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Saturday, 3 April 2010

शहर के चौक पर टखना सिंह

टखना सिंह ने अपने दोस्‍त करेजा से पूछा-
मुझे शहर जाना है हर संडे!
करेजा सिंह लगभग हर संडे हास्‍टल से भागकर फि‍ल्‍म देखने शहर जाता था और कभी पकड़ा भी नहीं गया।
क्‍या फि‍ल्‍म देखनी है?
नहीं!
किसी रि‍श्‍तेदार के घर जाना है?
नहीं!
कि‍सी लड़की से मि‍लना है क्‍या?
अरे नहीं भाई!!
उसे कोई बहाना भी नहीं सूझ रहा था कि‍ क्‍या कहे! उसने ये कहकर टाल दि‍या कि‍ बाद में बताऊँगा।
उस हॉस्‍टल का कानून हॉस्‍टल-परि‍सर से बाहर जाने की इजाजत नहीं देता था। टखना सिंह तब दसवीं क्‍लास का छात्र था और उसके उपर इसका भी काफी दबाव था।

शहर के चौक पर टखना का यह पहला संडे था। वह एक लाचार बुढि‍या को तलाश रहा था जि‍से वह रास्‍ता पार करा सके। वह एक ऐसे भूखे-गरीब को तलाश रहा था जि‍सने दस दि‍न से कुछ न खाया हो। दो-चार भीखारी उसे मि‍ले पर टखना को उनपर वि‍श्‍वास नहीं हुआ।
सुबह का एक घंटा इसी तलाश में नि‍कल गया। फि‍र उसने सोचा कि‍ कि‍सी रि‍क्‍शेवाले की मदद कर दे। दो चार रि‍क्‍शेवाले गुजरे भी लेकि‍न उनके रि‍क्‍शे पर कोई वजनदार सामान भी नहीं रखा था। दोपहर होते-होते वह नि‍राश हो चला था कि‍ तभी एक रि‍क्‍शे पर उसे भारी-भरकम सामान नजर आया। वह भागकर उसके पीछे पहुँचा और धक्‍का लगाने लगा। रि‍क्‍शेवाले ने रि‍क्‍शे का ब्रेक लगा दि‍या और पीछे मुड़कर चि‍ल्‍लाया-
अबे कौन है बे, क्‍या नि‍काल रहा है कट्टे से??
टखना ने सकपकाकर कहा
- कुछ नि‍काल.. नहीं रहा.., मैं तो वजन देखकर.. आपकी मदद के लि‍ए... आया था।
-भाग जा यहॉं से, मदद के नाम पे चले हैं चोरी करने!

चौक पर आते-जाते दो-चार लोगों ने चोरी की बात सुनी। आज संडे था और सब लोग कि‍सी शगूफे की तलाश में थे।
तभी उस चौक का एक दुकानदार आकर बोला-
-यह लड़का सुबह से मेरी दुकान के आगे न जाने कि‍स मतलब से खड़ा था। मुझे भी शक है इस पर।

बात हो ही रही थी कि‍ कि‍सी ने उसे एक थप्‍पड़ जड़ दि‍या। कि‍सी ने बढकर कॉलर पकड़ लि‍या।
तभी एक आदमी भीड़ चीरकर उस तक पहुँचा और बोला-
-अरे टखना, तू यहॉं क्‍या कर रहा है?
-मास्‍टर जी मुझे बचाइए!!
मास्‍टर जी ने सबको समझा-बुझाकर वहॉं से भेजा और टखना का कान पकड़कर स्‍कूल ले आए।
उसके बाद टखना ने उस कि‍ताब को जला दि‍या जि‍समें लि‍खा था-
कि‍सी की नि‍:स्‍वार्थ भाव से मदद करो तो जो आत्‍मि‍क खुशी मि‍लती है- उसे बयॉं करना आसान नहीं!!
टखना को लगा कि‍ इस अनुभूति‍ को भी बयॉं करना आसान नहीं है। उसने समझ लि‍या कि‍ हर दि‍न या कम से कम हर संडे कि‍सी लाचार की मदद करने का ख्‍याल दि‍मागी दि‍वालि‍येपन की नि‍शानी है।
करेजा सिंह शाम को सि‍नेमा देखकर लौटा और पूछा-
कैसा रहा संडे?

Monday, 19 January 2009

घि‍से हुए जूतों की दास्‍तान !!

(I)
मेरी चमड़ी पर कई झुर्रियाँ पड़ गई हैं, कमर भी झुक गई है। मेरे फीते की धज्‍जि‍यॉं भी उड़ गई हैं। मेरी आत्‍मा (सॉल) लगभग घिस चुकी है, उसके परखच्‍चे बस उड़ने ही वाले हैं। अपनी उम्र से ज्‍यादा मैं जी चुका हूँ। सन् 2004 की होली में मैंने मालि‍क के पैरों को आसरा दि‍या था, 2009 की होली अब आनेवाली है, पर मेरा मालि‍क आज भी मेरी अटकी हुई सॉस को रोकने की बेतरह कोशि‍श कर रहा है।
मुझे आज भी याद है, जब मेरा मालि‍क दूल्‍हा बना था, शादी के मंडप से दो कुड़ि‍यॉं मुझे छि‍पा ले गई थीं। और उस दि‍न का तो क्‍या कहना, जब मेरे मालि‍क को लड़का हुआ था, चाहता तो था कि‍ पालने तक जाऊँ, लेकि‍न हम लोगों की तकदीर ही कुछ ऐसी है, शुद्ध और स्‍वच्‍छ स्‍थानों से हमें दूर ही रहना पड़ता है, चाहे मंदि‍र हो या अस्‍पताल।
वैसे तो मेरे पूर्वजों का इति‍हास अत्‍यंत गौरवशाली रहा है। महाराज भरत ने श्रीराम के खड़ाऊ को पूज्‍य बनाकर मेरे पूर्वजों को जि‍तनी इज्‍जत बख्‍शी, ऐसा उदाहरण वि‍श्‍व में कहीं नहीं मि‍लता।
एक बार मेरे मालि‍क सड़क से गुजर रहे थे, मैंने देखा कुछ लोग मेरे सहोदरों को हाथों में लेकर दूसरे आदमी को पीट रहे थे। मुझे ऐसे लोगों से चीढ़ है जो चीजों का गलत इस्‍तमाल करते हैं। जूते की शोभा पैरों में ही है, कहीं और नहीं। कई बार तो मेरी माला बनाकर मुझे भी गधे नामक जंतु की सैर करा दी जाती है। कहीं कि‍सी मंच पर कुछ भी गड़बड़ हो, मेरे सहोदरों को ही उठा-उठाकर फेंका जाता है। अभी बीते महि‍ने की बात है, मेरे वि‍देशी मि‍त्र को कि‍सी ने बुश पर दे मारा।

गर्मी, सर्दी, बरसात - न जाने क्‍या-क्‍या झेले हैं मैंने। नदी, पर्वत, आकाश - न जाने क्‍या-क्‍या नापे हैं मैंने। मुझे नौकरी पर रखनेवाला मेरा मालि‍क बेचारा खुद पक्‍की नौकरी की जुगत में रहा। समय के अभाव के बावजूद उसने बराबर मेरा ख्‍याल रखा, सुबह बड़े चाव से मेरे चेहरे को चमकाता और रात को गहरी थकान के बावजूद मुझे इधर-उधर फेंकने की भूल नहीं करता। सोचा था मालि‍क को पक्‍की नौकरी मि‍लते ही मुझे रि‍टायरमेंट मि‍ल जाएगी, पर मालि‍क पर जि‍म्‍मेदारी दि‍नोंदि‍न बढती गई और मुझे ओवरटाइम तक करना पड़ा।

मजे की बात बताऊँ, मालि‍क मेरे बि‍ना रह नहीं सकते, कहीं आ-जा नहीं सकते, ट्रेन के सफर में मैं उनसे बि‍छुड़कर कि‍सी और के पैरों की शोभा न बढ़ाऊँ, इसलि‍ए अपने पास थैले में डालकर सोते हैं। मेरी चिंता में इन्‍होंने मंदि‍र जाना तक छोड़ दि‍या है, अगर जाते भी हैं तो बाहर से खड़े-खड़े ही नमन कर लेते हैं
कभी-कभी सोचता हूँ दुनि‍या में जि‍तने भी प्रेमी हुए हैं, अक्‍सर रोमि‍यो-जूलि‍यट, शीरी-फरहाद, लैला-मजनू, चंदा और चकोर की कस्‍में खाते देखे गए हैं, लेकि‍न क्‍या कि‍सी ने हमारी जोड़ि‍यों की कसम खाई है ??

(II)
लोग मेरे मालि‍क को कहते हैं यार तेरा जूता तो काफी चल गया!! मैं पूछता हूँ ये तारीफ है या ताना !! एक आदमी ने पक्‍की नौकरी के इंतजार में छ: साल मेरे साथ गुजार दि‍ए जबकि‍ ऐसे भी लोग हैं जो साल-छ:महि‍ने में जूते बदल लेते हैं।

नए जूते खरीदना कोई मुश्‍कि‍ल नहीं है, पर मेरे मालि‍क को आज की रवायतों का ठीक-ठीक अंदाजा नहीं है, वर्ना वे इस भरोसे या भ्रम में न जीते कि‍ पक्‍की नौकरी मि‍लते ही नए जूते ले लूँगा। अलादीन के चि‍राग और मुझमें कुछ तो फर्क होता है न!!

जि‍स तरह पलकें आखों पर बोझ नहीं होती, उसी तरह मेरे मालि‍क ने भी मुझे कभी बोझ नहीं माना, बल्‍कि‍ हमेशा अपने पथ का साथी माना है, मेरी जर्जर काया के बावजूद उनका मोह मुझसे नहीं छुटा है। बस एक ही गुजारि‍श है इनके वि‍भाग के वरि‍ष्‍ठ प्रोफेसरों से, मुझे अपने मालि‍क से नि‍जात दि‍लाने का कुछ जतन करो। पक्‍की नौकरी देकर इसकी एड़ि‍यों को भी नए जूते का सुख भोगने दो। घि‍से हुए जूते को पॉलि‍श से कब तक छि‍पाता रहेगा मेरा मालि‍क !! छ: साल कम नहीं होते हैं..... आदमी घि‍स जाता है, मैं तो अदद एक जूता हूँ।

Friday, 8 August 2008

टखना सिंह चला दफ्तर !

अपने बाप के गम में करमजली उन दि‍नों घर और दवाई-घर के बीच डोर-सी खींचकर रह गई थी। वैसे लोगों को मालूम था कि‍ उसका बाप गुनि‍या काफी बीमार है और उसकी ऑटो रि‍क्‍शा भी जब्‍त हो गई है। करेजा सिंह के साथी कह रहे थे कि‍ साला! ऑटो रि‍क्‍शा को टैक्‍सी बनाकर घूमता था, और पैसे भी टैक्‍सी-सा ऐंठता था। करेजा अफसोस जताने आया और करमजली के ऑंसू जबरदस्‍ती पोंछते हुए बोला- ऑटो रि‍क्‍शा गया तो क्‍या हुआ, मेरे दादा के पास कई रि‍क्‍शे हैं, उनसे कहकर बापू को रि‍क्‍शा कि‍राए पर दि‍लवा दूंगा। इस प्रस्‍ताव पर उसके साथी अंदर ही अंदर हँस रहे थे।
टखना सिंह को पता लगा तो उसने सोचा भागकर करमजली के पास चला जाऊँ! पर उससे भागा नहीं गया। टखना सिंह ने परसो ही शीशे में अपना चेहरा देखा था, और अफसोस से उसकी नि‍गाहें नींची हो गई थी- क्‍या सचमुच मैं बूढ़ा लगने लगा हूँ! क्‍या करमजली इसलि‍ए मुझसे दूर-दूर रहने लगी है! जवानी में कदम रखने से पहले ही क्‍या मैं बदरंग हो गया हूँ!
शायद इसलि‍ए वह थका-हारा-सा उसके घर पहुँचा। उसने करमजली को देखा, करमजली ने उसको। ऑंखों-ऑंखों में दर्द का आवेग फूटा, टखना को पारो की याद आई और करमजली को देवदास की, पर वे दौड़कर एक-दूसरे से गले नहीं मि‍ले। उस छोटी-सी कुटि‍या में दौड़ने की गुजांइश भी कि‍तनी थी! दवा को दारू की तरह पी-पीकर गुनि‍या कुछ दि‍नों में ठीक हो गया।
इधर कई दि‍नों से टखना तैयार होकर कहीं नि‍कल जाता था। कपड़े-जूते सलीके से पहनकर, एक ढंग का बैग लि‍ए जाते देख लोगों को लगा था कि‍ टखना की नौकरी लग गई है। टखना सिंह से कोई पूछता, तो जवाब में वह मुस्‍कुरा-भर देता। दफ्तर तो करेजा सिंह भी जाता था। लोग उससे भी पूछते थे, भाई करेजा! कहॉं जा रहे हो, तो वह ऐसे मुँह बनाता जैसे उसे दस्‍त हो गया हो, और पेट साफ करने के लि‍ए दफ्तर जाना पड़ रहा हो! लेकि‍न टखना को मालूम था कि‍ ये वही करेजा है, जो नौकरी के लि‍ए कंपनी के चेयरमैन की गाड़ी के आगे लेट गया था। और जब उठा, तो नौकरी लेकर उठा। टखना को तो मालूम भी नहीं कि‍ गाड़ी के आगे कैसे लेटना है! लोगों ने उसे यह कहकर धि‍त्‍कारा भी, कि‍ लोग नौकरी के लि‍ए न जाने कहॉं-कहॉं लेट जाते हैं, ये तो बेचारी कार है! टखना को अपनी कि‍स्‍मत पर भरोसा नहीं, उसे लगता है, वह अगर गाड़ी के आगे लेट गया, तो अगले दिन ‘दनदनाती’ में यही खबर आएगी कि‍ चेयरमैन की गाड़ी के नीचे एक कुत्‍ता दबकर मर गया। लोग चेयरमैन को सांत्‍वना के साथ ये सुझाव भी देंगे कि‍ ऐसे खून तो टायर में लगते रहेंगे, अपने रि‍टायरमेंट के बाद ही बदलवाना!
तो लोगों को वि‍श्‍वास हो चला था कि‍ टखना को कहीं काम मि‍ल गया है, और अजीब बात थी कि‍ टखना ने लोगों का ये वि‍श्‍वास बनाए रखा! टखना पहले ऐसा नहीं था, उसकी उम्र भी ऐसी नहीं थी, जैसी आज है। दरअसल, कम उम्र में जज़्बात को नादानी में शुमार कि‍या जाता है, बढ़ती उम्र के साथ वह कमजोरी में तब्‍दील होने लगती है। इसलि‍ए टखना एक सकून महसूस करता था कि‍ लोग उसे दफ्तर जाते हुए देखते हैं। करेजा सिंह के अलावा कि‍सी को पता नहीं चला कि‍ टखना हर दि‍न तैयार होकर उस दफ्तर में काम मांगने जाता था !

Monday, 4 August 2008

एक दो तीन, आजा मौसम है ग़मग़ीन !

महिना सावन का था और पवन शोर कर रहा था। लोग सोच रहे थे कि टखना सिंह का जियरा तो जरुर झूम रहा होगा! पर कहते हैं न, जंगल में मोर नाचा, किसने देखा !

किसी संपादक ने टखना सिंह में छिपी प्रतिभा को पहचानकर एक ऐसी पत्रिका का सह-संपादक बना दिया, जिसके न कोई पाठक थे, न कोई आलोचक ! जाहिर था, नामानुकूल सह-संपादक टखना सिंह को संपादन का भार सहना था। सबसे पहले टखना सिंह पहुँचे एक चोर के पास। टखना सिंह को आते देख वह पेड़ पर चढ़ गया। टखना सिंह ने कहा- मुझे अपनी पत्रिका के लिए आपका एक लेख चाहिए। चोर ने कहा- भइया, तुम गलत पते पर आ गए हो। मैं तो मामूली चोर हूँ। तुम्हारे यहॉं तो चुराकर लिखनेवाले कई हैं, जमाने के सामने उन्हें लाओ। मैं तो पेड़ पर ही ठीक हूँ।

निराश टखना आगे चल पड़ा। रास्ते में एक रिटायर्ड घुसखोर मिला। टखना ने उससे एक लेख मांगा। उसने कहा- पहले ये तो जान लो कि मुझे किस बात के लिए बदनाम किया गया! मुझसे ओहदे में बड़ा, एक बेईमान अफसर हुआ करता था, जिससे मैंने रिश्वत में हिस्सेदारी लेने से मना कर दिया था। ऐसे लोगों के बीच मैं अकेला था। और तुम तो जानते ही हो, अकेला चना अपना सर तो फोड़ सकता है, फूटे सर पर इंकलाबी विचारों के अंकुर भी उगा सकता है, पर भाड़ नहीं फोड़ सकता!

निराश टखना को आगे मिला एक शराबी! शराबी ने एक घूंट पीकर कहा-

जिन्दगी को जाम समझ,

जिन्दगी भर !

चढ़ जाएगा खुमार

इसे पीने पर !

यह सुनकर टखना सिंह ने भी एक घूंट मारा और बुदबुदाया-

उम्र इतनी है बाकी,

अब तू ही बता साकी,

न नशा हो जीवन में तो

लानत है जीने पर!

और फिर वह अगले लेखक के पास चल पड़ा। वहॉं से आगे निकला ही था कि रास्ते में मिला एक अपाहिज भीखारी! टखना सिंह की मांग सुनकर वह बोला-

मैं तो तूझे मौलिक बाबू समझ रहा था, पर तू तो लेख मांगनेवाला भीखमंगा निकला! ये लिफाफा ले, जिसमें मेरे रिश्तेदारों का पता है। जा उनसे लेख ले। ध्यान रहे लिफाफा घर जाकर ही खोलना!

टखना घर के लिए चल पड़ा, पर रास्ते में उसे ख्याल आया कि क्यूं न लिफाफे के लेखकों से भी लेख लेता चलूँ, वर्ना घर से दुबारा निकलना पड़ेगा! लिफाफा खोलते ही सामने सांसद और विधायक अचानक प्रकट हो गए और टखना सिंह को अपना-अपना लेख पकड़ाते हुए बोले- ले छाप!

टखना सिंह यह देखकर हैरान हुआ कि सारे लेखों का शीर्षक एक समान था-

पार्टी-एजेंडा - विरोधियों को डण्डा!

टखना पर्चे पढ़कर बोला-

मैं सच छापूंगा, सच के सिवा कुछ नहीं छापूंगा। यह सुनकर सभी नेता उस पर टूट पड़े और टखना सिंह के टखने पर मारते हुए बोले-

सत्यमेव जयते!

टखना सिंह घायल हो गया और भागकर उस भिखमंगे से बोला-

मेरी जान आफत में क्यूं फंसाई ?

भिखमंगे ने कहा-

मैंने कहा था न, रास्ते में लिफाफा मत खोलना, अब झेलो मेरे रिश्तेदारों को!

टखना सिंह अपने टखने की तरह टूट गया। आगे मिला एक जुआरी! टखना सिंह को देखते ही उसने पासा फेंका और चिल्लाया- पौ बारह! उसकी ऑंखें चमक उठी, एक पासा टखना सिंह को देते हुए बोला-

जिंदगी है एक जुआ,

उदास क्यूं है मुआ!

है हार-जीत दर-बदर,

बे-सबर क्यूं हुआ!

यह सुनकर टखना सिंह ने पासा फेंक दिया और फिर कुछ सोचता हुआ आगे चला गया।

करेजा सिंह के समझाने पर लोग यह समझने लगे थे कि टखना सिंह नक्सलवादी है, उग्रवादी है, आतंकवादी है, जिसके संबंध जुआरी, शराबी, लुच्चे-लफंगे, भीखमंगे लोगों से है। सबसे बुरी बात तो ये थी कि टखना सिंह का संबंध आम लोगों से भी था।

(Most wanted टखना सिंह को फाँसी के लिए लेकर हाजिर हूंगा UGLY POST में 70 घंटो के भीतर! )

Sunday, 3 August 2008

करेजा सिंह का अचार !!

टखना सिंह का सर घूम रहा था, सोचा चलकर चाय पी लें। अब्‍दुल को चाय के लि‍ए आवाज मारी ही थी कि‍ देखा करेजा सिंह उसकी तरफ ही बढ़ा चला आ रहा है। दूर से ही चि‍ल्‍लाकर बोला- अरे टखना भाई! यहॉं क्‍यों सड़ रहे हो। चलो आज बढ़ि‍या रेस्‍टोरेंट में हॉट कॉफी पि‍लाऊं। टखना सिंह ने कहा-छोड़ो कॉफी-वॉफी, तुम्‍हारा लेख पढ़ा-अचार बनाने की वि‍धि‍ पर। कामवर शुक्‍ला ने बड़ी तारीफ़ की है अपनी पत्रि‍का ‘घटि‍ता पतीता’ में, कहा है-अब तक की सबसे शोधपरक रचना है! और तो और, मैने सुना है- डण्डी हाऊस में कामवर जी के हाथों इसका लोकार्पण भी हो रहा है। अच्‍छा ये तो बताओ, कामवर जी को कैसे सेट कि‍या यार! करेजा सिंह का करेजा चौड़ा हो गया,कहा- कला है मि‍त्र! सबके पास नहीं होती ये! अचार के चार डब्‍बे पैक कराए और चार जगह पहुँचाए,एक ने दूसरे से कहा,दूसरे ने तीसरे से कहा और तीनों ने कामवर जी से कहा। कामवर शुक्‍ला ने शर्त रखी थी कि‍ आने-जाने का माल भत्‍ता, बि‍टि‍या के लि‍ए कंघा ,दादी अम्‍मा के लि‍ए दॉंत- यह सबकुछ उस रचनाकार को देना पड़ेगा। मैने कहा, महाराज आप लोकार्पण करि‍ए, हम समर्पण करेंगे, जो भी आप चाहें। डण्‍डी हाऊस में करेजा सिंह के लि‍ए कसीदें पढी जा रही थीं, पर करेजा सिंह वहां से नदारत थे,पता चला वे डण्‍डी हाऊस के गेट के पास आगंतुकों में अचार बॉंट रहे थे। अंदर बैठे कुछ श्रोता तो अपने साथ पराठे भी लेकर आए थे और चौकड़ी मारकर कोने में अचार के साथ खाए जा रहे थे। वक्‍ता भी चटकारे ले-लेकर बके जा रहे थे। एक वक्‍ता को तो भाषण के बीच ही भीषण डकार आ गई, सब ने जमकर तालि‍यॉं बजाई कि‍ यही सच्‍चा आलोचक है, इसने सभी रसों का सच्‍चा आस्‍वादन कि‍या है।पर एक वक्‍ता काफी परेशान था, शायद अचार उसे पचा नहीं इसलि‍ए उसे बार-बार बाथरुम की तरफ जाते देखा गया। सभा समाप्‍त होने तक सभी एक दूसरे के सफेद कुरते पर अचार पोंछते रहे ! अगले दि‍न ‘दनदनाती’ में ये खबर छपी थी कि‍ गरि‍ष्‍ठ खालोचक कामवर शुक्‍ला के कर-..मलों द्वारा करेजा सिंह की महान रचना ‘अचार-संहि‍ता’ लोक के मत्‍थे मढ़ दी गई! (टखना सिंह पर UGLY पोस्‍ट 72 घंटे के भीतर!)

Saturday, 2 August 2008

टखना सिंह का छाता !

आज टखना सिंह बहुत उदास है। वि‍वेकानंद की मूर्ति‍ के नीचे बूत बना बैठा है। सभी लोग वहॉं से काला छाता लि‍ए गुजर रहे हैं। टखना सिंह धूप में बि‍ना छाते के बैठा है। लोग हँस रहे हैं कि‍ बेचारे के पास छाता भी नहीं है। करेजा सिंह तो पान खाकर वहीं थूक रहा है। करेजा सिंह के पास रंगीली छतरी जो है। कुछ लोगों को टखना सिंह पर दया आई तो उन्‍होंने उसके सर पर एक रुमाल डाल दि‍या। रुमाल को भी उसके सर पर बैठना अच्‍छा नहीं लग रहा है। इसलि‍ए लू का बहाना कर वह पैर के पास गि‍र गया है। टखना सिंह दुख से ऑंखें मूंद लेता है। कुछ लोग भि‍खारी समझकर उसे भीख दे रहे हैं। तभी कुछ पुलि‍सवाले छाता लि‍ए आते हैं और उसे पकड़कर थाने ले जाते हैं। थानेदार डपटकर पूछता है- क्‍यों बे, बि‍ना छाते के वहॉं भीख क्‍यों मांग रहा था ?
टखना सिंह गि‍ड़गि‍ड़ाता है- हुजूर, मेरे खानदान में कि‍सी के पास कभी कोई छाता रहा ही नहीं ! लोगों को छतरी वि‍रासत में मि‍ली है, पर मुझे तो उसका ‘छ’ भी नहीं मि‍ला।
थानेदार उसे एक लात लगाता है और हवालात में डाल देता है। लोगों को लगता है टखना सिंह शहर छोड़कर चला गया है। छाते वाले उस शहर में टखना सिंह की सबसे ज्‍यादा चि‍न्‍ता अगर कोई करता है तो वो है- गुनि‍या की बेटी करमजली। उसने पुलि‍सवालों को देखा था जो छतरी में आए थे और टखना सिंह को उठा ले गए थे। उसने सर जी से गुहार लगाई। सर जी कई छतरीवालों से घि‍रे बैठे थे,कहा-
देखो, मैं अभी शहर से बाहर हूँ। मैं अपनी भतीजी के लि‍ए एक छाता खरीदने आया हूँ। बेचारे टखना सिंह के पास वैसे भी कोई छतरी नहीं है,मगर हवालात की छत तो है,कुछ दि‍न उसे वहीं सुस्‍ताने दो। बाहर आकर भी तो सुस्‍ताना ही है।
करमजली सारी रात उदास होकर बाहर आते-जाते छतरीवालों को देखती रही।
सर जी आते ही थानेदार से मि‍ले। उनके साथ कोई रौबदार आदमी भी था, जि‍सकी छतरी के ऊपर लाल बत्ती लगी हुई थी।
टखना सिंह आजाद हो गया। करमजली ने मुहल्‍ले में बताशे बांटे। टखना सिंह ने आकर उसे बताया कि‍ सर जी ने उम्‍मीद जताई है कि‍ जल्‍दी ही उसके सर पर भी एक छतरी होगी!

UGLY पोस्‍ट में भी जरूर पढ़ें- करेजा सिंह ने कामवर शुक्‍ला तक अचार कैसे पहुँचाई !!