इंसान के पास दो चीजें ऐसी है जिसे अच्छे खुराक की सख्त जरूरत होती है- पेट और दिमाग। आदिम युग का इतिहास बताता है कि वह पेट की आग ही थी, जिसे बुझाने के लिए तरह-तरह से दिमाग लगाए गए। अब आदिम युग तो समाप्त हो चुका है,आज लोग दिमाग लगाने में ज्यादा व्यस्त हैं, जिससे पेट की तरफ ध्यान ही नहीं जा रहा है, पर यहॉं मेरा मकसद मोटापे पर चर्चा करना नहीं है।
मुझे याद है- मैं गर्मियों की छुट्टियों में हॉस्टल से घर आता था, घर कर बड़ा लड़का होने के नाते मेरी मां मेरे आराम का, खाने-पीने का हमेशा ध्यान रखती थी और अक्सर कहती रहती थी कि बेटा ये खा ले, वो खा ले; ऑखें धॅस रही हैं, हड्डियॉं नजर आने लगी हैं, वगैरह-वगैरह। मैं पन्द्रह साल का रहा हूंगा। पसीने से तरबतर, मुझसे दो साल छोटी मेरी बहन, मेरे लिए रोटी बनाती थी। मेरे लिए मां की इतनी जी-हुजउव्वत उसे चिढ़ा-सी देती थी- कहती-मैं भी तो तीन भाइयों के बीच इकलौती हूँ , माँ मेरे लिए इतना क्यों नहीं मरती ! फिर पलटकर मुझसे गुस्से में कहती- और रोटी तो नहीं लोगे ? मैं हॅसकर शिकायत करता-बहन, तू मुझसे ये नहीं पूछ सकती कि और रोटी दूँ क्या? हमेशा उलटे सवाल क्यों करती है ?
मेरी पत्नी मुझसे ऐसे सवाल नहीं करती, क्योंकि मैं गिन कर रोटियॉं खाता हूँ। घर के बड़े-बूढ़े कहते हैं- गिनकर खाने से शरीर को खाना नहीं लगता। मेरा मानना है कि बिना गिने खाने से शरीर को खाना कुछ ज्यादा ही लग जाता है। कुछ जागरूक लोगों का मानना है कि भूख से एक रोटी कम खानी चाहिए। कुछ कहते हैं कि हर तीन घंटे पर कुछ-न-कुछ लेते रहना चाहिए।
एक जमाना था, जब डायनिंग टेबल का कॉन्सेप्ट नहीं था, लोग जमीन पर चादर बिछाकर,(या पीढ़ा पर) पालथी मारकर खाना खाते थे। तब संयुक्त परिवार हुआ करता था या एकल परिवार में सगे रिश्तेदारों का लंबे समय तक मजमा लगा रहता था और उनका चले जाना काफी तकलीफदेह लगा करता था।
इस माहौल में खाने का अपना मजा था, किसी को कोई खास जल्दी नहीं रहती थी, जैसा कि आज रहती है। आज हर दूसरा आदमी कहता है, भई, खाने तक को वक्त नहीं मिलता। जो खाने के लिए समय निकाल लेते हैं, वे भी खाने की मेज पर ऐसे हड़बड़ाए रहते हैं जैसे नौकरी छूट रही हो।
मै सोचता हूँ कि क्या कमाया यदि ढ़ंग से नहीं खाया। मेरा मतलब ये नहीं है कि आप फाइव-स्टार होटल में खाऍगे तभी आपका कमाना सार्थक होगा। आपके सामने थाली हो तो आप अपना ताम-झाम भुलाकर, सारा ध्यान खाने पर लगाऍं, तब जाकर खाने का मकसद पूरा होता है।
वैसे मेरे लिए भी ये कहना आसान है, करना मुश्किल। जिस तरह से नगरों-महानगरों में व्यस्तताऍं बढ़ रही हैं, उस तरह दिमाग भी लगातार दौड़ रहा है। उसकी दौड़ नींद को भी खराब करती रही है। कई लोग बत्तियॉं बुझाकर सोने के लिए लेट तो जाते हैं, पर नींद कई करवटों के बाद आती है। दुनिया में उन्हें खुशनसीब माना जाता है जिन्हें चैन की नींद और भोजन के साथ उसे खाने का वक्त मिलता है। वे बदनसीब हैं जिनके पास खाना है, पर खाने का वक्त नहीं। उनकी बदनसीबी पर तो क्या कहना जिनके पास खाना ही नहीं !
Thursday, 23 October 2008
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33 comments:
ghar ke khane ko lekar apna to aisa mania hai ki, koi samshaan ki deewar faandne kahe to, faand jau...aapne aise samay me ghar ke khane ka jikra kar diya hai ki, kuch kaha nahi jaata, maa door hai aur patni....
वे बदनसीब हैं जिनके पास खाना है, पर खाने का वक्त नहीं। उनकी बदनसीबी पर तो क्या कहना जिनके पास खाना ही नहीं
" kitnee ajeeb see bat hai na, kee din raat inssan sirf rote ke liye mehnet krtta hai, or aaram se baith kr kha bhee nahee pata kya krein adhunik yug mey bussy hee itna ho gya hai, na to ab jmane rhe, na he sanyukt preevar jhan hanse bhree mahol mey ek sath baith kr khane ka apna hee mja or andaj hotta thaa... sub beetee bateyn ho gyee hain... or aaj rotee hai to time nahee or unka kya jinke pass rite nahee time hee time hai.... " bhut sochne pr majbur kiya aapke iss lekh ne, kitna neglect krke rkhtyen hain hum aise baton ko, roj marra kee cheez hai magar dhyan hee nahee daite,... or jub kabhee aisa kuch pdhty hain to fir bhavuk ho jaten hain..ha ha ha, inssan hain na.."
Regards
आपको कोई हक़ नही है इस तरह की पोस्ट लिखने का.. ख़ासकर की तब जब मुझे भूख लगी हुई हो और लंच ब्रेक दो घंटे बाद होगा... :)
अब समय बदल गया है...जिनके पास कमी नही है वो भूख मारकर डायटिंग कर रहे है....दूधी (लौकी )का जूस पी रहे है ..वजन की मशीन पर ऐसे कूदते है देखा १ किलो कम हो गया .....खाना ओर टी.वी एक दूसरे के पर्याय हो गये है .जिस दिन केबल नही आएगा .खाने में अचानक कुछ कमी लगने लगेगी...या फ़िर आप कोई किताब उठाकर या अखबार के साथ खाना बांटेगे ... सब कुछ अब बदल गया है.लोग शादियों में जाते है....शगुन देकर... खाना खाकर चल देते है .कोई अब बारात का इंतज़ार नही करता .जिंदगी भाग रही है......ओर हम भी....
अंधी दौड़
अंधी होड़
बस यही कुछ रह गया है बिरादर
ना आंगन के कहकहे
ना चौपाली ठट्टे
सब बदल गया
मैं वैसे लोगों में हूँ जो खाने के लिए जिन्दा हैं :-)
भागम भाग है जी आज कल ...कमाने की सबको है पर खाने की ढंग से फुर्सत किसी के पास नही ..
सही है आजकल की दौड़ती भागती जिन्दगी जिनके पास खाने को हैं को आराम और सकूं से खाने की फुर्सत नही है . और जिनके पास नही है वे दो जून का खाना जुटाने के लिए भाग दौड़ करते हैं .
अपना सा परिवेश लगा ! कुछ ऐसा ही हमने भी जिया है, अभी तक तो नींद आराम से आ जाती है :-)
mujhe to bhookh lagne lagi, lekin bukhar hone ke kaaran aaj kuchh achcha nahi lag raha hai, aapki likhi post sarthak ho rahi hai
बहुत सही बात है ! आपका सोच बिल्कुल सटीक है !
सही कहा.....चैन की रोटी और गाढी नींद, दोनों से ही हमने ख़ुद से ही ख़ुद को महरूम कर रखा है,किसी और को क्या कहें.
bahut badhiya janab, rachna pasand aayi, shuruat bahut hi achhi ki gayi hai.
अपनी बात कर लें। मेरी पत्नी जी एक अतिरिक्त हेल्पिंग को पूछ तो लेती हैं, पर ज्यादा खाने पर बाद किसी न किसी प्रकार से बोल भी देती हैं कि ज्यादा खा रहे हो आजकल!
बड़ी सांसत है! :)
haan sahi likha hai. sundar prastuti.
मान गए आपके विचारों के अभिव्यक्तिकरण की योग्यता को, अति उत्तम
जितेन्द्र जी, जितनी तकनीकी और इलेक्ट्रानिक दृष्टि से हम समृद्ध हुए हैं, उतने ही हम शारीरिक श्रम दूर होते जा रहे हैं और फिर हम फिटनेस के लिए निरर्थक उपाय करते रहते हैं, जिसकी गति ज्यादा दिनों तक बनी नहीं रहती, रिजल्ट वही हम गोल मटोल। अच्छी पोस्ट, बधाई।
बिरादर हमारी तिपनी कहाँ गई ? अभी भी नही दीख रही है !
आदिकाल से आजतक । बढि़या लिखा है।
बहुत सच्ची बात कही है आपने...आज की भाग दौड़ की जिंदगी में फुर्सत है ही नहीं...जिंदगी ही जैसे खो सी गई है...राजेश रेड्डी जी का एक शेर है:
जिंदगी का रास्ता क्या पूछते हैं आप भी
बस उधर मत जाईये भागे जिधर जाते हैं लोग.
नीरज
गनीमत है कि यह आलेख खाना खाने के तुरंत बाद पढ़ रहा हूँ, वरना ...
... कुछ नहीं कर सकता था जब श्रीमती जी परोसती तभी मिलता। और कहीं का नम्बर चौथा है। दूसरा और तीसरा भी घर के खाने का ही है।
बहुत खूब, आज की भागती दोड़ती जिदंगी के एक सच को बयान करती एक अच्छी पोस्ट।
वे बदनसीब हैं जिनके पास खाना है, पर खाने का वक्त नहीं। उनकी बदनसीबी पर तो क्या कहना जिनके पास खाना ही नहीं !
पहले सेहत गवाई पैसे के लिए, फिर पैसा गवांया सेहत के लिए। बीच में रोटी कहीं खो गयी।
भगत जी, बात आप ने बिलकुल सही कही, लेकिन अब भी काफ़ी कुछ हमारे अपने हाथ मै है, मै सारा दिन घर से बाहर रहता हु, बच्चे शाम को या दोपहर को घर आ जाते है, लेकिन शाम का खाना सब इक्कटे बेठ कर खाते है,ओर खाना के वक्त सिर्फ़ खाना या दिन भर की बाते, भारत आने पर जमीन पर बेठ कर सारा परिवार मिल कर खाना खाता है, मेरे पिता जी ने कहा था कि हम इतनी भागदोड इस खाने के लिये करते है, सो इसे इज्जत से खाना चाहिये यानि इसे इज्जत देनी चाहिये.
आप का लेख एक लेख नही एक शिक्षा है जिसे हमै धयान मै रखना चाहिये.
सुन्दर लेख के लिये धन्यवाद.
वे बदनसीब हैं जिनके पास खाना है, पर खाने का वक्त नहीं। उनकी बदनसीबी पर तो क्या कहना जिनके पास खाना ही नहीं
जितेंन्द्रजी, कभी आप अमरकांतजी की लिखी कहानी - दोपहर का भोजन - को जरूर पढें, ऑनलाईन यह अभिव्यक्ति पर अपलब्ध है। यहाँ लिंक दे रहा हूँ- शायद आप की पोस्ट के एक और पहलू को बयां कर जाये यह रचना। सशक्त पोस्ट।
अच्छा लिखा।
घर पर रहता था तो भूख बहुत लगती थी.खाने को लेकर चोंचले भी बहुत रहते थे ,पर यहाँ अब तो ......
sahi baat hai biradar.Hotel me kha kha ke Aisi taisi ho gai hai.
मेरे यहाँ उलट मामला है -यहाँ मेरी श्रीमती जी को ही यह ताना सुनना पड़ता रहता है की उन्होंने मुझे खिला खिला कर म्प्ता कर दिया है -मैं भी उन्ही को कोसता हूँ ! चलिए आपकी श्रीमती जी /आदरणीय भाभी जी कम से कम इस आरोप से मुक्त है !
खूबसूरत रचना
दीपावली की हार्दिक शुबकामनाएं
शरीर है तो भूख है, भूख है तो खाना हा, मगर है तो बस एक जिम्मेदारी ही न.
bahut sundar vyang prastut kiyaa hai
सुखमय अरु समृद्ध हो जीवन स्वर्णिम प्रकाश से भरा रहे
दीपावली का पर्व है पावन अविरल सुख सरिता सदा बहे
दीपावली की अनंत बधाइयां
प्रदीप मानोरिया
आपने आज की हकीकत बतादी पर भैया अपने पास तो सोने और खाने दोनो के लिये वक्त है और दोनो ही आराम से करते हैं । लोग कहते हैं उमर के सात नींद कम आती है अब तक तो ऐसा नही हुआ ।
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