सच कहूँ तो फुर्सत मिली नहीं
कि याद तुम्हें कर पाऊँ
पर जो कुछ भी कर रहा हूँ
ये सब तुम्हारे लिए है।
मैंने कभी नहीं कहा था
तुम्हारे लिए तोड़ लाऊँगा चॉंद-तारे।
सच तो ये है कि
तुम तक पहुँचने के लिए
अपने हाथों से मुझे
बनानी पड़ रही है सड़क
..........तोड़ने पड़ रहे हैं पत्थर।
मुझे मालूम है
बर्तन-बासन मॉंजते
तुम्हारे हाथ पत्थ़र हो गए हैं
मुझे माफ करना मेरी प्रिये!
मैं नहीं तोड़ पाया ये पत्थर .......
मैंने नहीं कहा था कि
मैं लौटकर आऊँगा
पर चाहा था कि इंतजार करना.........।
माना कि सरहद पर नहीं जा रहा था
पर अपनी दहलीज पर
हरेक को लड़ना पड़ता है जिंदगी से
एक फौजी की तरह।
और वैसे भी
जो लड़ नहीं पाता
वो बेमौत मारा जाता है.......
फिलहाल मच्छरों के बीच
थककर उचाट सोया हूँ,
नींद है भी और नहीं भी
हिचकता हूँ याद तुम्हें करते हुए....
अब तो मेरी मुन्नी भी
पप्पा -पप्पा करने लगी होगी
अरमानों का चूल्हा-चौका
भरने लगी होगी।
मैं आऊँगा मिलने उससे
भर लाऊँगा कपड़े लत्ते।
मेरी बन्नो तेरी बिंदिया-चूड़ी
लेकर नहीं आ पाऊँगा।
जानता हूँ
तुम्हे इसका अरमान रहा भी कब
मेरा आना ही तुम्हारे लिए
हर कारज सिद्ध होना है....
आने का वादा अभी कर नहीं सकता
क्योंकि कल फिर काम पर जाना है।
और सच कहूँ प्रिये
ये सब तुम्हा्रे लिए है..........
-जितेन्द्र भगत
(चित्र गूगल से)
Friday 11 December 2009
Wednesday 9 September 2009
गौर से देखा तो घूम जाओगे!!
सोते हुए को तो उठाया जा सकता है मगर कोई जानबूझकर सोने का अभिनय करे तो उसे उठाना कठिन है। पत्थर भी अपनी जगह बदलता रहता है। वह प्रकृति की शक्ति से संचालित होता है। कभी भूकंप उसकी जगह बदलती है, कभी हवा तो कभी पानी। अचल कुछ भी नहीं है, सब चलायमान है। इसलिए मुझे लगता है कि जड़-चेतन जितने भी पदार्थ हैं, उनमें किसी न किसी रूप में गति रहती है। उसमें होनेवाले हलचल को हम तभी पकड़ सकते हैं जब हमारे मन की हलचल शांत हो और तभी हम तटस्थ रहकर चीजों को गहरी नजर से देख सकते हैं। कभी-कभी सोचता हूँ पतंग किसकी बदौलत उड़ता है
- जिस डोर से बंधा है उसकी वजह से
- जिसके हाथ में डोर है उसकी वजह से
- हवा के प्रवाह से
- पतंग के कागज और तिल्ली की गुणवत्ता की वजह से
- उस पर सही ढ़ंग से कन्नी बॉंधने की वजह से
- अन्य कोई अदृश्य कारण
यह भी संभव है कि इन सबकी मौजूदगी के बाद भी पतंग न उड़े।
और यह भी संभव है कि इनके अभाव में भी पतंग अचानक उड़ने लगे।
मुझे जिंदगी भी ऐसी लगती है पर मैं इसे कटी पतंग नहीं कहना चाहता क्योंकि कटी पतंग की दिशा भी तय है। दिशाहीनता भ्रम है, लक्ष्य तो सुनिश्चित है और हर जीव उसी की तरफ अग्रसर हो रहा है।
जिन्दगी हमेशा मौत की तरफ ही बढ़ती है। बस हम इसतक जाने वाले रास्ते को फूलो से सजाकर खुश होना चाहते हैं।
मैं क्षमा चाहूँगा ऐसे विचार कभी-कभी ही आते हैं, मुझे पलायनवादी,भाग्यवादी या कोई वादी, बर्बादी आदि न समझा जाए। हर आदमी के भीतर कुछ न कुछ चल रहा होता है, जिसमें से कुछ राग से नीर्मित होता है, कुछ वैराग से। आदमी उसी को हासिल करना चाहता है, उसी को काबू करना चाहता है। यह अलग बात है कि आदमी खुद उसके काबू में हो जाता है।
खैर, अब आप यहॉं इस चक्र के बिंदू पर ध्यान केंद्रित कीजिए और सम्मोहन को झेलिए:)
(बताइए कौन घूम रहा है)
वैधानिक चेतावनी:)
कोई शीर्षक बदलने की चेष्टा न करे- गौर से पढ़ा तो घूम जाओगे:)
ऐसा साल में एक बार ही होता है कि तारीख लिखते हुए आनंद-सा आता है-
09/09/09
इस नौ की तिकड़ी को देखना भी एक सकून है।
और पोस्ट भेजने का वक्त भी अच्छा लग रहा है-
12:12
चलिए ये भी बताते जाइए कि ऐसी तिकड़ी किस साल से बनाने की छूट नहीं रहेगी ?
और ऐसा अवसर सदी में कितनी बार मिल सकता है ?
सवाल बचकाना है ना, कोई बात नहीं जवाब मत दीजिए :)
- जिस डोर से बंधा है उसकी वजह से
- जिसके हाथ में डोर है उसकी वजह से
- हवा के प्रवाह से
- पतंग के कागज और तिल्ली की गुणवत्ता की वजह से
- उस पर सही ढ़ंग से कन्नी बॉंधने की वजह से
- अन्य कोई अदृश्य कारण
यह भी संभव है कि इन सबकी मौजूदगी के बाद भी पतंग न उड़े।
और यह भी संभव है कि इनके अभाव में भी पतंग अचानक उड़ने लगे।
मुझे जिंदगी भी ऐसी लगती है पर मैं इसे कटी पतंग नहीं कहना चाहता क्योंकि कटी पतंग की दिशा भी तय है। दिशाहीनता भ्रम है, लक्ष्य तो सुनिश्चित है और हर जीव उसी की तरफ अग्रसर हो रहा है।
जिन्दगी हमेशा मौत की तरफ ही बढ़ती है। बस हम इसतक जाने वाले रास्ते को फूलो से सजाकर खुश होना चाहते हैं।
मैं क्षमा चाहूँगा ऐसे विचार कभी-कभी ही आते हैं, मुझे पलायनवादी,भाग्यवादी या कोई वादी, बर्बादी आदि न समझा जाए। हर आदमी के भीतर कुछ न कुछ चल रहा होता है, जिसमें से कुछ राग से नीर्मित होता है, कुछ वैराग से। आदमी उसी को हासिल करना चाहता है, उसी को काबू करना चाहता है। यह अलग बात है कि आदमी खुद उसके काबू में हो जाता है।
खैर, अब आप यहॉं इस चक्र के बिंदू पर ध्यान केंद्रित कीजिए और सम्मोहन को झेलिए:)
(बताइए कौन घूम रहा है)
वैधानिक चेतावनी:)
कोई शीर्षक बदलने की चेष्टा न करे- गौर से पढ़ा तो घूम जाओगे:)
ऐसा साल में एक बार ही होता है कि तारीख लिखते हुए आनंद-सा आता है-
09/09/09
इस नौ की तिकड़ी को देखना भी एक सकून है।
और पोस्ट भेजने का वक्त भी अच्छा लग रहा है-
12:12
चलिए ये भी बताते जाइए कि ऐसी तिकड़ी किस साल से बनाने की छूट नहीं रहेगी ?
और ऐसा अवसर सदी में कितनी बार मिल सकता है ?
सवाल बचकाना है ना, कोई बात नहीं जवाब मत दीजिए :)
Tuesday 8 September 2009
इचक दाना- इचक दाना, दाने ऊपर दाना- 1
Tuesday 18 August 2009
चिरंजीलाल !!
मेरे दोस्त ने अपने ऑफिस में साफ-सफाई और पानी वगैरह देने के लिए एक दुबला-पतला लड़का रखा था। उसका नाम चिरंजीलाल था। एक दिन जब मै वहीं बैठा था तो उसे बुलाकर मेरे मित्र ने उसे इशारे से समझाया कि साब् को पानी पिलाओ। उसे इस ऑफिस में आए हुए ये दूसरा ही दिन था। मैंने अपने मित्र से पूछा कि इसका नाम ऐसा क्यों रखा है और क्यां इसे सुनाई नहीं देता है?
मेरे मित्र ने हँसते हुए कहा कि ऐसी बात नहीं है। यह बंगाल के किसी गॉंव से निकलकर पहली बार दिल्ली आया है और हिंदी इसे बिल्कुंल नहीं आती है। वैसे इसका नाम चरणजीत है पर जब वह अपना नाम बताता है तो बँगला टोन की वजह से ‘चिरंजी’ सुनाई पड़ता है बाकि ‘लाल’ तो हमने प्यार से लगा दिया है।
अब कल की ही बात बताऊँ, अपने कमरे से मैंने कॉल बेल बजायी तो अंदर आने की बजाए बाहर देखने चला गया कि बाहर कौन है। मेरे साथ बैठे सज्जन ने जब ये देखा तो हँसते हुए बोले कि उसने कॉल बेल सुनकर शायद ये समझा कि छुट्टी का टाइम हो गया है!
इस शापिंग कॉम्प्लैक्स में मेरे मित्र के ऑफिस के ऊपर भी कई दुकाने हैं। एक दिन उसने चिरंजी को मोबाइल का रिचार्ज कूपन लाने को भेजा। थोड़ी देर बाद आकर वह टूटी-फूटी हिंदी में कहता है-
’बाइर तो शौब दुकान बौंद है, ऊपर वाला भी नाई है।‘
यह सुनकर उसके साथ बैठे सज्जन कहते हैं कि जब मंदी के दौर में भगवान ने ये धंधा शुरू ही कर दिया है तो मैं उनसे बाल कटवा ही आता हूँ :)
मेरे मित्र ने हँसते हुए कहा कि ऐसी बात नहीं है। यह बंगाल के किसी गॉंव से निकलकर पहली बार दिल्ली आया है और हिंदी इसे बिल्कुंल नहीं आती है। वैसे इसका नाम चरणजीत है पर जब वह अपना नाम बताता है तो बँगला टोन की वजह से ‘चिरंजी’ सुनाई पड़ता है बाकि ‘लाल’ तो हमने प्यार से लगा दिया है।
अब कल की ही बात बताऊँ, अपने कमरे से मैंने कॉल बेल बजायी तो अंदर आने की बजाए बाहर देखने चला गया कि बाहर कौन है। मेरे साथ बैठे सज्जन ने जब ये देखा तो हँसते हुए बोले कि उसने कॉल बेल सुनकर शायद ये समझा कि छुट्टी का टाइम हो गया है!
इस शापिंग कॉम्प्लैक्स में मेरे मित्र के ऑफिस के ऊपर भी कई दुकाने हैं। एक दिन उसने चिरंजी को मोबाइल का रिचार्ज कूपन लाने को भेजा। थोड़ी देर बाद आकर वह टूटी-फूटी हिंदी में कहता है-
’बाइर तो शौब दुकान बौंद है, ऊपर वाला भी नाई है।‘
यह सुनकर उसके साथ बैठे सज्जन कहते हैं कि जब मंदी के दौर में भगवान ने ये धंधा शुरू ही कर दिया है तो मैं उनसे बाल कटवा ही आता हूँ :)
Wednesday 5 August 2009
याद जो तेरी आई बहना !!
कितने सावन बीते,
कुछ याद नहीं,
मिला नहीं अबतक,
अवसाद यही!
बरबस ऑंखे भर आई है,
बहना जो तू याद आई है!
ठीक है कि
जिंदगी लंबी नहीं,
बड़ी होनी चाहिए!
पर जीने के लिए उनमें
रिश्तों की कड़ी होनी चाहिए।
.........ये कड़ी तू थी बहना!
जब तू नन्हीं थी, न्यारी थी
गोद लिए फिरता-इठलाता था
मेरी बहना-मेरी बहना!
कहकर तूझे बहलाता था।
फिर जाने कब बड़ी हुई
’पराय घर’ कहकर
जाने को खड़ी हुई।
छुपकर तब......
......मैं रोया था बहना!
याद है तूझको
खेल-खेल में
गिरा दिया था मैंने।
खून देखकर इतना
मैं घबराया था कितना!
’मैं खुद गिरी’ मॉं से कह कर
तुमने मुझे बचाया था बहना!
और ऐसी कितनी हैं बातें
जिसके लिए तब
माना नहीं अहसान
......आज माना है ये बहना!
अब तू अपने घर
मैं अपने घर
जाने कब बीत गई उमर
....तूने नहीं बताया बहना!
वो गलियॉं छूटी
वो साइकिल टूटी
साथ रही तू इस कदर
पीछे-पीछे परछाई बहना!
गृहस्थ-जीवन की कथा
कह दी यदा-कदा
दिन-दिन की व्यथा
सहती रही सदा।
.....अब कहॉं कुछ कहती बहना!
सुना है सत्तर की जिंदगी
होती है बहुत बड़ी।
पर सतरह साल तक
बचपन जो संग जिया
.........उम्र वही बड़ी थी बहना!
बड़े चाव से खरीदी है
तेरे नाम से राखी बहना!
परदेस में हूँ सो भूल गया-
यूँ न कुछ कहना बहना।
अपने ही हाथों से मैंने
बॉंधी इसे कलाई पर
सच कहूँ मन भर आया
याद जो तेरी आई बहना!
वो अठन्नी दो आने
भींची मुट्ठी खोल दे बहना!
इससे ज्या्दा पैसे दूँगा
प्यार से ‘भैया’ बोल दे बहना!
जी-भर लड़ ले,
कुछ न कहूँगा
पर ये कहे बिन
नहीं रहूँगा-
'वो मिठाई का आधा हिस्सा
आज भी बकाया है मेरी बहना!'
-जितेन्द्र भगत
(अपनी बहन को समर्पित ये कविता; उसी को याद करते हुए, जो मुझसे काफी दूर रहती है, हर बार राखी भेजती है मगर समय पर पहुँच नहीं पाती:)
कुछ याद नहीं,
मिला नहीं अबतक,
अवसाद यही!
बरबस ऑंखे भर आई है,
बहना जो तू याद आई है!
ठीक है कि
जिंदगी लंबी नहीं,
बड़ी होनी चाहिए!
पर जीने के लिए उनमें
रिश्तों की कड़ी होनी चाहिए।
.........ये कड़ी तू थी बहना!
जब तू नन्हीं थी, न्यारी थी
गोद लिए फिरता-इठलाता था
मेरी बहना-मेरी बहना!
कहकर तूझे बहलाता था।
फिर जाने कब बड़ी हुई
’पराय घर’ कहकर
जाने को खड़ी हुई।
छुपकर तब......
......मैं रोया था बहना!
याद है तूझको
खेल-खेल में
गिरा दिया था मैंने।
खून देखकर इतना
मैं घबराया था कितना!
’मैं खुद गिरी’ मॉं से कह कर
तुमने मुझे बचाया था बहना!
और ऐसी कितनी हैं बातें
जिसके लिए तब
माना नहीं अहसान
......आज माना है ये बहना!
अब तू अपने घर
मैं अपने घर
जाने कब बीत गई उमर
....तूने नहीं बताया बहना!
वो गलियॉं छूटी
वो साइकिल टूटी
साथ रही तू इस कदर
पीछे-पीछे परछाई बहना!
गृहस्थ-जीवन की कथा
कह दी यदा-कदा
दिन-दिन की व्यथा
सहती रही सदा।
.....अब कहॉं कुछ कहती बहना!
सुना है सत्तर की जिंदगी
होती है बहुत बड़ी।
पर सतरह साल तक
बचपन जो संग जिया
.........उम्र वही बड़ी थी बहना!
बड़े चाव से खरीदी है
तेरे नाम से राखी बहना!
परदेस में हूँ सो भूल गया-
यूँ न कुछ कहना बहना।
अपने ही हाथों से मैंने
बॉंधी इसे कलाई पर
सच कहूँ मन भर आया
याद जो तेरी आई बहना!
वो अठन्नी दो आने
भींची मुट्ठी खोल दे बहना!
इससे ज्या्दा पैसे दूँगा
प्यार से ‘भैया’ बोल दे बहना!
जी-भर लड़ ले,
कुछ न कहूँगा
पर ये कहे बिन
नहीं रहूँगा-
'वो मिठाई का आधा हिस्सा
आज भी बकाया है मेरी बहना!'
-जितेन्द्र भगत
(अपनी बहन को समर्पित ये कविता; उसी को याद करते हुए, जो मुझसे काफी दूर रहती है, हर बार राखी भेजती है मगर समय पर पहुँच नहीं पाती:)
Saturday 1 August 2009
रूटीन!!
पड़ोसी का स्कूटर सुबह की नींद में खलल डाल रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे सपने में किसी को किक लगाते हुए सुन रहा हूँ और स्कूटर स्टार्ट न होने से एक बेचैनी-सी हो रही है। उस पड़ोसी को न मैं जानता हूँ और न उसके स्कूटर से मेरा कोई वास्ता है, पर पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कि इसका स्कूटर स्टार्ट होना चाहिए। अचानक नींद खुल जाती है। स्कूटर की आवाज भी बंद है। मुझे लगता है मैंने सपना ही देखा था। मैं उठकर बाल्कनी में आ जाता हूँ।
दूसरी तरफ एक आदमी एक स्कूटर के इंजन के आसपास कुछ करता नजर आ जाता है।
दृश्य दो
मैं तैयार होकर ऑफिस के लिए निकल पड़ता हूँ। रास्ते में एक इंडिका कार बंद पड़ी है। लोग उसे धक्का लगा रहे हैं। गेयर लगाते ही गाड़ी झटका देती है, ऐसा लगता है कि अबकि बार कार चल पड़ेगी। गाड़ी घुर्र-घुर्र करके फिर खड़ी हो जाती है। धक्का लगानेवाले एक-दूसरे को देख रहे हैं....
मेरा ऑफिस आ गया है।
दृश्य तीन
ऑफिस में मेरे बगल की कुर्सी के साथ रामबाबू की कुर्सी है। वे दमे के मरीज हैं, एक दवा हमेशा साथ रखते हैं। खाँसी उठती है तो उठती ही चली जाती है।
आज उन्हें वैसी ही खॉंसी उठी है। गोली खाने के बाद वह रूक भी नहीं रही है। कोई पानी दे रहा है तो कोई आश्वासन। मुँह से खून आने लगा है। एम्बुलेंस बुलाई गई है। आधे घण्टे तक एम्बुलेंस के पहुँचने की संभावना है। वैसे रामबाबू के चचेरे भाई के पास एक कार भी है और वह इसी बिल्डिंग के पॉंचवें माले पर काम करता है। यह दूरी रिश्तों की दूरी से छोटी है, फिर भी वह नीचे नहीं आ पाएगा; यहॉं काम करनेवाले सभी लोगों का यही मानना हैं...... ओर मैं भी मानता हूँ।
दृश्य चार
शाम को ऑफिस से घर लौट रहा हूँ। सड़क पर एक लड़का बस पकड़ने के लिए चलती बस के पीछे भाग रहा है। दरवाजे का रॉड पकड़ने के बावजूद वह लड़खड़ा गया है। वहॉं खड़े कुछ लोगों का मत है कि उसका गिरना तय है जबकि कुछ लोगों को विश्वास है कि वह बस में चढ़ जाएगा।
सड़क के साथ बने एक पार्क में कुछ बुजुर्ग यह दृश्य् देख रहे हैं कि देखें क्या होता है। इनके मन में बस यही भाव आ रहा है कि अब उनकी उम्र दौडकर बस में चढ़ने की रही नहीं।
दृश्य पॉच
मैं घर आ गया हूँ। मेरा बेटा मेरी गोद के लिए मचल रहा है। मेरे एक हाथ में मेरा बैग है और दूसरे हाथ में शाम की सब्जी् और दूध का पैकेट। बच्चे की हड़बड़ाहट से दूध का पैकेट अचानक मेरे हाथ से छूट जाता है। सबको लगता है कि दूध बिखर गया होगा लेकिन हैरानी की बात है कि ‘धम्म’ से गिरने के बावजूद वह पैकेट फटता नहीं है। रात को वही दूध पीकर मुन्ना गहरी नींद में सो जाता है।
अदृश्य
सुबह-सुबह एक किक में स्कूटर स्टार्ट हो गया है। रास्ते में कार को धक्का देनेवाले लोग नजर नहीं आ रहे हैं। आफिस में पता चलता है कि एम्बुलेंस आई ही नहीं। हॉस्पीटल में रामबाबू का चचेरा भाई रात भर रूककर उनकी देखभाल करता रहा। शाम को घर लौटा तो पता चला कि मिलावटी दूध पीने की वजह से मुन्ने की तबीयत बिगड़ गई है। मुन्ने को डॉक्टर के पास ले जाते हुए सोच रहा हूँ कि उस लड़के का क्या हुआ होगा जो बस के पीछे भाग रहा था....
दूसरी तरफ एक आदमी एक स्कूटर के इंजन के आसपास कुछ करता नजर आ जाता है।
दृश्य दो
मैं तैयार होकर ऑफिस के लिए निकल पड़ता हूँ। रास्ते में एक इंडिका कार बंद पड़ी है। लोग उसे धक्का लगा रहे हैं। गेयर लगाते ही गाड़ी झटका देती है, ऐसा लगता है कि अबकि बार कार चल पड़ेगी। गाड़ी घुर्र-घुर्र करके फिर खड़ी हो जाती है। धक्का लगानेवाले एक-दूसरे को देख रहे हैं....
मेरा ऑफिस आ गया है।
दृश्य तीन
ऑफिस में मेरे बगल की कुर्सी के साथ रामबाबू की कुर्सी है। वे दमे के मरीज हैं, एक दवा हमेशा साथ रखते हैं। खाँसी उठती है तो उठती ही चली जाती है।
आज उन्हें वैसी ही खॉंसी उठी है। गोली खाने के बाद वह रूक भी नहीं रही है। कोई पानी दे रहा है तो कोई आश्वासन। मुँह से खून आने लगा है। एम्बुलेंस बुलाई गई है। आधे घण्टे तक एम्बुलेंस के पहुँचने की संभावना है। वैसे रामबाबू के चचेरे भाई के पास एक कार भी है और वह इसी बिल्डिंग के पॉंचवें माले पर काम करता है। यह दूरी रिश्तों की दूरी से छोटी है, फिर भी वह नीचे नहीं आ पाएगा; यहॉं काम करनेवाले सभी लोगों का यही मानना हैं...... ओर मैं भी मानता हूँ।
दृश्य चार
शाम को ऑफिस से घर लौट रहा हूँ। सड़क पर एक लड़का बस पकड़ने के लिए चलती बस के पीछे भाग रहा है। दरवाजे का रॉड पकड़ने के बावजूद वह लड़खड़ा गया है। वहॉं खड़े कुछ लोगों का मत है कि उसका गिरना तय है जबकि कुछ लोगों को विश्वास है कि वह बस में चढ़ जाएगा।
सड़क के साथ बने एक पार्क में कुछ बुजुर्ग यह दृश्य् देख रहे हैं कि देखें क्या होता है। इनके मन में बस यही भाव आ रहा है कि अब उनकी उम्र दौडकर बस में चढ़ने की रही नहीं।
दृश्य पॉच
मैं घर आ गया हूँ। मेरा बेटा मेरी गोद के लिए मचल रहा है। मेरे एक हाथ में मेरा बैग है और दूसरे हाथ में शाम की सब्जी् और दूध का पैकेट। बच्चे की हड़बड़ाहट से दूध का पैकेट अचानक मेरे हाथ से छूट जाता है। सबको लगता है कि दूध बिखर गया होगा लेकिन हैरानी की बात है कि ‘धम्म’ से गिरने के बावजूद वह पैकेट फटता नहीं है। रात को वही दूध पीकर मुन्ना गहरी नींद में सो जाता है।
अदृश्य
सुबह-सुबह एक किक में स्कूटर स्टार्ट हो गया है। रास्ते में कार को धक्का देनेवाले लोग नजर नहीं आ रहे हैं। आफिस में पता चलता है कि एम्बुलेंस आई ही नहीं। हॉस्पीटल में रामबाबू का चचेरा भाई रात भर रूककर उनकी देखभाल करता रहा। शाम को घर लौटा तो पता चला कि मिलावटी दूध पीने की वजह से मुन्ने की तबीयत बिगड़ गई है। मुन्ने को डॉक्टर के पास ले जाते हुए सोच रहा हूँ कि उस लड़के का क्या हुआ होगा जो बस के पीछे भाग रहा था....
Saturday 18 July 2009
कैसेट !!
एक दिन मैं अलमारी साफ कर रहा था। एक कोने में हैलमेट का एक डिब्बा पड़ा था। जब मैंने उसे खोलकर देखा तो समझ नहीं आया कि इसे फेंक दूँ या यूँ ही रहने दूँ। उसमें 1990-97 में रीलीज फिल्मों के हिट कैसेट्स थे।
ये वो जमाना था जब स्कूल-कॉलेज के दिनों में रंग, बलमा, कभी हाँ- कभी ना, दीवाना, चॉंदनी, लाल दुपट्टा मलमल का, तेजाब, साजन, खिलाड़ी, बाजीगर, तड़ीपार, आशिकी, सलामी, इम्तेहान, चोर और चॉंद, दिल है कि मानता नहीं, जुनून, दिल का क्या कसूर जैसे फिल्मों के गाने लोगों के जुबान पर चढ़े हुए थे।
आज जब 20-30 रूपये के एक एम.पी.थ्री. में 50 से लेकर 150 गाने तक आ जाते हैं तब वे दिन याद आते हैं जब इसी कीमत पर एक कैसेट मिला करता था- A साइड में 4-5 गाने और B साइड में भी इतने ही गाने। कम ही फिल्मों में 10 गाने होते थे इसलिए एक कैसेट को संपूर्ण बनाने के लिए चार फॉर्मूले आजमाए जाते थे-
1)हिट गाने को एक बार गायक की आवाज में,
2)उसी गाने को गायिका की आवाज में
3) उसी गाने को दोनों की आवाज में
4) उसी गाने का सैड वर्जन।
मेरा ख्याल है यह फॉर्मूला हिट गानों के साथ तो आजमाया जा सकता था लेकिन सभी गानों के साथ नहीं। इसलिए बाद के दिनों में दो चीजें सामने आईं-
पहली बात तो ये थी कि कैसेट की कीमतों में इजाफा हुआ, वे 35 से 50 रूपये में मिलने लगीं। तब भी टी.सीरीज़ की कैसेट सबसे सस्ती हुआ करती थी और एच.एम.वी. सबसे महंगी। बाकियों के नाम तो अब याद करने पड़ेंगे- वीनस,टिप्स, टाइम और न जाने क्या-क्या।
दूसरी बात, एक ही कैसेट में दो फिल्मों के गाने रखे जाने लगे। और बाद में तो 3-4 फिल्मों के गाने भी एक ही कैसेट में नजर आने लगे।
इन कैसेट्स को ज्यादा दिन तक इस्तमाल न करने पर उनमें सीलन आ जाती थी, रील फँसने का डर रहता था। जो कैसेट बर्बाद हो जाते थे, उसकी रील से मैंने पतंग उड़ाने की नाकाम कोशिश भी की थी।
खैर, एम.पी.थ्री. और सीडी, डीवीडी के आने के बाद मनोरंजन संसार में क्रांति-सी आ गई और कैसेट्स इतिहास के पन्नों में दफन होने लगे। हालॉंकि उक्त कंपनियॉं घाटे के बावजूद अब भी चल रही हैं।
एक छोटे से कस्बे की सीडी की दुकान से मैं एम.पी.थ्री. पसंद कर रहा था, और मेरे बगल में एक बुजुर्ग महिला कैसेट खरीद रही थी। उसने मुझसे पूछा कि बेटा देखकर बताना ये कैसेट चल तो जाएगा ना! मैंने कैसेट चेक करते हुए यूँ ही पूछ लिया कि दादी अम्मा, कैसेट पर इतने पैसे खराब क्यों कर रही हो। सीडी प्लेपयर क्यों नहीं ले लेती?
अम्मा मुस्कुराती हुई बोली- बेटा बात कैसेट की नहीं है, यह उस रिकॉर्डर पर चलती है, जिसे मेरे पति ने खास मेरे लिए खरीदा था, सन् 1980 में!
ये वो जमाना था जब स्कूल-कॉलेज के दिनों में रंग, बलमा, कभी हाँ- कभी ना, दीवाना, चॉंदनी, लाल दुपट्टा मलमल का, तेजाब, साजन, खिलाड़ी, बाजीगर, तड़ीपार, आशिकी, सलामी, इम्तेहान, चोर और चॉंद, दिल है कि मानता नहीं, जुनून, दिल का क्या कसूर जैसे फिल्मों के गाने लोगों के जुबान पर चढ़े हुए थे।
आज जब 20-30 रूपये के एक एम.पी.थ्री. में 50 से लेकर 150 गाने तक आ जाते हैं तब वे दिन याद आते हैं जब इसी कीमत पर एक कैसेट मिला करता था- A साइड में 4-5 गाने और B साइड में भी इतने ही गाने। कम ही फिल्मों में 10 गाने होते थे इसलिए एक कैसेट को संपूर्ण बनाने के लिए चार फॉर्मूले आजमाए जाते थे-
1)हिट गाने को एक बार गायक की आवाज में,
2)उसी गाने को गायिका की आवाज में
3) उसी गाने को दोनों की आवाज में
4) उसी गाने का सैड वर्जन।
मेरा ख्याल है यह फॉर्मूला हिट गानों के साथ तो आजमाया जा सकता था लेकिन सभी गानों के साथ नहीं। इसलिए बाद के दिनों में दो चीजें सामने आईं-
पहली बात तो ये थी कि कैसेट की कीमतों में इजाफा हुआ, वे 35 से 50 रूपये में मिलने लगीं। तब भी टी.सीरीज़ की कैसेट सबसे सस्ती हुआ करती थी और एच.एम.वी. सबसे महंगी। बाकियों के नाम तो अब याद करने पड़ेंगे- वीनस,टिप्स, टाइम और न जाने क्या-क्या।
दूसरी बात, एक ही कैसेट में दो फिल्मों के गाने रखे जाने लगे। और बाद में तो 3-4 फिल्मों के गाने भी एक ही कैसेट में नजर आने लगे।
इन कैसेट्स को ज्यादा दिन तक इस्तमाल न करने पर उनमें सीलन आ जाती थी, रील फँसने का डर रहता था। जो कैसेट बर्बाद हो जाते थे, उसकी रील से मैंने पतंग उड़ाने की नाकाम कोशिश भी की थी।
खैर, एम.पी.थ्री. और सीडी, डीवीडी के आने के बाद मनोरंजन संसार में क्रांति-सी आ गई और कैसेट्स इतिहास के पन्नों में दफन होने लगे। हालॉंकि उक्त कंपनियॉं घाटे के बावजूद अब भी चल रही हैं।
एक छोटे से कस्बे की सीडी की दुकान से मैं एम.पी.थ्री. पसंद कर रहा था, और मेरे बगल में एक बुजुर्ग महिला कैसेट खरीद रही थी। उसने मुझसे पूछा कि बेटा देखकर बताना ये कैसेट चल तो जाएगा ना! मैंने कैसेट चेक करते हुए यूँ ही पूछ लिया कि दादी अम्मा, कैसेट पर इतने पैसे खराब क्यों कर रही हो। सीडी प्लेपयर क्यों नहीं ले लेती?
अम्मा मुस्कुराती हुई बोली- बेटा बात कैसेट की नहीं है, यह उस रिकॉर्डर पर चलती है, जिसे मेरे पति ने खास मेरे लिए खरीदा था, सन् 1980 में!
Wednesday 15 July 2009
‘ब्लॉग-साहित्य’ पर शोध की संभावना !!
ज्ञानदत्त जी ने ब्लॉग पर लिखे जाने वाले साहित्य के लिए 'साइबेरित्य' नाम दिया है।
मैं ब्लॉग में लिखी जाने वाले साहित्य के लिए ‘ब्लॉगित्य’ या 'ब्लॉगहित्य' शब्द सुझाना चाहूँगा। वैसे साधारण शब्दों में ‘ब्लॉग-साहित्य’ कहने पर भी वह अपने अर्थ को सही संप्रेषित करता है। सवाल ये है कि इस नाम को पहचान देने वाली प्रवृतियों को कैसे सीमाबद्ध किया जाए, और कबाड़ में से काम की चीज कैसे ढ़ूँढ़ी जाए यानी साहित्यिक सामग्री को कैसे सूचीबद्ध किया जाए। इस शोध-कार्य के लिए चिट्ठा-चर्चा की भूमिका ऐतिहासिक साबित होने वाली है, और उसके बिना ब्लॉग-साहित्य की समझ अधूरी ही रह जाएगी।
हिन्दी साहित्य में रामचंद्र शुक्ल जी जैसे आलोचकों ने साहित्य को कई विभागों में विभाजित किया है, काल और प्रवृति के अनुसार उनको विवेचित किया है। मेरा मानना है कि वह दिन दूर नहीं, जब ब्लॉग पर लिखी जाने वाली कहानियों, कविताओं, यात्रा-वृतांतों, संस्मरण, आत्मकथा आदि पर शोधकार्य होना आरंभ हो जाएगा।
इसका स्पष्ट कारण ये है कि ब्लॉग पर लिखी जानेवाली अच्छी रचनाओं को ज्यादा दिन तक उपेक्षित नहीं रखा जा सकता। एक समय यह भी संभव है कि ब्लॉग ही साहित्य की कसौटी बन जाए, और पुस्तक रूप में छपने पर पाइरेटेड मानी जाए।
ब्लॉग साहित्य है या नहीं, इस पर काफी चर्चा हुई। मैं अपना मत यहॉं रखते हुए कहना चाहूँगा कि प्रिंट मीडिया की तरह ही ब्लॉग एक माध्यम भर है अपनी रचनाओं को प्रस्तुत करने के लिए। अब जैसे प्रिंट मीडिया स्थापित साहित्यकारों को छापते रहते हैं और कोई नवोदित रचनाकार अपनी पाण्डुलिपि लिए चार-पॉंच साल के लिए कतार में खड़े रहते हैं, ब्लॉग ने वह कतार तोड़ दी है। ब्लॉग एक ऐसा ‘बिग-बाजार’ है कि यहॉं चौबीसो घंटे सेल लगा रहता है, इसलिए इसमें बेतहाशा भीड़ होना लाजमी है। साथ ही कंपनी का लेबल चिपकाकर यहॉं कई बार खराब माल भी धड़ल्ले से बिक जाता है, तो कई बार उम्दा माल ग्राहकों को या तो महंगा लगता है या समझ से परे। खैर, ये तो ब्लॉग-साहित्य की बात है।
आज जो साहित्य पत्रिकाओं में छप रही हैं, उसकी भाषा गरिष्ठ और दार्शनिक होती जा रही हैं, और यही कारण है कि उसे पढ़ने के लिए अब आम आदमी की अभिरूचि घटी है और उसका एकेडेमिक महत्व ज्यादा रह गया है। पत्रिकाऍं अब वैचारिक हथियार के रूप में इस्तमाल हो रही है जिसमें संपादक/लेखक एक दूसरे पर प्रहार करते ज्यादा नजर आते हैं। अलबत्ता इनमें अच्छी कविताऍं/कहानियॉं जरूर पढ़ने को मिल जाती हैं।
साहित्य के क्षेत्र में प्रतिवर्ष नगण्य शोधकार्य ही अपनी मौलिकता और सर्जनात्मकता के कारण चर्चा का विषय बनते हैं। आज जब एक से एक घटिया विषयों पर शोध-कार्य हो सकता है, किसी प्रोफेसर/प्राध्यापक के मित्र कवि के रद्दी काव्य-संग्रह को शोध के काबिल समझा जा सकता है तो मुझे लगता है कि हमारे ब्लॉग जगत में एक-से-एक अनमोल हीरे हैं, जिनके रचनात्मक विवेक को किसी महान रचनाकार से कम नहीं ऑका जा सकता। सवाल है कि हम ऐसी रचनाओं को एकमत से स्वीकार करें और निरपेक्ष भाव के साथ उसके साहित्यिक महत्व का मूल्यांकन करें।
तो मित्रों, भरोसा रखें, आप इतिहास रच रहे हैं,ब्लॉग में साहित्य रच रहे हैं, अभी शैशवावस्था में कुछ अस्थिरता जरूर नजर आ रही है मगर इसका भविष्य अत्यंत उज्ज्वल है।
जाते-जाते:
आशा जोगलेकर जी की कविता इस संदर्भ में प्रिय लगी-
कितनों ने यहाँ देखो कितने कलाम लिख्खे
संपादकों के दफ्तर कितने पयाम रख्खें ।
जूते ही घिस गये रे चक्कर लगा लगा कर
फिर देखा प्रकाशक की भी हाजिरी लगा कर ।
कविता की ये किताबें बिकती नही है यारों
शायर की मुफलिसी है दुनिया में आम यारों ।
इसी से तो ब्लॉग पर ही लिखने की हमने ठानी।
.......
मैं ब्लॉग में लिखी जाने वाले साहित्य के लिए ‘ब्लॉगित्य’ या 'ब्लॉगहित्य' शब्द सुझाना चाहूँगा। वैसे साधारण शब्दों में ‘ब्लॉग-साहित्य’ कहने पर भी वह अपने अर्थ को सही संप्रेषित करता है। सवाल ये है कि इस नाम को पहचान देने वाली प्रवृतियों को कैसे सीमाबद्ध किया जाए, और कबाड़ में से काम की चीज कैसे ढ़ूँढ़ी जाए यानी साहित्यिक सामग्री को कैसे सूचीबद्ध किया जाए। इस शोध-कार्य के लिए चिट्ठा-चर्चा की भूमिका ऐतिहासिक साबित होने वाली है, और उसके बिना ब्लॉग-साहित्य की समझ अधूरी ही रह जाएगी।
हिन्दी साहित्य में रामचंद्र शुक्ल जी जैसे आलोचकों ने साहित्य को कई विभागों में विभाजित किया है, काल और प्रवृति के अनुसार उनको विवेचित किया है। मेरा मानना है कि वह दिन दूर नहीं, जब ब्लॉग पर लिखी जाने वाली कहानियों, कविताओं, यात्रा-वृतांतों, संस्मरण, आत्मकथा आदि पर शोधकार्य होना आरंभ हो जाएगा।
इसका स्पष्ट कारण ये है कि ब्लॉग पर लिखी जानेवाली अच्छी रचनाओं को ज्यादा दिन तक उपेक्षित नहीं रखा जा सकता। एक समय यह भी संभव है कि ब्लॉग ही साहित्य की कसौटी बन जाए, और पुस्तक रूप में छपने पर पाइरेटेड मानी जाए।
ब्लॉग साहित्य है या नहीं, इस पर काफी चर्चा हुई। मैं अपना मत यहॉं रखते हुए कहना चाहूँगा कि प्रिंट मीडिया की तरह ही ब्लॉग एक माध्यम भर है अपनी रचनाओं को प्रस्तुत करने के लिए। अब जैसे प्रिंट मीडिया स्थापित साहित्यकारों को छापते रहते हैं और कोई नवोदित रचनाकार अपनी पाण्डुलिपि लिए चार-पॉंच साल के लिए कतार में खड़े रहते हैं, ब्लॉग ने वह कतार तोड़ दी है। ब्लॉग एक ऐसा ‘बिग-बाजार’ है कि यहॉं चौबीसो घंटे सेल लगा रहता है, इसलिए इसमें बेतहाशा भीड़ होना लाजमी है। साथ ही कंपनी का लेबल चिपकाकर यहॉं कई बार खराब माल भी धड़ल्ले से बिक जाता है, तो कई बार उम्दा माल ग्राहकों को या तो महंगा लगता है या समझ से परे। खैर, ये तो ब्लॉग-साहित्य की बात है।
आज जो साहित्य पत्रिकाओं में छप रही हैं, उसकी भाषा गरिष्ठ और दार्शनिक होती जा रही हैं, और यही कारण है कि उसे पढ़ने के लिए अब आम आदमी की अभिरूचि घटी है और उसका एकेडेमिक महत्व ज्यादा रह गया है। पत्रिकाऍं अब वैचारिक हथियार के रूप में इस्तमाल हो रही है जिसमें संपादक/लेखक एक दूसरे पर प्रहार करते ज्यादा नजर आते हैं। अलबत्ता इनमें अच्छी कविताऍं/कहानियॉं जरूर पढ़ने को मिल जाती हैं।
साहित्य के क्षेत्र में प्रतिवर्ष नगण्य शोधकार्य ही अपनी मौलिकता और सर्जनात्मकता के कारण चर्चा का विषय बनते हैं। आज जब एक से एक घटिया विषयों पर शोध-कार्य हो सकता है, किसी प्रोफेसर/प्राध्यापक के मित्र कवि के रद्दी काव्य-संग्रह को शोध के काबिल समझा जा सकता है तो मुझे लगता है कि हमारे ब्लॉग जगत में एक-से-एक अनमोल हीरे हैं, जिनके रचनात्मक विवेक को किसी महान रचनाकार से कम नहीं ऑका जा सकता। सवाल है कि हम ऐसी रचनाओं को एकमत से स्वीकार करें और निरपेक्ष भाव के साथ उसके साहित्यिक महत्व का मूल्यांकन करें।
तो मित्रों, भरोसा रखें, आप इतिहास रच रहे हैं,ब्लॉग में साहित्य रच रहे हैं, अभी शैशवावस्था में कुछ अस्थिरता जरूर नजर आ रही है मगर इसका भविष्य अत्यंत उज्ज्वल है।
जाते-जाते:
आशा जोगलेकर जी की कविता इस संदर्भ में प्रिय लगी-
कितनों ने यहाँ देखो कितने कलाम लिख्खे
संपादकों के दफ्तर कितने पयाम रख्खें ।
जूते ही घिस गये रे चक्कर लगा लगा कर
फिर देखा प्रकाशक की भी हाजिरी लगा कर ।
कविता की ये किताबें बिकती नही है यारों
शायर की मुफलिसी है दुनिया में आम यारों ।
इसी से तो ब्लॉग पर ही लिखने की हमने ठानी।
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Friday 10 July 2009
बूँदो को कहीं देखा है !!
बेरंग पत्तों पर सरसराती बूँदों को
देखे एक अरसा हुआ!
मुरझाए चेहरों के पीछे
मन तक है तरसा हुआ!
अभी एक कार रूकी है रेड लाइट पर
कि यकायक चल पड़ा है वाइपर!
भीखू की हथेली पर पड़ी है चार बूँदें
मचलकर अपनी बहन को दिखा रहा है,
जो अभी छल्ले का करतब दिखाके
सुस्ता रही है छॉव में।
कभी जोर की बारिश में
छतरी उड़ा करती थी,
चहकते कदमों तले
राहें मुड़ा करती थी!
अब धूल है, ऑंधी है
गर्म हवाओं में होश उड़ा करता है!
आसमॉं पे होते थे
परींदों के घेरे।
नजरें तलाशती-सी हैं
बादलों के डेरे!
सुना है तेरे शहर में
हुई है बारिश!
कि हवा का कोई झोंका
सिहराता है मन को
और बूँदे तन को!
कि भीखू के चेहरे पर
चमक लौट आई है!
साथ ही लौटी है
खेतीहरों के खेतों में
सूखे फसलों की जीजिविषा!!
और
अभी एक सपना देखा था
और अभी एक सपना टूटा है!!
बारिश की कोई बूँद
ऑंखों से छलक आई है...........
-जितेन्द्र भगत
(सभी चित्र गूगल से साभार)
देखे एक अरसा हुआ!
मुरझाए चेहरों के पीछे
मन तक है तरसा हुआ!
अभी एक कार रूकी है रेड लाइट पर
कि यकायक चल पड़ा है वाइपर!
भीखू की हथेली पर पड़ी है चार बूँदें
मचलकर अपनी बहन को दिखा रहा है,
जो अभी छल्ले का करतब दिखाके
सुस्ता रही है छॉव में।
कभी जोर की बारिश में
छतरी उड़ा करती थी,
चहकते कदमों तले
राहें मुड़ा करती थी!
अब धूल है, ऑंधी है
गर्म हवाओं में होश उड़ा करता है!
आसमॉं पे होते थे
परींदों के घेरे।
नजरें तलाशती-सी हैं
बादलों के डेरे!
सुना है तेरे शहर में
हुई है बारिश!
कि हवा का कोई झोंका
सिहराता है मन को
और बूँदे तन को!
कि भीखू के चेहरे पर
चमक लौट आई है!
साथ ही लौटी है
खेतीहरों के खेतों में
सूखे फसलों की जीजिविषा!!
और
अभी एक सपना देखा था
और अभी एक सपना टूटा है!!
बारिश की कोई बूँद
ऑंखों से छलक आई है...........
-जितेन्द्र भगत
(सभी चित्र गूगल से साभार)
Sunday 5 July 2009
ताकतवर-कमजोर और सही-गलत का युग्म क्या एक दूसरे के विरोधी हैं?
जिंदगी के अनुभव के दौरान कई सवाल पैदा होते हैं। एक ऐसा ही सवाल जेहन में आता है- ताकतवर-कमजोर और सही-गलत का युग्म क्या एक दूसरे के विरोधी हैं? जब मैं सही-गलत की बात सोचता हूँ तब डार्विन की बात याद आती है- वही जीवित रह पाता है जो ताकतवर है। इसका मतलब यह है कि संसार सिर्फ ताकतवर लोगों के लिए है। क्या यह सार्वभौम सिद्धांत है? अगर यह सही होता तो सामाजीकरण की प्रक्रिया में सही-गलत का कभी कोई सवाल उठाया ही नहीं गया होता ?
हम सभी ये जानते हैं कि आज प्राय: हर देश का एक संविधान है। वहॉं सही-गलत को ही आधार बनाकर सामाजिक संरचना नीर्मित की जाती है। नगर का ताकतवर समुदाय या व्यक्ति किसी कमजोर समुदाय या व्यक्ति को दबाने का प्रयास न करे, इसी चीज़ के लिए कानून-कायदे बनाए जाते हैं, यानी सभ्यता के क्रमिक विकास में इस बात पर जोर दिया गया कि ताकत को नियंत्रित करने के लिए सही-गलत को आधार बनाया जाए। इस आधार को नैतिक माना गया।
सिकंदर, नेपोलियन, हिटलर ने विश्व विजेता बनने के लिए कई देशों पर कब्जा किया, खून की नदियॉं बहाई, नगरों में घुस-घुसकर आम लोगों की नृशंस हत्याऍं कीं।
इन विजेताओं ने अपने नजरिए से यह सुनिश्चित किया कि सही क्या है। तो क्या ये मान लिया जाए कि सही-गलत का विचार एक वैयक्तिक विचार है, एक भावात्माक विचार है। और इस आधार पर यह तो सुनिश्चित किया जा सकता है कि कौन ताकतवर है और कौन कमजोर मगर यह कभी सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि क्या गलत है और क्या सही। पता नहीं किसने कहा था- सत्य की हमेशा जीत होती है !!!!
हम सभी ये जानते हैं कि आज प्राय: हर देश का एक संविधान है। वहॉं सही-गलत को ही आधार बनाकर सामाजिक संरचना नीर्मित की जाती है। नगर का ताकतवर समुदाय या व्यक्ति किसी कमजोर समुदाय या व्यक्ति को दबाने का प्रयास न करे, इसी चीज़ के लिए कानून-कायदे बनाए जाते हैं, यानी सभ्यता के क्रमिक विकास में इस बात पर जोर दिया गया कि ताकत को नियंत्रित करने के लिए सही-गलत को आधार बनाया जाए। इस आधार को नैतिक माना गया।
सिकंदर, नेपोलियन, हिटलर ने विश्व विजेता बनने के लिए कई देशों पर कब्जा किया, खून की नदियॉं बहाई, नगरों में घुस-घुसकर आम लोगों की नृशंस हत्याऍं कीं।
इन विजेताओं ने अपने नजरिए से यह सुनिश्चित किया कि सही क्या है। तो क्या ये मान लिया जाए कि सही-गलत का विचार एक वैयक्तिक विचार है, एक भावात्माक विचार है। और इस आधार पर यह तो सुनिश्चित किया जा सकता है कि कौन ताकतवर है और कौन कमजोर मगर यह कभी सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि क्या गलत है और क्या सही। पता नहीं किसने कहा था- सत्य की हमेशा जीत होती है !!!!
Saturday 27 June 2009
जाऍं तो जाऍं कहॉं........
ऐसा लगने लगा है मनुष्य ने जहॉं-जहॉं पॉंव रखा है, वहॉं-वहॉ की प्रकृति नष्ट हुई है। शिमला जाने का मन नहीं करता, न नैनीताल, अब हम प्रकृति के अनछुए प्रदेशों की तलाश में पहाड़ों को रौंद रहे हैं। वहॉं का पर्यावरण पर्याप्त दूषित हो चुका है, हम अपने शहर से गाड़ियों का शोर और धुँआ साथ ले जाते हैं और चिप्स,कुरकुरे आदि की थैलियाँ,पॉलीथीन, प्लास्टिक-बोतलों का कचरा वहॉं इकट्ठा करते रहते हैं। शिमला( बेतहाशा बढ़ते मकानों/होटलों के बीच पहाड़ कहीं नजर आ रहा है!!)
एक सच्चा सैलानी वही है जो प्रकृति से कम-से-कम छेड़छाड़ किए बिना वहॉ का आनंद लेकर लौट आए। प्लास्टिक की बोतलें और पॉलीथीन सुनिश्चित जगह पर ही फेंके। जगह न मिले तो उसे शहर के कूड़ेदान में डालने के लिए अपने साथ ले आए। इसमें ऐतराज क्यों!! आप अपने गंदे कपड़े धोने के लिए घर नहीं लाते क्या! उन्हें बाहर तो नहीं फेंकते ना!
यह तो अपनी जिम्मेदारी की बात हुई, लेकिन वहॉ की सरकार को क्या कहा जाए! एक दशक पहले शिमला(कुफ्री), मसूरी (गन हिल)आदि पहाड़ी वादियों में प्राकृतिक कोलाहल था, अब म्यूजिकल हलाहल है। तमाम जंगल उखाड़कर वहाँ जहॉं-तहॉं बच्चों के झूले, रेलगाड़ी आदि और तमाम तरह के लौह उपकरण खड़े कर दिए गए हैं। हर स्टॉल पर धमाकेदार संगीत आपको वहॉं से भागने के लिए हंगामा बरपा रहे हैं (हैरानी तो तब हुई, जब सहस्रधारा (देहरादून) के पास भी ऐसा नजारा दिखा। वहॉं पर एक सेकेण्डर भी रूकने का मन नहीं हुआ।)
हम पहाड़ो पर जाकर अपनी तरफ से भी सफाई का ध्यान रखें तो वह भी कम नहीं होगा। अगर एक समूह ऐसी जगह किसी टूर पर जाता है और खुद प्लास्टीक की बोतलें और पॉलिथीन आदि इकट्ठा करने की हिम्मत दिखाता है तो लोग इस पहल की प्रशंसा ही करते हैं और शायद आपके इस मुहिम में कई लोग तत्काल शामिल भी हो सकते हैं। यह न केवल अपने बच्चों के लिए एक हिल स्टेशन बचाने की कोशिश है बल्कि पूरी पृथ्वी को स्वच्छ रखने में आपका यह आंशिक सहयोग अनमोल साबित होगा। एक बार करके तो देखिए, खुशी मिलेगी।
मेरे मित्र ने राज भाटिया जी और मुनीश जी को आभार प्रकट किया था कि उन्होंने (उसकी) मारूती पर भरोसा जताया है, ऐसे वक्त में जब उसका खुद का भरोसा अपनी कार से उठ चुका था :) मुन्ना पांडेय जी ने मसूरी से आगे चकराता जाने का जो सुझाव दिया है, वह अगली बार के लिए सुनिश्चित कर लिया है। अनुराग जी ने लेंस्दाउन नाम का जिक्र किया है, यह कहॉं है, यह बताने की कृपा करें अनुराग जी।
मैं अभी मानसून के इंतजार में दिल्ली की गर्मी झेल रहा हूँ। यह गर्मी साल-दर-साल बढ़ती महसूस हो रही है। भारत में गर्मी प्रकृति का एक दीर्घकालिक हथियार है, और यह खून को पसीने के रूप में बहा देता है, देखें कितना खून पीता है यह मौसम!!
एक सच्चा सैलानी वही है जो प्रकृति से कम-से-कम छेड़छाड़ किए बिना वहॉ का आनंद लेकर लौट आए। प्लास्टिक की बोतलें और पॉलीथीन सुनिश्चित जगह पर ही फेंके। जगह न मिले तो उसे शहर के कूड़ेदान में डालने के लिए अपने साथ ले आए। इसमें ऐतराज क्यों!! आप अपने गंदे कपड़े धोने के लिए घर नहीं लाते क्या! उन्हें बाहर तो नहीं फेंकते ना!
यह तो अपनी जिम्मेदारी की बात हुई, लेकिन वहॉ की सरकार को क्या कहा जाए! एक दशक पहले शिमला(कुफ्री), मसूरी (गन हिल)आदि पहाड़ी वादियों में प्राकृतिक कोलाहल था, अब म्यूजिकल हलाहल है। तमाम जंगल उखाड़कर वहाँ जहॉं-तहॉं बच्चों के झूले, रेलगाड़ी आदि और तमाम तरह के लौह उपकरण खड़े कर दिए गए हैं। हर स्टॉल पर धमाकेदार संगीत आपको वहॉं से भागने के लिए हंगामा बरपा रहे हैं (हैरानी तो तब हुई, जब सहस्रधारा (देहरादून) के पास भी ऐसा नजारा दिखा। वहॉं पर एक सेकेण्डर भी रूकने का मन नहीं हुआ।)
हम पहाड़ो पर जाकर अपनी तरफ से भी सफाई का ध्यान रखें तो वह भी कम नहीं होगा। अगर एक समूह ऐसी जगह किसी टूर पर जाता है और खुद प्लास्टीक की बोतलें और पॉलिथीन आदि इकट्ठा करने की हिम्मत दिखाता है तो लोग इस पहल की प्रशंसा ही करते हैं और शायद आपके इस मुहिम में कई लोग तत्काल शामिल भी हो सकते हैं। यह न केवल अपने बच्चों के लिए एक हिल स्टेशन बचाने की कोशिश है बल्कि पूरी पृथ्वी को स्वच्छ रखने में आपका यह आंशिक सहयोग अनमोल साबित होगा। एक बार करके तो देखिए, खुशी मिलेगी।
मेरे मित्र ने राज भाटिया जी और मुनीश जी को आभार प्रकट किया था कि उन्होंने (उसकी) मारूती पर भरोसा जताया है, ऐसे वक्त में जब उसका खुद का भरोसा अपनी कार से उठ चुका था :) मुन्ना पांडेय जी ने मसूरी से आगे चकराता जाने का जो सुझाव दिया है, वह अगली बार के लिए सुनिश्चित कर लिया है। अनुराग जी ने लेंस्दाउन नाम का जिक्र किया है, यह कहॉं है, यह बताने की कृपा करें अनुराग जी।
मैं अभी मानसून के इंतजार में दिल्ली की गर्मी झेल रहा हूँ। यह गर्मी साल-दर-साल बढ़ती महसूस हो रही है। भारत में गर्मी प्रकृति का एक दीर्घकालिक हथियार है, और यह खून को पसीने के रूप में बहा देता है, देखें कितना खून पीता है यह मौसम!!
Saturday 6 June 2009
मसूरी: पास का सुहाना ढोल........
बारह साल पहले छात्र-जीवन की कंजूसी के तहत पहाड़ी यात्रा के सफर पर जब मैं चला था, तब इस दौरान बस-यात्रा और कई जगह मीलों पैदल चलने की मजबूरी ने मसूरी यात्रा को नागवार बना दिया था। तभी मैंने तय किया था कि अब बस की बेबस-यात्रा की बजाए कार से आऊँगा, बशर्ते कार बेकार न हो। तब मेरे साथ मेरा एक मित्र सत्यम था, जिसे मैंने इस टूर के लिए जबरदस्ती सहयात्री बनाया था। मैं हिन्दू कॉलेज हॉस्टल में रहता था और वहॉं से हरिद्वार-ऋषिकेश का टूर जा रहा था (हैरानी की बात है कि हम कॉलेज के उन दिनों में धार्मिक यात्राऍं कर रहे थे।) हॉस्टल टूर की बस को छोड़ हमने देहरादून और फिर वहॉं से मसूरी की बस पकड़ ली थी।
उन्हीं दिनों को याद करते हुए पिछले हफ्ते अपने दोस्त की 96 मॉडल स्टीम कार से हम लोग मसूरी पहुँचे। कार से यहॉं आने की इच्छा तो पूरी हो गई पर डर तो ये सता रहा था कि ये 96 मॉडल कार हमें वापस दिल्ली तक पहुँचा पाएगी या नहीं!
खैर, तमाम तरह के फिजूल डर और रोमांच के बीच यह यात्रा दिल्ली की गर्मी से राहत दिलाने में कामयाब रही। मसूरी तो आप सभी गए होंगे, इसलिए वहॉं के बारे में मैं क्या बताऊँ! कुछ तस्वीरें बोलती हैं, कुछ चुपचाप दिल में उतर जाती हैं तो कुछ अतीत में आपको खींच ले जाती हैं। शायद आपको भी कुछ याद आ जाए...
गॉंधी चौक
केम्पटी फॉल
Tuesday 12 May 2009
ऊँट बैठा इस करवट....
हर मंगलवार वह दिल्ली में ऊँट ढ़ूँढ़ता था, बड़ी मुश्किल से उसे एक ऊँटवाले के स्थायी निवास का पता चला, और वह वहॉं नियमित रूप से हर मंगलवार को पहुँचने लगा। उसके पास दो ऊँट और एक रौबीला घोड़ा था। किसी वयोवृद्ध पंडित ने उसे सुझाया था कि ऊँट को हर मंगलवार दो किलो दाल खिलाने से उसके संकट का निवारण हो जाएगा। वह बस पकड़ता, बीस कि.मी. चलकर ऊँट तक पहुंचता और दाल धोकर चारे के साथ ऊँट को अपने हाथों से खिलाता।
ऊँट का मालिक कहता- जनाब, यहॉं गुड़गॉंव, साकेत और पड़पड़गंज से भी लोग दाल खिलाने आते हैं, दाल खिलाने से आपका संकट जरूर दूर होगा। उसका लड़का ऊँट को एक रस्सी से पकड़े रहता। ऊँटवाला उसे कुर्सी पर बिठाता, चाय-पानी पूछता।
दो-तीन हफ्ते बाद भी उसकी परेशानी ज्यों-कि-त्यों बनी रही, जबकि पंडित ने कहा था कि इसका फल तत्काल मिलेगा। इसके बावजूद वह श्रद्धापूर्वक वहॉं जाता रहा और दाल खिलाता रहा।
आठवें मंगलवार को जब वह दाल खिलाने पहुँचा़ तो देखा कि ऊँटवाले का लड़का तैयार होकर कहीं जा रहा था। उसने ऊँटवाले से यूँ ही पूछ लिया कि आपका लड़का कहीं काम पर जा रहा है क्या ?
ऊँटवाले ने कहा- अरे नही, वह कोर्ट जा रहा है, लड़कीवाले दो साल से परेशान कर रहे हैं, उन्होंने केस कर रखा है, नौ लाख रूपये की मॉंग कर रहे हैं, कहते हैं कि दहेज वापस करो। अब आप ही बताओ, शादी के दो साल बाद दहेज का द भी नहीं दिखता है, नौ लाख कहॉं से दें। अब तो रब ही मालिक...
वह दुखी होकर लौट रहा था, उसका मन खिन्न था। उसे पशु को खिलाने का अफसोस नहीं था, न ही सोलह किलो दाल की चिंता। उसके संकट में खास फर्क भी नहीं आया था। इसके बाद उसने वहॉं जाना छोड़ दिया। उसके दोस्तो ने उसे ढ़ॉंढ़स बढ़ाया कि चलो अच्छा किया जाना बंदकर दिया, जिस आदमी के पास दो-दो ऊँट है, वह इतनी मुसीबत में है तो उससे तुम्हांरी समस्या कैसे दूर होगी!
उसने कहा- क्या बेकार की बात करते हो, मैंने वहॉं जाना इसलिए बंद कर दिया है क्योंकि दो किलो दाल खाने में ऊँटों को एकाध घंटे से ज्यादा लग जाता है। मैं वहॉं दस-पंद्रह मिनट से ज्यादा रूक नहीं सकता, और मुझे संदेह है कि मेरे निकलते ही मेरा चारा वो अपने घोड़े को खिला देते होंगे।
दोस्त ने पूछा- तो अब क्या सोचा है ?
उसने कहा- अब ऐसा मालिक ढ़ूँढ़ रहा हूँ जिसके पास सिर्फ ऊँट हो, घोड़े नहीं !
(चित्र गूगल के सौजन्य से। इसकी खास बात यह है कि इसे पिकासो ने बनाया है)
ऊँट का मालिक कहता- जनाब, यहॉं गुड़गॉंव, साकेत और पड़पड़गंज से भी लोग दाल खिलाने आते हैं, दाल खिलाने से आपका संकट जरूर दूर होगा। उसका लड़का ऊँट को एक रस्सी से पकड़े रहता। ऊँटवाला उसे कुर्सी पर बिठाता, चाय-पानी पूछता।
दो-तीन हफ्ते बाद भी उसकी परेशानी ज्यों-कि-त्यों बनी रही, जबकि पंडित ने कहा था कि इसका फल तत्काल मिलेगा। इसके बावजूद वह श्रद्धापूर्वक वहॉं जाता रहा और दाल खिलाता रहा।
आठवें मंगलवार को जब वह दाल खिलाने पहुँचा़ तो देखा कि ऊँटवाले का लड़का तैयार होकर कहीं जा रहा था। उसने ऊँटवाले से यूँ ही पूछ लिया कि आपका लड़का कहीं काम पर जा रहा है क्या ?
ऊँटवाले ने कहा- अरे नही, वह कोर्ट जा रहा है, लड़कीवाले दो साल से परेशान कर रहे हैं, उन्होंने केस कर रखा है, नौ लाख रूपये की मॉंग कर रहे हैं, कहते हैं कि दहेज वापस करो। अब आप ही बताओ, शादी के दो साल बाद दहेज का द भी नहीं दिखता है, नौ लाख कहॉं से दें। अब तो रब ही मालिक...
वह दुखी होकर लौट रहा था, उसका मन खिन्न था। उसे पशु को खिलाने का अफसोस नहीं था, न ही सोलह किलो दाल की चिंता। उसके संकट में खास फर्क भी नहीं आया था। इसके बाद उसने वहॉं जाना छोड़ दिया। उसके दोस्तो ने उसे ढ़ॉंढ़स बढ़ाया कि चलो अच्छा किया जाना बंदकर दिया, जिस आदमी के पास दो-दो ऊँट है, वह इतनी मुसीबत में है तो उससे तुम्हांरी समस्या कैसे दूर होगी!
उसने कहा- क्या बेकार की बात करते हो, मैंने वहॉं जाना इसलिए बंद कर दिया है क्योंकि दो किलो दाल खाने में ऊँटों को एकाध घंटे से ज्यादा लग जाता है। मैं वहॉं दस-पंद्रह मिनट से ज्यादा रूक नहीं सकता, और मुझे संदेह है कि मेरे निकलते ही मेरा चारा वो अपने घोड़े को खिला देते होंगे।
दोस्त ने पूछा- तो अब क्या सोचा है ?
उसने कहा- अब ऐसा मालिक ढ़ूँढ़ रहा हूँ जिसके पास सिर्फ ऊँट हो, घोड़े नहीं !
(चित्र गूगल के सौजन्य से। इसकी खास बात यह है कि इसे पिकासो ने बनाया है)
Saturday 2 May 2009
हाई-टेक होती जिंदगी में रि-टेक की गुंजाइश
एक ही व्यक्ति अलग-अलग जीवन-स्िथतियों में जीता है, अलग-अलग उम्र को जीता है और अपने फलसफे बनाता है.... या नहीं भी बनाता....। लेकिन फितरत यही होती है कि व्यक्ति अपनी ही मूरत को बनाता है, सँवारता है, फिर उसे तोड़कर चल देता है। हमारा शहर फैलता जा रहा है और हम उसमें सिकुड़ते जा रहे हैं- मन से भी और रिश्तों से भी। मानसिकता का फर्क हमारे भौतिक जगत को प्रभावित कर रहा है और उससे प्रभावित भी हो रहा है।
हमारा संसार 'घर और लैपटॉप' के भीतर सिमटकर रह गया है। इस घर में या लैपटॉप में कुछ भी गड़बड़ी हो, हम बेचैन हो जाते हैं। अब अपनी ही बात बताऊँ, मैंने अपने लैपटॉप पर इंटरनेट से एक एंटी-वायरस डाउनलोड किया था, पर वह कारगर साबित नहीं हुआ, मैंने कंट्रोल पैनल जाकर जैसे ही उसे रिमूव किया, मेरी समस्या वहीं से शुरू हुई। डी-ड्राइव में मौजूद लगभग 5 जी.बी. की सारी फाइल उड़ गई, फिर इसके साथ कई चीजें उड़ गई- मेरी नींद, मेरे होश.....। मेरी हालत देवदास-सी हो गई और अपनी इस हालत पे मुझे गुस्सा भी आया- मैंने अपने-आपको इतना पराश्रित क्यों बना डाला है ?
मैंने याद करने की कोशिश की, मैं दो बार ऐसे अवसाद से और घिर चुका हूँ........... एक बार मोबाइल गुम होने के बाद, दूसरी बार मोबाइल से सारे नंबर डिलिट होने के बाद।
मैं सोच रहा था कि मैं अपने दोस्त को क्या जवाब दूँगा, जिसकी अभी-अभी शादी हुई थी और इस अवसर की सारी तस्वीरें और वीडियो मेरे कम्प्यूटर में सेव थी। मेरा जो नुक्सान हुआ सो अलग।
मैंने अपने एक मित्र से पूछा कि क्या इस रिमूव्ड फाइल को पाया जा सकता है ? फरवरी 2010 तक मेरा लैपटॉप अंडर-वारंटी है, इस वजह से हार्ड-डीस्क निकालना ठीक नहीं है, पर किसी सॉफ्टवेयर से ऐसा किया जा सकता है। मेरा मित्र इसके ज्यादा कुछ न बता सका। अब लैपटॉप मुझे खाली डब्बा-सा लग रहा है।
हम जैसे-जैसे मशीनों के आदी होते जाऍंगे, वैसे-वैसे मैन्यूअल और मैकेनिकल के बीच द्वंद्व बढ़ता जाएगा, क्योंकि मनुष्य अंतत: भूल करने के लिए अभिशप्त है, आखिर हम इंसान जो है।
कभी-कभी लगता है, हम अपने-आपको कितना उलझाते जा रहे हैं। हाई-टेक होती जिंदगी में रि-टेक की गुंजाइश खत्म-सी होती जा रही है।
हमारा संसार 'घर और लैपटॉप' के भीतर सिमटकर रह गया है। इस घर में या लैपटॉप में कुछ भी गड़बड़ी हो, हम बेचैन हो जाते हैं। अब अपनी ही बात बताऊँ, मैंने अपने लैपटॉप पर इंटरनेट से एक एंटी-वायरस डाउनलोड किया था, पर वह कारगर साबित नहीं हुआ, मैंने कंट्रोल पैनल जाकर जैसे ही उसे रिमूव किया, मेरी समस्या वहीं से शुरू हुई। डी-ड्राइव में मौजूद लगभग 5 जी.बी. की सारी फाइल उड़ गई, फिर इसके साथ कई चीजें उड़ गई- मेरी नींद, मेरे होश.....। मेरी हालत देवदास-सी हो गई और अपनी इस हालत पे मुझे गुस्सा भी आया- मैंने अपने-आपको इतना पराश्रित क्यों बना डाला है ?
मैंने याद करने की कोशिश की, मैं दो बार ऐसे अवसाद से और घिर चुका हूँ........... एक बार मोबाइल गुम होने के बाद, दूसरी बार मोबाइल से सारे नंबर डिलिट होने के बाद।
मैं सोच रहा था कि मैं अपने दोस्त को क्या जवाब दूँगा, जिसकी अभी-अभी शादी हुई थी और इस अवसर की सारी तस्वीरें और वीडियो मेरे कम्प्यूटर में सेव थी। मेरा जो नुक्सान हुआ सो अलग।
मैंने अपने एक मित्र से पूछा कि क्या इस रिमूव्ड फाइल को पाया जा सकता है ? फरवरी 2010 तक मेरा लैपटॉप अंडर-वारंटी है, इस वजह से हार्ड-डीस्क निकालना ठीक नहीं है, पर किसी सॉफ्टवेयर से ऐसा किया जा सकता है। मेरा मित्र इसके ज्यादा कुछ न बता सका। अब लैपटॉप मुझे खाली डब्बा-सा लग रहा है।
हम जैसे-जैसे मशीनों के आदी होते जाऍंगे, वैसे-वैसे मैन्यूअल और मैकेनिकल के बीच द्वंद्व बढ़ता जाएगा, क्योंकि मनुष्य अंतत: भूल करने के लिए अभिशप्त है, आखिर हम इंसान जो है।
कभी-कभी लगता है, हम अपने-आपको कितना उलझाते जा रहे हैं। हाई-टेक होती जिंदगी में रि-टेक की गुंजाइश खत्म-सी होती जा रही है।
Friday 24 April 2009
चलो बुलावा आया है......
धर्म के बहाने यात्रा या यात्रा के बहाने धर्म का निबाह हो जाना अच्छा लगता है। अगर धार्मिक स्थल पर भीड़ अपेक्षा के बिल्कुल विपरीत हो, तो इसका भी अपना आनंद है। मैं बात कर रहा हूँ, वैष्णों देवी (जम्मू) की यात्रा की। कल शाम ही लौटा हूँ, शरीर पूरी तरह थकान से उबरा नहीं है। विस्तृत विवरण एक-दो दिन में पोस्ट करुँगा, फिलहाल आप सबको जय माता दी !!
Friday 3 April 2009
राह से गुजरते हुए.......
अजनबी हो जाने का खौफ
बदनाम हो जाने से ज्यादा खौफनाक है।
अकेले हो जाने का खौफ
भीड़ में खो जाने से ज्यादा खौफनाक है।
किसी रास्ते् का न होना
राह भटक जाने से ज्यादा खौफनाक है।
तनाव में जीना
असमय मर जाने से ज्यादा खौफनाक है।
इनसे कहीं ज्यादा खौफनाक है-
आसपास होते हुए भी न होने के अहसास से भर जाना.........
-जितेन्द्र भगत
( चाहा तो था कि ब्लॉग पर निरंतरता बनाए रखूँ, पर शायद वक्त किसी चौराहे पर खड़ा था, जहॉं से गुजरनेवाली हर सड़क मुझे चारो तरफ से खींच रही थी, वक्त के साथ मैं भी बँट-सा गया था...... आज इतने अरसे बाद वक्त ने कुछ यादें बटोरने, कुछ यादें ताजा करने की मोहलत दी है, अभी तो यही उम्मीद है कि वक्त की झोली से कुछ पल चुराकर इस गली में आता-जाता रहूँगा। )
बदनाम हो जाने से ज्यादा खौफनाक है।
अकेले हो जाने का खौफ
भीड़ में खो जाने से ज्यादा खौफनाक है।
किसी रास्ते् का न होना
राह भटक जाने से ज्यादा खौफनाक है।
तनाव में जीना
असमय मर जाने से ज्यादा खौफनाक है।
इनसे कहीं ज्यादा खौफनाक है-
आसपास होते हुए भी न होने के अहसास से भर जाना.........
-जितेन्द्र भगत
( चाहा तो था कि ब्लॉग पर निरंतरता बनाए रखूँ, पर शायद वक्त किसी चौराहे पर खड़ा था, जहॉं से गुजरनेवाली हर सड़क मुझे चारो तरफ से खींच रही थी, वक्त के साथ मैं भी बँट-सा गया था...... आज इतने अरसे बाद वक्त ने कुछ यादें बटोरने, कुछ यादें ताजा करने की मोहलत दी है, अभी तो यही उम्मीद है कि वक्त की झोली से कुछ पल चुराकर इस गली में आता-जाता रहूँगा। )
Monday 19 January 2009
घिसे हुए जूतों की दास्तान !!
(I)
मेरी चमड़ी पर कई झुर्रियाँ पड़ गई हैं, कमर भी झुक गई है। मेरे फीते की धज्जियॉं भी उड़ गई हैं। मेरी आत्मा (सॉल) लगभग घिस चुकी है, उसके परखच्चे बस उड़ने ही वाले हैं। अपनी उम्र से ज्यादा मैं जी चुका हूँ। सन् 2004 की होली में मैंने मालिक के पैरों को आसरा दिया था, 2009 की होली अब आनेवाली है, पर मेरा मालिक आज भी मेरी अटकी हुई सॉस को रोकने की बेतरह कोशिश कर रहा है।
मुझे आज भी याद है, जब मेरा मालिक दूल्हा बना था, शादी के मंडप से दो कुड़ियॉं मुझे छिपा ले गई थीं। और उस दिन का तो क्या कहना, जब मेरे मालिक को लड़का हुआ था, चाहता तो था कि पालने तक जाऊँ, लेकिन हम लोगों की तकदीर ही कुछ ऐसी है, शुद्ध और स्वच्छ स्थानों से हमें दूर ही रहना पड़ता है, चाहे मंदिर हो या अस्पताल।
वैसे तो मेरे पूर्वजों का इतिहास अत्यंत गौरवशाली रहा है। महाराज भरत ने श्रीराम के खड़ाऊ को पूज्य बनाकर मेरे पूर्वजों को जितनी इज्जत बख्शी, ऐसा उदाहरण विश्व में कहीं नहीं मिलता।
एक बार मेरे मालिक सड़क से गुजर रहे थे, मैंने देखा कुछ लोग मेरे सहोदरों को हाथों में लेकर दूसरे आदमी को पीट रहे थे। मुझे ऐसे लोगों से चीढ़ है जो चीजों का गलत इस्तमाल करते हैं। जूते की शोभा पैरों में ही है, कहीं और नहीं। कई बार तो मेरी माला बनाकर मुझे भी गधे नामक जंतु की सैर करा दी जाती है। कहीं किसी मंच पर कुछ भी गड़बड़ हो, मेरे सहोदरों को ही उठा-उठाकर फेंका जाता है। अभी बीते महिने की बात है, मेरे विदेशी मित्र को किसी ने बुश पर दे मारा।
गर्मी, सर्दी, बरसात - न जाने क्या-क्या झेले हैं मैंने। नदी, पर्वत, आकाश - न जाने क्या-क्या नापे हैं मैंने। मुझे नौकरी पर रखनेवाला मेरा मालिक बेचारा खुद पक्की नौकरी की जुगत में रहा। समय के अभाव के बावजूद उसने बराबर मेरा ख्याल रखा, सुबह बड़े चाव से मेरे चेहरे को चमकाता और रात को गहरी थकान के बावजूद मुझे इधर-उधर फेंकने की भूल नहीं करता। सोचा था मालिक को पक्की नौकरी मिलते ही मुझे रिटायरमेंट मिल जाएगी, पर मालिक पर जिम्मेदारी दिनोंदिन बढती गई और मुझे ओवरटाइम तक करना पड़ा।
मजे की बात बताऊँ, मालिक मेरे बिना रह नहीं सकते, कहीं आ-जा नहीं सकते, ट्रेन के सफर में मैं उनसे बिछुड़कर किसी और के पैरों की शोभा न बढ़ाऊँ, इसलिए अपने पास थैले में डालकर सोते हैं। मेरी चिंता में इन्होंने मंदिर जाना तक छोड़ दिया है, अगर जाते भी हैं तो बाहर से खड़े-खड़े ही नमन कर लेते हैं
कभी-कभी सोचता हूँ दुनिया में जितने भी प्रेमी हुए हैं, अक्सर रोमियो-जूलियट, शीरी-फरहाद, लैला-मजनू, चंदा और चकोर की कस्में खाते देखे गए हैं, लेकिन क्या किसी ने हमारी जोड़ियों की कसम खाई है ??
(II)
लोग मेरे मालिक को कहते हैं यार तेरा जूता तो काफी चल गया!! मैं पूछता हूँ ये तारीफ है या ताना !! एक आदमी ने पक्की नौकरी के इंतजार में छ: साल मेरे साथ गुजार दिए जबकि ऐसे भी लोग हैं जो साल-छ:महिने में जूते बदल लेते हैं।
नए जूते खरीदना कोई मुश्किल नहीं है, पर मेरे मालिक को आज की रवायतों का ठीक-ठीक अंदाजा नहीं है, वर्ना वे इस भरोसे या भ्रम में न जीते कि पक्की नौकरी मिलते ही नए जूते ले लूँगा। अलादीन के चिराग और मुझमें कुछ तो फर्क होता है न!!
जिस तरह पलकें आखों पर बोझ नहीं होती, उसी तरह मेरे मालिक ने भी मुझे कभी बोझ नहीं माना, बल्कि हमेशा अपने पथ का साथी माना है, मेरी जर्जर काया के बावजूद उनका मोह मुझसे नहीं छुटा है। बस एक ही गुजारिश है इनके विभाग के वरिष्ठ प्रोफेसरों से, मुझे अपने मालिक से निजात दिलाने का कुछ जतन करो। पक्की नौकरी देकर इसकी एड़ियों को भी नए जूते का सुख भोगने दो। घिसे हुए जूते को पॉलिश से कब तक छिपाता रहेगा मेरा मालिक !! छ: साल कम नहीं होते हैं..... आदमी घिस जाता है, मैं तो अदद एक जूता हूँ।
मेरी चमड़ी पर कई झुर्रियाँ पड़ गई हैं, कमर भी झुक गई है। मेरे फीते की धज्जियॉं भी उड़ गई हैं। मेरी आत्मा (सॉल) लगभग घिस चुकी है, उसके परखच्चे बस उड़ने ही वाले हैं। अपनी उम्र से ज्यादा मैं जी चुका हूँ। सन् 2004 की होली में मैंने मालिक के पैरों को आसरा दिया था, 2009 की होली अब आनेवाली है, पर मेरा मालिक आज भी मेरी अटकी हुई सॉस को रोकने की बेतरह कोशिश कर रहा है।
मुझे आज भी याद है, जब मेरा मालिक दूल्हा बना था, शादी के मंडप से दो कुड़ियॉं मुझे छिपा ले गई थीं। और उस दिन का तो क्या कहना, जब मेरे मालिक को लड़का हुआ था, चाहता तो था कि पालने तक जाऊँ, लेकिन हम लोगों की तकदीर ही कुछ ऐसी है, शुद्ध और स्वच्छ स्थानों से हमें दूर ही रहना पड़ता है, चाहे मंदिर हो या अस्पताल।
वैसे तो मेरे पूर्वजों का इतिहास अत्यंत गौरवशाली रहा है। महाराज भरत ने श्रीराम के खड़ाऊ को पूज्य बनाकर मेरे पूर्वजों को जितनी इज्जत बख्शी, ऐसा उदाहरण विश्व में कहीं नहीं मिलता।
एक बार मेरे मालिक सड़क से गुजर रहे थे, मैंने देखा कुछ लोग मेरे सहोदरों को हाथों में लेकर दूसरे आदमी को पीट रहे थे। मुझे ऐसे लोगों से चीढ़ है जो चीजों का गलत इस्तमाल करते हैं। जूते की शोभा पैरों में ही है, कहीं और नहीं। कई बार तो मेरी माला बनाकर मुझे भी गधे नामक जंतु की सैर करा दी जाती है। कहीं किसी मंच पर कुछ भी गड़बड़ हो, मेरे सहोदरों को ही उठा-उठाकर फेंका जाता है। अभी बीते महिने की बात है, मेरे विदेशी मित्र को किसी ने बुश पर दे मारा।
गर्मी, सर्दी, बरसात - न जाने क्या-क्या झेले हैं मैंने। नदी, पर्वत, आकाश - न जाने क्या-क्या नापे हैं मैंने। मुझे नौकरी पर रखनेवाला मेरा मालिक बेचारा खुद पक्की नौकरी की जुगत में रहा। समय के अभाव के बावजूद उसने बराबर मेरा ख्याल रखा, सुबह बड़े चाव से मेरे चेहरे को चमकाता और रात को गहरी थकान के बावजूद मुझे इधर-उधर फेंकने की भूल नहीं करता। सोचा था मालिक को पक्की नौकरी मिलते ही मुझे रिटायरमेंट मिल जाएगी, पर मालिक पर जिम्मेदारी दिनोंदिन बढती गई और मुझे ओवरटाइम तक करना पड़ा।
मजे की बात बताऊँ, मालिक मेरे बिना रह नहीं सकते, कहीं आ-जा नहीं सकते, ट्रेन के सफर में मैं उनसे बिछुड़कर किसी और के पैरों की शोभा न बढ़ाऊँ, इसलिए अपने पास थैले में डालकर सोते हैं। मेरी चिंता में इन्होंने मंदिर जाना तक छोड़ दिया है, अगर जाते भी हैं तो बाहर से खड़े-खड़े ही नमन कर लेते हैं
कभी-कभी सोचता हूँ दुनिया में जितने भी प्रेमी हुए हैं, अक्सर रोमियो-जूलियट, शीरी-फरहाद, लैला-मजनू, चंदा और चकोर की कस्में खाते देखे गए हैं, लेकिन क्या किसी ने हमारी जोड़ियों की कसम खाई है ??
(II)
लोग मेरे मालिक को कहते हैं यार तेरा जूता तो काफी चल गया!! मैं पूछता हूँ ये तारीफ है या ताना !! एक आदमी ने पक्की नौकरी के इंतजार में छ: साल मेरे साथ गुजार दिए जबकि ऐसे भी लोग हैं जो साल-छ:महिने में जूते बदल लेते हैं।
नए जूते खरीदना कोई मुश्किल नहीं है, पर मेरे मालिक को आज की रवायतों का ठीक-ठीक अंदाजा नहीं है, वर्ना वे इस भरोसे या भ्रम में न जीते कि पक्की नौकरी मिलते ही नए जूते ले लूँगा। अलादीन के चिराग और मुझमें कुछ तो फर्क होता है न!!
जिस तरह पलकें आखों पर बोझ नहीं होती, उसी तरह मेरे मालिक ने भी मुझे कभी बोझ नहीं माना, बल्कि हमेशा अपने पथ का साथी माना है, मेरी जर्जर काया के बावजूद उनका मोह मुझसे नहीं छुटा है। बस एक ही गुजारिश है इनके विभाग के वरिष्ठ प्रोफेसरों से, मुझे अपने मालिक से निजात दिलाने का कुछ जतन करो। पक्की नौकरी देकर इसकी एड़ियों को भी नए जूते का सुख भोगने दो। घिसे हुए जूते को पॉलिश से कब तक छिपाता रहेगा मेरा मालिक !! छ: साल कम नहीं होते हैं..... आदमी घिस जाता है, मैं तो अदद एक जूता हूँ।
Saturday 10 January 2009
याद आती रही......
सर्दियों में कुहासे की चादर ओढ़े सुबह की धूप जैसे रेशम-सी नरम होती है, किरणों के रेशे-रेशे में गरमाहट की जैसे एक आहट होती है, वैसे ही इस गॉंव की याद मन में एक कसक के साथ मौजूद रही। जब भी मैं अकेला हुआ, मुझे महसूस होता रहा कि कुछ छूट रहा है........ रह-रहकर आपलोगों की याद आती रही।
ऐसा लग रहा था, जैसे बिन बताए घर से निकल गया हूँ परदेश में, अब घर आते हुए महसूस हो रहा है कि कितने समय से बाहर था। गॉंव कितना बदल गया होगा, कई नये लोग आकर बसे होंगें। कई नए घर बने होंगें। कुछ लोगों ने अपना घर ठीक किया होगा, उसे नई तरह से सजाया होगा, कई तरह से सजाया होगा.... कुछ लोग मेरी तरह घर छोड़कर निकल गए होंगे, कुछ लोग चाहकर भी घर नहीं लौट पाए होंगे,...... पर खतों ने गॉव की याद को भूलने न दिया........ और इस तरह मैं बरबस लौट आया।
बीते साल कई चीजें निपटाकर आया हूँ। इससे पहले कि उमर के इस पड़ाव पर कुछ कर गुजरने की चाहत दम तोड़ने लगे, मनमाफिक मंजिल को पा लेने की तड़प दिल पर बोझ लगने लगे, जीने का हौसला बरकरार रखना चाहता हूँ। नया साल इसी जोश के साथ शुरू कर रहा हूँ।
कुछ देर से ही सही, आप सभी को नए साल की हार्दिक शुभकामनाऍं। आपके घर धमकने ही वाला हूँ कि नए साल पर आपने अपने घर को किस तरह संवारा है
(आप सबकी दुआओं और मशवरों का तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ। दिसम्बर 08 के मध्य में दिल्ली स्थित इस्कोर्ट हर्ट हॉस्पीटल में मेरे पापा की इंजियोप्लास्टी हुई थी और अब वे बिल्कुल ठीक हैं।)
ऐसा लग रहा था, जैसे बिन बताए घर से निकल गया हूँ परदेश में, अब घर आते हुए महसूस हो रहा है कि कितने समय से बाहर था। गॉंव कितना बदल गया होगा, कई नये लोग आकर बसे होंगें। कई नए घर बने होंगें। कुछ लोगों ने अपना घर ठीक किया होगा, उसे नई तरह से सजाया होगा, कई तरह से सजाया होगा.... कुछ लोग मेरी तरह घर छोड़कर निकल गए होंगे, कुछ लोग चाहकर भी घर नहीं लौट पाए होंगे,...... पर खतों ने गॉव की याद को भूलने न दिया........ और इस तरह मैं बरबस लौट आया।
बीते साल कई चीजें निपटाकर आया हूँ। इससे पहले कि उमर के इस पड़ाव पर कुछ कर गुजरने की चाहत दम तोड़ने लगे, मनमाफिक मंजिल को पा लेने की तड़प दिल पर बोझ लगने लगे, जीने का हौसला बरकरार रखना चाहता हूँ। नया साल इसी जोश के साथ शुरू कर रहा हूँ।
कुछ देर से ही सही, आप सभी को नए साल की हार्दिक शुभकामनाऍं। आपके घर धमकने ही वाला हूँ कि नए साल पर आपने अपने घर को किस तरह संवारा है
(आप सबकी दुआओं और मशवरों का तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ। दिसम्बर 08 के मध्य में दिल्ली स्थित इस्कोर्ट हर्ट हॉस्पीटल में मेरे पापा की इंजियोप्लास्टी हुई थी और अब वे बिल्कुल ठीक हैं।)
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