पड़ोसी का स्कूटर सुबह की नींद में खलल डाल रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे सपने में किसी को किक लगाते हुए सुन रहा हूँ और स्कूटर स्टार्ट न होने से एक बेचैनी-सी हो रही है। उस पड़ोसी को न मैं जानता हूँ और न उसके स्कूटर से मेरा कोई वास्ता है, पर पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कि इसका स्कूटर स्टार्ट होना चाहिए। अचानक नींद खुल जाती है। स्कूटर की आवाज भी बंद है। मुझे लगता है मैंने सपना ही देखा था। मैं उठकर बाल्कनी में आ जाता हूँ।
दूसरी तरफ एक आदमी एक स्कूटर के इंजन के आसपास कुछ करता नजर आ जाता है।
दृश्य दो
मैं तैयार होकर ऑफिस के लिए निकल पड़ता हूँ। रास्ते में एक इंडिका कार बंद पड़ी है। लोग उसे धक्का लगा रहे हैं। गेयर लगाते ही गाड़ी झटका देती है, ऐसा लगता है कि अबकि बार कार चल पड़ेगी। गाड़ी घुर्र-घुर्र करके फिर खड़ी हो जाती है। धक्का लगानेवाले एक-दूसरे को देख रहे हैं....
मेरा ऑफिस आ गया है।
दृश्य तीन
ऑफिस में मेरे बगल की कुर्सी के साथ रामबाबू की कुर्सी है। वे दमे के मरीज हैं, एक दवा हमेशा साथ रखते हैं। खाँसी उठती है तो उठती ही चली जाती है।
आज उन्हें वैसी ही खॉंसी उठी है। गोली खाने के बाद वह रूक भी नहीं रही है। कोई पानी दे रहा है तो कोई आश्वासन। मुँह से खून आने लगा है। एम्बुलेंस बुलाई गई है। आधे घण्टे तक एम्बुलेंस के पहुँचने की संभावना है। वैसे रामबाबू के चचेरे भाई के पास एक कार भी है और वह इसी बिल्डिंग के पॉंचवें माले पर काम करता है। यह दूरी रिश्तों की दूरी से छोटी है, फिर भी वह नीचे नहीं आ पाएगा; यहॉं काम करनेवाले सभी लोगों का यही मानना हैं...... ओर मैं भी मानता हूँ।
दृश्य चार
शाम को ऑफिस से घर लौट रहा हूँ। सड़क पर एक लड़का बस पकड़ने के लिए चलती बस के पीछे भाग रहा है। दरवाजे का रॉड पकड़ने के बावजूद वह लड़खड़ा गया है। वहॉं खड़े कुछ लोगों का मत है कि उसका गिरना तय है जबकि कुछ लोगों को विश्वास है कि वह बस में चढ़ जाएगा।
सड़क के साथ बने एक पार्क में कुछ बुजुर्ग यह दृश्य् देख रहे हैं कि देखें क्या होता है। इनके मन में बस यही भाव आ रहा है कि अब उनकी उम्र दौडकर बस में चढ़ने की रही नहीं।
दृश्य पॉच
मैं घर आ गया हूँ। मेरा बेटा मेरी गोद के लिए मचल रहा है। मेरे एक हाथ में मेरा बैग है और दूसरे हाथ में शाम की सब्जी् और दूध का पैकेट। बच्चे की हड़बड़ाहट से दूध का पैकेट अचानक मेरे हाथ से छूट जाता है। सबको लगता है कि दूध बिखर गया होगा लेकिन हैरानी की बात है कि ‘धम्म’ से गिरने के बावजूद वह पैकेट फटता नहीं है। रात को वही दूध पीकर मुन्ना गहरी नींद में सो जाता है।
अदृश्य
सुबह-सुबह एक किक में स्कूटर स्टार्ट हो गया है। रास्ते में कार को धक्का देनेवाले लोग नजर नहीं आ रहे हैं। आफिस में पता चलता है कि एम्बुलेंस आई ही नहीं। हॉस्पीटल में रामबाबू का चचेरा भाई रात भर रूककर उनकी देखभाल करता रहा। शाम को घर लौटा तो पता चला कि मिलावटी दूध पीने की वजह से मुन्ने की तबीयत बिगड़ गई है। मुन्ने को डॉक्टर के पास ले जाते हुए सोच रहा हूँ कि उस लड़के का क्या हुआ होगा जो बस के पीछे भाग रहा था....
Saturday 1 August 2009
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20 comments:
kaisaa chitr rakh diya hai dreshy aur adreshy ka... jo dreshy hai vo hi adreshy hai aur jo dikh nahi rahaa ...vo hi saty hai
खूबसूरत कोलाज!
जिदंगी रफ्तार से दोडती रहती है। जिदंग़ी के एक दिन की जद्दोजह्त को बेहद साधारण शब्दों से कह दिया।
ऐसी ही होती है आसपास की दुनिया। अच्छा लिखा। बधाई।
दृश्य ही सत्य है अदृश्य का क्या कहें?
यह सिर्फ यह बताने के लिए टिप्पणी की गई है की मैंने पढ़ा ..बाकि अजीब सा लगा पढ़कर अधुरा - अधुरा सा.
वाकई बहुत ही सुंदर चित्र खींचा है। जीवन का यथार्थ चित्रित हो गया है।
कहां खो गये भाई साहब?
वैसे बढ़िया लिखे हैं.. :)
अरे वाह!
स्लाईड शो सा चलता रहा..अदृश्य भी अपना दृटांत बयां कर ही गया...सुन्दर विचारों की अभिव्यक्ति. कुछ उलझी, कुछ सुलझी..कहते हैं-इसी का नाम है जिन्दगी!
सुन्दर
बहुत खूब
बहुत खूब।
जीना इसी का नाम है।
स्कूटर स्टार्ट होगया होगा, राम बाबू की तबियत सम्हल गई होगी, इंचिका कार भी चल पडी होगी और लचकेने तो बस जरूर ही पकड ली होगी । जिंदगी संघर्ष ही तो है ।
ज़िंदगी का कोलाज, टुकड़े-टुकड़े होकर बिखरा और फिर अद्भुत तरीक़े से जुड़ भी गया। क्या कहने।
एक बार में ही सारा पढ़ता गया, सही सोच के साथ सही वर्णन, पसंद आया बिरादर।
bahut achcha likha hai...
सुन्दर दृश्यावली प्रस्तुत की जिन्दगी की. थोड़े फोन्ट के रंग बदल दें, नीचे के रंग थोड़े अस्पष्ट हैं.
कुश की पार्टी में जा रहे हो क्या ?
भाई साब सारा पिटारा एक दिन ही खोल दिया.....गजब का कोलाज बनाया है आपने...सूक्ष्मअंतर्द्रष्टि....
हम सब रोज-रोज ऐसे ही जीते हैं...
एक खुबसूरत चित्रण
http://som-ras.blogspot.com
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