
मुझे एकल शयन कक्ष नहीं मिल पाया था। मेरे डॉरमेटरी में लगभग 10-12 विदेशी थे। मोटे परदे से पार्टीशन किया गया था। मुझे याद आया, मेरा रुम पार्टनर इटली का एक छह फुटा नौजवान था। रात 9:30 बजे बत्ती बुझा दी जाती थी (काश, नींद भी स्वीच से नियंत्रित होती!) एक तो नींद जल्दी नहीं आती थी, दूसरा, ठंड जैसे कम्बल को चीरकर हाड़ कंपा देती थी, तीसरा, मेरे बगल की चौकी पर वह इटैलियन प्रोडक्ट रह-रहकर खर्राटे भरने लगता था। उसके पास बैगनुमा रजाई था, जिसके अंदर वह घुसकर जो सोता, तो सुबह ही उठता।(इस बैगनुमा रजाई का नाम भूल गया हूँ, किन्हीं को मालूम हो तो कृप्या बताऍं)।
रात को कई बार लगा कि गला खराब होने वाला है, जुकाम हो सकता है। तब रात में ही एक-दो बार मेस के गेट के पास चला जाता, जहॉं हर्बल-टी का नल-युक्त कंटेनर बाहर ही रखा होता था। इस विशेष प्रकार की हर्बल-टी में गजब का स्वाद था। इलाइची, काली मिर्च

मेस में सिर्फ एक बार (11बजे) खाना और सुबह-शाम दो बार नाश्ता मिलता था। बाद के दिनों में यही खाना हमें पर्याप्त लगने लगा था। विदेशियों के साथ खाना खाने का अनुभव भी बड़ा रोचक रहा। इज्रायली युवक जोसफ संतरे के छिलके को तो उतार देता था, पर गुद्दे को बीज-समेत ही खा जाता था।
पहले दिन, जब नाम पता दर्ज किया जा रहा था, तब वह साधु मेरे पास आकर मुझसे बातें करने लगा। वह हरिद्वार से आया था और उसे इस बात का गर्व था। जब मैने बताया कि मैं दिल्ली से आया हूँ तब उसकी बात सुनकर मैं दंग रह गया। उसने कहा कि दिल्ली के सभी लोग शातिर हैं और वह मेरी ऑंख देखकर बता सकता है कि मैं कितना शातिर हूँ। मैने कहा- इस साधना से शायद मेरे भीतर का शातिरपना मर जाए, पर आप यहॉं किस लिए आए हैं?

खैर, साधना के अभ्यास से एक शक्ति हासिल होने लगी थी। एक ही आसन में बैठे रहने पर पॉव सुन्न होने लगते थे, पर धीरे-धीरे उस सुन्न स्थान तक चेतस मन को सहजतापूर्वक संचरित करने पर दर्द गायब होने लगता था। यह एक अलौकिक अहसास था! यह अहसास होने लगा कि महात्मा बुद्ध या अन्य मुनिजनों ने एक ही अवस्था में तप करने के लिए इन सूत्रों को अभ्यास से ही अर्जित किया होगा! मैने तय किया कि बोधगया स्थित बोधि वृक्ष के पास जाकर देखुंगा कि साधना के एकांत में कितना आकर्षण है!
शिविर से बाहर जाते हुए मन में एक अजीब-सी बेचैनी हो रही थी। पंछियों के जो कलरव मैंने यहॉं सुने थे,

नीचे उतरते ही मैक्लॉडगंज का बाजार नजर आया। इतने दिनों बाद बाजार में खड़ा होना भी सुखद लग रहा था। थोड़ा आगे बढ़ा तो 100-150 विदेशियों की लंबी कतार देखकर हैरान हो गया। पता चला, दलाई लामा आए हुए हैं और लोग उनसे हाथ मिलाकर उनसे पवित्र धागा बंधवा रहे हैं। मुझे कोई जल्दी नहीं थी, इसलिए मैं भी कतार में खड़ा हो गया। मैं जब नजदीक पहुँचा, तो देखने में वे आम बौद्ध भिक्षु ही लगे, जो तिब्बतियों की आजादी के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं।

दिल्ली आने के बाद एक-दो महिने तक मैं इस साधना का नियमित अभ्यास करता रहा। क्रोध पर काबू पाने में इससे काफी सहायता मिली, पर बाद में महानगर ने अपने तेवर दिखाए और मैं सबकुछ भूल-भाल गया। न जाने क्यों, ब्लॉग में आप सबसे ये बातें शेयर करते हुए वहॉं जाने की चाहत, मेरे मन में एक बार फिर उमड़ने लगी है। अब गुस्सा भी काफी आता है, सोचता हूँ समता में रहने का अभ्यास कर ही आऊँ! बैटरी कुछ महिने तो रिचार्ज रहेगी।
(इसकी पिछली कड़ी भाग 1 , भाग 2 और भाग 3 में पढ़ सकते हैं।)
12 comments:
बढ़िया चित्रण। लेकिन इस बार जाइएगा तो चाय की विधि जरूर सीख लीजीएगा...चाहे कुछ देर बोलना ही पड़े। साधना की बैटरी भले ही कुछ महीनों में खत्म हो जाएगी लेकिन चाय का स्वाद तो आपको क्रोध पर नियंत्रण की याद दिलाता रहेगा ना?
उस बैग नुमा रजाई का नाम स्लीपिंग बैग है.. 2 स्लीपिंग बैग मेरे पास भी है जो मेरे ट्रैकिंग के समय काम आता है..
चलिये आपका किस्सा खत्म तो हुआ.. मगर आपने बहुत इंतजार कराया.. :)
वैसे मुझे भी वो पता बताईये.. मैं भी जाना चाहता हूं.. शायद अगले साल मार्च में जाना चाहूं.. मैं आपसे आग्रह करता हूं की इस बाबत जानकारी मुझे मेरे इस ई-पते पर भेजने की कृपा करें..
prashant7aug@gmail.com :)
बहुत रोचक लगी आप की ये यात्रा...मेरी एक मौसी हैं जो पिछले 30 सालों से भयंकर सर दर्द की बीमारी से त्रस्त थीं, कोई भी इलाज कारगर साबित नहीं हो रहा था...दर्द कभी भी हो जाता था...उन्होंने विपत्शना केन्द्र मुंबई में दस दिन के कार्यक्रम में हिस्सा लिया और जब वो वहां से लौटी तब से अब तक (करीब दो साल होने को आए) उन्हें एक बार भी सर दर्द की शिकायत नहीं हुई...सच्चे मन से की गयी आराधना का फल जरूर मिलता है...ऐसी कोई शक्ति जरूर है जिसे वहां रह कर ही हासिल किया जा सकता है.
नीरज
chaliye sadhana ka kafi labh huya aapko..apna to gussa badast se bahar hai.
बहुत बढ़िया लगा आपका संस्मरण. वैसे उस रजाई को स्लिपिंग बैग कहते हैं.
उप्स्!! PD पहले ही स्लिपिंग बैग बता चुके हैं, सॉरी!!
@ sameer ji - :)
@ समीर जी - आपके कमेंट से मुझे एक कनाडा के मित्र याद आ गये.. नाम था उनका फ्रेड.. हर बात पर उप्स बोलने की आदत थी उन्हें.. आप पर भी उन्हीं का असर तो नहीं है ना? आप भी तो कनाडा में ही हैं.. :)
भाई बहुत अच्छी लगी आप की यह यात्रा, मे तो मजाक समझ रहा था, मुझे भी यहां का पता भेजना, ओर बताना किस समय जहा जाया जा सकता हे , क्योकी हम ज्यादातर अगस्त मे ही भारत आते हे, मेरी बीबी को कभी कभी सर मे दर्द हो जाता हे, शायाद इस का इलाज यहा मिल जाये.
धन्यवाद
बहुत मज़ा आया आपकी मौनी यात्रा के बारे में पढ़कर. आप साशु बाबा के बारे में कुछ और भी बताने वाले थे, उसका क्या हुआ? जैसा की पी दी ने बताया बैगनुमा रजाई को अंग्रेजी में तो स्लीपिंग बैग कहते हैं.
"सर्दी के हर मौसम में इस चाय की याद आती है, पर तब बिना बोले चाय बनाने की विधि कैसे पूछी जा सकती थी!" अरे बिरादर, उस दैवी स्वाद वाली चाय की विधि को गुप्त रखने के लिए ही तो वहाँ मौन व्रत रखाया जाता है.
ये चाय आपको सिर्फ सर्दियों के दिनों में ही उपलब्ध होगी क्योंकि ये गर्म होती है, अव आपलो्ग ये मत कहना कि ठ़ंडी चाय तो हम वैसे ही नहीं पीते।
Can you tell me the charges for the stay per day for one person in that Lodge ?
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