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Sunday 28 September 2008

ब्‍लॉग: रि‍श्‍तों की समानांतर दुनि‍या और दोहरी छवि‍!!

दोहरी जि‍न्‍दगी जीने का इतना सुखद अर्थ मैंने कभी नहीं सोचा था। ब्‍लॉग पर जो आभासी रि‍श्‍ते बनते हैं या बि‍गड़ते हैं, कि‍सी टी.वी. धारावाहि‍क की कहानी की तरह ही वे आगे बढ़ते हैं। एक सूत्र से कथा दूसरे सूत्र तक जाती है, दूसरे से तीसरे और इस तरह कभी न खत्‍म होनेवाले इस सीरि‍यल से हम जुड़ते चले जाते हैं। यहॉ हम ही नायक, हम ही खलनायक और हम ही नि‍र्देशक।

कभी-कभी अवसाद मन में भर जाता है कि‍ इससे बाहर चला जाऊँ, अपनी जिंदगी संभालने का वक्‍त नहीं नि‍कल पाता, परि‍वार-रि‍श्‍तेदार भी वक्‍त देने के लि‍ए ताने मारते रहते हैं। इसके बाद, एक साथ इतने लोगों से ब्‍लॉग पर मि‍लने-जुलने की ताकत चाहि‍ए, प्रबल इच्‍छा-शक्‍ति‍ चाहि‍ए। और यह ताकत कई लोगों के पास है, जि‍नके जज्बे की मैं कद्र करता हूँ।

इस छद्म भरी दुनि‍या में व्‍यक्‍ति‍ अपनेआप को जि‍स तरह प्रोजेक्‍ट करता है, क्‍या यही उसका असली चरि‍त्र है? बहरूपि‍या बनकर लोगों की भावनाओं को भुनाना क्‍या सही है? परदे पर आए बि‍ना स्‍वांग करना आसान नहीं है। कभी शीशा देखते हुए आपने राक्षसी चेहरा बनाया है, (आज बनाकर देखि‍एगा) कि‍तना भयावह रूप होता है वह! फोटो खिंचवाते हुए हम अपने चेहरे पर मुस्‍कान लाने की कोशि‍श क्यों करते हैं? हम अपनी लेखनी से जो छवि‍ नि‍र्मि‍त करते हैं, क्‍या उसी उत्‍कंठा से हम उसे जी पाते हैं?

हर आदमी की अपने बारे में एक राय होती है, कई बार अपने बारे में बनी राय दूसरों के राय से भि‍न्‍न और कई बार वि‍परीत भी होती है। बहुत चुप रहनेवाले व्‍यक्‍ति‍ को आप ब्‍लॉग पर बतरस के बादशाह के रूप में स्‍थापि‍त पा सकते हैं। बहुत मजाकि‍या आदमी गंभीर लेखन के लि‍ए जाना जाता हो, गंभीर आदमी ब्‍लॉग पर सतही बातें करते हुए मि‍ल सकते हैं। बहुत मि‍लनसार लगनेवाला आदमी शायद मि‍लने पर झल्‍लाते हुए नजर आ सकता है। अहंकारी लगनेवाला आदमी क्‍या पता खाति‍रदारी में कोई कसर न रहने दे। सुंदर लगने वाला आदमी बदसूरत और बदसूरत लगनेवाला आदमी सुंदर नजर आ सकता है। जरुरी नहीं कि‍ यह वि‍रोधाभास मि‍लता ही हो। अपनी छवि‍ को टूटता या बनता देख अफसोस या संतोष होना आम बात है।

एक सहज मानवीय अवगुण के तहत खास लोगों के साथ आम लोग जल्‍दी रि‍श्‍ता बनाने के फि‍राक में रहते हैं। वे सोचते हैं कि‍ इस दोहरी जिंदगी के भेद को धीरे-धीरे खत्‍म कर देंगे और व्‍यक्‍ति‍गत रि‍श्‍ता कायम कर उनसे अपना स्‍वहि‍त सि‍द्ध करेंगे। इसमें सफल होंगे या नहीं यह वे भी नहीं जानते। इसलि‍ए कहा जा सकता है कि‍ ब्‍लॉग को ब्‍लॉग ही रहने दो, इस रि‍श्‍ते को कोई नाम न दो। अधि‍कांश ब्‍लॉगर एक-दूसरे से न कभी मि‍लें हैं और न ही मि‍लना चाहेंगे। शायद मैं भी इन्हीं में से एक हूँ। यह एक रोमांटि‍क वि‍चार है। ब्‍लॉगर्स-मि‍ट इस वि‍चार में मि‍सफि‍ट बैठता है, पर रोमांटि‍क वि‍चार अक्‍सर क्षण-भंगुर होते हैं। अनुराग जी ने मेरी एक पोस्‍ट पर एक बड़ी अर्थपूर्ण टि‍प्‍पणी की थी, जि‍सपर मैं सोचता ही रह गया था-

‘कभी किसी ने ये भी कहा था की लिखने वालो से मत मिलो वरना उनकी रचनायों से शायद उतना मोह नही रहेगा।‘

मैं एक नामी रचनाकार से बड़े अनौपचारि‍क माहौल में कि‍सी के फ्लैट पर मि‍ला था, उनका नामोल्‍लेख करना इसलि‍ए यहॉं जरूरी नहीं समझता क्‍यूँकि‍ इस खॉचें में अपना भी नाम डालने की सहूलि‍यत बचाए रखूँ और आपका भी। शराब के नशे में उसकी ऑंखें अंगारे की तरह दहक रही थी, और वो कुछ बड़े लोगों के नाम के साथ गालि‍यॉं लगाकर संबोधि‍त कर रहा था। मैं जि‍नके साथ गया था, इशारे से उनको जल्‍दी चल नि‍कलने के लि‍ए कहा। उसकी अन्‍य रचनाऍ भी मैंने पढ़ी थी, घर जाकर दुबारा पढ़ी कि‍ कोई इतनी अच्‍छी बातें कैसे लि‍ख सकता है!

सि‍गरेट पीने वाले एंटीस्‍मोकिंग कैम्‍पेन चला रहे हैं। नि‍शस्‍त्रीकरण के पैरोकार बेहि‍चक शस्‍त्र उठा रहे हैं। बाबा जी वैराग का प्रवचन दे रहे है, पर स्‍वयं घोर वासना में डूबे हैं। घर के पुरुष अपनी स्‍त्रि‍यों को पर्दे में रखने की कोशि‍श कर रहे हैं और दूसरों की स्‍त्रि‍यों को बेपर्दा कर रहे हैं। इस दोहरी जिंदगी से मुझे कोफ्त होती है। आपको भी जरुर होती होगी!

(इस पोस्‍ट को कि‍सी के संदर्भ में नही लि‍खा गया है, सप्रयास अन्यथा न लें)

Thursday 25 September 2008

सर(दार)! आपकी क्‍लास है!

सर्दियों की गुनगुनी धूप में कॉलेज का मैदान मेले में तब्‍दील हो जाता था। लोग रंग-बि‍रंगे गर्म कपड़ों में चहलकदमी करते रहते थे। क्‍लास में बैठकर भी लोग बाहर की धूप में जाने के लि‍ए बेचैन लगते थे। सर को स्‍टाफ-रूम में जाकर याद दि‍लाना पड़ता था कि‍ सर(दार) आपकी क्‍लास है। वे पूछते थे-

हूँ..., कि‍तने बच्‍चे हैं?
सरदार दो बच्‍चे हैं।
हूँ..., दो बच्‍चे,
(चीखकर) सर के बच्‍चे!! तुम दो हो, बाकी 20 कहॉं हैं?
सरदार बाकी 20 तो धूप खा रहे हैं।

फि‍र भी क्‍लास के लि‍ए बुलाने आ गए, वो भी खाली हाथ(न कलम न कॉपी)
क्‍या समझकर आए थे कि‍ सरदार बहुत खुश होगा, शब्‍बासी देगा, क्‍यों!
धि‍क्‍कार है!!
[सरदार जेब से चश्‍मा नि‍कालता है और उसका शीशा रूमाल से साफ करने लगता है।]

अरे ओ शंभू (सफाईकर्मी)! कि‍तने पैसे देती है सरकार हमें पढाने को?
शंभू सीढ़ि‍यों पर चढ़कर पंखा साफ कर रहा है-
-पूरे 30 हजार!
-सुना! [सरदार चश्‍मा ऑखों पर चढ़ाते हुए कहता है]
पूरे 30 हजार!
और ये पैसे इसलि‍ए मि‍लते हैं कि‍ हम कॉलेज आँए और यहॉं स्‍टाफ-रूम की शोभा बढ़ायें, यहॉं की चाय पीकर प्‍यालों पर अहसान जताऍं।

यहॉं से पचास-पचास कोस दूर गॉव से जब बच्‍चा कॉलेज के लि‍ए नि‍कलता है तो मॉं कहती है बेटे मत जा, मत जा क्‍योंकि‍ सर(दार) क्‍लास लेने नहीं आएगा।
सरदार फि‍र चीख पड़ता है-
और ये दो शहजादे, इस कॉलेज का नाम पूरा मि‍ट्टी में मि‍लाए दि‍ए।
इसकी सजा मि‍लेगी,बराबर मि‍लेगी।
क्‍या रॉल-नम्‍बर है,
-आयें
सरदार चीखकर पूछता है- रॉल नम्‍बर बताओ!
छ: सर(दार)!
छ: रॉल-नम्‍बर है तुम्‍हारा!!
बहुत नाइंसाफी है ये! रजीस्‍टर लाओ!

सरदार रजीस्‍टर में दोनों के ऐटेंडेंस लगा देता है। एक बच्‍चा सरदार का मुँह देखने लगता है।
सरदार पूछता है अब क्‍या हुआ?
सर(दार) हम दरअसल तीन हैं, बसंती का भी एटेंडेंस लगा दो, वो बगीचे में आम तोड़ रही है।

सरदार नाराज हो जाता है, बसंती बगीचे में है और तुम कहते हो एटेंडेंस लगा दूँ। बच्‍चे कहॉं है, कहॉं नहीं, हमको नहीं पता! हमको कुछ नहीं पता!
इस रजीस्‍टर में 22 बच्‍चों की उपस्‍थि‍ति‍ और अनुपस्‍थि‍ति‍ दर्ज है। देखें कि‍से क्‍या मि‍लता है!
सरदार वीरु का नाम देखकर कहता है- बच गया साला।
फि‍र जय का नाम देखता है- ये भी बच गया।
तभी झोले में आम लि‍ए बसंती भी वहॉं आ जाती है।
सरदार उससे पूछता है- तेरा क्‍या होगा बसंती?

बसंती कहती है- सरदार! मैंने आपको अपना टीफि‍न खि‍लाया है सरदार।
अब आम खि‍ला।
कमाल हो गया, सबके ऐटेंडेंस लग गए- यह कहकर सरदार पागलों की तरह हॅसने लगता है, शंभु और बाकी बच्‍चे भी सरदार के सुर में सुर मि‍लाकर हँसने लगते हैं। हॅसते-हॅसते दि‍न कट जाता है और फि‍र सभी घोड़े पर सवार होकर घर के लि‍ए रवाना हो जाते हैं। सरदार पहले ऑफि‍स जाता है और अपना चेक लेकर तब कॉलेज से चेक-आउट करता है।

Friday 19 September 2008

मूँछ नहीं तो पूछ नहीं......

स्‍कूल से नि‍कलकर कॉलेज में आया तो यहाँ का फैशन परेड देखकर आश्‍चर्य में पड़ गया। कुछ ही लड़के ऐसे होंगे जि‍नकी नाक के नीचे मूँछें टँगी हो। यहॉं तक कि‍ जि‍न प्राध्‍यापकों की मूँछे नहीं थी, वे भी मुझे अजीब नि‍गाह से देखते थे, एक प्राध्‍यापक तो कहने से भी नहीं चुके-
‘यार, स्‍कूल में ही मूँछे छोड़ आते, इसका भी माइग्रेसन सर्टीफि‍केट बनवा लि‍या था क्‍या!'लडकों के साथ-साथ लड़कि‍या भी हँस रही थी। इतनी बेइज्‍जती सहकर भी मैं चुप था। मेरा एक दोस्‍त सच्‍ची सलाह के लि‍ए जाना जाता था। उसने कहा इसे मुँड़वा दो, बाद में चाहे तो फि‍र रख लेना।
मैने कहा बाप के जीते जी मैं ये कुकर्म नहीं कर सकता।
दोस्‍त को गुस्‍सा आ गया-

‘तो क्‍या यहाँ जि‍तने मुँछमुण्‍डे घूम रहे हैं, उनके बाप मर गए हैं! यार, कि‍स गॉव की बात मूँछ में लपेटकर घूम रहे हो तुम! ऐसे ही रहे तो लोग तुम्‍हारी मूँछों की कस्‍में खाने लगेंगे,अमि‍ताभ बच्‍चन अपने डायलॉग से नत्‍थूलाल को रि‍टायर करके तुम्‍हे रख लेगा- ''मूँछे हो तो जीत्तू लाल जैसी''। बैंक और सुनारों की दुकान के आगे नौकरी लेनी है तो मूँछे बढ़ा!‘

इतनी भी बड़ी नहीं है भाई कि‍ तुम ऐसे ताने मारो- मैने दुखी होकर कहा।
’तो अनि‍ल कपूर की तरह भी नहीं है कि‍ इसे सजाकर घूमो, शीशे में गौर से जाकर देखना,
लगेगा कि‍ ‘गोलमाल’ के राम प्रसाद और लक्ष्‍मण प्रसाद का नकली मूँछोंवाला एक और भाई है। अब यार तेरे साथ चलने में भी बुरा लगता है, तेरी वजह से कोई लड़की मुझे भी भाव नहीं देती!‘
’मैं क्‍या करूँ दोस्‍त, अभी-अभी कोंपलें फूटी है, फलने-फूलने से पहले ही इसे कतर दूँ, ये मुझसे नहीं होता!‘

‘तुम्‍हें कुछ नहीं करना है, सब उस्‍तरे पर छोड़ दो!‘


आखि‍र वो दि‍न आ ही गया। शर्म से अपने पसीने में ही डूबा जा रहा था मैं। शीशे में लगता था मेरे सामने कोई दूसरा आदमी खड़ा है। हर जगह घूमते हुए मेरी अंगुलि‍याँ अक्‍सर ओठों के ऊपर कुछ ढ़ूँढ़ती-सी रहती थी, लोग सोचते थे शायद मनोज कुमार है या कोई चिंतक है।

कोई ये नहीं सोचता था कि‍ मैं अपने खेत में फसल के उजड़ जाने से व्‍यथि‍त हूँ। सि‍र्फ कॉलेज के लोगों को ही मेरे मुँह छि‍पाने की वजह का अंदाजा था।

अपने गुनाह के लि‍ए मन ही मन मैं ईश्‍वर और अपने पि‍ता जी से कई बार माफी मॉंग चुका था। लेकि‍न बाकी लोगों की तरह मैं भी धीरे-धीरे इस आपदा को भूलने लगा कि‍ नाक के नीचे जो ऑंधी आई थी, उसमें सि‍र्फ बाल ही बॉंका हुआ था, कि‍सी और के हताहत होने की कोई सूचना नहीं आई।

(पहली फोटो राज भाटि‍या जी के सौजन्‍य से, शेष के लि‍ए गूगल का आभार)

Monday 15 September 2008

एकजुटता और गुटबाजी में फर्क !!

अनूप जी ने चि‍ट्ठा-चर्चा में मुझसे गि‍रोह का नाम पूछा है। वैसे वे ‘एक लाइना’ को जि‍स वि‍नोद के साथ प्रस्तुत करते हैं, उसमें गंभीर होकर सोचना गलत होगा, और वैसे भी उनके इस प्रश्‍न में चुहल ही ज्‍यादा होगी, फि‍र भी जवाब में कुछ कहना चाहूँगा। जैसे ‘धर्म’ अपने प्रारंभि‍क दौर में सभी मर्यादाओं से युक्‍त एक पवि‍त्र वि‍चारों से प्रेरि‍त हुआ था, पर बाद में ‘सम्‍प्रदायों’ में बँटकर वह दूषि‍त होने लगा, ठीक ऐसा ही संदेह ब्‍लॉग-जगत की नि‍ष्‍पक्षता और प्रति‍बद्धता को लेकर मेरे सहज मन में उपजा था।

धार्मिक आस्‍था और सांप्रदायि‍क एकजुटता में फर्क है, ठीक उसी तरह साम्‍प्रदायि‍क एकजुटता और साम्‍प्रदायि‍क गुटबाजी में भी गहरा अंतर है। साम्प्रदायि‍क एकजुटता में प्रति‍बद्धता को एक सामूहि‍क वि‍कास के रूप मे देखा जाता है मगर साम्प्रदायि‍क गुटबाजी की प्रति‍बद्धता, दूसरे को नीचा दि‍खाने में ही अपना उत्‍थान समझती है। ब्‍लॉग के संदर्भ में कहा जाए तो मुझे एकजुटता से कोई ऐतराज नहीं है,( ईर्ष्‍यावश कुछ को हो तो मैं कुछ कह नहीं सकता) पर कहीं कोई गुटबाजी का प्रयास कर रहा हो तो मैं उसके खि‍लाफ हूँ और अनूप जी, मैं भवि‍ष्‍य में भी ब्‍लॉग-जगत से जुड़ा रहा तो ऐसी गुटबाजी को सामने जरुर लाऊंगा। मैंने कल सि‍र्फ इतना ही कहा था कि‍-
‘’ब्‍लॉग-जगत में अभी मामूली गि‍रोहबंदी है, कट्टरता के स्‍थान पर स्‍वस्‍थ हास-परि‍हास है, आनंद और दि‍ल्‍लगी की छुअन है। पर जि‍स दि‍न गि‍रोह-बंदी और बाबागि‍री यहॉं चरम पर होगी, ब्‍लॉग भी उन्‍हीं आरोपों से ग्रस्‍त होगा, जि‍सके लि‍ए तथाकथि‍त साहि‍त्‍य जगत और मीडि‍या पत्रकारि‍ता बदनाम है।‘’

यह कट्टरता ही एकजुटता को गुटबाजी में तब्‍दील कर देती है। बस इसी कट्टरता को ब्‍लॉग से दूर रखने की गुजारि‍श कर रहा था।

ज्ञानदत्‍त जी को पि‍छले कुछ दि‍नों से ही पढ़ना आरंभ कि‍या है। वे प्रभावी लेखक हैं और आत्‍मवि‍श्‍लेषण उनके लेखन का उम्‍दा पक्ष है, पर एक जि‍म्‍मेदार लेखक से जि‍स बात की उम्‍मीद नहीं होती, अनायास वैसी बात पढ़कर मन में कुछ खटक जाता है। वही बात खटक गई और ऐतराज करने की भूल कर बैठा। मैं भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि‍ मेरी इस बात को उन्‍होंने बड़ी सहजता से लि‍या होगा, लेकि‍न उनको चाहनेवाले इस बात से ज्‍यादा आहत हुए। कि‍सी के लेखन को पसंद करने का मतलब ये नहीं होता कि‍ उनकी हर बात को हम डि‍फेंड करें। गड़बड़ी यहीं से होती है, ऑख पर पर्दा पड़ जाता है और अनायास ही कि‍सी के लि‍ए हम पूर्वाग्रह से ग्रस्‍त होते चले जाते हैं।

मेरा आग्रह है कि‍ मेरी पि‍छली पोस्‍ट को कोई ब्‍लॉगर व्‍यक्‍ति‍गत आक्षेप के तौर पर न लें। मैंने यही कहने की चेष्‍टा की थी कि‍ वास्‍तवि‍क प्रकाशन संस्‍थानों में जि‍स तरह की गुटबाजी है, वह ब्‍लॉग जगत में न आए, इसे रोकने के लि‍ए भी जो गुटबाजी अनामदास आदि‍ के रूप में सामने आ रही है, मैं उसके भी खि‍लाफ हूँ।

मैं जानता हूँ ऐसा लि‍खकर मैं हर तरफ से सहानुभूति‍ खो दूँगा, पर जो मुझे सही लगा, मैंने कह दि‍या। इसे चाहे आत्‍मवि‍श्‍वास कह लें, चाहे बेवकूफी!

Saturday 13 September 2008

ब्‍लॉगिंग में गि‍रोहबंदी : एक अप्रि‍य सच!!

कुछ दि‍न पहले ब्‍लॉगरों को एक-दूसरे की पोस्‍ट पर टि‍प्‍पणी करने के लि‍ए समीर जी और शास्‍त्री जी द्वारा एक सार्वजनि‍क आग्रह कि‍या गया था, तब मुझे लगा था कि‍ हि‍न्दी के प्रचार-प्रसार के लि‍ए कुछ लोग तहे-दि‍ल से प्रयास कर रहे हैं, और इसके लि‍ए लोगों को ब्‍लॉग के माध्‍यम से हि‍न्‍दी लि‍खने-पढ़ने के लि‍ए प्रेरि‍त कि‍या जा रहा है। यह शुभ संकेत था। लेकि‍न ज्ञानदत्‍त जी अपने लेख- ‘टीपेरतंत्र के चारण’ में जि‍स राजशाही की कामना करते देखे गए, वह ब्‍लॉग-जगत की संरचना और मनोवि‍ज्ञान पर गहरे आघात से कम नहीं था!

ज्ञानदत्‍त पाण्‍डेय जी के लेख में कल इस ओर चि‍न्‍ता जाहि‍र की गई थी कि‍ ब्‍लॉग के लोकतंत्र में टि‍प्‍पणी करने वाले ज्‍यादातर लोग चापलूस हैं और चारण बनकर प्रशस्‍ति‍ गायन के लि‍ए दो-चार घि‍सी-पीटी टीपी गई टि‍प्‍पणि‍यों के सहारे अपनी जीवि‍का चला रहे हैं। मेरे ख्‍याल से ब्‍लॉग-जगत के लि‍ए यह एक खतरनाक वि‍चार था।

ब्‍लॉग-जगत में अभी तक तो अच्‍छे लेखन को तवज्‍जो दी जाती है, लेखक की हैसि‍यत को नहीं, और यह हमारी इस दुनि‍या से बि‍ल्‍कुल अलग है, जहॉं छपने के लि‍ए आपकी सि‍फारि‍श, खानदान, सि‍यासी रि‍श्‍ते और पार्टी लाइन की पहुँच देखी जाती है।
मैं ये नहीं जानता कि‍ मैं कैसा लि‍खता हूँ, और मेरी तरह दूसरे ब्‍लॉगर भी ये नहीं जानते, पर सबसे ज्यादा सकून इस बात का है कि‍ हमें यहॉं अपने दि‍ल की बात, अपनी सोच, अपनी रचना दुनि‍या में प्रकाशि‍त करने के लि‍ए भ्रष्‍ट-तंत्र से होकर नहीं गुजरना पड़ता।

जब मैंने 1999 में अपना एक पहला उपन्‍यास लि‍खा था,(जि‍से आखि‍री उपन्‍यास कहने के लि‍ए बाध्‍य हूँ) तब उसे दरवाजे के बाहर यह कहकर फेंक दि‍या गया था कि‍ बड़े-बड़े और नामी लेखक अभी लाइन में हैं और आपका नाम तो कहीं सुना भी नहीं! जाइए, पहले छोटी-मोटी पत्रि‍काओं में नाम कमाइए, फि‍र बड़े प्रकाशकों का दरवाजा खटखटाइए। उन्‍हीं दि‍नों एक सेमि‍नार में एक घटि‍या उपन्‍यास का बाइज्‍जत लोकार्पण हुआ था, क्‍योंकि‍ उस उपन्‍यास के लेखक की सि‍यासी पहुँच थी।

प्रति‍ष्‍ठि‍त पत्रि‍काओं में अब जो कुछ लि‍खा जा रहा है, जरा पूज्‍यभाव त्‍यागकर उसे पढ़ें और उसके स्‍तर का अंदाजा लगाऍं। मेहनत और सच्चे दि‍ल से लि‍खी गई रचनाओं में ईमानदारी दूर से ही झलकती है। पर अधि‍कांश लेखों की वायवीय बातें, सतही बातें, दार्शनि‍क मुद्रा बनाकर धमकाती, डराती बातें और भी न जाने क्‍या-क्‍या चीज़ें आपमें आकर्षण-वि‍कर्षण पैदा कर जाती हैं! इसलि‍ए वहॉं की लफ्फाजी और गि‍रोहबंदी से घबराकर कई लोगों की तरह मैं भी ब्लॉग-लेखन के तालाब में कूद गया। अभी तो छोटी-बड़ी सभी मछलि‍यों में यहॉं भाईचारा है, पर यह भी सत्‍य है कि‍ छोटी मछलि‍यॉं बड़ी मछलि‍यों का चारा है।

ब्‍लॉग-जगत में अभी मामूली गि‍रोहबंदी है, कट्टरता के स्‍थान पर स्‍वस्‍थ हास-परि‍हास है, आनंद और दि‍ल्‍लगी की छुअन है। पर जि‍स दि‍न गि‍रोह-बंदी और बाबागि‍री यहॉं चरम पर होगी, ब्‍लॉग भी उन्‍हीं आरोपों से ग्रस्‍त होगा, जि‍सके लि‍ए तथाकथि‍त साहि‍त्‍य जगत और मीडि‍या पत्रकारि‍ता बदनाम है।

आइए, हि‍न्‍दी दि‍वस के अवसर पर अपनी मनोभावना को हि‍न्‍दी में लि‍खकर उस भ्रष्‍टतंत्र को ठेंगा दि‍खाऍं, जहॉं प्रकाशन-तंत्र की उपेक्षा और उदासीनता से कई लेखकों को जन्‍म से पहले भ्रूण में ही मार दि‍या गया था, लेकि‍न ब्‍लॉग-जगत में उनका पुर्नजन्‍म हुआ, इस भरोसे के साथ कि‍ यहॉं तुम खुद ही लेखक हो, खुद ही प्रकाशक हो और खुद ही प्रमोटर। ज्ञानदत्‍त जी, हमारा ये भरोसा टूटने मत दीजि‍एगा!



(अगर कुछ लोगों को नए ब्‍लॉगर की हैसि‍यत से मेरी यह हि‍माकत ‘छोटी मुँह बड़ी बात’ लगती हो तो समझ जाइए कि‍ लोकतंत्र और राजतंत्र के बीच का फासला घट रहा है!)
(सभी चि‍त्रों के लि‍ए गूगल का आभार।)

Monday 8 September 2008

थू !! थू !! हर जगह थू-थू !!

'आक्-थू’ और ‘पि‍च्‍च’ जैसी ध्‍वनि‍यों से कौन परि‍चि‍त नहीं होगा! इससे बड़ा मुँह-लगा मैंने न देखा है न सुना है! जब टाइटेनि‍क मूवी में ‘जैक’ और ‘रोज़’ को समुंदर की लहरों पर थूकते हुए देखा था, तब वह फूहड़ नहीं लगा था। चेहरे पर मुस्‍कान दौड़ गई थी। जो ज्‍यादा दि‍लदार थे, वे मुँह खोलकर हँस भी रहे थे।

तब एक ‘इलि‍ट’ लड़की का इलि‍टपन टूटता देख लोग इस अहसास से भरे जा रहे थे कि‍ वह जैक को नहीं, एक आम आदमी को भाव दे रही है, एक आम आदत को भाव दे रही है और ऐसा करते हुए उसमे लज्‍जा के स्‍थान पर रोमांच और कौतुहल ज्‍यादा दि‍ख रहा था।

इस खि‍लंदड़पन के अलावा थूकने का एक सामाजि‍क पक्ष भी है। हॉलीवुड के साथ-साथ बॉलीवुड में भी नायि‍काऍं खलनायकों पर थूकती दि‍खाई जाती हैं। तब हमारे भीतर बदले की भावना और खौफ का मि‍श्रि‍त रूप पैदा होता है। जब हम फि‍ल्‍मों से नि‍कलकर हकीकत की दुनि‍या में आते हैं, तब भी तमाम थूकने वाले लोग जहॉं-तहॉं मि‍ल जाते हैं। कोई सरकार पर थूक रहा होता है, कोई पड़ोसी पर तो कोई रि‍श्‍तेदारों पर! कि‍सी के पास धीरज नहीं होता कि‍ थूक नि‍गलकर कोई रास्‍ता नि‍काल ले! आक्रोश को शब्‍दों से नहीं, इस तरह की चेष्‍टा से अभि‍व्‍यक्‍त करने की परंपरा कि‍तनी पुरानी होगी, कहा नहीं जा सकता, पर यह तो तय है कि‍ सारी दुनि‍या में इसके मायने एक जैसे ही रहे होंगे!

इस थूकचर्चा में मानवीय चि‍न्‍ता के साथ-साथ पर्यावरण के संकट पर भी गौर कर लें। जहॉं हम-आप रहते हैं, या काम करते हैं या कहीं भी सार्वजनि‍क जगह पर कुछ समय बि‍ताते हैं, वहॉं कुछ खास तरह के लोग जुगाली करते मि‍ल जाएंगे। उसके बाद वे कोना इसी तरह ढूढेंगे जैसे कुत्‍ते दीवार ढूँढते हैं। इस मामले में इनका आपस में गहरा रि‍श्‍ता होता है। पर एक फर्क भी है। कुत्‍ते अपना पैर गंदा होने से बचाते हैं, जबकि‍ जुगाली करनेवाले महाशय कोने में लाल-छाप छोड़कर अपनी पहचान बनाने में ही आत्‍मीय सुख महसूस करते हैं। वो इस लाल थूक को जि‍तनी गहरी छाप छोड़ते देखते हैं , उतना कि‍लो इनके खून का वजन बढ़ जाता है। अब मान लीजि‍ए आप इनसे रास्‍ता पूछने की भूल कर बैठे, और आपने सफेद सर्ट पहन रखी है, फि‍र....! या मान लीजि‍ए, इन्‍हें यूरोप या यू.एस. का वीज़ा मि‍ल जाए तब....! अपनी भारतीय संस्‍कृति‍ की पहचान ऐसे लोगों से भी तो बनी है।

पूँजीवादी व्‍यवस्‍था के उदय के बाद च्‍वींगम का ईजाद हुआ, जि‍समे लोगों का घंटो मुँह बंद रखने की क्षमता थी, फि‍र थूकने का सवाल ही नहीं था! इस दोहरे फायदे को देखते हुए इसे व्‍यापक पैमाने पर खपाने की कोशि‍श की गई, मगर बच्‍चों के अलावा कि‍सी ने इसे मुँह नहीं लगाया। बाकी जनता अपने रंग से ही मुँह लाल कि‍ए रही।

सरकार अपने कर्मचारि‍यों को लेकर इस मामले में जहॉं-जहॉं संजीदा है, वो अपने भवनों को लाल ईंटों से बनवा रही है, पर थूकने वाले तब भी सफेद और साफ-सुथरा कोना ढ़ूँढ ही लेते हैं। वो तय करके आते हैं कि‍ वे रोज उसी जगह थूकेंगे और उसे अपनी औलाद की तरह नि‍हारेंगे कि‍ तू न होता तो मैं कहॉं जाता! मुन्‍ना भाई की सलाह पर हम बाल्टी- मग लेकर या थूकदान की कटोरी लि‍ए खड़े तो हो नहीं सकते कि‍ आइये जनाब, शर्माइये मत, इसमें थूकि‍ये, मुँह ज्‍यादा भरा हो तो मुझपर ही थूक दीजि‍ए!

जो लोग इसे नवाबों का चलन मानते हैं, उनसे मेरा कोई गुरेज नहीं है। वस गुजारि‍श है कि‍ इस तरह की क्रि‍या का संपादन नौकर के हाथ में सोने का थूकदान देकर अपने महलों में कि‍या करें! सार्वजनि‍क भवनों को ‘लाल’ कि‍ला बनाने का टेंडर बेच दें! वैसे तो तंबाकू-गुटका वगैरह न खाऍं और फि‍र भी मन न माने तो थूकने का संस्‍कार सीख लें! और जो फि‍र भी इसे मौलि‍क अधि‍कार का हनन मानते हैं, वे मुझे माफ करें और जाकर मुँह साफ करें!

Wednesday 3 September 2008

अमीरों की मर्मांतक पीड़ा !

मैं क्‍या करुँ जो कहीं बाढ़ कहीं सूखा है,
मेरा डॉगी भी तो सुबह से भूखा है।

मुर्ग-मसल्‍लम, वि‍स्‍की- इनसे बड़ा सहारा है।
कमबख्‍त रोटी से कि‍सका हुआ गुजारा है!

रफ्तार कम लग रही है ट्रेनों की,
उसपर टि‍कट मि‍ल नहीं रही प्‍लेनों की।

चोर-उचक्‍के हैं काहि‍ल, मैं क्‍या दूँ उनको गाली।
हफ्ता नहीं वसूला, है ति‍जोरी कुछ-कुछ खाली।

कुछ लोग मर गए हैं, गर्मी कहीं पड़ी है,
कल कम्‍बल नि‍काला है,ए.सी. की ठंडक बढ़ी है।

दुबई तो गया था, पर दुबका ही लौट आया।
अफसोस मन में रह गया, मुजरा न देख पाया।

कार तो कई हैं, पर इस बात का बेहद गि‍ला है,
दो-चार को छोड़,वी.आई.पी.नम्‍बर नहीं मि‍ला है।

भूखे-नंगे, अधमरों को बखूबी सबने देखा है,
अमीरों की गरीबी-रेखा को मगर कि‍सने देखा है!

दुख झेले हैं ये मैंने, तो दुआ करें सभी,
कि‍सी को न ये दि‍न देखना पड़े कभी।
-जि‍तेन्‍द्र भगत

Monday 1 September 2008

...... मॉं की याद आती है, पर माँ नहीं आती!

मैने सुना था कि‍ औरतों का काम कभी खत्‍म नहीं होता! मेरी मॉं उन्‍हीं औरतों में से एक है। हर वक्‍त व्‍यस्‍त! रह-रह कर बेचारी घड़ी की तरफ देखेंगी और आश्‍चर्य से कहेंगी- आईं! 7 बज गये! एक घंटे बाद फि‍र कहेंगी- आईं! 8 बज गए! इस तरह 9 और 10 भी बज जाते हैं। पहले मॉं 9 बजे तक सो जाया करती थी, इसलि‍ए मैं 9 बजे तक एस.टी.डी. फोन कर लि‍या करता था, पर अब जमाना बदल गया है। मॉं जमाने के साथ बदल गई है। उन्‍हें एक ऐसी लत लग गई है, जि‍सका उन्‍हें रत्ती भर भी रंज नहीं, (मैं रंज देता भी नहीं!) मैं उन्‍हें अब रात के 10 बजे से 12 बजे के बीच भी फोन करके बात कर सकता हूँ, शनि‍वार और रवि‍वार को छोड़कर। फोन उठाने के बाद भी मॉं का ध्‍यान मेरी बातों पर नहीं रहता। कहती हैं- दो मि‍नट ठहरो। ज़ी टी.वी.पर ‘तीन बहुरानि‍यॉं’ आ रही है। .......अब ऐड आ गया। हॉं अब बोलो, मेरा पोता ठीक है? बात करते हुए मैं सोचता जाता हूँ, शायद जी सि‍नेमा पर 10-15 मि‍नट का ऐड आता है, पर मॉं तो ज़ी टी.वी. देख रही है, 3-4 मि‍नट में ही फोन रख दूँ तो ठीक रहेगा, कोई ऐसी जरुरी बात भी नहीं। मैं भी थोड़ी बातें करके, ऐड खत्‍म होने का अनुमान लगाकर हँस-बोलकर फोन रख देता हूँ।

मॉं अपनी बहू और पोते से सैकड़ों मि‍ल दूर है, उनके पास हम नहीं हैं, पर उनके पास ‘’तीन बहुरानि‍याँ’’ हैं। साथ ही, और भी न जाने कौन-कौन से सीरि‍यल्स हैं! वे उन्‍हीं में स्‍वयं को दि‍नभर भुलाए रखती हैं। माँ को मेरे पास इस महानगर में रहना अच्छा नहीं लगता। वे उस छोटे शहर के दूरदराज इलाके से अपना घर छोड़कर कहीं नहीं नि‍कलना चाहतीं। आखि‍र उसकी एक-एक ईट को उन्‍होंने अपने सपनों की तरह संजोया है। वो हमें वहीं बसने पर जोर भी नहीं डालतीं। नौकरी का तकाजा है, इसलि‍ए मैं भी इस बात से बचता हूँ! इन सब मन:स्‍थि‍ति‍यों के बीच मॉं की याद आती रहती है, पर माँ नहीं आती!