‍ए बड़े-बड़े रौशनदान भी थे। कुछ साधकों ने 10 दि‍न के शि‍वि‍र में 6 दि‍न न नहाकर मेरे ऊपर भी बड़ा उपकार कि‍या था।


जारी...........

(मैक्‍लॉडगंज,धर्मशाला के वि‍पश्‍यना शि‍वि‍र तक पहुँचने का वृतांत पहले भाग में देखें।)

Sunday 24 August 2008

जहॉं मैं 10 दि‍न तक बि‍ल्‍कुल चुप रहा !! (भाग १)

मैं अपने दोस्‍तों के बीच इस बात के लि‍ए बदनाम हूँ कि‍ उन्‍हें पूछे बि‍ना अकेले ही कहीं घूमने नि‍कल जाता हूँ। दरअसल, मैंने देखा है कि‍ दोस्‍तों के साथ पूरे सफर में मौज़-मस्‍ती तो भरपूर रहती है, मगर घूमने की जगह को, पहाड़ी दृश्‍यों को, आकाश और बादल को, स्‍थानीय लोगों को, उनकी वेषभूषा, रहन-सहन और खान-पान को, जी भरकर देखने की, उन्‍हें यादों में समेट पाने की चाहत पूरी नहीं हो पाती। सफर पर अकेले नि‍कलना खतरे से खाली नहीं होता, झोले में कुछ न भी हो तो कि‍डनी चोरों से डर तो लगता ही है। आपने सुना ही होगा कि‍ लि‍फ्ट देनेवाले एक गि‍रोह ने धोखे में एक ऐसे युवक को जान से मार डाला था, जि‍सके जेब से सि‍र्फ 10-20 रूपये ही नि‍कले थे। कैमरा, मोबाइल आदि‍ के लि‍ए जान लेते हुए इन्‍हें क्‍या फर्क पड़ेगा!
सन् 2002 की बात है। तब मैं दि‍ल्‍ली वि‍श्‍ववि‍द्यालय के एक हॉस्‍टल में रहता था। मेरे पापा पि‍छले दो-तीन सालों से बौद्ध धर्म की चपेट में थे। वे तब रि‍टायर नहीं हुए थे,(वे आज भी अपने-आप को रि‍टायर नहीं मानते हैं, उनके अनुसार आदमी एक ही बार रि‍टायर होता है, जब वह मृत्‍यु-शय्या पर होता है।) अपने सहयोगि‍यों, सगे-संबंधि‍यों के बीच वे यही कहते देखे जा रहे थे कि‍- समता में रहो / क्रोध का शमन करो, दमन मत करो / यह तभी संभव है जब काया की अंतर्यात्रा करते हुए प्रति‍क्रि‍या को महसूस कि‍या जाए, उसे अंतर्मन की ऑंखों से सप्रयास देखा जाए। कोई अजनबी भी टकरा जाए तो वे उसे प्रवचन देने से नहीं चुकते थे। उनकी तमाम खूबि‍यों के बावजूद हम सभी उनकी इस आदत से खासे परेशान थे।

उन दि‍नों मैंने पापा को एस.टी.डी. कॉल करना लगभग बंद कर दि‍या था। फोन पर वो मुझे बौद्ध धर्म की एक चर्चि‍त साधना पद्धति‍ वि‍पश्‍यना के 10 दि‍नों की शि‍वि‍र के लि‍ए लगातार प्रेरि‍त कर रहे थे। तंग आकर मैंने वि‍पश्‍यना की कठि‍न साधना के लि‍ए अपने आप को तैयार क‍र लि‍या, क्‍योंकि‍ पापा को लग रहा था कि‍ मैं बे-कहल (जो कि‍सी की नहीं सुनता) होता जा रहा हूँ। मैं एक कॉलेज में पढ़ा रहा था और स्‍थायी नौकरी की चि‍न्‍ता में अशांत भी था। मार्च में कॉलेज का सेशन समाप्‍त होते ही अंतत: मैने तय कि‍या कि‍ शि‍वि‍र के लि‍ए कोई पहाड़ी वि‍पश्‍यना केन्‍द्र का चुनाव करुं। मैने हि‍माचल प्रदेश जाने का नि‍श्‍चय कि‍या। संतोष की बात ये थी कि‍ हि‍माचल में मार-काट, लूट-पाट की घटना सुनने में नहीं आई है (चाहे हॉटलवाले, घोड़ेवाले, टैक्‍सीवाले पर्यटकों को जि‍तना मर्जी लूटते हों)। तो इस तरह, घूमने का घूमना हो जाएगा और साधना की साधना भी हो जाएगी। हि‍माचल प्रदेश के कांगड़ा जि‍ले में धर्मशाला के नि‍कट मैकलॉडगंज में वि‍पश्‍यना का एक केन्‍द्र है, जि‍से ‘धम्‍म शि‍खर’ के नाम से जाना जाता है।

दि‍ल्‍ली से पठानकोट पहुँचकर सबसे पहले मैंने एक ढ़ाबे में नास्‍ता कि‍या। यहॉं से धर्मशाला तक छोटी लाइन की ट्रेन चलती है। चार महि‍ने पहले ही मैं कालका से शि‍मला गया था, और मेरा नि‍ष्‍कर्ष था कि‍ छोटी लाइन पर चलनेवाली टॉय ट्रेन से यात्रा नहीं की तो क्‍या कि‍या। मेरी सलाह है कि‍ शि‍मला जाते हुए या आते हुए टॉय ट्रेन से सफर जरुर करें, वर्ना शि‍मला घूमने का विचार हमेशा के लि‍ए त्‍याग दें! सीधी सी बात है, हौले-हौले हि‍चकोले खाते हुए पहाड़ घूमने का सुख शि‍मला के माल रोड पर खड़े होकर नहीं मि‍ल सकता। अब अगली बार के लि‍ए सोचा है कि‍ शि‍मला उतरे बि‍ना टॉय ट्रेन से ही वापस लौट आऊंगा। आप इस बात से इसकी इंतहां का अंदाज़ा लगा सकते हैं कि‍ टॉय ट्रेन से सफर करने की मेरी चाहत कि‍तनी है!
माफ करें ,रास्‍ते के साथ-साथ मैं मुद्दे से भी भटक गया था। तो, वो कालका- शि‍मला रूट की टॉय ट्रेन का ही खुमार था कि‍ मैने पठानकोट से कांगड़ा (94 कि‍.मी.) के लि‍ए सुबह करीब 10 बजे छोटी लाइन की ट्रेन पकड़ी। एक घंटा बीता, फि‍र दो घंटे, फि‍र तीन घंटे- मैं इस बात से मायूस हो गया कि‍ पहाड़ दूर-दूर तक कहीं नज़र ही नहीं आ रहे थे। यह टॉय ट्रेन‍ समतल धरती से चलकर समतल धरती पर ही खत्‍म हो गई। कुल 6 घंटे के बाद कांगड़ा पहुँचा और वहॉं से धर्मशाला(17 कि‍.मी.) के लि‍ए बस पकड़ी। शाम तक जब धर्मशाला पहुँचा तब जाकर पहाड़ों की श्रेणि‍यॉं नजर आईं। मैंने रात गुजारने के लि‍ए एक सस्‍ता-सा कमरा लि‍या और उसके बाद धर्मशाला की सड़कों पर घूमने लगा।



मुझे मालूम था कि‍ अगले दस दि‍न तक मौन साधना करनी है, लोगों के साथ रहना है, पर कहना कुछ नहीं है। सुना था कि‍ शि‍वि‍र में 11 बजे एक ही बार भरपेट खाना मि‍लता है और शाम को बस चाय! डि‍नर-वि‍नर कुछ नहीं! मैने सोचा आज यहॉं कि‍सी ढाबे में दबाकर खा लूँ, कहीं भूख से मेरी साधना न भंग हो जाए। पर मैं ऊँट तो था नहीं कि‍ एक ही बार पानी पीकर साल भर गुजारा कर लूँ।

अगले दि‍न लोकल बस पकड़कर ‘अपर धर्मशाला’ यानी मैकलॉडगंज पहुँचा। बस स्‍टैंड के पास एक छोटी मार्केट थी, अपनी आज की आजादी का लाभ उठाने के लि‍ए मैंने वहॉं चाय पी (जबकि‍ दि‍ल्‍ली में मैं चाय की तरफ देखता भी नहीं)। अगले दस दि‍नों तक शि‍वि‍र की बाउंडरी से बाहर नि‍कलना नामुमकि‍न था, मार्केट तक पहुँचना तो दूर की बात है। जो ऐसा करते थे, उन्‍हें आजीवन इस साधना के लि‍ए अयोग्‍य घोषि‍त कर कि‍सी भी वि‍पश्‍यना शि‍वि‍र में उनका जाना प्रति‍बंधि‍त कर दि‍या जाता था।


तो मार्केट से नि‍कलकर मैं शि‍वि‍र के लि‍ए पहाड़ चढ़ने लगा। वह रास्‍ता नि‍र्जन और सुनसान था, लेकि‍न बंदरों से भरा पड़ा था। घने पेड़ों के बीच उबड़-खाबड़ रास्‍तों से होते हुए कि‍सी तरह ऊपर पहुँचा। शि‍वि‍र में जाकर अपना नाम पता दर्ज कराया। उन्‍होंने मेरा सामान इस तरह रख लि‍या जैसे जेलर कैदी का सामान रि‍हाई तक रखते हैं। वहॉं मेरे अलावा एक और भारतीय था, और एक साधु था (टीपि‍कल भारतीय तो वही था) और बाकी विदेशी युवक और युवती थे जो इस शि‍वि‍र में साधना का मन बनाकर आए थे।.......

(वक्‍त की कमी है, अगली पोस्‍ट में लि‍खूंगा कि‍ उस साधु ने वहॉं क्‍या गुल खि‍लाये और सर्दी की इतनी मुश्‍कि‍ल रातें मैंने कैसे काटी, 10 दि‍नों तक कम खाने के साथ कैसे गुजारा कि‍या, आज के बातूनी लोगों ने बि‍ना बोले 10 दि‍न वहॉं कैसे काटे।)

Thursday 21 August 2008

आओ भक्‍तजनों ! भगवान को बेचकर खाऍं !

जब कि‍सी दम्‍पत्ति‍ को औलाद नहीं होती तो वे दो-तीन जगह जाते हैं- डाक्‍टर के पास, ओझा-तांत्रि‍क के पास या अपने इष्‍ट देव की शरण में। मैं भी नौकरी के लि‍ए कई जगह भटका, पर बात नहीं बनी। मुझे अशांत देख मॉं ने कहा- पुत्र! आखरी उपाय है- भगवान की शरण में जाओ, मन शांत हो जाएगा। मेरे अंदर (देववाणी नहीं) दानववाणी प्रस्‍फुटि‍त हुई -
खाली जेब लि‍ए हाथ में माला।
भूखे भजन न होए गोपाला।

वैसे भी, मंदि‍र वगैरह को मैं शांति‍-स्‍थल नहीं मानता, क्‍योंकि‍ धार्मि‍क स्‍थलों को प्रभु-दर्शन के लि‍ए मैने युद्ध-स्‍थल बनते देखा है, भक्‍तों को गाली-गलौज करते देखा है। भगदड़ में लोगों को मरते देखा है। पंडि‍त-पुजारि‍यों को दान-पेटी से अपना पेट भरते देखा है। भक्‍त की शक्‍ल में छि‍पे उन भेड़ि‍यों को देखा है जो भीड़ के बहाने स्‍त्री-देह कुचलते हैं, चप्‍पल-जूते चुराकर बेचते हैं, जेबतराशी का काम करते हैं। कहीं सुना है, जहॉं वि‍श्‍वास होता है, वहीं वि‍ष का वास होता है और वहीं वि‍श्‍वासघात होता है। इस तरह मंदि‍र के सामने सारे पाप होते देखे हैं। गरीब और भीखमंगे सचमुच बेचारे होते हैं, यानी जि‍नके पास खाने को चारा तक नहीं होता। वे बोरा-चट्टी पर लाइन में बैठे होते हैं और अमीर अपनी कार से एक पैर बाहर नि‍कालकर गाय, बकरी, बंदर ढ़ूंढ रहे होते हैं। भूखे-नंगों की जमात इन जानवरों को हलवा-पूरी, केले आदि‍ खाते देखकर यही सोचती होगी कि‍ हमारा चारा तो कोई जानवर चर गया !
मंदि‍र अब भीड़ की पूंजी को भुनाने के एक सफल व्‍यवसाय के रुप में उभर रहे हैं। आपने देखा होगा, पंडित तभी ति‍लक लगाने की जहमत उठाएंगे जब दानपेटी की तरफ आपके हाथ उठेंगे। (जम्‍मू-कश्‍मीर में स्‍थि‍त) अमरनाथ में न पि‍घलनेवाली नकली शि‍वलिंग लगाना आस्‍था का नहीं, आयोजन का प्रतीक है, जहॉं चढ़ावे के लि‍ए भव्‍य मंच तैयार कि‍या जाता है। सुना है, अमरनाथ के तर्ज पर चेन्‍नई में एक नकली गुफा उन लोगों के लि‍ए तैयार की गई है, जो लंबी यात्रा से घबराते हैं, और घर बैठे अपने शहर में ही भोले भंडारी को देखना चाहते हैं। ये भाव वि‍ह्वल भक्‍त इस प्रकार ट्रस्‍ट का भंडार भरते हैं। वाह रे भोले के भक्‍तों ! भरते रहो इनका भंडार। इन डुप्‍लीकेट मंदि‍रों का धंधा वैसे ही चमक रि‍या है जैसे हीरो के डुप्‍लीकेट, हीरो के नाम पर चमक रहे हैं। लोग भी खुशी से दान-दक्षि‍णा करते हैं। कि‍सी व्‍यवसायी ने साई बाबा मंदि‍र के लि‍ए एक अरब रूपये दान कर दि‍ए। वैसे ज्‍यादातर लोग एक-दूसरे को लूटने-खसूटने के बाद भगवान को रि‍श्‍वत दे आते हैं- ताकि‍ स्‍वर्ग में उनकी एक सीट बुक हो जाए।
मेरे दोस्‍त मुझसे कहते हैं- भगत होकर ऐसे नास्‍ति‍क वि‍चार! क्‍या गजनी और गौरी की परंपरा पाई है ? अपने नाम का तो ख्‍याल कि‍या होता ! मैं सोचता हूँ नाम यदि‍ सार्थक हुआ करते तब ‘अमर’ नाम का व्‍यक्‍ति‍ कभी नहीं मरता, ‘सूरज’ नाम का व्‍यक्‍ति‍ कभी अंधेरे में जीने के लि‍ए मजबूर नहीं होता। खैर, नाम पर कभी अगली पत्री में लि‍खूंगा। मेरी पत्‍नी मुझे मंदि‍र साथ चलने के लि‍ए कहती है तब मैं खौफजदा हो जाता हूँ। वह मुझे घोर नास्‍ति‍क मानने लगी है। वह भगवद् भक्‍ति‍ में मंदि‍र जाती है, मैं पत्‍नी भक्‍ति‍ में। समझ नहीं आता क्‍या करुं! हे भगवान ! या तो ऐसे लोगों को सद् बुद्धि‍ दो या मेरी बुद्धि‍ भ्रष्‍ट कर दो!
हैरत होती है लोगों की आस्‍था से। पर कहते हैं न, कि‍सी की आस्‍था से नहीं खेलना चाहि‍ए, ये बड़ी मारक होती है, हाय लग जाती है। अगर भगवान मंदि‍र में बसते हों तो खुदा खैर करे, भक्‍तों को मंदि‍रवाले भगवान से दूर करने का पाप मैं अपने सर नहीं लेना चाहता !

(अगली पोस्‍ट में बताउंगा कि‍ शांति‍ की तलाश में पि‍छला एक हफ्ता मैं कहॉं रहा! )

Wednesday 13 August 2008

मैं कोई ब्‍लॉगर नहीं, एक मामूली फेरीवाला हूँ !

जी हॉं हुजूर ! मैं कोई ब्‍लॉगर नहीं, एक मामूली फेरीवाला हूँ ! तो ब्‍लॉग-बाजार में आए हुए मुझे जुम्‍मा-जुम्‍मा चार दि‍न ही हुए थे। आज पॉंचवा दि‍न था। मैंने ब्‍लॉगवाणी और चि‍ट्ठाजगत नामक मालवाहक बाजार देखा, बंधुवर के सुझाव से मैं भी यहॉं फेरी लगाने बैठ गया और लगा देखने कि‍ उसकी आवाज़ मुझसे ऊँची क्‍यों है? मेरे अगल-बगल में जि‍तने लोग फेरी पर वि‍राजे थे, न जाने कैसी-कैसी आवाज़ों में रेघा रहे थे, कुछ केंकि‍यॉं रहे थे, कुछ का केवल मुंह चल रहा था, पर आवाज नहीं नि‍कल रही थी, कुछ तम्‍बाकू खाकर एक-दूसरे पर थूक रहे थे, और कुछ तो ऑंखें मूंदकर जुगाली करने में मगन थे। मन तो कि‍या कि भाग लें, यहॉं अपना माल बेचने की मुझमें न ताकत है न ही फायदा ! पर बंधुवर ने कहा था- माल परोसते रहना, कोई तो ग्राहक भटकता हुआ ‍आएगा। समझ रहे हो न रेगुलर कस्‍टमर कि‍से कहते है- जो कष्‍ट से रेगुलर मरता रहता है! अभी दूसरा फेरीवाला मार रहा है, बाद में तुम मारना!
मैं अपना माल छोड़कर थोड़ी देर इधर-उधर भटकने लगा। मैने देखा- यहॉं तो मेला लगा है, कोई कुछ बेच रहा है तो कोई कुछ ! एक फेरी वाले के पास गया तो देखा- उसके पास एक रजीस्‍टर है, जि‍समें उन लोगों के नाम हैं जो यहॉं पधारे थे। गौर से देखने पर पता चला कि‍ कि‍ ये खरीददार खुद कहीं फेरी लगाने बैठते हैं।
मैं भी अपने ठेले पर एक रजीस्‍टर रखने लगा। जब रजीस्‍टर खोला, तब वहॉ सबसे पहले एक उड़न तश्‍तरी उतरी। एक घंटे के अंदर कुछ और लोग मेरा माल देख गए। उनमें से कुछ ऐसे आए जि‍न्‍होंने मेरे माल की तारी‍फ की और जाते-जाते कुछ टीप भी दे गए। कुछ ऐसे भी आए जो अपनी फेरी पर मुझे भी आने का संकेत दे गए। अच्‍छा, कुछ तो ऐसे थे जो गंभीर मुद्रा मे प्रवचन सुना गए। मालवाहक (एग्रीग्रेटर) से पता चला कुछ अनजान लोग भी आए थे, जि‍न्‍होंने सि‍र्फ माल चखा, ये जानने के लि‍ए कि‍ कहीं इसका माल मेरे माल से ज्‍यादा अच्‍छा तो नहीं है!
उन फेरीवालों के बीच कुछ झक्‍कास शो-रुम भी खुले हुए थे, जो मंदि‍र के समान भव्‍य दि‍खते थे। कई फेरीवाले भी वहॉ जाते थे और सम्‍मान में दरबान को टि‍प देना नहीं भूलते थे। अब तो वहॉं का दरबान भी उन्‍हें शान से सलामी ठोकता था। लोगों से सुना था- वहॉं वि‍शुद्ध माल पाया जाता है। पता नहीं एग्रीगेटर के लोकतंत्र में इन्‍हें शो-रुम खोलने की क्‍या जरुरत पड़ी, जबकि‍ इनका माल तो हर जगह, मसलन- मीडि‍या बाजार, अखबार, पत्रि‍का आदि‍ में धड़ल्‍ले से बि‍क जाती थी। पर इसका ये फायदा हुआ कि‍ शो-रुम खुलने से फेरीवालों की बि‍क्री के साथ-साथ कुछ इज्‍जत भी बढ़ गई।
मैं वहॉ से आगे बढ़ा ही था कि‍ कहीं से चीखने-चि‍ल्‍लाने की आवाज़ें आईं। मैं कौतुहलवश उधर चला गया! क्‍या देखता हूँ कि‍ एक फेरीवाला दूसरे पर आरोप लगा रहा था कि‍ उसने उसके माल का मजाक बनाया, इस बीच शोर सुनकर कई ग्राहक इकट्ठे हो गए और उसका माल ये जानने के लि‍ए खरीदने लगे कि‍ झगड़े की जड़ में क्‍या रखा है, पर खोदा पहाड़ तो पाया चुहि‍या! बाद में लड़नेवाले दोनों फेरीवाले अपनी कमाई पर एक दूसरे का पीठ थपथपाते देखे गए। इन सब के बीच एक फेरीवाला रह-रहकर एक सकून भरा गीत सुनाता था- जैसे कह रहा हो- भाड़ में जाए दुनि‍या, हम बजाए हरमुनि‍या!

वहॉं घूमते हुए मुझे पता चला कि‍ नामी गि‍रामी फेरीवालों का एक तगड़ा एशोसि‍येशन था, जि‍नसे वो ब्‍लॉग के बाज़ार में बड़ा शॉपिंग मॉल तैयार कर रहे थे। ये गजब के थोक-वि‍क्रेता थे, जहॉं ज्‍यादा से ज्‍यादा ग्राहकों का मजमा जुटता था। बाहर खड़ा एक फेरीवाला इसे खि‍न्‍न नजरों से देख रहा था! शायद वह इस दुनि‍या से तंग आ चुका था, इतना कि‍ आत्‍महत्‍या का वि‍चार रह-रहकर उसके मन में आ जाता था। कहता था यार कैसा जमाना आ गया है, अंबानी जैसे लोगों ने पहले तेल बेचना शुरु कि‍या, फि‍र मोबाइल के जरि‍ए आवाज बेचने लगे,और अब देखो, हर नुक्‍कड़ पर बैठकर बासी सब्‍जि‍यॉं बेच रहे हैं और नाम रखा है- फ्रैश! और तो और, बॉलीवुड के तारे भी जमीन पर उतर आए हैं और चुपके से फेरी लगाकर हमारे ग्राहकों पर सेंधमारी कर रहे हैं। ऊँची दुकान की फीकी पकवान खा-खाकर भी लोग नहीं अघा रहे हैं।

खैर, हर फेरीवाले की तरह मैं भी सोचने लगा था कि‍ यहॉं मेरा भी एक शो-रुम होगा, पर अभी जहॉं बैठा हूँ, वहॉं मक्‍खि‍यॉं भि‍नभि‍ना रही हैं, और ताजा माल रखे-रखे खराब हो रहा है। सोचता हूँ कोई फेरीवाला भूला-भटका आए तो उसे ही बॉंट (बॉंच) दूँ! अपना माल बेचने के लि‍ए आवाज तो लगानी ही पड़ेगी-
अरे बि‍रादर! कहॉं चल दि‍ए? तुम तो मेरा माल देखते जाओ!ठीक है-ठीक है, मैं भी तुम्‍हारे ठेले से आकर कुछ खरीद लूंगा, ............चलो भाई, अपने-अपने काम पर लग जाओ, धंधे का टैम है!

Monday 11 August 2008

बाप होने पर शर्म कैसी !

पि‍ता होने के नाते, मुझे अपने बच्‍चे को बोतल लेकर दूध पि‍लाने में शर्म महसूस करनी चाहि‍ए, उसे गोद में लेकर लोरी गाने या ऊँ-ऊँ-ऊँ-ऊँ करने में शर्म महसूस करनी चाहि‍ए। बच्‍चे के पीछे कटोरी-चम्‍मच लेकर भागना बेहद शर्म की बात है, क्‍योंकि‍ ये चि‍ल्‍लम-पों माओं को ही शोभा देता है। सू-सू पोटी धोना-पोछना, कपड़े पहनाना, नहलाना, बहलाना - एकाध बार तो चलता है, पर बार-बार ? कुल मि‍लाकर यह माना जाता है कि‍ एक पि‍ता को अपने बच्‍चे से थोड़ा दूर रहकर घर चलाने की जुगत में ध्‍यान लगाना चाहि‍ए।
ये वो बातें हैं जो हमें सुनाई या दि‍खाई देती हैं। पर मैं बताना चाहता हूँ, कुछ लोग, या कह लें कुछ पि‍ता ऐसे भी हैं जो ये सब करने में कोई शर्म महसूस नहीं करते, यह उनकी दि‍नचर्या में समय की सहूलि‍यत के साथ कुछ इस तरह शामि‍ल है कि‍ कुछ काम पति‍ करे, कुछ पत्‍नी! ऐसे लोगों को कई तरह से देखा जाता है, तथाकथि‍त मर्द कहते हैं कि‍ ये तो बीवी के गुलाम हैं, मैने तो इन्‍हें कि‍चन में खाना बनाते, पॉंव दबाते और यहॉं तक कि‍ झाड़ू-पोछा करते हुए देखा है। तथाकथि‍त औरतें बाहर से कहती हैं कि‍ इसका पति‍ तो दब्‍बू है, कुछ बोल नहीं पाता, पर अंदर से ये औरतें ये जानने के लि‍ए लालायि‍त रहती हैं कि‍ फलना की बीवी ने फलना को कैसे काबू कि‍या, यानी, बि‍लार के गले में घंटा कैसे बांधा !

मैं उन लोगों का सम्‍मान करता हूँ जो ऐसे पि‍ता हैं जो अपने नवजात शि‍शुओं/बच्‍चों को कवि‍ सूरदास की नि‍गाह से, कौतुहल भाव से, रोमांच से, आनंद से देखते हैं और अपने भीतर छि‍पे ममत्‍व को महसूस करते हैं। न केवल महसूस करते है, बल्‍कि‍ जाहि‍र भी करते हैं। इस तरह एक सोशल पि‍ता की छवि‍ बनती या उभरती है। मेरी नजर में यह एक ऐसे समाज के नि‍र्माण की भूमि‍का है, जहॉं न पि‍तृसत्‍ता होगी न मातृसत्‍ता होगी (वैसे मातृसत्‍ता कि‍सी भी काल में कभी भी नहीं रही)। मेरा एक दोस्‍त है जो अपने बच्‍चे के खाने-पीने, हंसने-रोने, सोने का इतना ख्‍याल रखता है कि‍ उसकी पत्‍नी को लगने लगा है कि‍ वह (पत्‍नी) इस बच्‍चे की सौतेली माँ है। वह सोचती है कि‍ एक पि‍ता को पि‍ता की हैसि‍यत से ही रहना चाहि‍ए। तो कहीं-कहीं ये हस्‍तक्षेप दखलंदाजी के रुप में दाखि‍ल होता दि‍खता है।
मुझे लगता है कि‍ पति‍-पत्‍नी के बीच जि‍म्मेदारि‍यों का सही संयोजन न होने पर ही ये मतभेद उभरते हैं। अपनी पत्‍नी के साथ इस तरह के सहयोग के लि‍ए आप कि‍स हद तक सहमत हैं?

Saturday 9 August 2008

मेरे अंदर का रचनाकार - भ्रूण हत्‍यारों का शि‍कार !

ब्‍लॉग में आए हुए मुझे जुम्‍मा-जुम्‍मा चार दि‍न ही हुए हैं। जब पहली पोस्‍ट लि‍खी, तब मुझे लोगों के टि‍प का बेसब्री से इंतजार रहा। दि‍न में चार बार कम्‍प्‍यूटर ऑन कि‍या, मोबाइल से इंटरनेट डायल-अप कि‍या। न बि‍जली बि‍ल की सोची, न इंटरनेट बि‍ल की!
पर जैसे नये हीरो को अपने गॉड फादर और अपनी डेव्‍यू फि‍ल्‍म से काफी उम्‍मीदें होती है, (चाहे फि‍ल्‍म सी-ग्रेड की ही क्‍यों न हो) वैसी ही मुझे भी रही, पर यहॉं मैं ही गॉड था, मैं ही फादर! अगर मैंने कुछ थर्ड क्‍लास लि‍खा था, तो मुझे यह भी उम्‍मीद थी कि‍ यही बताने वाला कोई आता और टि‍पटि‍पाता!
चार-पॉंच दि‍न तो मैं इंतजार करता रहा, और अगले दि‍न मायूस होकर एक बंधुवर के सामने ये दुखड़ा रोया। मैने कहा- मेरे अंदर का रचनाकार भ्रूण हत्‍यारों का शि‍कार होने वाला है ! मैं इस जहान में पहचान बनाए बि‍ना मरने वाला हूँ, स्‍वर्गवासी दादा जी मुझे कोसेंगे कि‍ खानदान का नाम पू-रए मि‍ट्टी में नहीं मि‍लाया, तो भी कौन-सा झंडा गाड़ दि‍या!
बंधुवर ने पूछा- ब्‍लॉगवाणी,चि‍ट्ठाजगत में पोस्‍ट भेजी ? मैने कहा,नहीं, ये क्‍या बला है?
उसने बताया कि‍ यहॉं सभी ब्‍लागर्स के तत्‍काल छपे लेखों का एक साथ पूरी दुनि‍या में प्रकाशन होता है, टि‍प्‍पणी भी वहीं बंटती हैं। मैने पूछा, ‘बँटती है’ का क्‍या मतलब ?
उसने कहा- धीरे-धीरे समझ में आएगा, अभी बस पोस्‍ट भेजते रहो।
अगले दि‍न मैने दि‍न में चार बार फि‍र कम्‍प्‍यूटर ऑन कि‍या, मोबाइल से फि‍र इंटरनेट डायल-अप कि‍या। इस बार भी न बि‍जली बि‍ल की सोची, न इंटरनेट बि‍ल की! काम बन गया। धीरे-धीरे अब एग्रीगेटर पर मैं सबकी पोस्‍ट पर नि‍गाह रखने लगा। मैंने पाया कुछ ऐसे ब्‍लॉगर भी थे जि‍न्‍होने एक काला नकाब पहन रखा था। मैने पूछा- भई अपनी पहचान छिपाकर माल क्‍यों बेच रहे हो ? उसने कहा आम खाने से मतलब रखना चाहि‍ए, बगीचा कि‍सका है कि‍सका नहीं, यह जानने-बताने में क्‍या रखा है! मैने सोचा, फि‍र मैं क्‍यों नाम के लि‍ए मर रहा हूँ !क्‍यों न, मैं भी वि‍रक्‍त हो जाऊँ। क्‍यों टि‍प की चि‍न्‍ता में अपनी नींद उड़ाऊँ! पर मेरे अंदर का जायसी कुलबुलाने लगा- ‘मकु यह रहै जगत मँह चि‍न्‍हां ’ यानी रचनाकार जगत में अपनी रचना से पहचान पाता है, इस तरह मर कर भी वह अमर हो जाता है। बंधुवर बताने लगे- ब्‍लॉगिंग अब नई बीमारी बन कर उभर रही है, मैं एक ऐसे ब्‍लॉगर को जानता हूँ, जि‍से कनाडा, नेवादा, लंदन, आस्‍ट्रेलि‍या, जापान आदि‍ से टि‍प मि‍लता है, अब वह रात को 4 बजे नींद मे भी उठकर अपना ब्‍लॉग चेक करता है। बंधुवर की बात सुनकर मैं हँस पड़ा पर मेरा मन मुझसे पूछ रहा था कि‍ मैं भी ऐसा ही बीमार नहीं हूँ क्‍या? बंधुवर पारखी थे, बोले- कुछ दि‍नों का जोश है, धीरे-धीरे नॉर्मल हो जाओगे।
क्‍या लि‍खें, क्‍या न लि‍खें – इसका अंदाजा टि‍प मि‍लने पर होता है। सच बताना, टि‍प मि‍लने पर क्‍या आपका हौसला नहीं बढ़ता? गोस्‍वामी तुलसीदास जैसी ‘स्‍वांत: सुखाय’ अपना लूँ तो लगेगा- स्‍व का अंत कर सूख जाना। मैं ऐसे नहीं सूखना चाहता, कोई भी नवोदि‍त ब्‍लॉगर ऐसे नहीं सूखना चाहता! तो भला हो उन टि‍पकारों का जो कुछ दान-दक्षि‍णा कर जाते हैं।

Friday 8 August 2008

टखना सिंह चला दफ्तर !

अपने बाप के गम में करमजली उन दि‍नों घर और दवाई-घर के बीच डोर-सी खींचकर रह गई थी। वैसे लोगों को मालूम था कि‍ उसका बाप गुनि‍या काफी बीमार है और उसकी ऑटो रि‍क्‍शा भी जब्‍त हो गई है। करेजा सिंह के साथी कह रहे थे कि‍ साला! ऑटो रि‍क्‍शा को टैक्‍सी बनाकर घूमता था, और पैसे भी टैक्‍सी-सा ऐंठता था। करेजा अफसोस जताने आया और करमजली के ऑंसू जबरदस्‍ती पोंछते हुए बोला- ऑटो रि‍क्‍शा गया तो क्‍या हुआ, मेरे दादा के पास कई रि‍क्‍शे हैं, उनसे कहकर बापू को रि‍क्‍शा कि‍राए पर दि‍लवा दूंगा। इस प्रस्‍ताव पर उसके साथी अंदर ही अंदर हँस रहे थे।
टखना सिंह को पता लगा तो उसने सोचा भागकर करमजली के पास चला जाऊँ! पर उससे भागा नहीं गया। टखना सिंह ने परसो ही शीशे में अपना चेहरा देखा था, और अफसोस से उसकी नि‍गाहें नींची हो गई थी- क्‍या सचमुच मैं बूढ़ा लगने लगा हूँ! क्‍या करमजली इसलि‍ए मुझसे दूर-दूर रहने लगी है! जवानी में कदम रखने से पहले ही क्‍या मैं बदरंग हो गया हूँ!
शायद इसलि‍ए वह थका-हारा-सा उसके घर पहुँचा। उसने करमजली को देखा, करमजली ने उसको। ऑंखों-ऑंखों में दर्द का आवेग फूटा, टखना को पारो की याद आई और करमजली को देवदास की, पर वे दौड़कर एक-दूसरे से गले नहीं मि‍ले। उस छोटी-सी कुटि‍या में दौड़ने की गुजांइश भी कि‍तनी थी! दवा को दारू की तरह पी-पीकर गुनि‍या कुछ दि‍नों में ठीक हो गया।
इधर कई दि‍नों से टखना तैयार होकर कहीं नि‍कल जाता था। कपड़े-जूते सलीके से पहनकर, एक ढंग का बैग लि‍ए जाते देख लोगों को लगा था कि‍ टखना की नौकरी लग गई है। टखना सिंह से कोई पूछता, तो जवाब में वह मुस्‍कुरा-भर देता। दफ्तर तो करेजा सिंह भी जाता था। लोग उससे भी पूछते थे, भाई करेजा! कहॉं जा रहे हो, तो वह ऐसे मुँह बनाता जैसे उसे दस्‍त हो गया हो, और पेट साफ करने के लि‍ए दफ्तर जाना पड़ रहा हो! लेकि‍न टखना को मालूम था कि‍ ये वही करेजा है, जो नौकरी के लि‍ए कंपनी के चेयरमैन की गाड़ी के आगे लेट गया था। और जब उठा, तो नौकरी लेकर उठा। टखना को तो मालूम भी नहीं कि‍ गाड़ी के आगे कैसे लेटना है! लोगों ने उसे यह कहकर धि‍त्‍कारा भी, कि‍ लोग नौकरी के लि‍ए न जाने कहॉं-कहॉं लेट जाते हैं, ये तो बेचारी कार है! टखना को अपनी कि‍स्‍मत पर भरोसा नहीं, उसे लगता है, वह अगर गाड़ी के आगे लेट गया, तो अगले दिन ‘दनदनाती’ में यही खबर आएगी कि‍ चेयरमैन की गाड़ी के नीचे एक कुत्‍ता दबकर मर गया। लोग चेयरमैन को सांत्‍वना के साथ ये सुझाव भी देंगे कि‍ ऐसे खून तो टायर में लगते रहेंगे, अपने रि‍टायरमेंट के बाद ही बदलवाना!
तो लोगों को वि‍श्‍वास हो चला था कि‍ टखना को कहीं काम मि‍ल गया है, और अजीब बात थी कि‍ टखना ने लोगों का ये वि‍श्‍वास बनाए रखा! टखना पहले ऐसा नहीं था, उसकी उम्र भी ऐसी नहीं थी, जैसी आज है। दरअसल, कम उम्र में जज़्बात को नादानी में शुमार कि‍या जाता है, बढ़ती उम्र के साथ वह कमजोरी में तब्‍दील होने लगती है। इसलि‍ए टखना एक सकून महसूस करता था कि‍ लोग उसे दफ्तर जाते हुए देखते हैं। करेजा सिंह के अलावा कि‍सी को पता नहीं चला कि‍ टखना हर दि‍न तैयार होकर उस दफ्तर में काम मांगने जाता था !

पेश है शेर !

गर्दि‍श में है चमन , जो ऐसी हवा चली है !
बुझाकर आग चूल्‍हे की, जमाने में लगा दी है !

आज शाम तक UGLY POST में टखना सिंह पर मजेदार अंक जरुर पढ़ें कि‍ टखना सिंह चेयरमैन की गाड़ी के आगे क्‍यों नहीं लेटा!
(शीर्षक है- टखना सिंह चला दफ़्तर !)

Wednesday 6 August 2008

खज्‍जि‍यार (डलहौजी) से ली गई तस्‍वीरों का वि‍डि‍यो रुपांतर !


उम्‍मीद है, खज्‍जि‍यार का वि‍हंगम दृश्‍य आपको पसंद आएगा। मैं इन तस्‍वीरों से ज्‍यादा संतुष्‍ट नहीं हूँ क्‍योंकि‍ पैराग्‍लाइडिंग करते हुए आधा वक्‍त तो मै नर्वस रहा, और कैमरा नि‍कालने की हि‍म्‍मत नहीं हुई। इसलि‍ए वहॉं की कुछ अन्‍य तस्‍वीरें साथ लगा कर वि‍डि‍यो रुपांतर कर रहा हूँ। इसके बैक-ग्राउंड में एक मधुर संगीत भी है- पंख होती तो उड़ आती मैं ......., सुनि‍एगा जरुर ! (वि‍डि‍यो = 2 मि‍नट/ 3 एम.बी/ size-176*144)
आकाश से पैराग्‍लाइडिंग का सजीव वि‍डि‍यो देखने के लि‍ए इस लिंक पर जाएं ।

Tuesday 5 August 2008

मौत को देखा करीब से खज्जियार (डलहौजी) में पैराग्लाइडिंग करते हुए !


पहाड़ों का सच्‍चा सैलानी पहाड़ देखना चाहता है, नदी-झरनों की रवानगी के साथ बहना चाहता है,घने जंगल और घाटी का रोमांच महसूस करना चाहता है, बरसात और हि‍मपात के साथ मदमस्‍त होना चाहता है। आप कभी पर्वतों की सैर पर नि‍कलें और वहां मकान ही मकान नजर आए तो आपको अफसोस ही होगा। शि‍मला से जी उकताने का कारण भी यही है। जब मैं अपने दोस्‍त के साथ डलहौजी पहुंचा तब मुझे इसलि‍ए खास खुशी नहीं हुई। अगली सुबह जब हम चंबा (54 कि‍.मी.) के लि‍ए चले, तब रास्‍ते में 22 कि‍मी के बाद खज्‍जि‍यार आया। वहां देवदार के दरख्‍तों से घि‍रा एक खुला मैदान था और ठीक बीचों-बीच एक तालाब था। मैदान पर हरी घास की चादर बि‍छी हुई थी। संकरे और खतरनाक रास्‍ते से गुजरने के बाद इतनी ऊंचाई पर यह दृश्‍य काफी सुखद लगा। देवदार के वृक्ष कम से कम 50-60 फुट ऊंचे थे। उनके पीछे पहाड़ों की भव्‍यता भी अलौकि‍क थी। शायद इसलि‍ए इसे भारत का मि‍नी स्‍वीट्ज़रलैंड कहा जाता है।
मैदान के पश्‍चि‍मी छोर पर पैराग्लाइडिंग की व्‍यवस्‍था थी। मैंने एक पायलेट से यूं ही बात शुरू की। मेरी रूचि‍ बढती देख मेरे दोस्‍त ने मंशा जाहि‍र की कि‍ यह काफी खतरनाक खेल है। कहीं ऊपर के ऊपर रवाना हो गए तो लौटकर भाभी जी को क्‍या जवाब दूंगा ! कम से कम अपने बच्‍चे के बारे में तो सोचो। मैंने उसकी बात हंसकर टाल दी। पायलेट से तय हो गया कि‍ अगली सुबह यहां से 11 कि‍.मी. ऊपर काला टॉप जाना होगा और 2 कि‍.मी. की चढाई पैदल तय करनी होगी। हवा का रूख सही रहा तो एकाध घंटे वादि‍यों के ऊपर आसमान में मजे से सैर करने का अवसर मि‍लेगा।
खज्‍जि‍यार में कम हॉटल थे, मगर थे सस्‍ते। साथ में तवे की रोटी भी उपलब्‍ध थी। हमने अफसोस जताया कि‍ काश, कल की रात खज्‍जि‍यार में ही बि‍ता पाते ! दरअसल पर्यटन स्‍थलों की ये छि‍पी पॉलि‍सी होती है कि‍ पर्यटकों को यहां से आगे चाहे कहीं भी घुमा लाओ, पर रात को अपने हॉटल में ही ठहरने की सलाह दो। हॉटल में सामान रखकर हम चंबा के लि‍ए चल पड़े। आगे का रास्‍ता और भी वि‍षम था। चंबा के लि‍ए डलहौजी से राजमार्ग भी है जो रावी नदी और चमेरा डैम के साथ बना हुआ है। उस रास्‍ते से जाने का मतलब है खज्‍जि‍यार के मोहक दृश्‍यों को देखने से वंचि‍त रहना।
शाम ढलने से पहले हम खज्‍जि‍यार लौट आए। तब तक सारे पर्यटक जा चुके थे। मैदान सूना पड़ा था और झील में भी सन्‍नाटा पसरा था। मौसम बदलने लगा , पर्वत बादलों से ढकने लगे और अचानक झमाझम बारि‍श शुरू हो गई। तालाब के साथ लकड़ी के दो मंच बने हुए थे जि‍सके साये में बारि‍श से न केवल बचा जा सकता था, बल्‍कि‍ इस पर्वतीय मौसम का आनंद भी लि‍या जा सकता था। ऐसे मौसम में अपनी पत्‍नी के साथ होता तो बात ही कुछ और होती मगर दुनि‍या की आधी औरतें पहाड़ों के घुमावदार रास्‍तों में चक्‍कर खा जाती हैं (उन्‍हें उल्‍टी और सर घुमने की शि‍कायत होती है, दूसरी तरफ मैं साल में एकाध चक्‍कर पहाड़ों पर न लगा लूं तो मुझे उल्‍टी और सर घुमने की शि‍कायत होने लगती है।)
हॉटल पहुंचकर जब हमने मैनेजर को अपना कल का प्रोग्राम बताया, तब उसने भी चि‍न्‍ता जाहि‍र की, कहा- एक तो मौसम खराब चल रहा है, दूसरी बात, पायलेट के पास अनुभव की कमी है। कुछेक साल पहले की बात है, एक वि‍देशी पायलेट यहीं आसमान में अकेले पैराग्लाइडर उड़ा रहा था। मौसम का मि‍जाज बदला, और देखते ही देखते वह हवा में ही कहीं गुम हो गया। उसके पि‍ता ने लाख डॉलर का ईनाम भी रखा, खोजबीन भी हुई, पर हाथ कुछ भी न लगा। हि‍मालय की बर्फ पर ही कहीं उसकी समाधि‍ बन गई होगी!
मेरा मि‍त्र वि‍जय खाना खाकर सो गया, पर मुझे नींद न आई। मेरे अंदर रोमांच के साथ एक डर भी था। अपने आप को यह सोचकर दि‍लासा दि‍या कि‍ अगर मर गया तो यही खुशी होगी कि‍ दि‍ल्‍ली में ब्‍लू लाइन बस के नीचे दबकर नहीं मरा। सुबह का साफ मौसम देखकर तसल्‍ली हुई। मेरे पायलेट(देशराज) ने तय स्‍थान पर पहुंचकर एक घंटे तक हवा के रूख का मुआयना कि‍या। स्‍थि‍ति‍ जि‍तनी नि‍राशाजनक थी, मेरे अंदर उड़ने की चाहत उतनी ही बलवती हो रही थी। वि‍जय मुझे जीत (जि‍तेन्‍द्र का लघु रूप) के नाम से बुलाता है। अपनी नाराजगी छि‍पाते हुए वह मेरा उत्‍साह बढा रहा था- डरना मत, डर के आगे ‘ जीत ’ है। देशराज का नि‍र्देश था कि‍ पहाड़ से खाई की तरफ दौड़ते हुए कि‍सी भी हालत में रूकना नहीं है, अगर रूक गए तो टेक-ऑफ लेना तो दूर की बात है, हम पैराग्लाइडर समेत सीधे खाई मे जा गि‍रेंगे। सुनकर ऐसा लगा कि‍ डर के आगे जीत नहीं बल्‍कि‍ 'जीत' के आगे डर है। पर मेरे रोमांच ने डर पर काबू पा लि‍या। मनचाही हवा का रूख पाते ही देशराज ने पैराग्लाइडर को हवा में तान दि‍या। हमदोनों डोरी की कुर्सी पर आगे पीछे बंधे थे। मेरे आगे खाई थी और पीछे मेरा पायलेट। न जाने क्यों मुझे पापा की एक बात याद आई- अगर कोई तुम्‍हें खाई में कूदने के लि‍ए कहे तो क्‍या तुम कूद जाओगे ?
तभी देशराज ने कहा – कूदो ! मैं आगे-आगे दौड़ने लगा। कल की बारि‍श से घास चि‍कनी हो गई थी और कहीं-कहीं पथरीली जमीन थी। मैं अचानक फि‍सल गया और लगा कि‍ अब सब कुछ खत्‍म !! घबराहट में वि‍जय के हाथ से मोबाइल छूट गया। देशराज ने फुर्ती से काम लि‍या और मुझे जैसे-तैसे घसीटते हुए ढलान की तरफ भागने लगा। पैराग्लाइडर के जोर से अचानक हमारा रास्‍ता बदल गया और मेरे सामने दूसरी मुसीबत आ गई। मेरी पैंट की पि‍छली पॉकेट घास और मि‍ट्टी पर रगड़ खाती जा रही थी कि‍ तभी एक उभरी हुई चट्टान अचानक मेरे सामने आ गई। इसके ठीक बाद खाई थी। मैने डर से आंखें बंद कर ली। देशराज ने अनुभवी पायलेट-सी फुर्ती दि‍खाई और ऐन मौके पर जाने उसने क्‍या कि‍या, कैसे चट्टान से मुझे बचाते हुए उसके ऊपर से छलांग लगाई, यह सब मैंने बंद आंखो से महसूस कि‍या। जब आंख खुली तो खुद को हवा में लटका पाया, ठीक त्रि‍शंकु की तरह! न मैं नीचे देख रहा था न ऊपर। मेरे सामने बर्फ के ऊंचे पर्वत कैलेंडर-से नजर आ रहे थे। ऊफ् !! ये मैने क्‍या कि‍या था, मौत कि‍तनी करीब थी!

मैंने डरते-डरते नीचे देखा। धरती से मैं लगातार ऊपर उठ रहा था। भव्‍य पर्वत अब क्षुद्र टीले की तरह नजर आ रहे थे। देवदार के लम्‍बे-लम्‍बे वृक्ष झुरमुट की तरह लग रहे थे। मैने दि‍ल मजबूत कि‍या। देशराज पैराग्लाइडर को इस तरह ऊपर ले जा रहा था, जैसे चील अपने पंखों से ऊपर ऊठ रही हो। वह हर झटके के साथ लगभग 15 फुट उठ रहा था और मेरा दि‍ल मुंह को आ रहा था। ऐसे 4-5 झटके खाने के बाद मुझे ये घबराहट होने लगी कि‍ कहीं अचानक मौसम खराब हो गया और मैं भी उस वि‍देशी की तरह ऊपर ही ऊपर उड़ गया तो मेरे बीवी-बच्‍चे का क्‍या होगा! मैंने उसे थमने के लि‍ए कहा। अब मैने चारों तरफ नि‍गाहें घुमाई। मेरे सामने रावी नदी के साथ बसा चम्‍बा शहर नजर आ रहा था। खज्‍जि‍यार सागर की सतह से लगभग 6500 फुट ऊपर है,और मैं कि‍तना ऊपर हूं....पता नहीं!
दूर-दूर तक हि‍मालय की श्रेणि‍यां नजर आ रही थीं। देशराज ने चमेरा डैम की तरफ इशारा कि‍या। मैने कहा कि‍ डैम के ऊपर चलो। देशराज ने हंसते हुए कहा कि‍ उसने अपना बीमा नहीं करवाया है। मैने सोचा डैम के आसपास खुला मैदान है इसलि‍ए वहां पैराग्लाइडर को हवा का दबाव शायद न मि‍ले, इसलि‍ए देशराज वहां न जा रहा हो या शायद तय रकम में डैम तक जाना शामि‍ल न हो ! देशराज अच्‍छा और जांबाज पायलेट था। उसने बताया कि‍ हर साल अक्‍टूबर में बीर-बि‍लिंग (पालमपुर-जोगिंदर नगर के पास) में पैराग्लाइडिंग की अंतर्राष्ट्रीय प्रति‍योगि‍ता होती है जि‍समें वह भी भाग लेता है। उसने मुझे पार्टनर के तौर पर मुफ्त में साथ उड़ने का प्रस्‍ताव दि‍या। मै अब उड़ान का मजा लेने लगा था, इसलि‍ए मुझे हां कहते देर न लगी। मैने कैमरा नि‍कालकर फोटो लेना शुरू कर दि‍या। कुछ रि‍कार्डिंग भी की। हम दोनों ने मि‍लकर कुछ गाने भी गाए (पंछी बनूं उड़ती फि‍रूं मस्‍त गगन में,……), अपने परि‍वार की बातें की। देशराज ने बताया कि‍ उसकी पत्‍नी कैंसर से पीड़ि‍त है और शि‍मला के अस्‍पताल में महि‍नों से भर्ती है, जहां उसे 30 हजार रूपये हर माह भरने पड़ते हैं। मैने पूछा इतने पैसे कमा लेते हो। उसने बताया कि‍ वह रोहतांग पास (मनाली) , खज्‍जि‍यार और बीर से हर सीजन में ठीक-ठाक कमा लेता है, साथ ही वह पैराग्लाइडिंग की ट्रेनिंग भी देता है। उसका पैराग्लाइडर न्‍यूजीलैंड का है, जि‍सकी कीमत डेढ लाख रूपये है।
लैंडिंग करने से पूर्व देशराज का नि‍र्देश था कि‍ जमीन पर उतरते हुए दोनों पैर ज्‍यादा से ज्‍यादा हवा में रखने हैं, नहीं तो पैर की हड्डी टूट जाएगी। नीचे खड़े कई पर्यटक उतरते हुए पैराग्लाइडर का फोटो खींच रहे थे। खज्‍जि‍यार के तालाब के चारों ओर चील की तरह चक्‍कर काटते हुए हम सुरक्षि‍त उतर आए। कुछ पर्यटकों ने मेरा अनुभव पूछा। देशराज ने गुजारि‍श की थी कि‍ पैराग्लाइडिंग का कि‍राया लोगों को कुछ बढा कर बताएं। मैने उसकी बात मान ली थी। आखि‍र उसने मेरी जान जो बचाई थी, साथ ही बीर में मुफ्त उड़ान का उसने प्रस्‍ताव भी तो दि‍या था।


(हमसफर से ये गुजारि‍श है यदि‍ इस पोस्‍ट के साथ संलग्‍न वि‍डि‍यो (2:18 min.) नहीं देख पाए हों तो मुझे जरुर बतावें, आभारी रहूँगा।)

कल अगला पोस्‍ट प्रकाशि‍त करुंगा - बाप होने पर शर्म कैसा!