मैं अपने दोस्तों के बीच इस बात के लिए बदनाम हूँ कि उन्हें पूछे बिना अकेले ही कहीं घूमने निकल जाता हूँ। दरअसल, मैंने देखा है कि दोस्तों के साथ पूरे सफर में मौज़-मस्ती तो भरपूर रहती है, मगर घूमने की जगह को, पहाड़ी दृश्यों को, आकाश और बादल को, स्थानीय लोगों को, उनकी वेषभूषा, रहन-सहन और खान-पान को, जी भरकर देखने की, उन्हें यादों में समेट पाने की चाहत पूरी नहीं हो पाती। सफर पर अकेले निकलना खतरे से खाली नहीं होता, झोले में कुछ न भी हो तो किडनी चोरों से डर तो लगता ही है। आपने सुना ही होगा कि लिफ्ट देनेवाले एक गिरोह ने धोखे में एक ऐसे युवक को जान से मार डाला था, जिसके जेब से सिर्फ 10-20 रूपये ही निकले थे। कैमरा, मोबाइल आदि के लिए जान लेते हुए इन्हें क्या फर्क पड़ेगा!
सन् 2002 की बात है। तब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के एक हॉस्टल में रहता था। मेरे पापा पिछले दो-तीन सालों से बौद्ध धर्म की चपेट में थे। वे तब रिटायर नहीं हुए थे,(वे आज भी अपने-आप को रिटायर नहीं मानते हैं, उनके अनुसार आदमी एक ही बार रिटायर होता है, जब वह मृत्यु-शय्या पर होता है।) अपने सहयोगियों, सगे-संबंधियों के बीच वे यही कहते देखे जा रहे थे कि- समता में रहो / क्रोध का शमन करो, दमन मत करो / यह तभी संभव है जब काया की अंतर्यात्रा करते हुए प्रतिक्रिया को महसूस किया जाए, उसे अंतर्मन की ऑंखों से सप्रयास देखा जाए। कोई अजनबी भी टकरा जाए तो वे उसे प्रवचन देने से नहीं चुकते थे। उनकी तमाम खूबियों के बावजूद हम सभी उनकी इस आदत से खासे परेशान थे।
उन दिनों मैंने पापा को एस.टी.डी. कॉल करना लगभग बंद कर दिया था। फोन पर वो मुझे बौद्ध धर्म की एक चर्चित साधना पद्धति विपश्यना के 10 दिनों की शिविर के लिए लगातार प्रेरित कर रहे थे। तंग आकर मैंने विपश्यना की कठिन साधना के लिए अपने आप को तैयार कर लिया, क्योंकि पापा को लग रहा था कि मैं बे-कहल (जो किसी की नहीं सुनता) होता जा रहा हूँ। मैं एक कॉलेज में पढ़ा रहा था और स्थायी नौकरी की चिन्ता में अशांत भी था। मार्च में कॉलेज का सेशन समाप्त होते ही अंतत: मैने तय किया कि शिविर के लिए कोई पहाड़ी विपश्यना केन्द्र का चुनाव करुं। मैने हिमाचल प्रदेश जाने का निश्चय किया। संतोष की बात ये थी कि हिमाचल में मार-काट, लूट-पाट की घटना सुनने में नहीं आई है (चाहे हॉटलवाले, घोड़ेवाले, टैक्सीवाले पर्यटकों को जितना मर्जी लूटते हों)। तो इस तरह, घूमने का घूमना हो जाएगा और साधना की साधना भी हो जाएगी। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में धर्मशाला के निकट मैकलॉडगंज में विपश्यना का एक केन्द्र है, जिसे ‘धम्म शिखर’ के नाम से जाना जाता है।
दिल्ली से पठानकोट पहुँचकर सबसे पहले मैंने एक ढ़ाबे में नास्ता किया। यहॉं से धर्मशाला तक छोटी लाइन की ट्रेन चलती है। चार महिने पहले ही मैं कालका से शिमला गया था, और मेरा निष्कर्ष था कि छोटी लाइन पर चलनेवाली टॉय ट्रेन से यात्रा नहीं की तो क्या किया। मेरी सलाह है कि शिमला जाते हुए या आते हुए टॉय ट्रेन से सफर जरुर करें, वर्ना शिमला घूमने का विचार हमेशा के लिए त्याग दें! सीधी सी बात है, हौले-हौले हिचकोले खाते हुए पहाड़ घूमने का सुख शिमला के माल रोड पर खड़े होकर नहीं मिल सकता। अब अगली बार के लिए सोचा है कि शिमला उतरे बिना टॉय ट्रेन से ही वापस लौट आऊंगा। आप इस बात से इसकी इंतहां का अंदाज़ा लगा सकते हैं कि टॉय ट्रेन से सफर करने की मेरी चाहत कितनी है!
माफ करें ,रास्ते के साथ-साथ मैं मुद्दे से भी भटक गया था। तो, वो कालका- शिमला रूट की टॉय ट्रेन का ही खुमार था कि मैने पठानकोट से कांगड़ा (94 कि.मी.) के लिए सुबह करीब 10 बजे छोटी लाइन की ट्रेन पकड़ी। एक घंटा बीता, फिर दो घंटे, फिर तीन घंटे- मैं इस बात से मायूस हो गया कि पहाड़ दूर-दूर तक कहीं नज़र ही नहीं आ रहे थे। यह टॉय ट्रेन समतल धरती से चलकर समतल धरती पर ही खत्म हो गई। कुल 6 घंटे के बाद कांगड़ा पहुँचा और वहॉं से धर्मशाला(17 कि.मी.) के लिए बस पकड़ी। शाम तक जब धर्मशाला पहुँचा तब जाकर पहाड़ों की श्रेणियॉं नजर आईं। मैंने रात गुजारने के लिए एक सस्ता-सा कमरा लिया और उसके बाद धर्मशाला की सड़कों पर घूमने लगा।
मुझे मालूम था कि अगले दस दिन तक मौन साधना करनी है, लोगों के साथ रहना है, पर कहना कुछ नहीं है। सुना था कि शिविर में 11 बजे एक ही बार भरपेट खाना मिलता है और शाम को बस चाय! डिनर-विनर कुछ नहीं! मैने सोचा आज यहॉं किसी ढाबे में दबाकर खा लूँ, कहीं भूख से मेरी साधना न भंग हो जाए। पर मैं ऊँट तो था नहीं कि एक ही बार पानी पीकर साल भर गुजारा कर लूँ।
अगले दिन लोकल बस पकड़कर ‘अपर धर्मशाला’ यानी मैकलॉडगंज पहुँचा। बस स्टैंड के पास एक छोटी मार्केट थी, अपनी आज की आजादी का लाभ उठाने के लिए मैंने वहॉं चाय पी (जबकि दिल्ली में मैं चाय की तरफ देखता भी नहीं)। अगले दस दिनों तक शिविर की बाउंडरी से बाहर निकलना नामुमकिन था, मार्केट तक पहुँचना तो दूर की बात है। जो ऐसा करते थे, उन्हें आजीवन इस साधना के लिए अयोग्य घोषित कर किसी भी विपश्यना शिविर में उनका जाना प्रतिबंधित कर दिया जाता था।
तो मार्केट से निकलकर मैं शिविर के लिए पहाड़ चढ़ने लगा। वह रास्ता निर्जन और सुनसान था, लेकिन बंदरों से भरा पड़ा था। घने पेड़ों के बीच उबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए किसी तरह ऊपर पहुँचा। शिविर में जाकर अपना नाम पता दर्ज कराया। उन्होंने मेरा सामान इस तरह रख लिया जैसे जेलर कैदी का सामान रिहाई तक रखते हैं। वहॉं मेरे अलावा एक और भारतीय था, और एक साधु था (टीपिकल भारतीय तो वही था) और बाकी विदेशी युवक और युवती थे जो इस शिविर में साधना का मन बनाकर आए थे।.......
(वक्त की कमी है, अगली पोस्ट में लिखूंगा कि उस साधु ने वहॉं क्या गुल खिलाये और सर्दी की इतनी मुश्किल रातें मैंने कैसे काटी, 10 दिनों तक कम खाने के साथ कैसे गुजारा किया, आज के बातूनी लोगों ने बिना बोले 10 दिन वहॉं कैसे काटे।)
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13 comments:
आपको जन्माष्टमी की बधाई
दीपक भारतदीप
आपको जन्माष्टमी पर्व की
बधाई एवं शुभकामनाएं
मजे दार , आगे पढने के लिये बेताब हे.
धन्यवाद
जन्माष्टमी पर्व की
बधाई एवं शुभकामनाएं
अच्छा लिखा है चाहे कई पोस्ट ले लीजिए लेकिन बस थोड़ा छोटा ही पोस्ट करें तो बेहतर,अन्यथा ना लें। इस सिविर में रहने के लिए क्या योग्यता और पैसा कितना लगता है। अगली पोस्ट में। वैसे कृष्ण जन्मोतस्व पर बधाई आपको।
nitish ji, सुझाव के लिए शुक्रिया,बाद में मुझे खुद अहसास हुआ कि पोस्ट कुछ लंबा हो गया है और ब्लॉग में इतना लंबा लेख नहीं लिखना चाहिए। अभी नया हूँ धीरे-धरे सीख रहा हूँ। अगला पोस्ट भी शायद मैं इसी झोंक में लंबा लिख देता पर अब ध्यान रखते हुए उसे दो-तीन हिस्सों में प्रकाशित करुंगा।
धम्मम शरणम गच्छामि!
लगता है आप अगले कई दिनों के लिए भिक्खु हो गए. अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा!
पहली बार पढा आपको ! नत मस्तक हूँ !
पिछली ५ पोस्ट पढ़ कर टिपिया रहा हूँ !
यार उलझा लिया है ! आप कहते हो की
अध्यापन करते हो पर मुझे पक्के मार्केटिंग
वाले लग रहे हो ! कब तक पढ़ते रहे आपको ?
वापस जाने दो भाई ! घर भी जाना है !
और विपस्यना शिविर की पुरी जानकारी का
भी इंतजार रहेगा ! जन्माष्टमी की बधाई !
dosto ko lekar jo baate aapne kahi hai, wahi baate mere saath shopping ke maamle me hoti hai, mai apne liyae kuch bhi kharidne jata hoo to kisi ke saath nahi jaata
बढिया रहा यात्रा वृताँत !
यात्रा वृताँत के बहाने क्या आप धर्म या संप्रदाय का प्रचार करने निकले हैं? वैसे शैली अच्छी लगी।
शादी से पहले अच्छा स्थान है जाने के लिये , काहे की बाद के सालो मे जो आपने चुप रहना है उसकी ट्रेनिंग हो जायेगी :)
अनोनी जी मेरे इस लेख का अभिप्राय धर्म प्रचार कतई नहीं है, मैं अगले लेख में इस बाबत अपनी सफाई दे दूँगा।
अच्छा लिखा है आपने। यात्रा वृतांत के साथ धर्म यात्रा भी पढने को मिल रही है। मैं भी होकर आया हूँ अभी लेकिन इस केन्द्र का पता नहीं चला था।
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