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Saturday, 27 March 2010

कलर्ड बनाम ब्‍लैक एण्‍ड वाइट

'थोड़ा और सटकर खड़े हो जाइए!'
'थोड़ा और.......'
कैमरे का फ्लैश अब तक शांत था।
'भाई साब् बस थोड़ा-सा और। अपना सि‍र भाभी जी की तरफ झुकाइए, भाभी जी आप भी।'
अब भी फ्लैश नहीं चमका।
'अब मुस्‍कुराइए, एक इंच और, हॉ.......'
पर अब भी फ्लैश नहीं चमका।
मैं खीज गया, कहा-
'ये फोटो कि‍सी ऑफि‍स में देना है भाई, तुम तो फोटो इतना रोमांटि‍क बना रहे हो जैसे बेडरूम में लगाना हो!'

कैमरामैन के दॉंत चमके , पर फ्लैश अब भी नहीं चमका। मेरे सामने स्‍टैंड पर दो-तीन लैंप जगमगा रहे थे, वह उसका फोकस ठीक करने लगा। श्रीमती ने छेड़ा- कमर पर हाथ रखा हुआ है, फोटो में ये भी आएगा क्‍या?
मैंने बनावटी गुस्‍से में कहा-

-'कैमरा आगे है, पीछे नहीं!!'

क्‍या होता है न कि‍ शादी के कुछ सालों या कुछ महि‍नों तक ऐसा खुमार छाया रहता है जैसे सारे फोटो इस पोजीशन में लि‍ए जाएँ जि‍ससे लगे कि‍ हम एक-दूसरे के लि‍ए ही बने हैं और हमारी हर अदा और हर पोज में जबरदस्‍त प्‍यार छलक रहा हो! पर अब, जब हमारा तीन साल का बेटा अपनी नानी के साथ घर में हम दोनों के आने का इंतजार कर रहा हो, तो ऐसा लगता है कि‍ चि‍पककर खड़े रहने की अच्‍छी जबरदस्‍ती है यार!
अचानक फ्लैश चमका। फोटो खिंच चुकी थी। आज श्रीमती को गर्लफ्रेंड होने का सा आभास हो रहा था पर मैं अपने ब्‍यॉय-फ्रेंडीय छवि‍ को जाहि‍र नहीं करना चाहता था। मैं चाहता था कि‍ लोग मुझे इसका पति‍ ही समझे, कुछ और नहीं।
समाज भी कि‍तने ड्रामे करवाता है पता नहीं!!

कैमरामैन ने मायूसी से मुझे टोका-
'जी आपकी ऑंखे बंद हो गई है, फोटो दुबारा लेना पड़ेगा।'

लो, फि‍र से वही घटनाक्रम दुहराया जाएगा- चि‍पको जी, फि‍र झुको जी, फि‍र मुस्‍कुराओ जी!

अंदर से तो मैं भी इसका आनंद ले रहा था मगर पत्‍नी को खुशी दि‍खा दी तो समझो मार्केट में दो-तीन घंटे और घूमना पड़ सकता है!
शादी के बाद ये पहला मौका था तब हम इस तरह फोटो खिंचवाने आए थे। फोटो तैयार होकर 15 मि‍नट में मि‍ल गई। मेरे हाथ में जब ये कलर्ड फोटो आया तो अचानक ही मेरे जेहन में एक ब्‍लैक एण्‍ड वाइट तस्‍वीर कौंध गई! उस तस्‍वीर में मेरे मम्‍मी-पापा यूँ ही सटकर खड़े हैं और यूँ ही वे (एक-दूसरे की तरफ? ) झुके हैं और हॉं.. मंद-मंद मुस्‍कुरा भी रहें है!



1975-80 के आसपास ली गई ये तस्‍वीर न जाने कि‍स स्‍टूडि‍यो से ली गई होगी, कभी पूछूँगा। ये भी पूछूँगा कि‍ वे कि‍स तरह तैयार होकर स्‍टूडि‍यो तक गए होंगे। इति‍हास इस तरह सजीव हो जाता है मानो कल-परसो की ही बात हो! सभी लोगों के पास यादों की ऐसी सौगाद तस्‍वीरों में जरूर मौजूद होती है। आप लोगों के पास भी ऐसी कोई तस्‍वीर जरूर मि‍ल जाएगी। अगर आपको अपना एलबम नि‍काले करीब साल भर हो गया है तो छुट्टी के दि‍न सब मि‍लकर एलबम नि‍कालकर जरूर देखें।
ब्‍लैक एण्‍ड वाइट फोटो में इस तरह कलर भरकर आप भी खुश हो जाऍगें, मेरा वादा है ये!



(ये तस्‍वीर मेरे छोटे भाई वि‍जय के पास एलबम में थी, जो दूसरे शहर में रहता है। मैंने उससे कहा कि‍ ये तस्‍वीर स्‍कैन करवा के भि‍जवा दो। वैसे तो वह मेरा कोई काम दो-चार दि‍न लेकर आराम से करता है मगर इस काम के लि‍ए वह उसी शाम बाजार गया। उसे अमि‍ताभ की 'बागवॉं' फि‍ल्‍म बहुत पसंद जो है !!)

Wednesday, 5 August 2009

याद जो तेरी आई बहना !!

कि‍तने सावन बीते,
कुछ याद नहीं,
मि‍ला नहीं अबतक,
अवसाद यही!

बरबस ऑंखे भर आई है,
बहना जो तू याद आई है!

ठीक है कि
जिंदगी लंबी नहीं,
बड़ी होनी चाहि‍ए!
पर जीने के लि‍ए उनमें
रि‍श्तों की कड़ी होनी चाहि‍ए।
.........ये कड़ी तू थी बहना!

जब तू नन्हीं थी, न्यारी थी
गोद लि‍ए फि‍रता-इठलाता था
मेरी बहना-मेरी बहना!
कहकर तूझे बहलाता था।

फि‍र जाने कब बड़ी हुई
’पराय घर’ कहकर
जाने को खड़ी हुई।
छुपकर तब......
......मैं रोया था बहना!

याद है तूझको
खेल-खेल में
गि‍रा दि‍या था मैंने।
खून देखकर इतना
मैं घबराया था कि‍तना!
’मैं खुद गि‍री’ मॉं से कह कर
तुमने मुझे बचाया था बहना!

और ऐसी कि‍तनी हैं बातें
जि‍सके लि‍ए तब
माना नहीं अहसान
......आज माना है ये बहना!

अब तू अपने घर
मैं अपने घर
जाने कब बीत गई उमर
....तूने नहीं बताया बहना!

वो गलि‍यॉं छूटी
वो साइकि‍ल टूटी
साथ रही तू इस कदर
पीछे-पीछे परछाई बहना!

गृहस्थ-जीवन की कथा
कह दी यदा-कदा
दि‍न-दि‍न की व्यथा
सहती रही सदा।
.....अब कहॉं कुछ कहती बहना!

सुना है सत्तर की जिंदगी
होती है बहुत बड़ी।
पर सतरह साल तक
बचपन जो संग जि‍या
.........उम्र वही बड़ी थी बहना!

बड़े चाव से खरीदी है
तेरे नाम से राखी बहना!
परदेस में हूँ सो भूल गया-
यूँ न कुछ कहना बहना।

अपने ही हाथों से मैंने
बॉंधी इसे कलाई पर
सच कहूँ मन भर आया
याद जो तेरी आई बहना!

वो अठन्नी दो आने
भींची मुट्ठी खोल दे बहना!
इससे ज्या्दा पैसे दूँगा
प्यार से ‘भैया’ बोल दे बहना!

जी-भर लड़ ले,
कुछ न कहूँगा
पर ये कहे बि‍न
नहीं रहूँगा-
'वो मि‍ठाई का आधा हि‍स्सा
आज भी बकाया है मेरी बहना!'

-जि‍तेन्‍द्र भगत
(अपनी बहन को समर्पि‍त ये कवि‍ता; उसी को याद करते हुए, जो मुझसे काफी दूर रहती है, हर बार राखी भेजती है मगर समय पर पहुँच नहीं पाती:)

Saturday, 18 July 2009

कैसेट !!

एक दि‍न मैं अलमारी साफ कर रहा था। एक कोने में हैलमेट का एक डि‍ब्बा पड़ा था। जब मैंने उसे खोलकर देखा तो समझ नहीं आया कि‍ इसे फेंक दूँ या यूँ ही रहने दूँ। उसमें 1990-97 में रीलीज फि‍ल्मों के हि‍ट कैसेट्स थे।

ये वो जमाना था जब स्कूल-कॉलेज के दि‍नों में रंग, बलमा, कभी हाँ- कभी ना, दी‍वाना, चॉंदनी, लाल दुपट्टा मलमल का, तेजाब, साजन, खि‍लाड़ी, बाजीगर, तड़ीपार, आशि‍की, सलामी, इम्तेहान, चोर और चॉंद, दि‍ल है कि‍ मानता नहीं, जुनून, दि‍ल का क्या कसूर जैसे फि‍ल्मों के गाने लोगों के जुबान पर चढ़े हुए थे।


आज जब 20-30 रूपये के एक एम.पी.थ्री. में 50 से लेकर 150 गाने तक आ जाते हैं तब वे दि‍न याद आते हैं जब इसी कीमत पर एक कैसेट मि‍ला करता था- A साइड में 4-5 गाने और B साइड में भी इतने ही गाने। कम ही फि‍ल्मों में 10 गाने होते थे इसलि‍ए एक कैसेट को संपूर्ण बनाने के लि‍ए चार फॉर्मूले आजमाए जाते थे-
1)हि‍ट गाने को एक बार गायक की आवाज में,
2)उसी गाने को गायि‍का की आवाज में
3) उसी गाने को दोनों की आवाज में
4) उसी गाने का सैड वर्जन।


मेरा ख्याल है यह फॉर्मूला हि‍ट गानों के साथ तो आजमाया जा सकता था लेकि‍न सभी गानों के साथ नहीं। इसलि‍ए बाद के दि‍नों में दो चीजें सामने आईं-

पहली बात तो ये थी कि‍ कैसेट की कीमतों में इजाफा हुआ, वे 35 से 50 रूपये में मि‍लने लगीं। तब भी टी.सीरीज़ की कैसेट सबसे सस्ती हुआ करती थी और एच.एम.वी. सबसे महंगी। बाकि‍यों के नाम तो अब याद करने पड़ेंगे- वीनस,टि‍प्‍स, टाइम और न जाने क्‍या-क्‍या।


दूसरी बात, एक ही कैसेट में दो फि‍ल्मों के गाने रखे जाने लगे। और बाद में तो 3-4 फि‍ल्मों के गाने भी एक ही कैसेट में नजर आने लगे।


इन कैसेट्स को ज्यादा दि‍न तक इस्तमाल न करने पर उनमें सीलन आ जाती थी, रील फँसने का डर रहता था। जो कैसेट बर्बाद हो जाते थे, उसकी रील से मैंने पतंग उड़ाने की नाकाम कोशि‍श भी की थी।


खैर, एम.पी.थ्री. और सीडी, डीवीडी के आने के बाद मनोरंजन संसार में क्रांति‍-सी आ गई और कैसेट्स इति‍हास के पन्नों में दफन होने लगे। हालॉंकि‍ उक्‍त कंपनि‍यॉं घाटे के बावजूद अब भी चल रही हैं।



एक छोटे से कस्बे की सीडी की दुकान से मैं एम.पी.थ्री. पसंद कर रहा था, और मेरे बगल में एक बुजुर्ग महि‍ला कैसेट खरीद रही थी। उसने मुझसे पूछा कि‍ बेटा देखकर बताना ये कैसेट चल तो जाएगा ना! मैंने कैसेट चेक करते हुए यूँ ही पूछ लि‍या कि‍ दादी अम्मा, कैसेट पर इतने पैसे खराब क्यों कर रही हो। सीडी प्लेपयर क्यों नहीं ले लेती?
अम्मा मुस्कुराती हुई बोली- बेटा बात कैसेट की नहीं है, यह उस रि‍कॉर्डर पर चलती है, जि‍से मेरे पति‍ ने खास मेरे लि‍ए खरीदा था, सन् 1980 में!

Friday, 3 April 2009

राह से गुजरते हुए.......

अजनबी हो जाने का खौफ
बदनाम हो जाने से ज्यादा खौफनाक है।
अकेले हो जाने का खौफ
भीड़ में खो जाने से ज्यादा खौफनाक है।

कि‍सी रास्ते् का न होना
राह भटक जाने से ज्यादा खौफनाक है।
तनाव में जीना
असमय मर जाने से ज्या‍दा खौफनाक है।

इनसे कहीं ज्यादा खौफनाक है-
आसपास होते हुए भी न होने के अहसास से भर जाना.........

-जि‍तेन्द्र भगत

( चाहा तो था कि‍‍ ब्लॉग पर नि‍रंतरता बनाए रखूँ, पर शायद वक्त कि‍सी चौराहे पर खड़ा था, जहॉं से गुजरनेवाली हर सड़क मुझे चारो तरफ से खींच रही थी, वक्त‍ के साथ मैं भी बँट-सा गया था...... आज इतने अरसे बाद वक्त ने कुछ यादें बटोरने, कुछ यादें ताजा करने की मोहलत दी है, अभी तो यही उम्मीद है कि‍ वक्त की झोली से कुछ पल चुराकर इस गली में आता-जाता रहूँगा। )

Saturday, 10 January 2009

याद आती रही......

सर्दियों में कुहासे की चादर ओढ़े सुबह की धूप जैसे रेशम-सी नरम होती है, कि‍रणों के रेशे-रेशे में गरमाहट की जैसे एक आहट होती है, वैसे ही इस गॉंव की याद मन में एक कसक के साथ मौजूद रही। जब भी मैं अकेला हुआ, मुझे महसूस होता रहा कि‍ कुछ छूट रहा है........ रह-रहकर आपलोगों की याद आती रही।
ऐसा लग रहा था, जैसे बि‍न बताए घर से नि‍कल गया हूँ परदेश में, अब घर आते हुए महसूस हो रहा है कि‍ कि‍तने समय से बाहर था। गॉंव कि‍तना बदल गया होगा, कई नये लोग आकर बसे होंगें। कई नए घर बने होंगें। कुछ लोगों ने अपना घर ठीक कि‍या होगा, उसे नई तरह से सजाया होगा, कई तरह से सजाया होगा.... कुछ लोग मेरी तरह घर छोड़कर नि‍कल गए होंगे, कुछ लोग चाहकर भी घर नहीं लौट पाए होंगे,...... पर खतों ने गॉव की याद को भूलने न दि‍या........ और इस तरह मैं बरबस लौट आया।
बीते साल कई चीजें नि‍पटाकर आया हूँ। इससे पहले कि‍ उमर के इस पड़ाव पर कुछ कर गुजरने की चाहत दम तोड़ने लगे, मनमाफि‍क मंजि‍ल को पा लेने की तड़प दि‍ल पर बोझ लगने लगे, जीने का हौसला बरकरार रखना चाहता हूँ। नया साल इसी जोश के साथ शुरू कर रहा हूँ।
कुछ देर से ही सही, आप सभी को नए साल की हार्दिक शुभकामनाऍं। आपके घर धमकने ही वाला हूँ कि‍ नए साल पर आपने अपने घर को कि‍स तरह संवारा है
(आप सबकी दुआओं और मशवरों का तहे दि‍ल से शुक्रगुजार हूँ। दि‍सम्‍बर 08 के मध्‍य में दि‍ल्‍ली स्‍थि‍त इस्‍कोर्ट हर्ट हॉस्‍पीटल में मेरे पापा की इंजि‍योप्‍लास्‍टी हुई थी और अब वे बि‍ल्‍कुल ठीक हैं।)

Friday, 17 October 2008

इश्‍क-वि‍श्‍क, प्‍‍यार- व्‍यार, मैं क्‍या जानूँ रे !!

कॉलेज को अधि‍कतर लोग इश्‍क फरमाने की सही जगह मानते हैं। हालॉकि‍ जो कॉलेज नहीं जा पाते, वे ऑफि‍स और पड़ोस में ही कि‍स्‍मत आजमाते हैं। इश्‍क करना कोई गुनाह नहीं है, बशर्ते उसमें बेवफाई ना हो। जब मैं कॉलेज में ‘एडमि‍ट’ हुआ तो पाया, वहॉं इस मर्ज से कई मरीज तड़प रहे थे। कुछ तो घायल अवस्‍था में यहॉ पहुँचे थे और सही दवा की तलाश कर रहे थे। कुछ को सि‍र्फ मामूली बुखार था, मगर उन्‍होंने उसे डेंगू-मलेरि‍या बताया, डॉक्‍टर को उनके खुराफात की खबर हो गई, उनकी दवा ने ऐसा रि‍ऐक्‍ट कि‍या कि उन्‍होंने तो आगे इस मर्ज के नाम से ही तौबा कर ली। इसके बावजूद कई लोग तो कई बीमारि‍यों को गले लगाए बैठे थे, और कहते थे कि‍ अब तो बीमारी के साथ जीने की आदत-सी पड़ गई है। कुछ खास मरीज ऐसे भी थे, जो कार से आकर यहॉं एडमि‍ट हुए थे, इसलि‍ए उनका तुरंत इलाज हो गया। इन्‍हें देखा-देखी कुछ गरीबों को भी अमीरों की ये बीमारी लग रही थी। इस बीमारी का खर्चा-पानी गरीबों के बस की बात नहीं थी; उन्‍हें क्‍या मालूम था कि‍ गरीब रोगी को समाज का कोढ समझकर मार दि‍या जाता है। गरीब समाज में माना जाता है कि‍ बीमार को मार दो, बीमारी अपने आप मर जाएगी।

खैर, मैं तो इस मर्ज से काफी घबराता था और मानता था कि‍ precaution is better than cure. लक्षण के आधार पर मर्ज की पहचान को डायग्‍नोसि‍स (Diagnosis ) कहा जाता है। उमर की खुमारी में जि‍न लोगों को ये रोग लग गया था, मैंने उनका डायग्‍नोसि‍स 1996 में कि‍या था, और इसकी फाइल आपके सामने (एक लाइन छोड़कर) ज्‍यों का त्‍यों रख रहा हूँ-


ऐसी है एक चीज़ जि‍सपे,
लुट जाते हैं लोग,
जि‍सकी कोई दवा नहीं,
इश्‍क है ऐसा रोग।




दर्पण देख-देख मुस्‍काना
अंधों में है राजा काना
खोने पर तो जी घबराना
पाने पर जी-भर इतराना



जुगत लगाते कटते दि‍न
व बेचैनी में कटती रात।
धीर,अधीर या हो गंभीर
बनते-बनते बनती बात।


दि‍न लगती है रात
पतझड़ लगता बहार।
छवि‍ बनाने के चक्‍कर में
देना पड़ता उपहार।



चूड़ी-कंगन की फरमाइश
सब कुछ लुटने की गुँजाइश
एक-दूजे की है अजमाइश
जीने-मरने की भी ख्‍वाइश


नेल,शूज और फेस की पॉलि‍श
कुछ बॉडी-शॉडी की भी मालि‍श
शेव, फेशि‍यल, फैशन व जीम
कार सफारी हो या क्‍वालि‍स।



ड्रेस को हरदम प्रेस कि‍या,
गीफ्ट दे-देके इम्‍प्रेस कि‍या
ऑंखों ही ऑंखों में
भावों को इक्‍सपैस कि‍या।


बात फि‍र भी नहीं बनी,
घरवालों से भी खूब ठनी,
प्रति‍योगी भी कम थे नहीं,
जेब से नि‍कली खूब मनी।


दस लोगों के बीच से छँटके
रह गए थे सबसे कटके
खामोशी का आलम होता
सह न पाये इश्‍क के झटके।


ऑखें सपनो में जो खोई
कब जागी व कब-कब सोई
लाईलाज है मान भी लो जी
इस मर्ज की दवा न कोई।




-जि‍तेन्‍द्र भगत(1996)
(सभी चि‍त्रों के लि‍ए गूगल का आभार)

Sunday, 12 October 2008

पुरानी जींस और गि‍टार.......

अमेरि‍का में 19वीं सदी के मध्‍य में जब मजदूर वर्ग ने जींस को पहले-पहल अपनाया, तब मार्क्‍स भी यह नहीं जानते होंगे कि‍ आनेवाले दि‍नों में यह अमीरों के बीच भी खासा लोकप्रि‍य हो जाएगा। 1930 के दौर में हॉलीवुड में काऊ-बॉय ने जींस के फैशन को और लोकप्रि‍य बनाया। द्वि‍तीय वि‍श्‍व-युद्ध के दौरान अमेरि‍कन सैनि‍क ऑफ-ड्यूटी में जींस पहनना ही पसंद करते थे। 1950 के बाद यह अमेरि‍का में नौजवानों के बगावत का प्रतीक बन गया और वहॉं के कुछ स्‍कूलों में इसे पहनने पर प्रति‍बंध भी लगा दि‍या गया। आगे चलकर यही जींस भारत में मस्‍ती और मौज का पहनावा बन गया। 1990 के दशक से बॉलीवुड में भी इसको लोकप्रि‍यता मि‍लने लगी।


सलमान खान ने तो जींस की नीक्‍कर और फटी जींस को नौजवानों के बीच लोकप्रि‍य बनाया। टी.वी. पर एक ऐड भी आपने जरूर देखा होगा-एक जींस पहनी हुई लड़की चहकती हुई आती है,फटी जींस बि‍स्‍तर पर छोड़कर बाथरूम की तरफ चली जाती है,इस बीच मॉं आती है, फटी जींस देखकर मुँह बनाती है और‍ बड़ी मासूमीयत के साथ सि‍लाई-मशीन चलाकर खुद उस जींस की सि‍लाई कर देती है।
बहरहाल, फर्ज कीजि‍ए,कोई छात्र धोती-कुर्ता पहनकर महानगरीय कॉलेज में आ जाए,तब क्‍या होगा। वैसे कुर्ता-पाजामा के दि‍न अभी नहीं लदे हैं, नेताओं का संरक्षण भी इसे प्राप्‍त है और कुछ छात्र-छात्राओं में भी जींस के ऊपर कुर्ता पहनने का फैशन है।ऐसा माना जाता है कि‍ कॉलेज में जि‍सने जींस पहना है वह लड़का या लड़की मॉड है। हालॉकि‍ मॉड बनने के लि‍ए जींस को पैमाना मानना सही नहीं है। गर्मी हो या सर्दी, जींस पहनने में फैशनपरस्‍तों को तकलीफदेह नहीं लगती। जींस की कुछ खूबि‍यों का मैं कायल हूँ-
1)उसे प्रैस नहीं करना पड़ता, अब तो रिंकल्‍ड जींस भी चलन में आ गया है।
2)जब तक बदबू न आने लगे, उसे धोने की भी जरुरत नहीं पड़ती, कुछ लोग 15-20 बार पहनने के बाद भी उसे धोने से कतराते हैं। उनका कहना है कि‍ इसका मैलापन भी एक फैशन है।
3) ज्‍यादा पहनने पर जींस कहीं से फट जाए(मूल स्‍थान को छोड़कर), तो उसे भगवान की नि‍यामत समझी जाती है, उसकी सि‍लाई करना फैशन के अदालत में गुनाह है। और अगर न फटे तो उसे पत्‍थर से रगड़ा जाता है, साथ ही सुई लेकर सावधानी से उसे जगह-जगह से उधेड़ी जाती है।


हालॉकि‍ मैंने जींस ज्‍यादा नहीं पहना है और पुरानी होने से पहले ही पहनना छोड़ दि‍या था। पर हैदर अली के इस गीत में जींस के साथ कॉलेज के दि‍नों को फि‍र से जीता हुआ देखता हूँ। सि‍गरेट कभी नहीं पी क्‍योंकि‍ खेतों के ऊपर जमी हुई धुंध सि‍गरेट की धुओं से ज्यादा आकर्षक लगती रही है। खेत देखे अरसा हो गया है, अब सर्दियों की धुंध का इंतजार है।

हैदर अली की आवाज में ये मस्‍त गीत सुनने के लि‍ए हम्‍टी-डम्‍टी के पैर के पास क्‍लीक कीजि‍ए, मजा न आए तो समझि‍एगा कि‍ आपका जवॉं दि‍ल इस अहसास में ड़ूबने से चुक गया। इस हालत में आपको आपके जमाने की गीत भी सुनाउँगा- चुप-चुप बैठे हो जरुर कोई बात है.....

Ali Haider - Puran...


जो सुन ना सके, उनकी सहूलि‍यत के लि‍ए इस गीत के बोल लि‍ख देता हूँ-


पुरानी जींस और गि‍टार
मोहल्‍ले की वो छत और मेरे यार
वो रातों को जागना
सुबह घर जाना कूद के दीवार

वो सि‍गरेट पीना गली में जाके।
वो दॉतों को घड़ी-घड़ी साफ
पहुँचना कॉलेज हमेशा लेट
वो कहना सर का- ‘गेट आउट फ्रॉम दी क्‍लास!

वो बाहर जाके हमेशा कहना-
यहॉं का सि‍स्‍टम ही है खराब।
वो जाके कैंटि‍न में टेबल बजाके
वो गाने गाना यारों के साथ
बस यादें, यादें रह जाती हैं
कुछ छोटी,छोटी बातें रह जाती हैं।
बस यादें............

वो पापा का डॉटना
वो कहना मम्‍मी का- छोड़ि‍ए जी आप!
तुम्‍हें तो नजर आता है
जहॉं में बेटा मेरा ही खराब!

वो दि‍ल में सोचना करके कुछ दि‍खा दें
वो करना प्‍लैनिंग रोज़ नयी यार।
लड़कपन का वो पहला प्‍यार
वो लि‍खना हाथों पे ए प्‍लस आर.

वो खि‍ड़की से झॉंकना
वो लि‍खना लेटर तुम्‍हें बार-बार
वो देना तोहफे में सोने की बालि‍यॉं
वो लेना दोस्‍तों से पैसे उधार
बस यादें, यादें रह जाती हैं
कुछ छोटी,छोटी बातें रह जाती हैं।
बस यादें............

ऐसी यादों का मौसम चला
भूलता ही नहीं दि‍ल मेरा
पुरानी जींस और गि‍टार.....

(पोस्‍ट में संगीत लोड करने की प्रक्रि‍या से मैं अनभि‍ज्ञ था। प्रशांत प्रि‍यदर्शी जी का आभारी हूँ, जि‍न्‍होंने मेल के माध्‍यम से मुझे इसकी वि‍धि‍ से अवगत कराया। शुक्रि‍या प्रशांत जी।)
(सभी चि‍त्रों के लि‍ए गूगल का आभार)

Friday, 19 September 2008

मूँछ नहीं तो पूछ नहीं......

स्‍कूल से नि‍कलकर कॉलेज में आया तो यहाँ का फैशन परेड देखकर आश्‍चर्य में पड़ गया। कुछ ही लड़के ऐसे होंगे जि‍नकी नाक के नीचे मूँछें टँगी हो। यहॉं तक कि‍ जि‍न प्राध्‍यापकों की मूँछे नहीं थी, वे भी मुझे अजीब नि‍गाह से देखते थे, एक प्राध्‍यापक तो कहने से भी नहीं चुके-
‘यार, स्‍कूल में ही मूँछे छोड़ आते, इसका भी माइग्रेसन सर्टीफि‍केट बनवा लि‍या था क्‍या!'लडकों के साथ-साथ लड़कि‍या भी हँस रही थी। इतनी बेइज्‍जती सहकर भी मैं चुप था। मेरा एक दोस्‍त सच्‍ची सलाह के लि‍ए जाना जाता था। उसने कहा इसे मुँड़वा दो, बाद में चाहे तो फि‍र रख लेना।
मैने कहा बाप के जीते जी मैं ये कुकर्म नहीं कर सकता।
दोस्‍त को गुस्‍सा आ गया-

‘तो क्‍या यहाँ जि‍तने मुँछमुण्‍डे घूम रहे हैं, उनके बाप मर गए हैं! यार, कि‍स गॉव की बात मूँछ में लपेटकर घूम रहे हो तुम! ऐसे ही रहे तो लोग तुम्‍हारी मूँछों की कस्‍में खाने लगेंगे,अमि‍ताभ बच्‍चन अपने डायलॉग से नत्‍थूलाल को रि‍टायर करके तुम्‍हे रख लेगा- ''मूँछे हो तो जीत्तू लाल जैसी''। बैंक और सुनारों की दुकान के आगे नौकरी लेनी है तो मूँछे बढ़ा!‘

इतनी भी बड़ी नहीं है भाई कि‍ तुम ऐसे ताने मारो- मैने दुखी होकर कहा।
’तो अनि‍ल कपूर की तरह भी नहीं है कि‍ इसे सजाकर घूमो, शीशे में गौर से जाकर देखना,
लगेगा कि‍ ‘गोलमाल’ के राम प्रसाद और लक्ष्‍मण प्रसाद का नकली मूँछोंवाला एक और भाई है। अब यार तेरे साथ चलने में भी बुरा लगता है, तेरी वजह से कोई लड़की मुझे भी भाव नहीं देती!‘
’मैं क्‍या करूँ दोस्‍त, अभी-अभी कोंपलें फूटी है, फलने-फूलने से पहले ही इसे कतर दूँ, ये मुझसे नहीं होता!‘

‘तुम्‍हें कुछ नहीं करना है, सब उस्‍तरे पर छोड़ दो!‘


आखि‍र वो दि‍न आ ही गया। शर्म से अपने पसीने में ही डूबा जा रहा था मैं। शीशे में लगता था मेरे सामने कोई दूसरा आदमी खड़ा है। हर जगह घूमते हुए मेरी अंगुलि‍याँ अक्‍सर ओठों के ऊपर कुछ ढ़ूँढ़ती-सी रहती थी, लोग सोचते थे शायद मनोज कुमार है या कोई चिंतक है।

कोई ये नहीं सोचता था कि‍ मैं अपने खेत में फसल के उजड़ जाने से व्‍यथि‍त हूँ। सि‍र्फ कॉलेज के लोगों को ही मेरे मुँह छि‍पाने की वजह का अंदाजा था।

अपने गुनाह के लि‍ए मन ही मन मैं ईश्‍वर और अपने पि‍ता जी से कई बार माफी मॉंग चुका था। लेकि‍न बाकी लोगों की तरह मैं भी धीरे-धीरे इस आपदा को भूलने लगा कि‍ नाक के नीचे जो ऑंधी आई थी, उसमें सि‍र्फ बाल ही बॉंका हुआ था, कि‍सी और के हताहत होने की कोई सूचना नहीं आई।

(पहली फोटो राज भाटि‍या जी के सौजन्‍य से, शेष के लि‍ए गूगल का आभार)