Tuesday, 5 August 2008
मौत को देखा करीब से खज्जियार (डलहौजी) में पैराग्लाइडिंग करते हुए !
पहाड़ों का सच्चा सैलानी पहाड़ देखना चाहता है, नदी-झरनों की रवानगी के साथ बहना चाहता है,घने जंगल और घाटी का रोमांच महसूस करना चाहता है, बरसात और हिमपात के साथ मदमस्त होना चाहता है। आप कभी पर्वतों की सैर पर निकलें और वहां मकान ही मकान नजर आए तो आपको अफसोस ही होगा। शिमला से जी उकताने का कारण भी यही है। जब मैं अपने दोस्त के साथ डलहौजी पहुंचा तब मुझे इसलिए खास खुशी नहीं हुई। अगली सुबह जब हम चंबा (54 कि.मी.) के लिए चले, तब रास्ते में 22 किमी के बाद खज्जियार आया। वहां देवदार के दरख्तों से घिरा एक खुला मैदान था और ठीक बीचों-बीच एक तालाब था। मैदान पर हरी घास की चादर बिछी हुई थी। संकरे और खतरनाक रास्ते से गुजरने के बाद इतनी ऊंचाई पर यह दृश्य काफी सुखद लगा। देवदार के वृक्ष कम से कम 50-60 फुट ऊंचे थे। उनके पीछे पहाड़ों की भव्यता भी अलौकिक थी। शायद इसलिए इसे भारत का मिनी स्वीट्ज़रलैंड कहा जाता है।
मैदान के पश्चिमी छोर पर पैराग्लाइडिंग की व्यवस्था थी। मैंने एक पायलेट से यूं ही बात शुरू की। मेरी रूचि बढती देख मेरे दोस्त ने मंशा जाहिर की कि यह काफी खतरनाक खेल है। कहीं ऊपर के ऊपर रवाना हो गए तो लौटकर भाभी जी को क्या जवाब दूंगा ! कम से कम अपने बच्चे के बारे में तो सोचो। मैंने उसकी बात हंसकर टाल दी। पायलेट से तय हो गया कि अगली सुबह यहां से 11 कि.मी. ऊपर काला टॉप जाना होगा और 2 कि.मी. की चढाई पैदल तय करनी होगी। हवा का रूख सही रहा तो एकाध घंटे वादियों के ऊपर आसमान में मजे से सैर करने का अवसर मिलेगा।
खज्जियार में कम हॉटल थे, मगर थे सस्ते। साथ में तवे की रोटी भी उपलब्ध थी। हमने अफसोस जताया कि काश, कल की रात खज्जियार में ही बिता पाते ! दरअसल पर्यटन स्थलों की ये छिपी पॉलिसी होती है कि पर्यटकों को यहां से आगे चाहे कहीं भी घुमा लाओ, पर रात को अपने हॉटल में ही ठहरने की सलाह दो। हॉटल में सामान रखकर हम चंबा के लिए चल पड़े। आगे का रास्ता और भी विषम था। चंबा के लिए डलहौजी से राजमार्ग भी है जो रावी नदी और चमेरा डैम के साथ बना हुआ है। उस रास्ते से जाने का मतलब है खज्जियार के मोहक दृश्यों को देखने से वंचित रहना।
शाम ढलने से पहले हम खज्जियार लौट आए। तब तक सारे पर्यटक जा चुके थे। मैदान सूना पड़ा था और झील में भी सन्नाटा पसरा था। मौसम बदलने लगा , पर्वत बादलों से ढकने लगे और अचानक झमाझम बारिश शुरू हो गई। तालाब के साथ लकड़ी के दो मंच बने हुए थे जिसके साये में बारिश से न केवल बचा जा सकता था, बल्कि इस पर्वतीय मौसम का आनंद भी लिया जा सकता था। ऐसे मौसम में अपनी पत्नी के साथ होता तो बात ही कुछ और होती मगर दुनिया की आधी औरतें पहाड़ों के घुमावदार रास्तों में चक्कर खा जाती हैं (उन्हें उल्टी और सर घुमने की शिकायत होती है, दूसरी तरफ मैं साल में एकाध चक्कर पहाड़ों पर न लगा लूं तो मुझे उल्टी और सर घुमने की शिकायत होने लगती है।)
हॉटल पहुंचकर जब हमने मैनेजर को अपना कल का प्रोग्राम बताया, तब उसने भी चिन्ता जाहिर की, कहा- एक तो मौसम खराब चल रहा है, दूसरी बात, पायलेट के पास अनुभव की कमी है। कुछेक साल पहले की बात है, एक विदेशी पायलेट यहीं आसमान में अकेले पैराग्लाइडर उड़ा रहा था। मौसम का मिजाज बदला, और देखते ही देखते वह हवा में ही कहीं गुम हो गया। उसके पिता ने लाख डॉलर का ईनाम भी रखा, खोजबीन भी हुई, पर हाथ कुछ भी न लगा। हिमालय की बर्फ पर ही कहीं उसकी समाधि बन गई होगी!
मेरा मित्र विजय खाना खाकर सो गया, पर मुझे नींद न आई। मेरे अंदर रोमांच के साथ एक डर भी था। अपने आप को यह सोचकर दिलासा दिया कि अगर मर गया तो यही खुशी होगी कि दिल्ली में ब्लू लाइन बस के नीचे दबकर नहीं मरा। सुबह का साफ मौसम देखकर तसल्ली हुई। मेरे पायलेट(देशराज) ने तय स्थान पर पहुंचकर एक घंटे तक हवा के रूख का मुआयना किया। स्थिति जितनी निराशाजनक थी, मेरे अंदर उड़ने की चाहत उतनी ही बलवती हो रही थी। विजय मुझे जीत (जितेन्द्र का लघु रूप) के नाम से बुलाता है। अपनी नाराजगी छिपाते हुए वह मेरा उत्साह बढा रहा था- डरना मत, डर के आगे ‘ जीत ’ है। देशराज का निर्देश था कि पहाड़ से खाई की तरफ दौड़ते हुए किसी भी हालत में रूकना नहीं है, अगर रूक गए तो टेक-ऑफ लेना तो दूर की बात है, हम पैराग्लाइडर समेत सीधे खाई मे जा गिरेंगे। सुनकर ऐसा लगा कि डर के आगे जीत नहीं बल्कि 'जीत' के आगे डर है। पर मेरे रोमांच ने डर पर काबू पा लिया। मनचाही हवा का रूख पाते ही देशराज ने पैराग्लाइडर को हवा में तान दिया। हमदोनों डोरी की कुर्सी पर आगे पीछे बंधे थे। मेरे आगे खाई थी और पीछे मेरा पायलेट। न जाने क्यों मुझे पापा की एक बात याद आई- अगर कोई तुम्हें खाई में कूदने के लिए कहे तो क्या तुम कूद जाओगे ?
तभी देशराज ने कहा – कूदो ! मैं आगे-आगे दौड़ने लगा। कल की बारिश से घास चिकनी हो गई थी और कहीं-कहीं पथरीली जमीन थी। मैं अचानक फिसल गया और लगा कि अब सब कुछ खत्म !! घबराहट में विजय के हाथ से मोबाइल छूट गया। देशराज ने फुर्ती से काम लिया और मुझे जैसे-तैसे घसीटते हुए ढलान की तरफ भागने लगा। पैराग्लाइडर के जोर से अचानक हमारा रास्ता बदल गया और मेरे सामने दूसरी मुसीबत आ गई। मेरी पैंट की पिछली पॉकेट घास और मिट्टी पर रगड़ खाती जा रही थी कि तभी एक उभरी हुई चट्टान अचानक मेरे सामने आ गई। इसके ठीक बाद खाई थी। मैने डर से आंखें बंद कर ली। देशराज ने अनुभवी पायलेट-सी फुर्ती दिखाई और ऐन मौके पर जाने उसने क्या किया, कैसे चट्टान से मुझे बचाते हुए उसके ऊपर से छलांग लगाई, यह सब मैंने बंद आंखो से महसूस किया। जब आंख खुली तो खुद को हवा में लटका पाया, ठीक त्रिशंकु की तरह! न मैं नीचे देख रहा था न ऊपर। मेरे सामने बर्फ के ऊंचे पर्वत कैलेंडर-से नजर आ रहे थे। ऊफ् !! ये मैने क्या किया था, मौत कितनी करीब थी!
मैंने डरते-डरते नीचे देखा। धरती से मैं लगातार ऊपर उठ रहा था। भव्य पर्वत अब क्षुद्र टीले की तरह नजर आ रहे थे। देवदार के लम्बे-लम्बे वृक्ष झुरमुट की तरह लग रहे थे। मैने दिल मजबूत किया। देशराज पैराग्लाइडर को इस तरह ऊपर ले जा रहा था, जैसे चील अपने पंखों से ऊपर ऊठ रही हो। वह हर झटके के साथ लगभग 15 फुट उठ रहा था और मेरा दिल मुंह को आ रहा था। ऐसे 4-5 झटके खाने के बाद मुझे ये घबराहट होने लगी कि कहीं अचानक मौसम खराब हो गया और मैं भी उस विदेशी की तरह ऊपर ही ऊपर उड़ गया तो मेरे बीवी-बच्चे का क्या होगा! मैंने उसे थमने के लिए कहा। अब मैने चारों तरफ निगाहें घुमाई। मेरे सामने रावी नदी के साथ बसा चम्बा शहर नजर आ रहा था। खज्जियार सागर की सतह से लगभग 6500 फुट ऊपर है,और मैं कितना ऊपर हूं....पता नहीं!
दूर-दूर तक हिमालय की श्रेणियां नजर आ रही थीं। देशराज ने चमेरा डैम की तरफ इशारा किया। मैने कहा कि डैम के ऊपर चलो। देशराज ने हंसते हुए कहा कि उसने अपना बीमा नहीं करवाया है। मैने सोचा डैम के आसपास खुला मैदान है इसलिए वहां पैराग्लाइडर को हवा का दबाव शायद न मिले, इसलिए देशराज वहां न जा रहा हो या शायद तय रकम में डैम तक जाना शामिल न हो ! देशराज अच्छा और जांबाज पायलेट था। उसने बताया कि हर साल अक्टूबर में बीर-बिलिंग (पालमपुर-जोगिंदर नगर के पास) में पैराग्लाइडिंग की अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता होती है जिसमें वह भी भाग लेता है। उसने मुझे पार्टनर के तौर पर मुफ्त में साथ उड़ने का प्रस्ताव दिया। मै अब उड़ान का मजा लेने लगा था, इसलिए मुझे हां कहते देर न लगी। मैने कैमरा निकालकर फोटो लेना शुरू कर दिया। कुछ रिकार्डिंग भी की। हम दोनों ने मिलकर कुछ गाने भी गाए (पंछी बनूं उड़ती फिरूं मस्त गगन में,……), अपने परिवार की बातें की। देशराज ने बताया कि उसकी पत्नी कैंसर से पीड़ित है और शिमला के अस्पताल में महिनों से भर्ती है, जहां उसे 30 हजार रूपये हर माह भरने पड़ते हैं। मैने पूछा इतने पैसे कमा लेते हो। उसने बताया कि वह रोहतांग पास (मनाली) , खज्जियार और बीर से हर सीजन में ठीक-ठाक कमा लेता है, साथ ही वह पैराग्लाइडिंग की ट्रेनिंग भी देता है। उसका पैराग्लाइडर न्यूजीलैंड का है, जिसकी कीमत डेढ लाख रूपये है।
लैंडिंग करने से पूर्व देशराज का निर्देश था कि जमीन पर उतरते हुए दोनों पैर ज्यादा से ज्यादा हवा में रखने हैं, नहीं तो पैर की हड्डी टूट जाएगी। नीचे खड़े कई पर्यटक उतरते हुए पैराग्लाइडर का फोटो खींच रहे थे। खज्जियार के तालाब के चारों ओर चील की तरह चक्कर काटते हुए हम सुरक्षित उतर आए। कुछ पर्यटकों ने मेरा अनुभव पूछा। देशराज ने गुजारिश की थी कि पैराग्लाइडिंग का किराया लोगों को कुछ बढा कर बताएं। मैने उसकी बात मान ली थी। आखिर उसने मेरी जान जो बचाई थी, साथ ही बीर में मुफ्त उड़ान का उसने प्रस्ताव भी तो दिया था।
(हमसफर से ये गुजारिश है यदि इस पोस्ट के साथ संलग्न विडियो (2:18 min.) नहीं देख पाए हों तो मुझे जरुर बतावें, आभारी रहूँगा।)
कल अगला पोस्ट प्रकाशित करुंगा - बाप होने पर शर्म कैसा!
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6 comments:
बहुत सुन्दर लिखा है। बधाई स्वीकारें।
शानदार वीडियो।।
धरा वापसी पर स्वागत है- :)
बहुत अच्छा वर्णन किया है आपने, एसा लगा कि मैं भी साथ ही घूम रहा हूँ। आपके प्रोफाईल से पता चल गया कि आप भी पूरे घुमक्कड हैं। आपके साथ बहुत जमेगी।
रोमांचक यात्रा का सुंदर वर्णन .मेरी तो हिम्मत नही इतनी की धरती से पैर हटाऊँ
बेहतरीन विडियो और रोचक वृतांत..आभार.
Sir,your writings are mind blowing .i am sstudent of MA hindi 2nd year.Can i get some help from you concerning my dissertation please.i would be ever grateful to you if i can talk to you in person.
Deepshikhaa
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