गुलमर्ग की एक शाम, समय 6 बजे।
न अंधेरा ना उजाला।
टहलने के लिए निकला हूँ।
बर्फ के फोहे अचानक हवा में लहराते नजर आने लगे हैं।
जैसे शाम की धुन पर पेड़ों के बीच थिरक रहे हों!
कुछ मेरे जैकेट पर सज रहे हैं कुछ पेड़ों पर और कुछ तो कहीं थमने का नाम ही नहीं ले रहे।
न ये हिमपात है न बारिश, न धूल!
ये इनकी मौज है जो बस थोड़ी देर के लिए झलक दिखाते हैं और हवा के साथ ही गुम हो जाते हैं।
शिवालय तक जाने का इरादा है। पॉंव जमीन पर टिक नहीं रहे, वजह है बर्फ, जिसपर चलने का अनुभव ना के बराबर!एकाध बार फिसला भी, पर क्या फर्क पड़ता है! कौन यहॉं रोज फिसलने आता है!
सुबह की ही तो बात है- दिल्ली से श्रीनगर के लिए सुबह 7:40 की गो एयर की फ्लाइट। सौभाग्य से कोहरा दो दिन से कम था। टी-1डी से उड़ान लेने के ठीक डेढ़ घंटे बाद मैं श्रीनगर एयरपोर्ट के टैक्सी स्टैंण्ड पर बट्टमाल जाने के लिए टैक्सी ले रहा था।
आम तौर पर हर हिल स्टेशन के पहले एक हाल्ट/स्टैण्ड होता है। मसूरी से पहले जैसे देहरादून, मैक्लॉडगंज से पहले धर्मशाला, शिमला से पहले कालका, डलहौजी से पहले पठानकोट। ठीक उसी तरह गुलमर्ग से 15 किमी पहले है तनमर्ग, जहॉं उतरने के बाद चोगा (फेरन)पहने हुए काश्मिरी गाइड मीठी बोली में आपको ठगने की कोशिश करेंगे।
करीब 10 बजे तक मैं तनमर्ग पहुँच गया था। वहॉं से आगे तक की सड़कें बर्फ से ढँकी हुई थी। सूमो के तिरछे (diagonally) दो टायरों में चेन (जंजीर) बंधी हुई थी ताकि गाड़ी बर्फ से फिसले नहीं। ऊपर से आने वाली सेना की गाडियॉं में भी ऐसे ही चेन बंधे होते हैं।
वहाँ के सभी पेड़ क्रिसमस ट्री की तरह लुभावने लग रहे थे। मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों को यहॉं का दृश्य ऐसा लगेगा जैसे किसी कैलेण्डर में वे स्वंय घुस आए हों। ये उपमान मेरे मन में तब तक बसा रहा जब तक मैं गुलमर्ग में रहा।
गुलमर्ग में यदि कम से कम दो रात बिताने का इरादा है तो आप स्टैण्ड से लेफ्ट की तरफ जाऍं और होटल की तलाश करें।
इस तरफ होटल लेने के दो-तीन फायदे हैं
- इसी तरफ गंडोला है जो आपको अफरावत पर्वत तक ले जाता है।
- इसी तरफ स्कींग की शॉप और ढलान है
- इस तरफ चीड़ के पेड़ ज्यादा हैं जो पहाड़ की खूबसूरती को सौ गुना कर देते हैं।
(संभव है कि इधर कमरे न मिले या फिर महँगे मिले)
स्टैंड से राइट साइड जाने पर हॉटल,ढाबा और दुकाने ज्यादा हैं मगर ये गंडोला से दूर हैं।
आखिर मैंने 1200/- में फ्लोरेंस होटल का रूम नं 210 बुक करा लिया जिसकी खासियत यह थी कि यह कॉर्नर का कमरा था और दोनो तरफ बर्फै से ढँके पेड़, होटल और पहाड़ साफ नजर आ रहे थे।
मैं यह सोचकर हैरान होता हूँ कि जिस खिड़की के बाहर इतना खूबसूरत नजारा हो, वहॉं कमरे में किसी एबसर्ड फोटो को लगाने का चलन कितना अजीब है।
हम जिस जगह की इतनी तारीफ करते हैं, वहॉं रहने वाले लोग वहॉं से काफी परेशान भी हो जाते हैं, खास तौर पर जब बर्फीली आँधी आती है, हिमपात होता है या बारिश होती है तो बिजली, पानी और खाने-पीने के सामान के आवाजाही की काफी तकलीफ हो जाती है। पीने का पानी पाइप में ही बर्फ बनकर जम जाता है। उसे गैस से ठंडाकर बाथरूम तक पहुँचाया जाता है।
मैं अक्सर अकेला ही निकल आता हूँ घूमने। इसका एक फायदा ये है कि प्रकृति और उसके भव्य सौंदर्य को महसूस कर पाता हूँ। पर परिवार के बिना दो दिन से ज्यादा यहॉं रहना पड़ जाए तो अकेलापन सालने लगता है।
शिवालय तक जाने की सीढियॉं नजर नहीं आ रही है, उनपर बर्फ जो जमी है। दोनों तरफ लोहे के पतले रेलिंग के सहारे ही ऊपर तक जाता हूँ। याद आता है राजेश खन्ना और मुमताज का गाना- जय जय शिवशंकर- कॉंटा लगे ना कँकड़.....
पर वह शायद जून-जुलाई के महिने में फिल्माया गया था। अभी का तो नजारा कुछ और है। शिवालय में ताला लटका है। कोई भक्त इस सर्द शाम में आकर शिव को जगाना नहीं चाहता। मैं एक धागे की तलाश कर रहा हूँ। सीमेंट का एक कट्टा एक कोने में नजर आता है। कट्टे से एक सूतली तोड़कर मैं मंदिर के एक एकांत खंभे में उसे बांध देता हूँ...
कुफ्री (शिमला)में नाग देवता का मंदिर है, वही चलन मैंने यहॉं दोहराया है, इसबार अकेले......
अंधेरा छाने लगा है। आधा-अधूरा चॉंद बर्फ की चादर से लिपटने को बेताब है मगर चीड़ के पेड़ बीच में अड़ कर खड़े हैं ......... चॉंदनी बेवजह बीच में ही उलझकर रह जाती है।
शिवालय से गंडोला तक स्ट्रीट लाइट की पीली रोशनी बर्फ पर जहॉं-जहॉं पड़ती है, वह सोने-सा दमकता नजर आता है। बर्फ जूते से चटककर इस तरह आवाज करते हैं जैसे खेतो में धान कटने के बाद उसपर चलते हुए आवाज आती है। गंडोला से ठीक पहले हिलटॉप हॉटल नजर आता है जो यहॉं का सबसे महँगा होटल है।
थोड़ा आगे चलने के बाद स्ट्रीट लाइट के खंभे खत्म हो जाते हैं। अंधेरे और सुनसान सड़क पर चलते हुए थोड़ी घबराहट होती है। हॉलीवुड की कुछ हॉरर फिल्में और बर्फीले भूत याद आ जाते हैं। आज सुबह यहीं पर गदराए कौओ की झुँड कुछ झबरीले कुत्तो की भीड़ को कूडें की ट्राली को टटोलते-बिखेरते देखा था। झुँड में वे काफी खतरनाक लग रहे थे। अधखिले चॉंद की रोशनी चीड़ों से छिटककर सड़क पर कहीं-कहीं बिखरी पड़ी है, उसी के सहारे मैं हॉटल तक पहुँच जाता हूँ।
आज रात मैं अपने हॉटल (फ्लोरेंस) में ही डीनर कर रहा हूँ। डीनर करते हुए मैंने मैनेजर को कमरे का सेन्ट्रलाइज्ड हीटर ऑन करने के लिए कह दिया है। मेरी खुशनसीबी कि मैनेजर ने कमरे में एक ब्लोअर भी रखवा दिया है।
क्रमश: