Wednesday, 27 August 2008
जहॉं मैं 10 दिन तक बिल्कुल चुप रहा !! (भाग 2)
नाम पता दर्ज कराते वक्त आपस में बात करने की मनाही नहीं थी, तभी मुझे ये मालूम हुआ कि इस शिविर में इंग्लैंड से चार युवक, इज़्राइल से सात, स्पेन से एक, अमेरिका से तीन, जर्मनी से दो लोग साधना के लिए आए थे और तीन-चार ऐसे थे जिनके बारे में मुझे याद नहीं कि वे कहॉं से थे। हैरत की बात ये थी कि यहॉं सभी युवा-उम्र के लोग थे। लगभग इतनी ही विदेशी लड़कियॉं थीं जो अपने पुरुष मित्रों के साथ भारत घूमने आई थी। न जाने ये साथी-संगी विपश्यना की तरफ भटकते हुए कैसे आ गए! जल्दी ही मेरी दोस्ती स्पेन के उस युवक से हो गई, जिससे बाद तक ई-मेल के जरिए संपर्क बना रहा। उसने जो अपना नाम बताया, वह स्पष्ट नहीं था, तब उसने अंग्रेजी शब्द key का हिन्दी में रुपांतरण करने को कहा। उसका नाम चावी था। एक इज़्राइली लड़का भी था, नाम ध्यान नहीं, उससे भी दोस्ती हो गई थी (संदर्भ के लिए उसका नाम जोसफ रख रहा हूँ)। भारतीयों में मेरे अलावा एक साधु और एक एम.बी.ए. युवक ही था।
मैं सोचता था मेरे पापा न जाने किस आध्यात्मिक गुरू के लपेटे में आ गए हैं! जैसा कि सबलोगों को मालूम है, सभी आध्यात्मिक बाबाओं का एक-एक बाजार है जहॉं भक्ति का व्यापार है। ये पौराणिक कथाओं को रोचक और नाटकीय ढंग से सुना-सुनाकर आम के साथ खास लोगों को भी अपने पीछे मस्ताना बनाए रहते हैं और राशि, अंगूठी,यज्ञ,अनुष्ठान जैसी वायवीय चीज़ों में उलझाकर जीवन की उलझनों को सुलझाने का दावा करते हैं। मैंने सोचा विपश्यना के आध्यात्मिक गुरू एस.एन.गोयन्का भी इसी तरह का चक्कर चला रहे होंगे, लेकिन तमाम प्रवचन सुनने के बाद इसी निष्कर्ष पर पहुँचा कि यहॉं किसी धर्म की वकालत नहीं की गई है, मात्र अपने भीतर तल्लीन होकर झॉंकने का अभ्यास कराया गया है। यहॉं बताया गया कि क्रोध जैसी तामसिक प्रवृत्तियों के कारण तन में जो-जो और जहाँ-जहाँ मेटाबोलिक बदलाव आता है, उस बदलाव का अपने भीतर पीछा करो, उसे देखो, महसूस करो, इससे उनका शमन हो जाएगा। बलपूर्वक किसी विकार को दबाया तो जा सकता है, पर वह रह-रहकर सामने आता ही रहेगा। इस लिए यहॉ दमन की नहीं,शमन की बात की जाती है। इस तरह राग-द्वेष के विकारों को जड़ से नष्ट किया जा सकता है।
पहाड़ो पर पानी को एकत्रित करना काफी मुश्किल काम होता है। हमारा शिविर सर्वाधिक ऊँचाई पर स्थित था। ऊपर के टैंक में मोटर द्वारा नीचे से पानी खींचकर इकट्ठा किया जाता था, जो पर्याप्त नहीं था। इसलिए सुबह-सुबह कुछ साधक पेट साफ करने की जल्दी में रहते थे ताकि पानी खत्म न हो जाए। वैसे अधिकांश विदेशी साधकों का काम टीसू पेपर से चल जाता था। आपको बताऊँ मैं, कुछ विलक्षण साधकों को बिस्तर छोड़कर सीधे साधना-कक्ष की ओर जाते हुए देखा गया था।
शुक्र है मेडिटेशन हॉल काफी बड़ा था और वायु आवागमन के लिए बड़े-बड़े रौशनदान भी थे। कुछ साधकों ने 10 दिन के शिविर में 6 दिन न नहाकर मेरे ऊपर भी बड़ा उपकार किया था।
जारी...........
(मैक्लॉडगंज,धर्मशाला के विपश्यना शिविर तक पहुँचने का वृतांत पहले भाग में देखें।)
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8 comments:
ये जानकर अच्छा लगा कि किसी भी धर्म की तरफ दबाव इसमें नहीं बनाया गया। ऐसी जगह पर पानी एकत्रित करना सच में ही मुश्किल काम है। पढ़कर अच्छा लग।
रोचक विवरण लिखा है..खासकर पानी वाला :-)
आगे की कहानी का इन्तजार रहेगा..
आप की पोस्ट दिलचस्पियों की हद को पार करती नजर आ रही है...जल्दी जल्दी और खूब सारा लिखिए...यूँ ओस की बूंदों से प्यास मत भुजाइये...एक बात तो पक्की है इस केन्द्र में जाने के बाद इंसान बदल जरूर जाता है...लेकिन इस बदलाव के बारे में अगर आप बताएँगे तो आनंद आएगा...मैं अंत में कुछ कहूँगा...
नीरज
रोचक-जारी रहिये-इन्तजार लगा है!!
तो आप शान्ति के लिए पहाड़ छान रहे हैं... वैसे हमने हर शहर में एक-दो शान्ति जरूर देखी है। और देखी है करुणा भी, आभा भी, चेतना भी, भावना भी कविता भी। हाँ कोई विपश्यना नहीं दिखी...
मजाक के लिए क्षमा, ध्यान लगाये रहिए। हम भी कोशिश में हैं...
जल्दी जल्दी लिखो भैया..
कितना इंतजार करवाओगे?? :(
भगत जी वेसे आप के लिये लगता हे सही जगह हे, नाम भी भगत, काम भी भगतो जेसा... देखे आगे क्या होता हे...
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