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Saturday 27 June 2009

जाऍं तो जाऍं कहॉं........

ऐसा लगने लगा है मनुष्य ने जहॉं-जहॉं पॉंव रखा है, वहॉं-वहॉ की प्रकृति‍ नष्ट हुई है। शि‍मला जाने का मन नहीं करता, न नैनीताल, अब हम प्रकृति के अनछुए प्रदेशों की तलाश में पहाड़ों को रौंद रहे हैं। वहॉं का पर्यावरण पर्याप्त दूषि‍त हो चुका है, हम अपने शहर से गाड़ि‍यों का शोर और धुँआ साथ ले जाते हैं और चि‍प्स,कुरकुरे आदि‍ की थैलि‍याँ,पॉलीथीन, प्‍लास्‍टि‍क-बोतलों का कचरा वहॉं इकट्ठा करते रहते हैं। शि‍मला( बेतहाशा बढ़ते मकानों/होटलों के बीच पहाड़ कहीं नजर आ रहा है!!)

एक सच्चा सैलानी वही है जो प्रकृति‍ से कम-से-कम छेड़छाड़ कि‍ए बि‍ना वहॉ का आनंद लेकर लौट आए।‍ प्लास्‍टि‍‍क की बोतलें और पॉलीथीन सुनि‍श्चि‍‍त जगह पर ही फेंके। जगह न मि‍ले तो उसे शहर के कूड़ेदान में डालने के लि‍ए अपने साथ ले आए। इसमें ऐतराज क्‍यों!! आप अपने गंदे कपड़े धोने के लि‍ए घर नहीं लाते क्‍या! उन्‍हें बाहर तो नहीं फेंकते ना!
यह तो अपनी जि‍म्मेदारी की बात हुई, लेकि‍न वहॉ की सरकार को क्या कहा जाए! एक दशक पहले शि‍मला(कुफ्री), मसूरी (गन हि‍ल)आदि‍ पहाड़ी वादि‍यों में प्राकृति‍क कोलाहल था, अब म्यूजि‍कल हलाहल है। तमाम जंगल उखाड़कर वहाँ जहॉं-तहॉं बच्चों के झूले, रेलगाड़ी आदि और तमाम तरह के‍ लौह उपकरण खड़े कर दि‍ए गए हैं। हर स्टॉल पर धमाकेदार संगीत आपको वहॉं से भागने के लि‍ए हंगामा बरपा रहे हैं (हैरानी तो तब हुई, जब सहस्रधारा (देहरादून) के पास भी ऐसा नजारा दि‍खा। वहॉं पर एक सेकेण्डर भी रूकने का मन नहीं हुआ।)
हम पहाड़ो पर जाकर अपनी तरफ से भी सफाई का ध्यान रखें तो वह भी कम नहीं होगा। अगर एक समूह ऐसी जगह कि‍सी टूर पर जाता है और खुद प्लास्टीक की बोतलें और पॉलि‍थीन आदि‍ इकट्ठा करने की हि‍म्मत दि‍खाता है तो लोग इस पहल की प्रशंसा ही करते हैं और शायद आपके इस मुहि‍म में कई लोग तत्काल शामि‍ल भी हो सकते हैं। यह न केवल अपने बच्चों के लि‍ए एक हि‍ल स्टेशन बचाने की कोशि‍श है बल्कि‍ पूरी पृथ्वी को स्वच्छ रखने में आपका यह आंशि‍क सहयोग अनमोल साबि‍त होगा। एक बार करके तो देखि‍ए, खुशी मि‍लेगी।
मेरे मि‍त्र ने राज भाटि‍या जी और मुनीश जी को आभार प्रकट कि‍या था कि‍ उन्होंने (उसकी) मारूती पर भरोसा जताया है, ऐसे वक्त में जब उसका खुद का भरोसा अपनी कार से उठ चुका था :) मुन्ना पांडेय जी ने मसूरी से आगे चकराता जाने का जो सुझाव दि‍या है, वह अगली बार के लि‍ए सुनि‍श्चि‍त कर लिया है। अनुराग जी ने लेंस्‍दाउन नाम का जि‍क्र कि‍या है, यह कहॉं है, यह बताने की कृपा करें अनुराग जी।
मैं अभी मानसून के इंतजार में दि‍ल्ली की गर्मी झेल रहा हूँ। यह गर्मी साल-दर-साल बढ़ती महसूस हो रही है। भारत में गर्मी प्रकृति‍ का एक दीर्घकालि‍क हथि‍यार है, और यह खून को पसीने के रूप में बहा देता है, देखें कि‍तना खून पीता है यह मौसम!!

Saturday 6 June 2009

मसूरी: पास का सुहाना ढोल........


बारह साल पहले छात्र-जीवन की कंजूसी के तहत पहाड़ी यात्रा के सफर पर जब मैं चला था, तब इस दौरान बस-यात्रा और कई जगह मीलों पैदल चलने की मजबूरी ने मसूरी यात्रा को नागवार बना दि‍या था। तभी मैंने तय कि‍या था कि‍ अब बस की बेबस-यात्रा की बजाए कार से आऊँगा, बशर्ते कार बेकार न हो। तब मेरे साथ मेरा एक मि‍त्र सत्यम था, जि‍से मैंने इस टूर के लि‍ए जबरदस्ती सहयात्री बनाया था। मैं हि‍न्दू कॉलेज हॉस्टल में रहता था और वहॉं से हरि‍द्वार-ऋषि‍केश का टूर जा रहा था (हैरानी की बात है कि‍ हम कॉलेज के उन दि‍नों में धार्मि‍क यात्राऍं कर रहे थे।) हॉस्टल टूर की बस को छोड़ हमने देहरादून और फि‍र वहॉं से मसूरी की बस पकड़ ली थी।
उन्हीं दि‍नों को याद करते हुए पि‍छले हफ्ते अपने दोस्त की 96 मॉडल स्टीम कार से हम लोग मसूरी पहुँचे। कार से यहॉं आने की इच्छा तो पूरी हो गई पर डर तो ये सता रहा था कि‍ ये 96 मॉडल कार हमें वापस दि‍ल्ली तक पहुँचा पाएगी या नहीं!
खैर, तमाम तरह के फि‍जूल डर और रोमांच के बीच यह यात्रा दि‍ल्ली की गर्मी से राहत दि‍लाने में कामयाब रही। मसूरी तो आप सभी गए होंगे, इसलि‍ए वहॉं के बारे में मैं क्या बताऊँ! कुछ तस्वीरें बोलती हैं, कुछ चुपचाप दि‍ल में उतर जाती हैं तो कुछ अतीत में आपको खींच ले जाती हैं। शायद आपको भी कुछ याद आ जाए...


गॉंधी चौक


केम्‍पटी फॉल