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Monday 6 December 2010

LUCKnow : by chance (अंति‍म कड़ी)

गाइड हमें लखनऊ के इमामबाड़े से बाहर ले आया क्‍योंकि‍ भुल-भुलैया जाने का रास्‍ता बाहर से था। भूख लग आई थी, पर अब भुलभुलैया और शाही बावली देखने के बाद ही खाने का इरादा बनाया। दोपहर के दो बजे तब धूप का पता ना था और ठंड शाम की तरफ पैर फैला रही थी। भुलभुलैये के पास वही टि‍कट दि‍खाकर हम सीढ़ि‍यों से करीब दो-तीन फ्लोर तक ऊपर चढ़ गए। सामने करीब 6 फुट का गलि‍यारा हर तरफ से नि‍कलता नजर आया।

भुल-भुलैया इमामबाड़े के हॉल के ऊपर ही बना हुआ है जि‍समें अनेक छज्‍जे व 489 द्वारों वाले एक जैसे रास्‍ते हैं।




इस संरचना का उद्देश्‍य मुस्‍लि‍म समाज की धार्मिक आवश्‍यकताओं की पूर्ति व 1784 ई. में हुए वि‍नाशकारी अकाल के दौरान लोगों को सहायता प्रदान करना था।
गाइड ने भुलभुलैये में ले जाते हुए कहा कि‍ ये रास्‍ता याद रखना क्‍योंकि‍ लौटते हुए हमें खुद इसी रास्‍ते से वापस लौटना है। वह उसे ज्‍यादा मुश्‍कि‍ल बता रहा था पर मुझे यह ज्‍यादा मुश्‍कि‍ल नहीं लगा। भुलभुलाये से ऊपर इमामबाड़े की छत से गोमती नदी के तरफ का दृश्‍य काफी सुंदर नजर आ रहा था।




बाहर आने के बाद हम शाही बावली की तरफ चल पड़े। आपको जानकर हैरानी होगी कि‍ ऐसी ही एक बावली दि‍ल्‍ली में कनॉट प्‍लेस के पास भी है-

गाइड ने बताया कि‍ अंग्रेजों से बचने के लि‍ए नवाब ने इसी में खजाने की चाबी गि‍रा दी थी। बाद में अंग्रेज इसका पानी नि‍कालते रहे पर यह बावली खाली ही नहीं होती थी। इसका कारण यह था कि‍ यह साथ बहनेवाली गोमती नदी से सीधे जुड़ी हुई थी।
यहॉ बैठकर बाहर से आनेवाले का रंगीन प्रति‍बिंब देखा जा सकता था, मगर वह खुद दूसरों को नजर नहीं आता।

गाइड को पैसे देकर इमामबाड़े से हम करीब एक घंटे में बाहर नि‍कल आए और बाहर नि‍कलते ही एक सुंदर इमारत रोड के उस पार नजर आई-

वहीं एक टांगेवाला हमें पकड़ लेता है और सुझाव देता है कि‍‍ आप छोटे इमामबाड़े और वहॉं के म्‍यूजि‍यम में जाकर समय खराब करना चाहते हैं तो आपकी मर्जी मगर आप चि‍कन की कढ़ाई की फैक्‍ट्री जाऍं तो ज्‍यादा बेहतर। मैं समझ गया कि‍ यहॉं आगरे के लाल कि‍ले के पास खड़े टांगेवालों का एक जैसा ही हाल है। वैसे इति‍हास के पन्‍नों से बाहर अब हम कला का नमूना देखना चाहते थे। हम तांगे पर बैठकर चल पड़े। सामने ही रूमी दरवाजा था जो इस तरफ से झरोखों से युक्‍त तीन मंजि‍ला दरवाजे के रूप में नजर आ रहा था जबकि‍...

उसपार नि‍कल जाने पर वह एक ऊँचे दरवाजे के रूप में खड़ा दि‍खाई दे रहा था और यही इसकी खासीयत थी-


तांगेवाला हमें बताने लगा कि‍ लखनऊ की‍ छ: चीजें प्रसि‍द्ध हैं-
1.इमामबाड़ा
2. तांगा
3. तहजीब
4. कुंदा कवाब
5.उमरावॅ जान
6. कपड़े पर चि‍कन का काम
आप समझ गए होंगे कि‍ तांगा दूसरे नंबर पर क्‍यों है, बकौल तांगेवाला- यह नवाबों की शाही सवारी थी। कपड़े की दुकान को फैक्‍ट्री बताकर उसने हमें एक जगह उतार दि‍या। दुकान के बाहर खड़े गार्ड ने हमें अंदर आने का आग्रह कि‍या।
हम असमंजस कदमों से अंदर गए और पूछा कि‍ यहॉं चि‍कन कढ़ाई का काम कहॉं चल रहा है। अंदर एक कमरे में एक लड़की बुनाई कढ़ाई का काम कर रही थी। उसके बाद हम दुकान के काउंटर पर गए।
20-25 मि‍नट में हम वापस जाने के लि‍ए ऑटो तलाश रहे थे। या तो हमें इस कला की समझ नहीं थी या ये जगह चि‍कन कढ़ाई की फैक्‍ट्री नहीं थी, या ये लखनऊ नहीं था और सबसे ज्‍यादा हम इस बात से सहमत थे कि‍ अब दि‍ल्‍ली में सबकुछ मि‍लता है और सही कीमत पर।
हजरतगंज लखनऊ का कनाट प्‍लेस है मगर अभी उसकी हालत बि‍गड़ी हुई थी। वहॉं का जनपथ मार्केटिंग के लि‍हाज से ठीक लगी, पर थी बहुत महंगी। शाम हो चुकी थी और ठंड बढ़ने के साथ हम घर पहुँच चुके थे। रात तो लखनऊ मेल से वापस जाने से पहले दोस्‍त के साथ डि‍नर भी करना था। मि‍ला जुलाकर लखनऊ को हम बस इमामबाड़े और दोस्‍त की मेहमानवाजी की वजह से याद रख सकते थे।
कोई ये समझाएगा कि‍ लखनऊ को अंग्रेजी में luck + now = lucknow क्‍यों लि‍खते हैं जबकि‍ होना चाहि‍ए lukhnou या कुछ और....
लगता है लखनऊ में जाते ही luck काम करने लगता है :)

.....क्‍योंकि‍ हमारी ये यात्रा भी रही 'luck' by chance.
पहली कड़ी के लि‍ए यहॉं क्‍लीक करें

आज शाम मैं अपनी पत्‍नी और बेटे के साथ 4 घंटे के लि‍ए शि‍मला-टूर पर जा रहा हूँ। 4 घंटे की टूर से हैरान मत होइए, लौटकर बताउँगा सफर के बारे में।

Sunday 5 December 2010

लखनऊ और बस इमामबाड़ा...( पहली कड़ी )

लखनऊ मेल के टी.टी. ने हमे तब तक कंपार्टमेंट से बाहर टहलने को कहा, जब तक टि‍कट हाथ में ना आ जाए। गाजि‍याबाद में टि‍कट हमारे हाथ में आने के बाद ही हमने राहत की सॉंस ली। मेरे दोस्‍त ने सुबह हमें स्‍टेशन से रीसि‍व कि‍या। घर पहुँचकर हमने नाश्‍ता कि‍या और जि‍स मकसद से आए थे उससे शाम तक नि‍पटा आए। अब ऐसा लग रहा था कि‍ कल की जगह हमें आज रात की टि‍कट करवा लेनी चाहि‍ए थी। पर शाम को जब सब साथ बैठे तो गपशप में समय कैसे नि‍कल गया पता ही नहीं चला।
अगली सुबह हमने लखनऊ देखने का कार्यक्रम बनाया, वो भी रि‍क्‍शा से इमामबाड़े तक जाने का। पता चला एक घंटा लगेगा। मैंने ऑटो कि‍या और 15 मि‍नट में इमामबाड़ा सामने था।
प्रवेशद्वार से अंदर आते ही सामने यह प्राचीन इमारत अपनी ऐति‍हासि‍क दास्‍तॉं बयॉं कर रहा था।

पीछे पलटकर हमने जब प्रवेशद्वार को देखा तो वह और उसके सामने का लॉन कोहरे की उस सुबह में काफी रूमानी अहसास दे रहा था।

हमें कपड़े की मार्केट में भी जाना था, नहीं तो इस पार्क में बैठकर मैं जरूर सोचता कि‍ नवाब आसफ उद्दौला अपनी बेगम के साथ इस बनते हुए इमारत को यहॉं से खड़े होकर कि‍तनी बार देखते रहे होंगे।


वैसे तो ये भी एक प्रवेशद्वार ही था जहॉं से 50 रूपये का टि‍कट लेकर हम अंदर चले आए। अंदर आने के बाद सामने इमामबाड़ा नजर आया-



अब तक हम दो दरवाजे पीछे छोड़ आए थे-



क्‍लोजअप-


बॉंयी तरफ आसि‍फी मस्‍ि‍जद नजर आ रहा था।




इमामबाड़े में प्रवेश करने से पहले जूते उतारने पड़ते इसलि‍ए हमने पहले आसपास घूमना पसंद कि‍या। इमामबाड़े की दी‍वारों को नि‍हारती हुई मेरी बेगम-


अब हम इमामबाड़े की तरफ चल पड़े। वहॉं दरवाजे पर वर्दीधारी गाइड पर्यटकों को अपने रेट समझाने में व्‍यस्‍त थे। हमने 110 रूपये में एक गाइड साथ कर लि‍या जो हमें पहले इमामबाड़ा, फि‍र भूलभुलैया और अंत में शाही बावली की सैर कराता।
हालॉंकि‍ उसे साथ लेने का कोई खास फायदा नजर नहीं आया। प्रवेश द्वार के पास बोर्ड पर कामचलाऊ जानकारी लि‍खी मि‍ल गई थी जि‍सके अनुसार-
नवाब आसफ उद्दौला (1775-97 ई.) के नि‍र्देशानुसार 1784-91 के मध्‍य नि‍र्मित यह भव्‍य संरचना बड़ा इमामबाड़ा के नाम से वि‍ख्‍यात है जि‍सकी रूपरेखा वास्‍तुवि‍द् कि‍फायतुल्‍लाह द्वारा तैयार की गई थी। इस भवन में नवाब आसफ उद्-दौला व उनकी पत्‍नी शमसुन्‍नि‍सा बेगम की कब्रें हैं। इस इमारत में तीन मेहराबों वाले दो प्रवेश द्वार हैं।
इस तरह यह भी पाया कि‍ स्‍मारक के उत्‍तर में नौबतखाना, पश्‍चि‍म में आसफी मस्‍ि‍जद एवं पूरब में शाही बावली है, जबकि‍ मुख्‍य इमामबाड़ा दक्षि‍ण में स्‍ि‍थत है।
इमामबाड़े के अंदर आने पर लगभग तीन मंजि‍ला हॉल नजर आया जि‍सके बारे में तथ्‍य ये है कि‍ बि‍ना कि‍सी सहारे पर टि‍की केन्‍द्रीय हाल की वि‍शाल छत अपने में वि‍श्‍व की अनोखी मि‍साल है जि‍सकी लंबाई लगभग 50 मीटर और चौड़ाई 16.16 मीटर है,जबकि‍ इसकी ऊँचाई लगभग 15 मीटर है।


केन्‍द्रीय हाल के दोनों पार्श्‍वों में भी एक-एक कक्ष है तथा मुख्‍य इमारत का मुखभाग 7 मेहराब-युक्‍त द्वारों से सज्‍जि‍त है। चूने के गारे व लखौरी ईटों से नि‍मिर्मित इस मुख्‍य इमारत की अलंकृत मुंडेरे छतरि‍यों से सज्‍जि‍त हैं जि‍नकी बाहरी सतह पर चूने के मसाले से अदभुत डि‍जाइनें उकेरी गई हैं। इसका भीतरी भाग कीमती झाड-फानूसों, ताजि‍यों, अलम आदि‍ धार्मिक चि‍न्‍हों से सज्‍जि‍त है।


गाइड ने इस हाल के दूसरे छोर पर, जो करीब 50 मीटर की दूरी पर था, खड़ा हो गया और फुसफुसाया, साथ ही माचि‍स की ति‍ल्‍ली जलाई। उसकी प्रति‍ध्‍वनि‍ ऐसी थी जैसे पास ही खडे होकर यही गति‍वि‍धि‍ की गई हो। दरअसल इस हाल की छत पर पतली कि‍नारि‍यॉं बनाई गई है तो माइक का काम करती हैं। हॉल में इकट्ठे लोगों को भाषण साफ-साफ सुनाई दे, इसके लि‍ए200 साल पहले अपनाई गई यह तकनीक काफी वैज्ञानि‍क लगी।


अगली और अंति‍म कड़ी में भुलभुलैया और शाही बावली के बारे में बताऊँगा।

यात्रा ति‍थि‍: 22-23 नवम्‍बर 2010.

Sunday 21 November 2010

बद्रीनाथ-औली यात्रा से वापसी (अंति‍म कड़ी)


ऐसा लग रहा है जैसे स्‍वर्ग से सीढी लगा कर सीधे पर्वतों पर उतर रहे हों, पर्वत एक वि‍राट दरवाजा हो जि‍सके आसपास बड़े-बड़े वृक्ष्‍ा भी हरे-भरे पत्‍तों के समान फैले हुए हों, घास की हरी घाटि‍यॉं तराई में जाकर जैसे सि‍मट रही हो.....
दि‍ल्‍ली की गर्मी से बाहर आने के बाद रोपवे से यह सुंदर पर्वतीय दृश्‍य अचानक आपको और भी हैरान अचंभि‍त कर देगा।
रोपवे टावर नं 10 से टावर नं.8 की तरफ चल पड़ी। वहॉं से पर्वतों का वि‍हंगम दृश्‍य उपर दि‍ए गए उपमान से भी कहीं ज्‍यादा सुंदर है।
मैं यह सोचकर उदास हो रहा था कि‍ ऑली तक कार से आने की वजह से मैं रोपवे का मजा नहीं ले पाउँगा, मगर पता चला कि‍ सुबह-सुबह रोपवे अपने ट्रायल पर टावर नं 10 से टावर नं 8 का एक चक्‍कर लगाती है और अनुरोध करने पर वे बिठा भी लेते हैं। इसलि‍ए हम ऊपर की तरफ टावर नं 8 से पैदल टावर नं 10 के लि‍ए चल पड़े थे। टावर नं 10 करीब एक कि‍मी. दूर दि‍खाई दे रहा था पर वहॉं जाना बेकार नहीं गया।

हम सभी केबल कार से वापस टावर नं 8 पर उतर गए। जोशीमठ से परि‍वार के अन्‍य सदस्‍य 10 बजे तक पहुँचने वाले थे और अभी 8 बज रहे थे।

वे सभी सदस्‍य सीधे टावर नं 10 पर ही उतारे जाते इसलि‍ए हम लोग फि‍र से 8 नं से उतरकर टावर नं 10 की तरफ चल पड़े। हालॉकि‍ वहॉं दुबारा जाने की हि‍म्‍मत नहीं हो रही थी।
रास्‍ते में एक जगह पत्‍थर और टीले नजर आ रहे थे। हमने शैलेंद्र जी को गब्‍बर का रॉल देकर 5 मि‍नट की शोले बनाई- 'कि‍तने आदमी थे' वाला सीन।

टावर नं 10 औली के ऊपरी हिस्‍से पर बना हुआ था। वहॉं एक कैंटीन है जहॉं मैगी जैसी चीज खाने-पीने को मि‍ल जाती है। पर्वतों को नि‍हारते हुए समय थम-सा गया था।

तभी रोपवे से केबल कार आती हुई नजर आई। एक ग्रूप तो आ गया मगर मेरी पत्‍नी, बेटा और कुछ अन्‍य सदस्‍य अगली पारी में करीब आधे घंटे बाद आते। मैं उन्‍हें मि‍स कर रहा था।




मैं सोच रहा था कि‍ औली से 11 बजे तक सब नीचे जोशीमठ ऊतर जाऍंगे और 12 बजे तक दि‍ल्‍ली के लि‍ए रवाना हो लेंगे। रात के अंधेरे में पहाड़ो पर कार चलाने से मैं बचना चाहता था और लेट होने का मतलब था श्रीनगर में रात गुजारना। यानी अगले दि‍न ऋषि‍केश तक फि‍र पहाड़ी रास्‍ता , और तब दि‍ल्‍ली....
सबने आस पास के दृश्‍यों का सपरि‍वार आनंद लि‍या, फोटो खिंचवाये, पर दूर नहीं गए क्‍योंकि‍ जल्‍दी ही सबको वापस लौटना था।

सभी सदस्‍यों के आने के बाद, उनके साथ 20-30 मि‍नट बि‍ताने के बाद मैं नीति‍न, रोहि‍त, अन्‍नू के साथ अपने बेटे इशान को भी लेकर कार तक जाने के लि‍ए पहाड़ से नीचे ऊतरने लगा।



पूरे रास्‍ते इशान को खूब मजा आया। तीन साल का बच्‍चा पहाड़ों की ढलान को पहली बार देख रहा था और उसपर बेलगाम लुढकने के लि‍ए उतारू था। हमें उसे संभालने में काफी मशक्‍कत करनी पड़ी। रास्‍ते में एक बेहद खूबसूरत जगह झूले भी लगे हुए थे।
(नीति‍न के साथ इशान)


हम सभी औली से जोशीमठ 12 बजे तक पहुँच गए मगर खाना-पीना नहीं हुआ था, कि‍सी तरह सभी एक जगह इकट्ठे हुए और फि‍र काफि‍ला चल पड़ा। मैं आगे-आगे चल पड़ा। बस अब एक ही धुन सवार था कि‍ कि‍सी तरह पहाड़ी रास्‍ता पार कर लूँ।
चमोली, कर्णप्रयाग,रूद्रप्रयाग, देवप्रयाग पार करते-करते अंधेरा छा चुका था, और करीब 70 कि‍.मी. का रास्‍ता बचा था। 8 बज गए थे और हमें कि‍सी भी तरह ऋषि‍केश पहँचकर हॉटल लेना था। देवप्रयाग तक नॉनस्‍टॉप ड्राइव करते करते पस्‍त हो चुका था, लेकि‍न नीति‍न रोहि‍त ने रास्‍ते का ख्‍याल रखा और मुझे सावधान करते रहे।
देवप्रयाग पहुँचने पर पता चला कि‍ पीछे से आने वाली दोनो गाड़ि‍यॉं रूद्रप्रयाग में ही रूक रही हैं क्‍योंकि‍ अन्‍नू की तबीयत अचानक काफी खराब हो गई है।
खैर मैं कि‍सी तरह ऋषि‍केश 10 बजे तक पहुँच ही गया। सब मेरी ड़ाइविंग से हैरान थे और मैं थकान से चूर-चूर।
कब खाया, कब सोया कुछ पता नहीं चला।
अगले दि‍न सुबह-सुबह हम ऋषि‍केश से दि‍ल्‍ली के लि‍ए चल पड़े और करीब 2 बजे मैं अपने घर पर आराम कर रहा था।
उस वक्‍त तक काफि‍ले की बाकी दोनों गाड़ि‍यॉं ऋषि‍केश तक ही पहुँच पाई थी.....
(यात्रा समाप्‍त।)

8वीं सदी में आदि‍ शंकराचार्य ने बद्रीनाथ के इस तीर्थ की तलाश की थी। आदि‍ शंकराचार्य मलयाली थे। केरल के नम्‍बुदरी ब्राह्मण बद्रीनारायण मंदि‍र के प्रति‍ बेहद आस्‍थावान है।
हम सभी इस धार्मिक और पर्वतीय यात्रा से गदगद हुए और एक यादगार लम्‍हा जीया।

अब पि‍छली कड़ी में पूछे गए प्रश्‍न का जवाब देता हूँ,क्षमा भी चाहता हूँ कि‍ इस कड़ी का समापन इतने दि‍नों बाद कर रहा हूँ-
पि‍छली कड़ी में मैंने पूछा था कि‍ ऑली की इस तस्‍वीर में यह रास्‍ता कि‍स काम आता है?
यह रास्‍ता स्‍कीइंग के लि‍ए प्रयोग कि‍या जाता है। इन दि‍नों अब बर्फ के कृत्रि‍म फव्‍वारे भी लगाये जा रहे हैं ताकि‍ कम बर्फबारी में स्‍कीइंग के लि‍ए पर्याप्‍त बर्फीला रास्‍ता बरकरार रहे।


पानी का संचय भी इसी लि‍ए कि‍या गया है कि‍ इसे बर्फ के फव्‍वारे बनाने के लि‍ए इस्‍तमाल कि‍या जा सके।


दूसरा प्रश्‍न नीचे दि‍खाई गई इन दो तस्‍वीरों से संबंधि‍त था।







मैंने पूछा था कि‍ ऑली में इन खंभों का इस्‍तमाल कि‍स लि‍ए कि‍या जाता है?
दरअसल स्‍कीइंग के प्रति‍योगि‍यों को ऊँचाई पर लाने-ले जाने के लि‍ए यह कुर्सीनुमा ट्राली है जो रोपवे के माध्‍यम से ऊपर तक जाती है। केबल कार में अधि‍कतम 25 लोग आ सकते हैं जो जोशीमठ से ऑली तक आना-जाना करती है, मगर यह चेयर-ट्रॉली औली में स्‍कीइंग के एक स्‍पॉट से दूसरे स्‍पॉट पर एक सवारी/प्रति‍योगी को लाती-ले जाती है।
अंतर सोहि‍ल और नीरज भाई ने पहले सवाल का जवाब सही दि‍या था।

जाते-जाते याद दि‍लाना चाहुँगा कि‍ औली में एक ही रि‍सॉर्ट है- क्‍लीफ टॉप, इसके अलावा वहॉं और कोई हॉटल नहीं है।
स्‍कीइंग का आनंद उठाने की बड़ी तमन्‍ना है, देखता हूँ क्‍लीफ टॉप में रूकने का कब अवसर मि‍लता है।

पि‍छली कड़ि‍यॉं-

पर्वतों से आज मैं टकरा गया........(भाग 4)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 3)

बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 2)

बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 1)

Tuesday 22 June 2010

पर्वतों से आज मैं टकरा गया........(भाग 4)

बद्रीनाथ से लौटते हुए जोशीमठ में अंधेरा हो चुका था। रात वहीं होटल में रूके। सुबह 4 बजे मैंने नीति‍न को औली चलने के लि‍ए उठाया जो यहॉं से 12 कि.मी. ही दूर था। सोचा था, हम दोनों औली से 10 बजे तक लौट आऍंगे और उसके बाद सभी दि‍ल्‍ली के लि‍ए रवाना हो जाऍंगे। मगर सोचा हुआ होता कहॉं है।

जैसे ही हम दोनों चलने को हुए, शैलेंद्र जी और रोहित- दोनों औली जाने के लि‍ए तैयार मि‍ले। पहले तो इरादा था कि‍ जोशीमठ से रोपवे (केबल कार) के द्वारा औली पहुँचा जाए, मगर 6 बजे ये संभव नहीं था। उसका कि‍राया 500/- प्रति‍ व्‍यक्‍ति‍ था, और वह 9 बजे से आरंभ होता था। बजट और समय- दोनों का नुक्‍सान देखते हुए मैंने कार से ही जाना तय कि‍या। ऊपर सड़क मार्ग खत्‍म होने के बाद 2-3 कि.मी. पैदल चलना पड़ा। कार भी पहले ही खड़ी करनी पड़ी क्‍योंकि‍ रास्‍ते में बड़े गड्ढे और उभरी हुई चट्टानें थी।

वहॉं से हमारे चारो तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ ही नजर आ रहे थे। माना पर्वत,अल गामि‍न, कामेट, मुकुट पर्वत, त्रि‍शूल और नंदा देवी जैसे प्रसि‍द्ध पर्वतीय चोटि‍यॉं के अलावा हाथी-घोड़ा-पालकी और सुमेरू पर्वत सर उठाए खड़े थे। सुमेरू पर्वत का नाम रामायण में आता है, जब लक्ष्‍मण के लि‍ए हनुमान संजीवनी बूटी ढूँढते हुए यहॉं आए थे और इस पर्वत को उठा ले गए थे। इसलि‍ए हैरानी की बात नहीं कि‍ यहाँ के गॉंव में हनुमान की पूजा नहीं की जाती है।

मेरा 5 मेगापि‍क्‍सल का नि‍कॉन कैमरा धुंध में तस्‍वीरें लेने में नाकाम रहा क्‍योंकि उसका ऑटोफोकस खराब हो चुका था। इसलि‍ए जानकारी के लि‍ए गूगल की तस्‍वीरें दि‍खाकर काम चला रहा हूँ।

कंचनजंगा( 8,586 मीटर /28,169 फीट)  के बाद भारत की दूसरी सबसे ऊँची चोटी नंदा देवी ( 7,816 मीटर/25,643 फीट)मेरी दायीं तरफ ऐसी नजर आ रही थी जैसे गाए बैठी हो, वैसे तेवर शेर-चीते सा था-

नन्दा देवी पर्वत ( 7,816 मीटर/25,643 फीट)


ऑली के ठीक सामने त्रि‍शूल पर्वत नजर आता है-

त्रि‍शूल पर्वत (7,120 मीटर / 23,360 फीट)


उसके साथ कामेट और मुकुट पर्वत नजर आ रहा था-


कामेट (7,756 मीटर / 25,446 फीट) 





मुकुट पर्वत ( 7,242 मीटर / 23,760 फीट)




और बायीं तरफ देखने पर बद्रीनाथ की दि‍शा में नीलकंठ नजर आ रहा था।
नीलकंठ (6,596 मीटर / 21,640 फीट)






उसी के आसपास माना पर्वत और अल-गामि‍न भी थे-

माना पर्वत (7,272 मीटर / 23,858 फीट)
अबी गामि‍न (7,355 मीटर / 24,130 फीट)




तुलना के लि‍ए जानकारी दे रहा हूँ कि‍ वि‍श्‍व की उच्‍चतम चोटी एवरेस्‍ट की ऊँचाई 8,848 मीटर / 29,029 फीट है जो नेपाल में है। उसके बाद  के-2 (ऊॅंचाई- 8611 मीटर/ 28251) का नंबर आता है जो पाकि‍स्‍तान में है।


पर्वतों के बीच ईश्‍वर की इस भव्‍य और वि‍शालकाय रचना से अपनी लघुता और छुद्रता- दोनों का अहसास हो रहा था।
इन पर्वतों को देखकर ऐसा लग रहा था मानों ये सीख दे रही हो कि‍ वि‍शाल होना उतना महत्‍वपूर्ण नहीं है, महत्‍वपूर्ण है वि‍शाल होते हुए स्‍थि‍र रहना। इतनी ऊँचाई पर हम सोचते हैं कि‍ हमने पर्वतों पर फतह कर ली। पर सच्‍चाई ये है कि‍ हमने प्रकृति‍ के मूल रूप को सड़क मार्ग, वृक्ष उन्‍मूलन और डैम-निर्माण से रौंद डाला।
इसलि‍ए मुझे कभी-कभी लगता है कि‍ प्रकृति‍ जहॉ सबसे सुंदर नजर आती है, वहीं वह क्रूरतम रूप में प्रकट होकर मनुष्‍यों से प्रति‍कार लेती है। पि‍छले 200 सालों में उत्‍तराखण्‍ड 116 भूकंप झेल चुका है और उनमें सबसे ज्‍यादा वि‍नाश 1803, 1905, 1988 और 1991 में हुआ था।

ऑली लगभग 3000 मीटर की ऊँचाई पर स्‍थि‍त एक बेहद छोटा हि‍ल स्‍टेशन है जहॉं जी.एम.वी.एन. का एक रि‍सॉर्ट क्‍लीफ टॉप ही नजर आता है। इस मकान के अलावा यहॉं रोपवे के टावर और उसके दो स्‍टेशन नजर आते हैं।



पैदल चलते हुए हमने महसूस कि‍या कि‍ यहॉं पशुओं की हडि्डयाँ जहॉं-तहॉं बि‍खरी पड़ी थी। संभवत: ये जानवर बर्फीली ठंड न झेल पाने के कारण मर जाते होंगे।

पार्किंग-स्‍थल के पास गर्म दूध के साथ ब्रेड-बटर खाते हुए पहाड़ों को नि‍हारना अच्‍छा लग रहा था। इस बीच शैलेंद्र जी ने महसूस कि‍या कि‍ इतनी दूर आकर इन दृश्‍यों से बाकी लोग वंचि‍त रह जाऍं, यह ठीक नहीं है। उन्‍होंने फोन कर दि‍या कि‍ रोपवे आरंभ होने पर वे सभी ऑली आ जाऍं। अब वे मेरे ऑली आने के नि‍र्णय से खुश नजर आ रहे थे।

आपको ये बताना है कि‍ ऑली की इस तस्‍वीर में यह रास्‍ता कि‍स काम आता है?


रि‍सॉर्ट के पास टावर नं. 8 का रोपवे स्‍टेशन था। उसके बाद आखरी स्‍टेशन (नं 10) एक कि.मी. ऊपर नजर आ रहा था। हम टहलते हुए वहॉं तक जा पहुँचे।


मैं यह सोचकर उदास हो रहा था कि‍ कार से आने की वजह से मैं रोपवे का मजा नहीं ले पाउॅंगा। इस यात्रा के अगले और अंति‍म भाग में बताऊँगा कि‍ मैं रोपवे की सवारी कर पाया या नहीं!




फि‍लहाल आपको बॉंयी तरफ दो तस्‍वीरें दि‍‍खा रहा हूँ। आपको बताना है कि‍ ऑली में इन खंभों का इस्‍तमाल कि‍स लि‍ए कि‍या जाता है?

क्रमश:

अन्‍य कड़ि‍यॉं-
बद्रीनाथ- औली से वापसी(अंति‍म कड़ी)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 3)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 2)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 1)

Saturday 12 June 2010

बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 2)

सोनि‍या श्रृषि‍केश से 70 कि.मी. आगे देवप्रयाग तक आ चुकी थी और मैं देवप्रयाग से लगभग 40 कि.मी. आगे श्रीनगर में होटल तलाश रहा था।

देवप्रयाग में अलकनंदा नदी और भगीरथी- दोनों का संगम है। यहीं से इनकी धारा मि‍लकर गंगा कहलाती है। देवप्रयाग से श्रीनगर की तरफ मुड़ते ही बद्रीनाथ तक के सफर में अलकनंदा नदी ही मार्गदर्शिका थी!

देवप्रयाग पहुँचने से पहले बोर्ड पर लि‍खी दूरि‍याँ- लोगों का हौसला तोड़ रही थी!


मैं और नीतिन-दोनों श्रीनगर के दो चक्‍कर काट आए। पर अंत में जी.एम.वी.एन.( गढ़वाल मंडल वि‍कास निगम) के टूरि‍स्‍ट बंगले में खाने और रूकने का सही इंतजाम लगा।



बुधवार, करीब साढ़े बारह बजे तब दोनों गाड़ि‍यॉं श्रीनगर आ गई। सबने पहले खाना खाया, उसके बाद ये तय कि‍या गया कि‍ सोनि‍या का यहॉं अकेले रूकना ठीक नहीं है, इसलि‍ए वह बद्रीनाथ तक साथ चले। रही 'उलटी' की बात, दवाई और बाकी चीजें श्रीनगर से खरीद ली गई।

करीब दो बजे हमारा काफिला श्रीनगर से आगे चल पड़ा। अगला मुख्‍य स्‍थल था- रूद्रप्रयाग। यहीं से एक रास्‍ता (एन.एच.109)ओखीमठ, गुप्‍तकाशी होते हुए केदारनाथ के लि‍ए जाता है। सोनि‍या और इशान अब मेरे साथ मेरी कार में थे।

रूद्रप्रयाग से केदारनाथ का 75 कि.मी. का सफर तीन घंटे में पूरा कि‍या जा सकता है, जबकि‍ रूद्रप्रयाग से बद्रीनाथ करीब 165 कि.मी.दूर है और आगे जोशीमठ में एक समय-सीमा के बाद गाड़ि‍यों को रोक दि‍या जाता है। मैंने ये बात सोनि‍या को बताई।

- वैसे तो मैं यहीं से लौट जाना चाहती हूँ मगर केदारनाथ पास है तो वहीं चल पड़ो। क्‍या फर्क पड़ता है!
- फर्क बस उतना ही है जि‍तना शि‍व और वि‍ष्‍णु में है। तुम्‍हारी जि‍धर श्रद्धा हो उधर चल पड़ो!

वह चुप हो गई। शायद उसके मन में कम दूरी की वजह से शि‍वधाम केदारनाथ जाने का इरादा बन रहा था।

- केदारनाथ के लि‍ए गौरीकुंड से 14 कि.मी. पैदल चढ़ाई करनी पड़ती है- कहो तो चल पड़ूँ!
- नहीं-नहीं, फि‍र तो बद्रीनाथ ही ठीक है, कार वहॉं तक चली तो जाएगी न!
- ये तो कार पर नि‍र्भर करती है, वैसे सड़क तो बद्रीनाथ से 4 कि.मी. आ्गे आखि‍री गॉंव माना तक जाती है,जहॉं से आगे चाइना बार्डर है।
- अच्‍छा, तो क्‍या हम चीन के बि‍ल्‍कुल नजदीक जा रहे हैं!!
- हॉं!
- वहॉं से हम कुछ चाइनि‍ज सामान तो खरीद सकते हैं ना!!
- लगता है तबीयत ठीक हो रही है,खरीदारी के नाम पर तो तुम लोग I.C.U. से बाहर नि‍कलने के लि‍ए तैयार हो जाती हो!
- ऐसी बात नहीं है!
सोनि‍या ने मुस्‍कुराते हुए कहा।
- फि‍र ?
- अब तुम्‍हारे साथ हूँ ना, इसलि‍ए तबीयत ठीक लग रही है!


रूद्रप्रयाग से 32 कि.मी. आगे कर्णप्रयाग आता है। नैनीताल की तरफ से आने वाली एन.एच 87 यहीं पर खत्‍म होती है। यहॉं से सड़क काफी चौड़ी हो गई थी और मैं यहॉं कार को औसतन 80 कि.मी. प्रति‍ घंटे की गति‍ से चलाने का जोखि‍म उठा रहा था। मेरे साथ समस्‍या ये है कि‍ जब कि‍सी मंजि‍ल पर पहुँचना होता है तो मुझे बीच में न रूकना अच्‍छा लगता है न ही खाना-पीना।

- तुम्‍हारा व्रत तो बद्रीनाथ में ही खुलेगा, पर हम दीन-हीन प्राणि‍यों पर दया करो,कहीं गाड़ी रोको और नाश्‍ता-पानी कराओ, बच्चा भी साथ है।

- कर्णप्रयाग से बस 16 कि.मी. ही दूर है चमोली। तुम्‍हे पता है इृस जगह की खासि‍यत?

- हॉं , 'कोई मि‍ल गया' की शूटिंग यहॉं हुई थी।

- गलत, यहीं से व्‍यापक स्‍तर पर 'चि‍पको आंदोलन' चलाया गया था।


अलकनंदा नदी सामने से इठलाती आ रही थी, मानो कह रही हो, जल्‍दी जाओ बद्रीनाथ, मैं वहीं से आ रही हूँ!! चमोली में हम आधे घंटे के लि‍ए रूके। तब तक हौंडा सि‍टी और स्‍कॉर्पियो भी चमोली पहुँच चुकी थी।


चमोली से जोशीमठ की दूरी 58 कि.मी. रह गई थी। शाम के 5 बजनेवाले थे, पर जून के पहले हफ्ते में सूरज की तपीश अपने चरम पर थी। पहाड़ तो था, पर ठंड नहीं थी। कुछ लोग इस बात से परेशान थे कि‍ उन्‍होंने गरम कपड़ो से अपने बस्‍ते का बोझ यूँ ही बढ़ाया!

जोशीमठ पहॅुचने के बाद एक-दो जगह बैरि‍यर लगा हुआ था,जहॉं से पुलि‍सवाले गाड़ि‍यों को बायीं तरफ खड़ी करवा रहे थे। मुझसे चुक हो गई या फि‍र पुलि‍सवालों ने मुश्‍तैदी नहीं दि‍खाई, इसलि‍ए मैं उस बैरि‍यर की अनदेखी कर जोशीमठ से एक-दो कि.मी. बाहर निकल आया। मुझे संदेह तो था, इसलि‍ए आगे एक पेट्रोल पंप पर टंकी फुल कराने के बाद पि‍छली गाड़ि‍यों का इंतजार करने लगा।

तभी शैलेन्‍द्र जी का फोन आया कि‍ जोशीमठ में दोनों गाड़ि‍यॉं रोक दी गई हैं,वापस आ जाओ, रात को यहीं हॉटल में रूकना पड़ेगा! मैंने तय कि‍या कि‍ अगर मैं अब बद्रीनाथ नहीं जा सकता, तो जोशीमठ से 15 कि.मी. ऊपर 'औली' हि‍ल स्‍टेशन में रात गुजारूँगा! सुबह वहॉं से उतरकर बाकी दोनों गाड़ि‍यों के साथ बद्रीनाथ के लि‍ए चल पड़ुँगा।

-'आपको अभी रात में ही जाना है तो जाओ, कल सुबह 5 बजे हम सभी आपको वहीं मि‍लेंगे।'

शैलेंद्र जी की इस बात से मैं शर्मिदा हो गया। बाद में पता चला कि‍ औली में बस एक ही रि‍सौर्ट है और वहॉं जाने के लि‍ए दो-तीन कि.मी. पैदल भी चलना पड़ता है।

जोशीमठ में खाना खाते,बच्‍चे के लि‍ए दूध आदि का इंतजाम करते-करते रात बारह बजे बि‍स्‍तर नसीब हुआ। कल सुबह बद्रीनाथ के लि‍ए करीब 44 कि.मी. का सफर तय करना था, यह सोचते हुए मैं नींद के आगोश में चला गया।

पि‍छली कड़ी पढने के लि‍ए क्‍लि‍क करें -
बद्रीनाथ- औली से वापसी(अंति‍म कड़ी)
पर्वतों से आज में टकरा गया (भाग 4)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 3)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 1)क्रमश:

Friday 11 June 2010

बद्रीनाथ : एक रोमांचक सफर (भाग 1)

हरिद्वार में गंगा के घाट पर बैठा मैं सोच रहा था- कहॉं आज सुबह दि‍ल्‍ली की गर्मी में अपने जरूरी काम को नि‍पटा रहा था और अब कहॉं सारे काम छोड़कर कपड़े और पर्स आदि‍ की रखवाली कर रहा हूँ।
शाम हो चली थी।
-'फुफा अब आप जाकर ड़ुबकी लगा आओ। सामान मैं देख लूँगा।'
रोहि‍त ने तौलि‍या उठाते हुए कहा।
मैं अपने तीन वर्षीय बेटे इशान को लेकर डुबकी लगा आया। पानी पहले तो ठंडा लगा फि‍र बाद में ठीक लगने लगा। इशान पहले तो गंगा की लहरें देखकर तैरने की जीद कर रहा था पर पानी में उतरते ही चीखें मारकर रोने लगा। अपने मामा नीति‍न के साथ वह जल्‍दी ही बाहर आ गया।


खैर, गंगा स्‍नान सम्‍पन्‍न हुआ। सम्‍पन्‍न इसलि‍ए कि मेरे ससुराल पक्ष में इस स्‍नान के लि‍ए महि‍नों से कार्यक्रम बन रहा था। मंगलवार की यह रात हरिद्वार के एक होटल में कटी।
अगली सुबह तीनों गाड़ि‍याँ आगे की यात्रा के लि‍ए तैयार हो गई। मैं एसेंट चला रहा था, जो बि‍ल्‍कुल नई थी - मात्र 3000 कि.मी. चली हुई। यात्रा से एक दि‍न पहले ही नीति‍न ने यह गाड़ी अपनी छोटी बहन से माँग ली थी। दूसरे की गाड़ी चलाते हुए मैं वैसे ही हिचकता हूँ और यदि‍ नई गाड़ी हो तो यह हिचक और भी बढ़ जाती है। सुरक्षि‍त आने-जाने के साथ-साथ उसे डेंट से बचाने की चिंता तो रहती ही है।
पहले मेरा इरादा था कि‍ इनोवा बुक करा लेते हैं, पर उसके लि‍ए लगभग 18 हजार का खर्च आ रहा था, और वे सात दि‍न का वक्‍त ले रहे थे। हम सभी का सि‍ड्यूल बहुत टाइट था इसलि‍ए मंगलवार (1 जून 2010) चलकर शुक्रवार को ही दि‍ल्‍ली लौटने की असंभव समय-सीमा तय की गई थी।
1) मंगलवार- दि‍ल्‍ली से हरि‍द्वार 250 कि.मी. (मैदानी रास्‍ता)
2) बुधवार - हरिद्वार से बद्रीनाथ 350 कि.मी.(पहाड़ी रास्‍ता)
3) वीरवार - बद्रीनाथ से हरि‍द्वार
4) शुक्रवार - हरि‍द्वार से दि‍ल्‍ली।

यही कारण है कि‍ तीनों परि‍वार अपनी-अपनी गाड़ि‍यों में चल पड़े।

(नोट: दि‍ल्‍ली से पानीपत का रास्‍ता (एन.एच 1)एकदम मस्‍त है, थोड़ी दि‍क्‍कत अलि‍पुर के आसपास जाम में आती है। पानीपत में फ्लाइओवर के नीचे से दाई तरफ कैराना, शामली होते हुए मुजफ्फरनगर आता है और वहीं से हमें मेरठ की ओर से आनेवाली नेशनल हाईवे 58 मिल जाती है। जी हॉं, ये वही हाइवे है जो हमें हरि‍द्वार, देवप्रयाग, श्रीनगर, रूद्रप्रयाग,कर्णप्रयाग,चमोली, जोशीमठ होते हुए बद्रीनाथ तक ले जाती है।)

श्रृषि‍‍केश के बाद पहाड़ी रास्‍ता शुरू हो जाता है। पहाड़ी रास्‍तों पर ड्राइविंग करना मेरा पैशन है। पर यह कुछ यात्रि‍यों के लि‍ए बुरा अनुभव होता है। मैं जब श्रृषि‍‍केश से देवप्रयाग होते हुए श्रीनगर तक का सफर कर चुका था, तब तक इस कार में बैठे पॉच यात्रि‍यों में से चार लोग 'उल्‍टी' गंगा बहा चुके थे। सि‍र्फ मैं ही बचा था और पहाड़ी रास्‍ते और गंगा की तेज धार के साथ कार चलाने का आनंद ले रहा था। ये भी अजीब संयोग हुआ कि‍ सोनि‍या (मेरी पत्‍नी) अपने मौसेरे भार्इ शैलेन्‍द्र जी के साथ हौंडा सि‍टी में बैठी थी और इशान मेरे साथ। हौंडा सि‍टी अच्‍छी कार है मगर कुछ नीची होने की वजह से उसे ब्रेकर और ऊबड़-खाबड़ रास्‍तों पर बहुत धीरे-धीरे निकालना होता है।
जब मैं दोपहर 11 बजे तक श्रीनगर तक पहुँचा तब मेरे मोबाइल नेटवर्क ने काम करना शुरू कि‍या। घंटी बजी, फोन उठाया तो उधर से गुस्‍से से भरी आवाज आई-
-कहॉं पहुँच गए ?
-श्रीनगर, और तुम लोग ?
-इतनी जल्‍दी है पहुँचने की तो परि‍वार के साथ आने की जरूरत क्‍या थी !! मुझे और भाभी को कई बार उल्‍टी आ चुकी है और तुम्‍हारा फोन भी नहीं लग रहा था!
मैंने पूछा- अभी कहॉं तक पहुँचे हो?
-मैं देवप्रयाग में ही होटल लेकर रूक रही हूँ! तुम और बाकी लोग बद्रीनाथ हो आओ! उधर से लौटोगे मैं यहीं मि‍लूँगी।


यह सुनकर मैं हैरान रह गया! सफर का जोश पल भर में गायब हो गया और जो अब तक महसूस नहीं हो रहा था, अचानक वो थकान भी मुझे ग्रसने लगा। मेरा घुटना जकड चुका था और कमर भी अकड़ चुका था। सोनि‍या के साथ मैं अमरनाथ जैसी कठि‍न यात्रा कर चुका हूँ। उसके बाद से ही उसने तय कर लि‍या था कि‍ वह आगे से पहाड़ी यात्रा कभी नहीं करेगी। वह इस यात्रा में यही सोचकर आई थी कि‍ सभी लोग हरि‍द्वार से ही दि‍ल्‍ली लौट जाऍगे।
अंतत: यह तय हुआ कि‍ देवप्रयाग की बजाए श्रीनगर में रहने की व्‍यवस्‍था अच्‍छी है, इसलि‍ए पहले सभी वहॉं इकटठे होंगे। मेरे पास एकाध घंटे का समय था, जि‍समें मुझे बीमार लोगों के लि‍ए हॉटल ढूँढना था।

क्रमश:

(पहाड़ो पर ड्राइविंग करने का अलग ही आनंद है (और खतरा भी) मगर नुक्‍सान ये है कि‍ आप न पहाड़ देख सकते हैं न ही नदी, अपनी नि‍गाहों को सिर्फ सड़क पर गड़ाए रखनी पड़ती है। सबसे बुरी बात तो ये है कि‍ आप कैमरे में इन दृश्‍यों को कैद नहीं कर पाते! ऊपर की तस्‍वीरें गूगल से साभार)
अन्‍य कड़ि‍यॉं-
बद्रीनाथ- औली से वापसी(अंति‍म कड़ी)
पर्वतों से आज में टकरा गया (भाग 4)
बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 3)

बद्रीनाथ: एक रोमांचक सफर (भाग 2)

Tuesday 4 May 2010

उफ् बुढ़ापा हाय जवानी.........

तुम्‍हें नजर नहीं आता, इस सीट के ऊपर क्‍या लि‍खा है!!
-इस तीखी आवाज को सुनकर मेट्रो ट्रेन में अचानक सन्‍नाटा छा गया। सभी का ध्‍यान उस बूढे की तरफ गया जो उस गरीब-से नौजवान को दहकती ऑंखों से घूर रहा था। उसके बगल में एक बूढ़ा सरदार बैठा था-
हुण् माफ कर दो, मुंडा नादान है। उन्‍नानू त्वानू सीट तो देत्ती।

बूढे ने नौजवान को डॉटते हुए कहा-'वि‍कलांग' से पहले क्‍या लि‍खा है, वह तुम्‍हें नजर नहीं आता!
-मुझे पढ़ना नहीं आता!
इस बात पर बूढ़े को जैसे भरोसा नहीं हुआ और वह लगभग चि‍ल्‍लाने लगा-
-तुम्‍हें पता है, अगर मैं चाहूँ तो अगले ही स्‍टेशन पे पुलि‍स में एरैस्‍ट करवा सकता हूँ, साथ ही तुम्‍हें 200 रूपये का जुर्माना भरना पड़ सकता है।
-मेरे पास टि‍कट है!
-तो क्‍या तू कहीं भी बैठ जाएगा!बता?
पतला-दुबला-सा नौजवान,जि‍सके चेहरे पर लंबी उम्र के मुँहासे जगह-जगह भरे हुए थे, उसने सकपकाते हुए कहा-
-बूढ़े और वि‍कलांग की सीट पर तबतक तो कोई भी बैठ सकता है जबतक कोई बूढ़ा या वि‍कलांग आकर सीट न मॉंगे।
इसपर बूढे ने कहा-
-तो तू इस तरह कैसे बोल रहा था कि‍ पैर तो ठीक नजर आ रहे हैं!!


मेट्रो में खड़ी कुछ अल्‍हड़ लड़कि‍यॉं उनकी बहस सुनते हुए मंद-मंद मुस्‍कुरा रही थीं और बेबात मुस्‍कुरा देने की अपनी छवि‍ से बाहर नजर आ रही थी। उनके अलावा मुझ जैसे कई जवान इस तरह गंभीर बने हुए थे कि‍ ये बूढ़ों की लड़ाई नहीं, मैदान में खेलते हुए बच्‍चों की चि‍क-चि‍क है, इसलि‍ए इसमें पड़ना बेकार है।
दूसरे लोगों ने उस नौजवान से कहा कि‍ वह मेट्रो के अगले दरवाजे की तरफ बढ़ जाए।
वह बूढ़ा गुस्‍से में बड़बड़ा रहा था-
-तुमने इस देश के लिए कि‍या क्‍या है?
वह नौजवान भी बड़बडाते हुए उस जगह से आगे बढ़ गया कि-
मैंने तो झक मारी है पर 'तुमने' इस देश के लि‍ए क्‍या कि‍या है?
बाकी यात्रि‍यों को यह समझ नहीं आया कि‍ सीट न देने पर यह सवाल कहॉं उठता है कि‍ उसने देश के लि‍ए कि‍या क्‍या है।
कि‍सी ने हवा में एक बात उछाली-
सीट दे दो भाई,आजादी की लड़ाई में गॉंधी के पीछे यही तो खड़े थे!
इस पर बूढे को और गुस्‍सा आ गया-
बततमीजी की भी एक हद होती है, नौजवानों की इस पीढ़ी को भवि‍ष्‍य में उसके बच्‍चे ही बेघर, बेसहारा करके छोड़ेंगे।
भीड़ में से कि‍सी ने चुटकी ली-
-लगता है आपको इसी दौर से गुजरना पड़ रहा है!
बूढ़े सरदार ने उसे समझाया-
क्‍यों एक सीट के पीछे अपनी मटि‍या पलि‍त करने पर तुले हो। वह लड़का तो चला गया जि‍से सुनाना था।
उस बूढे का गुस्‍सा और भड़क गया-
आप और उसका साथ दे रहे हो!! यू डोन्‍ट लि‍सन वाट ही सैड- 'पैर तो सही नजर आ रहा है।'
सच ए नॉनसेंस पीपल थ्रोइंग दि‍स कंन्ट्री इन टू दी हेल, यू नो वैरी वेल!!

बूढ़ा सरदार बोला- बट यू डॉन्‍ट आस्‍क फॉर द सीट इन प्रोपर मैनर! अंदर आते ही आपने उसके कंधे को पकड़कर ऐसे उठाया जैसे चोरी करके आया हो!
तभी दूसरी तरफ से कि‍सी बूढे व्‍यक्‍ति‍ की आवाज आई- .... कोई और होता तो ऐसा कहने पर वह उसे एक थप्‍पड़ जड़ देता!

पीड़ि‍त बूढे को यह बात समझ नहीं आई-
थप्‍पड़ कैसे जड़ देता! आपसब लोग अगर गलत का साथ दोगे तो इसी तरह ये नौजवान लड़के सर पर चढ़कर पेशाब करेंगे!
-अरे भाई मैं आप ही के फेवर में बोल रहा हूँ कि‍ आपको उसे एक थप्‍पड़ जड़ना था। पर अब जि‍से सुनाना था, वह तो पि‍छले स्‍टॉप पर उतर गया!
बूढ़ा बड़बड़ाता रहा-
कहता है पढ़ना नहीं आता, ऊपर इशारे कर कैसे बता रहा था कि‍ यहॉं वि‍कलांग लि‍खा है, वृद्ध नहीं!
लोगों को इस बहस से मनोरंजन होने लगा था और वह उस बूढ़े की तरफ इस तरह देख रहे थे कि‍ देखें अब यह क्‍या कहता है!


पॉंच मि‍नट के बाद दूसरे स्‍टेशन पर वह बूढ़ा भी उतर गया। भीड़ छट गई थी और मेरे सामने वो सीट खाली थी, जि‍सके लि‍ए अभी दस मि‍नट पहले इतना तमाशा हुआ था......।

मैंने सीट के ऊपर लि‍खी ईबारत को गौर से पढा-
हिंदी में लि‍खा था- 'वृद्ध एंव वि‍कलांगों के लि‍ए'
जबकि‍ अ्ंग्रेजी में लि‍खा था- 'FOR OLD OR PHYSICALLY CHALLENGED'।
अंग्रेजी की माने तो उस सीट पर या तो वृद्ध बैठेगा या विकलांग जबकि‍ हिंदी के अनुसार वह सीट दोनों के लि‍ए है। 'एंव' तथा 'OR' के फर्क को मेट्रोवालों ने क्‍यों नहीं सोचा?

खैर, प्‍लेटफार्म की लि‍फ्ट से नीचे उतरते हुए एक बूढ़े व्‍यक्‍ति‍ ने मुझे ऐसे देखा, जैसे पूछना चाह रहा हो-
सीढि‍यॉ खराब हो गई हैं क्‍या.........‍???

Saturday 1 May 2010

लैंसडाउन....... फि‍र कभी :(

'जि‍तेन, मेरी कार का शीशा फूट गया है, मैं नहीं जा सकूँगा!'
वि‍जय ने जैसे दो टूक फैसला सुना दि‍या।
मैंने कहा-
-जाना तो सरबजीत के कार से है, तब तक के लि‍ए तू अपने कार पर कवर चढाकर चल पड़!

-नहीं, मेरा मूड ऑफ हो गया है! कल कि‍सी बच्‍चे ने कुत्‍ता भगाने के चक्‍कर में एक पत्‍थर मेरी कार को दे मारा!
इंश्‍यारेंसवाले को दस दि‍न से कह रहा था, पेपर तैयार करा दे-करा दे, पर अब क्‍या होगा, बैठे-बि‍ठाये 6 हजार का चूना लग गया!

यह सुबह की बात थी, तब तो मैंने उसे मना लि‍या था कि‍ जो फूटना था, वो तो फूट चुका, अब सब लोग जब तैयार बैठे हैं, मना मत कर!
शाम होते-होते मैं अपना बैग लेकर तैयार हो गया। मेरा भाई मुझे वि‍जय के पास ड्रॉप करने के लि‍ए साथ चल पड़ा। अंधेरा होने लगा था और आसमान भी साफ था कि‍ तभी तेज हवाओं के साथ ऑंधी आ गई और कार के शीशे पर बूँदे पड़ने लगी। मौसम का ये बदला मि‍जाज कुछ अच्‍छा नहीं लगा! मेरी पत्‍नी बि‍ल्‍कुल ही नहीं चाह रही थी कि‍ इसबार मैं इस टूर पर जाऊॅ। और इस तूफान में मुझे नि‍कलते देखकर वह न जाने क्‍यों, चुप रह गई। वि‍जय ने जाने के लि‍ए हामी तो भर दी थी, लेकि‍न शायद अजमेर से भाभी के रि‍श्‍तेदार इस बीच दि‍ल्‍ली आने वाले थे,इसलि‍ए वह भी आरंभ में थोड़ा वि‍चलि‍त था।

मैंने वि‍जय को फोन लगाया-
मैं मार्केट में हूँ,सफर के लि‍ए कुछ खरीदना है तो बता!
उधर से सुस्‍त-सी आवाज आई-
दो मि‍नट के लि‍ए पहले घर आ जा!
यह कहकर उसने फोन काट दि‍या या शायद कट गया....

मैंने दुबारा फोन कि‍या-
मार्केट दुबारा आया नहीं जाएगा, सुबह चार बजे नि‍कलना है फि‍र जरूरी सामान कब खरीदोगे!
तू एकबार घर आ तो सही, सरबजीत के पापा के पेट में तेज दर्द उठा है!
- यह कहकर उसने फोन काट दि‍या।

बूँदें तेज हो गई। वाइपर चलने के साथ मेरे दि‍माग में सफर का ख्‍याल मि‍टने-सा लगा। मेरे हफ्ते-भर की तैयारी खटाई में पड़ने वाली थी। तैयारी भी क्‍या थी, बस मानसि‍क रूप से जाने के लि‍ए पूरी तरह बेचैन था।

वि‍जय का घर आ गया था, मैंने डोरबेल बजाने से पहले उसके कार के शीशे को चेक कि‍या। शीशा वाकई फूटा हुआ था लेकि‍न इतना नहीं कि‍ उसे बदलवाने की जरूरत पड़े! ये जरूर था कि‍ इंश्‍योरेंस कराने में अब दि‍क्‍कत आती। जब अंदर कमरे में आया तो वि‍जय कि‍चन में खाना बना रहा था। तैयारी के नाम पर कहीं कुछ भी बि‍खरा हुआ नहीं था। मैंने महसूस कि‍या कि‍ ऐसी हालत में अपने गुस्‍से को कैसे काबू करना चाहि‍ए!
मुझे कुछ-कुछ अंदेशा तो हो ही चुका था, इसलि‍ए मैंने अपने भाई को वापस भेजा नहीं कि‍ शायद घर लौटना पड़े। हम दोनों वि‍जय के कमरे में यूँ ही बैठे हुए थे।
थोड़ी देर में वि‍जय कि‍चन से आया और सरबजीत को फोन लगाकर पूछा-
चलना है या नहीं, जि‍तेन आकर बैठा हुआ है.........
यह कहता हुआ वि‍जय अपनी बाल्‍कनी की तरफ चला गया।

वि‍जय ने आकर बताया कि‍ सरबजीत के पापा को अभी दर्द का इंजेक्‍शन दि‍या गया है, अगर दस मि‍नट में हालत सुधरती है तो सरबजीत चल पड़ेगा अपनी गाड़ी लेकर!

पॉंच मि‍नट तब मैं सकते में बैठा रहा, फि‍र अपने भाई को बोला-
चलो घर चलते हैं। सरबजीत के पापा अगर दस मि‍नट में ठीक हो भी गए और जाने के बाद दुबारा दर्द उठा तो उसके जि‍म्‍मेदार हम सब होंगे। वैसे भी सरबजीत उनका इकलौता लड़का है, उन्‍हें पड़ोसी के सहारे छोड़कर घूमने जाने की बात शर्मनाक है!!
वि‍जय ने ये सब सुना, पर बोला कुछ नहीं।

मैं बारि‍श की बूँदो को देखता हुआ घर आ गया। सिरदर्द में अब तक आराम नहीं हुआ था हालॉकि‍ मौसम बहुत सुहाना हो चुका था। जि‍स चीज को पाने के लि‍ए मैं दि‍ल्‍ली से बाहर जाना चाहता था, अब वह यहीं नजर आ रहा था.......... अपने दि‍ल को और कैसे तसल्‍ली देता........ सोच रहा हूँ सरबजीत के पापा से मि‍लने कल जाऊँगा।

(शीशा हो या दि‍ल हो, आखि‍र.....)

अंतर सोहि‍ल,नीरज जाट,मुनीश जी,सुजाता जी और मुन्‍ना पांडेय ने मेरे सफर का जो खाका तैयार कर दि‍या था,
मुझे अफसोस है कि‍ मैं अमल नहीं कर पाया! मैं इन सबका आभार व्‍यक्‍त करता हूँ और महसूस करता हूँ कि‍ ऐसे इवेंट पर ब्‍लॉग कि‍तने काम की चीज होती है! बाकी सब लोगों ने जो शुभकामनाऍं दी हैं, उन्‍हें मैं वापस नहीं करूँगा और जल्‍दी ही दुबारा जाने का प्रोग्राम बनाऊँगा!

Tuesday 27 April 2010

लैंसडाउन! मैं आ रहा हूँ...........

सफर के नाम पर ही मैं रोमांच से भर जाता हूँ! अभी-अभी नीरज जी मुंबई के पास का एक हि‍ल स्‍टेशन 'माथेरान' घूमकर आए हैं। पि‍छली बार मसूरी यात्रा वाली पोस्‍ट पर अनुराग जी ने लैंसडाउन का जि‍क्र कि‍या था। उसके बाद से मैं अपने एकमात्र यायावर दोस्‍त वि‍जय की हामी का इंतजार कर रहा था जि‍से साल में सि‍र्फ एक बार मई में ही फुर्सत मि‍लती है। फुर्सत इसलि‍ए कि‍ उसकी बीवी, यानी मेरी भाभी जी बच्‍चे को लेकर मायके (अजमेर) चली जाती है:)
डि‍जलवाली इंडि‍का का इंतजाम हो चुका है। उसकी लाइट, ब्रेक,टायर आदि‍ चेक करवाई जा रही है। वि‍जय ने साफ-साफ कह दि‍या है कि‍ खर्चा ज्‍यादा नहीं होना चाहि‍ए! और ये भी कि‍ पास के हि‍ल स्‍टेशन पर जाना है और दो दि‍न में लौट आना है। मैंने कहा दो दि‍न में कुछ भी देखा नहीं जाएगा और इस बार नई जगह जाना है तो रहने-खाने का कुछ सि‍स्‍टम पता भी नहीं है। इसलि‍ए न खर्चे की लि‍मि‍ट बता सकता हूँ और न ही दि‍न की!
मि‍ला-जुलाकर मैंने वि‍जय और बाकी तीन और सहयात्रि‍यों को सहमत करा लि‍या है कि‍ सफर में दो नहीं चार-पॉंच दि‍न लग सकते हैं। 1 मई की सुबह चलेंगे और 5 मई की शाम तक दि‍ल्‍ली वापस। वि‍जय ने तीन सहयात्री इसलि‍ए लि‍या है कि‍ सफर का मजा चार गुना कि‍या जा सके, साथ ही खर्चे पॉच हि‍स्‍से में बॉंटा जा सके। अब मैं ये नहीं बता सकता कि‍ वि‍जय के लि‍ए इसमें पहला कारण महत्‍वपूर्ण है या दूसरा:)

डलहौजी,खज्‍जि‍यार, धर्मशाला , मैक्‍लॉडगंज, मनाली की दूरी की वजह से और मसूरी शि‍मला, नैनीताल से बोर होने के बाद, और अनुराग जी के सुझाव पर इसबार लैंसडाउन जाने का रि‍स्‍क ले रहा हूँ:)
जब ऐसी जगह जाना होता है तो मैं सबसे पहले गूगल मैप (लिंक के लि‍ए क्‍लि‍क करें) से रास्‍ते और दूरि‍याँ पता करता हूँ।

सफर का रूट:
क) दि‍ल्‍ली-पानीपत-शामली-मुजफ्फरनगर- रूड़की- हरिद्वार
ऋषि‍केश- देवप्रयाग- श्रीनगर
ख) श्रीनगर- खि‍रसू-पौड़ी-लैंसडाउन
ग) लैंसडाउन- दुगादा- कोटद्वारा-नजीबाबाद -बि‍जनौर- मवाना- मेरठ- दि‍ल्‍ली

खाना खाते हुए मैं हमेशा ध्‍यान रखता हूँ कि‍ सबसे स्‍वादि‍ष्‍ट चीज अंत में खाउँ ताकि‍ उसका स्‍वाद खाने के बाद भी बना रहे। इसी आधार पर अब मेरे मन में उलझन ये है कि‍ मैं दि‍ल्‍ली की ओर लौटते हुए ऋषि‍केश-पानीपत की तरफ से आउँ या लैंसडाउन-मेरठ की तरफ से। मैंने अपने दोस्‍तों से पूछा कि‍ वे पहले नदी की घाटि‍यों से गुजरकर हि‍ल स्‍टेशन जाना चाहेंगे या इससे ठीक उलटा रास्‍ता तय करेंगे। उन्‍होंने मेरे ऊपर छोड़ दि‍या है और अब यह जि‍म्मेदारी ही मेरी समस्‍या है। यदि‍ सफर का रास्‍ता मजेदार नहीं रहा तो सब दि‍ल्‍ली लौटकर मुझे गालि‍यॉं देंगे:(

पौड़ी से एक रास्‍ता श्रीनगर की तरफ जाता है, पर मैंने एक और हॉल्‍ट तय कि‍या है- खि‍रसू। सुना है वह भी एक सुंदर हि‍ल स्‍टेशन है। अब वहॉं जाकर ही पता चलेगा कि‍ वह जगह कैसी है?
लैंसडाउन की तरफ से खि‍रसू आना हो तो-
क) लैंसडाउन- गुमखल- सतपुली-बानाघाट-मोहर-पौड़ी
ख) पौड़ी- बाबूखल-फरकल-चौबाटा- खि‍रसू

(मैप को बड़ा करने के लि‍ए कृप्‍या उसपर क्‍लि‍क करें)


गूगल अर्थ से मैंने पौड़ी- खि‍रसू-श्रीनगर का रूट-मैप तैयार करने और रास्‍ता तलाशने की कोशि‍श की, पता नहीं ये सही भी है या नहीं -
खि‍रसू-कोठसी-मारकोला-बुधानी
बुधानी से दो रूट नजर आया-
क) श्रीनगर हाइवे 58 पर
ख) सुमारी- खल्‍लू- चमरडा- खंडा- श्रीनगर


अभी ये सफर का ड्राफ्ट भर है। इसमें दर्शाए गए मार्ग की सत्‍यता मेरे द्वारा प्रमाणि‍त नहीं है क्‍योंकि‍ मैं एक तरफ ऋषि‍केश तक गया हूँ, दूसरी तरफ मेरठ तक। मेरठ से लैंसडाउन तक और ऋषि‍केश से श्रीनगर-पौड़ी-खि‍रसू तक के रास्‍ते के बारे में मुझे कुछ पता नहीं है। अगर इस रूट के बारे में आपको कुछ पता हो तो जरूर बताएँ- जैसे, सही रास्‍ता क्‍या है/ सड़कें कैसी हैं/ आसपास देखने की और कोई जगह/ रूकने और खाने की सही जगह। बाकी जब मैं उधर से लौटुँगा तब इस सफर के अनुभव और रास्‍ते की स्‍थि‍ति‍ का ब्‍योरा दूँगा।
तो बोलि‍ए हैप्‍पी जर्नी:)

Friday 23 April 2010

टक-टक.............

मोबाइल पर मुझे होल्‍ड पर रखकर वो कि‍सी से कह रही थी-
'रख लो बाबा, कोई बात नहीं।'
पीछे सब्‍जी-मंडी का शोर मुझे सैलाब-सा लग रहा था-
टमाटर तीस-टमाटर तीस-टमाटर तीस
गोभी बीस-प्‍याज बीस
धड़ी सौ-धड़ी सौ..........
मैंने चि‍ल्‍लाकर कहा-
-मेरा बी.पी. लो हो गया है, वहॉं से जल्‍दी नि‍कलो!!
यह कहकर मैंने फोन काट दि‍या।

स्‍ट्रीट लाइट के नीचे मैंने कार के लि‍ए कि‍सी तरह जगह बनाई। बंद कार में मेरा दम घुट रहा था और बाहर शोर, प्‍याजनुमा बदबू के साथ मि‍लकर वातावरण में पूरी तरह फैला हुआ था। एकदम भड़भडाता-सा बाजार अपने लौ में बहा जा रहा था। वहॉं सभी लोग कि‍सी-न-कि‍सी काम में व्‍यस्‍त थे-कहीं लोग गोल-गप्‍पे खा रहे थे, कहीं लोग मोल-भाव में जुटे थे,कोई खाली नहीं था..... सि‍वाये मेरे।
' सब्‍जी अकेले जाकर लाया करो, न मुझे भीड़ अच्‍छी लगती है न इंतजार!'
'कॉफी पि‍ओगे'- उसने मुस्‍कुराकर पूछा।
-'इस मंडी में तुम मुझे कॉफी पि‍लाओगी'
सी.सी.डी.* भी चल सकते हैं।
-माफ करो, वहॉं की महंगी काफी से घर की दाल भली। तुम फि‍जूलखर्ची बंद करो, अब मैं पैसे का हि‍साब लेना शुरू करूँगा।
मेरे पति‍देव,कॉफी 'लो बी.पी.' को कंट्रोल करती है, इसलि‍ए कह रही हूँ'
-उसने अपने रूमाल से मेरे सर का पसीना पोंछ दि‍या।

मैंने ड्राइव करते हुए पूछा-
फोन पर कि‍सी बाबा से बात करते सुना, कोई भीखारी था क्‍या?


-नहीं, एक बूढ़ा बाबा था। मैं आम खरीद रही थी तो देखा कि‍ वह बूढ़ा बाबा एक आम हाथ में लि‍ए दुकानदार से पूछ रहा है ये एक आम कि‍तने का है?
दस रूपये!
यह कहकर दुकानदार दूसरी तरफ व्‍यस्‍त हो गया।
उसने दबी हुई आवाज से कहा-
पॉंच रूपये में दोगे?
दुकानदार ने सुना नहीं तब उसने दुबारा कहा, तब भी दुकानदार तक उसकी आवाज पहुँची नहीं या उसने जानबूझकर अनसुना कर दि‍या। वह थोड़ी देर तक हाथ में आम को देखता रहा और वापस आम के ढेर पर रखकर आगे चल पड़ा।
गाड़ी रेडलाइट पर आकर खड़ी हो गई। कार के शीशे पर सि‍क्‍के से कि‍सी ने जोर से टक-टक की आवाज की। मैंने घूरकर उस लड़की की तरफ देखा जि‍सकी गोद में एक मरि‍यल-सा बच्‍चा टंगा पड़ा था। मेरी बेरूखी देखकर वह दूसरी कार की तरफ बढ़ गई।
कार चलते ही मैंने पूछा-
बूढ़े बाबा की बात पूरी हो गई?
नहीं, जब मैंने देखा कि‍ वह बाबा बड़ा मायूस होकर आगे चला गया तो मुझे बहुत तकलीफ हुई।
मैंने दुकानदार से कहा कि‍ उस बाबा को बुलाओ और दो कि‍लो आम तौलकर दे दो। पैसे मुझसे ले लेना।
दुकानदार तपाक से उसे बुला लाया। बाबा ने मुझसे कहा कि‍ मुझे इनमें से सि‍र्फ दो ही आम चाहि‍ए, मेरे पोते को आम बहुत पसंद है पर मेरे पास सि‍र्फ पॉंच रूपये ही थे।
मैंने कहा- बाबा आप सारे आम ले जाओ। बाबा ने जैसे अहसान से दबकर आभार जताया। तभी तुम्‍हारा फोन आया और तुम बड़बड़ कर रहे थे।
मुझे क्‍या पता था कि‍ तुम आम बॉट रही हो!
मैंने उसके चेहरे की तरफ देखा, उसके चेहरे पर सकून की एक आभा चमक रही थी।

अगली रेडलाइट पर कार की खि‍ड़की पर फि‍र टक-टक की आवाज हुई........
लेकि‍न तबतक ग्रीन लाइट हो चुकी थी।

* सी.सी.डी.= cafe coffee day
(चि‍त्र गूगल से साभार)

Saturday 3 April 2010

शहर के चौक पर टखना सिंह

टखना सिंह ने अपने दोस्‍त करेजा से पूछा-
मुझे शहर जाना है हर संडे!
करेजा सिंह लगभग हर संडे हास्‍टल से भागकर फि‍ल्‍म देखने शहर जाता था और कभी पकड़ा भी नहीं गया।
क्‍या फि‍ल्‍म देखनी है?
नहीं!
किसी रि‍श्‍तेदार के घर जाना है?
नहीं!
कि‍सी लड़की से मि‍लना है क्‍या?
अरे नहीं भाई!!
उसे कोई बहाना भी नहीं सूझ रहा था कि‍ क्‍या कहे! उसने ये कहकर टाल दि‍या कि‍ बाद में बताऊँगा।
उस हॉस्‍टल का कानून हॉस्‍टल-परि‍सर से बाहर जाने की इजाजत नहीं देता था। टखना सिंह तब दसवीं क्‍लास का छात्र था और उसके उपर इसका भी काफी दबाव था।

शहर के चौक पर टखना का यह पहला संडे था। वह एक लाचार बुढि‍या को तलाश रहा था जि‍से वह रास्‍ता पार करा सके। वह एक ऐसे भूखे-गरीब को तलाश रहा था जि‍सने दस दि‍न से कुछ न खाया हो। दो-चार भीखारी उसे मि‍ले पर टखना को उनपर वि‍श्‍वास नहीं हुआ।
सुबह का एक घंटा इसी तलाश में नि‍कल गया। फि‍र उसने सोचा कि‍ कि‍सी रि‍क्‍शेवाले की मदद कर दे। दो चार रि‍क्‍शेवाले गुजरे भी लेकि‍न उनके रि‍क्‍शे पर कोई वजनदार सामान भी नहीं रखा था। दोपहर होते-होते वह नि‍राश हो चला था कि‍ तभी एक रि‍क्‍शे पर उसे भारी-भरकम सामान नजर आया। वह भागकर उसके पीछे पहुँचा और धक्‍का लगाने लगा। रि‍क्‍शेवाले ने रि‍क्‍शे का ब्रेक लगा दि‍या और पीछे मुड़कर चि‍ल्‍लाया-
अबे कौन है बे, क्‍या नि‍काल रहा है कट्टे से??
टखना ने सकपकाकर कहा
- कुछ नि‍काल.. नहीं रहा.., मैं तो वजन देखकर.. आपकी मदद के लि‍ए... आया था।
-भाग जा यहॉं से, मदद के नाम पे चले हैं चोरी करने!

चौक पर आते-जाते दो-चार लोगों ने चोरी की बात सुनी। आज संडे था और सब लोग कि‍सी शगूफे की तलाश में थे।
तभी उस चौक का एक दुकानदार आकर बोला-
-यह लड़का सुबह से मेरी दुकान के आगे न जाने कि‍स मतलब से खड़ा था। मुझे भी शक है इस पर।

बात हो ही रही थी कि‍ कि‍सी ने उसे एक थप्‍पड़ जड़ दि‍या। कि‍सी ने बढकर कॉलर पकड़ लि‍या।
तभी एक आदमी भीड़ चीरकर उस तक पहुँचा और बोला-
-अरे टखना, तू यहॉं क्‍या कर रहा है?
-मास्‍टर जी मुझे बचाइए!!
मास्‍टर जी ने सबको समझा-बुझाकर वहॉं से भेजा और टखना का कान पकड़कर स्‍कूल ले आए।
उसके बाद टखना ने उस कि‍ताब को जला दि‍या जि‍समें लि‍खा था-
कि‍सी की नि‍:स्‍वार्थ भाव से मदद करो तो जो आत्‍मि‍क खुशी मि‍लती है- उसे बयॉं करना आसान नहीं!!
टखना को लगा कि‍ इस अनुभूति‍ को भी बयॉं करना आसान नहीं है। उसने समझ लि‍या कि‍ हर दि‍न या कम से कम हर संडे कि‍सी लाचार की मदद करने का ख्‍याल दि‍मागी दि‍वालि‍येपन की नि‍शानी है।
करेजा सिंह शाम को सि‍नेमा देखकर लौटा और पूछा-
कैसा रहा संडे?

Saturday 27 March 2010

कलर्ड बनाम ब्‍लैक एण्‍ड वाइट

'थोड़ा और सटकर खड़े हो जाइए!'
'थोड़ा और.......'
कैमरे का फ्लैश अब तक शांत था।
'भाई साब् बस थोड़ा-सा और। अपना सि‍र भाभी जी की तरफ झुकाइए, भाभी जी आप भी।'
अब भी फ्लैश नहीं चमका।
'अब मुस्‍कुराइए, एक इंच और, हॉ.......'
पर अब भी फ्लैश नहीं चमका।
मैं खीज गया, कहा-
'ये फोटो कि‍सी ऑफि‍स में देना है भाई, तुम तो फोटो इतना रोमांटि‍क बना रहे हो जैसे बेडरूम में लगाना हो!'

कैमरामैन के दॉंत चमके , पर फ्लैश अब भी नहीं चमका। मेरे सामने स्‍टैंड पर दो-तीन लैंप जगमगा रहे थे, वह उसका फोकस ठीक करने लगा। श्रीमती ने छेड़ा- कमर पर हाथ रखा हुआ है, फोटो में ये भी आएगा क्‍या?
मैंने बनावटी गुस्‍से में कहा-

-'कैमरा आगे है, पीछे नहीं!!'

क्‍या होता है न कि‍ शादी के कुछ सालों या कुछ महि‍नों तक ऐसा खुमार छाया रहता है जैसे सारे फोटो इस पोजीशन में लि‍ए जाएँ जि‍ससे लगे कि‍ हम एक-दूसरे के लि‍ए ही बने हैं और हमारी हर अदा और हर पोज में जबरदस्‍त प्‍यार छलक रहा हो! पर अब, जब हमारा तीन साल का बेटा अपनी नानी के साथ घर में हम दोनों के आने का इंतजार कर रहा हो, तो ऐसा लगता है कि‍ चि‍पककर खड़े रहने की अच्‍छी जबरदस्‍ती है यार!
अचानक फ्लैश चमका। फोटो खिंच चुकी थी। आज श्रीमती को गर्लफ्रेंड होने का सा आभास हो रहा था पर मैं अपने ब्‍यॉय-फ्रेंडीय छवि‍ को जाहि‍र नहीं करना चाहता था। मैं चाहता था कि‍ लोग मुझे इसका पति‍ ही समझे, कुछ और नहीं।
समाज भी कि‍तने ड्रामे करवाता है पता नहीं!!

कैमरामैन ने मायूसी से मुझे टोका-
'जी आपकी ऑंखे बंद हो गई है, फोटो दुबारा लेना पड़ेगा।'

लो, फि‍र से वही घटनाक्रम दुहराया जाएगा- चि‍पको जी, फि‍र झुको जी, फि‍र मुस्‍कुराओ जी!

अंदर से तो मैं भी इसका आनंद ले रहा था मगर पत्‍नी को खुशी दि‍खा दी तो समझो मार्केट में दो-तीन घंटे और घूमना पड़ सकता है!
शादी के बाद ये पहला मौका था तब हम इस तरह फोटो खिंचवाने आए थे। फोटो तैयार होकर 15 मि‍नट में मि‍ल गई। मेरे हाथ में जब ये कलर्ड फोटो आया तो अचानक ही मेरे जेहन में एक ब्‍लैक एण्‍ड वाइट तस्‍वीर कौंध गई! उस तस्‍वीर में मेरे मम्‍मी-पापा यूँ ही सटकर खड़े हैं और यूँ ही वे (एक-दूसरे की तरफ? ) झुके हैं और हॉं.. मंद-मंद मुस्‍कुरा भी रहें है!



1975-80 के आसपास ली गई ये तस्‍वीर न जाने कि‍स स्‍टूडि‍यो से ली गई होगी, कभी पूछूँगा। ये भी पूछूँगा कि‍ वे कि‍स तरह तैयार होकर स्‍टूडि‍यो तक गए होंगे। इति‍हास इस तरह सजीव हो जाता है मानो कल-परसो की ही बात हो! सभी लोगों के पास यादों की ऐसी सौगाद तस्‍वीरों में जरूर मौजूद होती है। आप लोगों के पास भी ऐसी कोई तस्‍वीर जरूर मि‍ल जाएगी। अगर आपको अपना एलबम नि‍काले करीब साल भर हो गया है तो छुट्टी के दि‍न सब मि‍लकर एलबम नि‍कालकर जरूर देखें।
ब्‍लैक एण्‍ड वाइट फोटो में इस तरह कलर भरकर आप भी खुश हो जाऍगें, मेरा वादा है ये!



(ये तस्‍वीर मेरे छोटे भाई वि‍जय के पास एलबम में थी, जो दूसरे शहर में रहता है। मैंने उससे कहा कि‍ ये तस्‍वीर स्‍कैन करवा के भि‍जवा दो। वैसे तो वह मेरा कोई काम दो-चार दि‍न लेकर आराम से करता है मगर इस काम के लि‍ए वह उसी शाम बाजार गया। उसे अमि‍ताभ की 'बागवॉं' फि‍ल्‍म बहुत पसंद जो है !!)