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Tuesday 18 August 2009

चि‍रंजीलाल !!

मेरे दोस्त ने अपने ऑफि‍स में साफ-सफाई और पानी वगैरह देने के लि‍ए एक दुबला-पतला लड़का रखा था। उसका नाम चि‍रंजीलाल था। एक दि‍न जब मै वहीं बैठा था तो उसे बुलाकर मेरे मि‍त्र ने उसे इशारे से समझाया कि‍ साब् को पानी पि‍लाओ। उसे इस ऑफि‍स में आए हुए ये दूसरा ही दि‍न था। मैंने अपने मि‍त्र से पूछा कि‍ इसका नाम ऐसा क्‍यों रखा है और क्यां इसे सुनाई नहीं देता है?
मेरे मि‍त्र ने हँसते हुए कहा कि‍ ऐसी बात नहीं है। यह बंगाल के कि‍सी गॉंव से नि‍कलकर पहली बार दि‍ल्ली आया है और हिंदी इसे बि‍ल्कुंल नहीं आती है। वैसे इसका नाम चरणजीत है पर जब वह अपना नाम बताता है तो बँगला टोन की वजह से ‘चिरंजी’ सुनाई पड़ता है बाकि‍ ‘लाल’ तो हमने प्यार से लगा दि‍या है।
अब कल की ही बात बताऊँ, अपने कमरे से मैंने कॉल बेल बजायी तो अंदर आने की बजाए बाहर देखने चला गया कि‍ बाहर कौन है। मेरे साथ बैठे सज्जन ने जब ये देखा तो हँसते हुए बोले कि‍ उसने कॉल बेल सुनकर शायद ये समझा कि‍ छुट्टी का टाइम हो गया है!
इस शापिंग कॉम्‍प्‍लैक्‍स में मेरे मि‍त्र के ऑफि‍स के ऊपर भी कई दुकाने हैं। एक दि‍न उसने चि‍रंजी को मोबाइल का रि‍चार्ज कूपन लाने को भेजा। थोड़ी देर बाद आकर वह टूटी-फूटी हिंदी में कहता है-
’बाइर तो शौब दुकान बौंद है, ऊपर वाला भी नाई है।‘
यह सुनकर उसके साथ बैठे सज्जन कहते हैं कि‍ जब मंदी के दौर में भगवान ने ये धंधा शुरू ही कर दि‍या है तो मैं उनसे बाल कटवा ही आता हूँ :)

Wednesday 5 August 2009

याद जो तेरी आई बहना !!

कि‍तने सावन बीते,
कुछ याद नहीं,
मि‍ला नहीं अबतक,
अवसाद यही!

बरबस ऑंखे भर आई है,
बहना जो तू याद आई है!

ठीक है कि
जिंदगी लंबी नहीं,
बड़ी होनी चाहि‍ए!
पर जीने के लि‍ए उनमें
रि‍श्तों की कड़ी होनी चाहि‍ए।
.........ये कड़ी तू थी बहना!

जब तू नन्हीं थी, न्यारी थी
गोद लि‍ए फि‍रता-इठलाता था
मेरी बहना-मेरी बहना!
कहकर तूझे बहलाता था।

फि‍र जाने कब बड़ी हुई
’पराय घर’ कहकर
जाने को खड़ी हुई।
छुपकर तब......
......मैं रोया था बहना!

याद है तूझको
खेल-खेल में
गि‍रा दि‍या था मैंने।
खून देखकर इतना
मैं घबराया था कि‍तना!
’मैं खुद गि‍री’ मॉं से कह कर
तुमने मुझे बचाया था बहना!

और ऐसी कि‍तनी हैं बातें
जि‍सके लि‍ए तब
माना नहीं अहसान
......आज माना है ये बहना!

अब तू अपने घर
मैं अपने घर
जाने कब बीत गई उमर
....तूने नहीं बताया बहना!

वो गलि‍यॉं छूटी
वो साइकि‍ल टूटी
साथ रही तू इस कदर
पीछे-पीछे परछाई बहना!

गृहस्थ-जीवन की कथा
कह दी यदा-कदा
दि‍न-दि‍न की व्यथा
सहती रही सदा।
.....अब कहॉं कुछ कहती बहना!

सुना है सत्तर की जिंदगी
होती है बहुत बड़ी।
पर सतरह साल तक
बचपन जो संग जि‍या
.........उम्र वही बड़ी थी बहना!

बड़े चाव से खरीदी है
तेरे नाम से राखी बहना!
परदेस में हूँ सो भूल गया-
यूँ न कुछ कहना बहना।

अपने ही हाथों से मैंने
बॉंधी इसे कलाई पर
सच कहूँ मन भर आया
याद जो तेरी आई बहना!

वो अठन्नी दो आने
भींची मुट्ठी खोल दे बहना!
इससे ज्या्दा पैसे दूँगा
प्यार से ‘भैया’ बोल दे बहना!

जी-भर लड़ ले,
कुछ न कहूँगा
पर ये कहे बि‍न
नहीं रहूँगा-
'वो मि‍ठाई का आधा हि‍स्सा
आज भी बकाया है मेरी बहना!'

-जि‍तेन्‍द्र भगत
(अपनी बहन को समर्पि‍त ये कवि‍ता; उसी को याद करते हुए, जो मुझसे काफी दूर रहती है, हर बार राखी भेजती है मगर समय पर पहुँच नहीं पाती:)

Saturday 1 August 2009

रूटीन!!

पड़ोसी का स्‍कूटर सुबह की नींद में खलल डाल रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे सपने में कि‍सी को कि‍क लगाते हुए सुन रहा हूँ और स्‍कूटर स्‍टार्ट न होने से एक बेचैनी-सी हो रही है। उस पड़ोसी को न मैं जानता हूँ और न उसके स्‍कूटर से मेरा कोई वास्‍ता है, पर पता नहीं क्‍यों ऐसा लगता है कि‍ इसका स्कूटर स्टार्ट होना चाहि‍ए। अचानक नींद खुल जाती है। स्कूटर की आवाज भी बंद है। मुझे लगता है मैंने सपना ही देखा था। मैं उठकर बाल्कनी में आ जाता हूँ।
दूसरी तरफ एक आदमी एक स्कू‍टर के इंजन के आसपास कुछ करता नजर आ जाता है।

दृश्य दो

मैं तैयार होकर ऑफि‍स के लि‍ए नि‍कल पड़ता हूँ। रास्ते में एक इंडि‍का कार बंद पड़ी है। लोग उसे धक्का लगा रहे हैं। गेयर लगाते ही गाड़ी झटका देती है, ऐसा लगता है कि‍ अबकि‍ बार कार चल पड़ेगी। गाड़ी घुर्र-घुर्र करके फि‍र खड़ी हो जाती है। धक्का लगानेवाले एक-दूसरे को देख रहे हैं....
मेरा ऑफि‍स आ गया है।

दृश्य तीन

ऑफि‍स में मेरे बगल की कुर्सी के साथ रामबाबू की कुर्सी है। वे दमे के मरीज हैं, एक दवा हमेशा साथ रखते हैं। खाँसी उठती है तो उठती ही चली जाती है।
आज उन्हें वैसी ही खॉंसी उठी है। गोली खाने के बाद वह रूक भी नहीं रही है। कोई पानी दे रहा है तो कोई आश्वासन। मुँह से खून आने लगा है। एम्बुलेंस बुलाई गई है। आधे घण्टे तक एम्बुलेंस के पहुँचने की संभावना है। वैसे रामबाबू के चचेरे भाई के पास एक कार भी है और वह इसी बि‍ल्डिंग के पॉंचवें माले पर काम करता है। यह दूरी रि‍श्तों की दूरी से छोटी है, फि‍र भी वह नीचे नहीं आ पाएगा; यहॉं काम करनेवाले सभी लोगों का यही मानना हैं...... ओर मैं भी मानता हूँ।

दृश्य चार

शाम को ऑफि‍स से घर लौट रहा हूँ। सड़क पर एक लड़का बस पकड़ने के लि‍ए चलती बस के पीछे भाग रहा है। दरवाजे का रॉड पकड़ने के बावजूद वह लड़खड़ा गया है। वहॉं खड़े कुछ लोगों का मत है कि‍ उसका गि‍रना तय है जबकि‍ कुछ लोगों को वि‍श्वास है कि‍ वह बस में चढ़ जाएगा।
सड़क के साथ बने एक पार्क में कुछ बुजुर्ग यह दृश्य् देख रहे हैं कि‍ देखें क्या होता है। इनके मन में बस यही भाव आ रहा है कि‍ अब उनकी उम्र दौडकर बस में चढ़ने की रही नहीं।

दृश्य पॉच

मैं घर आ गया हूँ। मेरा बेटा मेरी गोद के लि‍ए मचल रहा है। मेरे एक हाथ में मेरा बैग है और दूसरे हाथ में शाम की सब्जी् और दूध का पैकेट। बच्चे की हड़बड़ाहट से दूध का पैकेट अचानक मेरे हाथ से छूट जाता है। सबको लगता है कि‍ दूध बि‍खर गया होगा लेकि‍न हैरानी की बात है कि‍ ‘धम्म’ से गि‍रने के बावजूद वह पैकेट फटता नहीं है। रात को वही दूध पीकर मुन्ना गहरी नींद में सो जाता है।

अदृश्य

सुबह-सुबह एक किक में स्कूटर स्टार्ट हो गया है। रास्ते में कार को धक्का देनेवाले लोग नजर नहीं आ रहे हैं। आफि‍स में पता चलता है कि‍ एम्बुलेंस आई ही नहीं। हॉस्पीटल में रामबाबू का चचेरा भाई रात भर रूककर उनकी देखभाल करता रहा। शाम को घर लौटा तो पता चला कि‍ मि‍लावटी दूध पीने की वजह से मुन्ने की तबीयत बि‍गड़ गई है। मुन्ने को डॉक्टर के पास ले जाते हुए सोच रहा हूँ कि‍ उस लड़के का क्या हुआ होगा जो बस के पीछे भाग रहा था....