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Saturday, 1 July 2017

माइलेज

वे कम खाती हैं मगर ज्यादा समय तक काम कर लेती हैं।  वे बीमार पड़ती हैं तो उन्हें बिस्तर पर आराम करना कभी अच्छा नहीं लगता। उनके पेट में एक और केमिस्ट की दुकान होती है। इनका काम बाजार जाकर बस दवाई खरीदनी होती है और पेट के केमिस्ट तक पहुँचानी होती है। ना-ना, ये ड्रग-अडिक्शन नहीं है, मगर उससे कम भी नहीं है! वो क्या कहते हैं.. हाँ, मूव लगाओ, काम पे चलो, दवाई निगलो, काम पे चलो।
पता नहीं कहाँ से इतनी ताकत लाती हैं ये! इसलिए भगवान ने इन्हें सबसे मुश्किल काम सौपा है, 9 महीने पेट में बच्चे पालने का! ये वहीँ नहीं रुकती! बच्चे के जन्म के बाद भी उसे पालना नहीं छोड़ती!

सोचता हूँ आदमी को ऐसी क्षमता ईश्वर ने दी होती तो... तो क्या! इसकी कल्पना भी सिहरन पैदा कर देती है। ये वही स्त्रियां हैं जो 55 से 60 किलो वजन बढ़ते ही हाय- तौबा करने लगती हैं मगर 9 महीने में 70-80 किलो होकर भी खुश रहती हैं। कमाल की प्रकृति होती हैं इनकी!
स्त्रियां कम ईंधन में ज्यादा माइलेज देती हैं।

Sunday, 18 September 2016

गूगल इनपुट टूल से हिंदी लिखना हुआ आसान


मैं कंप्यूटर पर हिंदी लिखने के लिए वॉकमेन चाणक्य फॉण्ट का इस्तमाल करता हूँ और अंगुलियाँ इसी कीबोर्ड के अनुरूप काम करती हैं। अच्छी बात ये है कि ये फॉण्ट किसी अन्य कंप्यूटर पर उपलब्ध न होने के बावजूद इस लिंक से इंडिक सपोर्ट के लिए hindi toolkit डाउनलोड करने के बाद remington को चुनने पर मेरा काम बन जाता है। समस्या ये है कि अंग्रेजी किबोर्ड पर काम करनेवाले लोग हिंदी लिखने के लिए कंप्यूटर पर कौन सा सॉफ्टवेर इनस्टॉल करें? वैसे तो कई तरीके हो सकते हैं मगर जो मुझे आसान तरीका लगा मैं यहाँ बताना चाहता हूँ-
step १ इस लिंक पर क्लिक करें
step २ हिंदी भाषा का चुनाव करने के बाद (साथ ही t&c पर भी टिक करें) डाउनलोड पर क्लिक करें
step ३ डाउनलोड होने के बाद टास्कबार के right में एक आइकॉन नजर आयेगा, वहां से हिंदी या अंग्रेजी में लिख पाएंगे। यदि आपके पास इससे अच्छा विकल्प हो तो हम सभी को जरुर अवगत कराएं!

Friday, 10 February 2012

गुलमर्ग : बर्फ का कालीन और सफेद सर्द रातें

गुलमर्ग की एक शाम, समय 6 बजे।
न अंधेरा ना उजाला।
टहलने के लि‍ए नि‍कला हूँ।
बर्फ के फोहे अचानक हवा में लहराते नजर आने लगे हैं।
जैसे शाम की धुन पर पेड़ों के बीच थि‍रक रहे हों!
कुछ मेरे जैकेट पर सज रहे हैं कुछ पेड़ों पर और कुछ तो कहीं थमने का नाम ही नहीं ले रहे।
न ये हि‍मपात है न बारि‍श, न धूल!
ये इनकी मौज है जो बस थोड़ी देर के लि‍ए झलक दि‍खाते हैं और हवा के साथ ही गुम हो जाते हैं।

शि‍वालय तक जाने का इरादा है। पॉंव जमीन पर टि‍क नहीं रहे, वजह है बर्फ, जि‍सपर चलने का अनुभव ना के बराबर!एकाध बार फि‍सला भी, पर क्‍या फर्क पड़ता है! कौन यहॉं रोज फि‍सलने आता है!





सुबह की ही तो बात है- दि‍ल्‍ली से श्रीनगर के लि‍ए सुबह 7:40 की गो एयर की फ्लाइट। सौभाग्‍य से कोहरा दो दि‍न से कम था। टी-1डी से उड़ान लेने के ठीक डेढ़ घंटे बाद मैं श्रीनगर एयरपोर्ट के टैक्‍सी स्‍टैंण्‍ड पर बट्टमाल जाने के लि‍ए टैक्‍सी ले रहा था।

आम तौर पर हर हि‍ल स्‍टेशन के पहले एक हाल्‍ट/स्‍टैण्‍ड होता है। मसूरी से पहले जैसे देहरादून, मैक्‍लॉडगंज से पहले धर्मशाला, शिमला से पहले कालका, डलहौजी से पहले पठानकोट। ठीक उसी तरह गुलमर्ग से 15 कि‍मी पहले है तनमर्ग, जहॉं उतरने के बाद चोगा (फेरन)पहने हुए काश्‍मि‍री गाइड मीठी बोली में आपको ठगने की कोशि‍श करेंगे।




करीब 10 बजे तक मैं तनमर्ग पहुँच गया था। वहॉं से आगे तक की सड़कें बर्फ से ढँकी हुई थी। सूमो के ति‍रछे (diagonally) दो टायरों में चेन (जंजीर) बंधी हुई थी ताकि‍ गाड़ी बर्फ से फि‍सले नहीं। ऊपर से आने वाली सेना की गाडि‍यॉं में भी ऐसे ही चेन बंधे होते हैं।
वहाँ के सभी पेड़ क्रि‍समस ट्री की तरह लुभावने लग रहे थे। मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों को यहॉं का दृश्‍य ऐसा लगेगा जैसे कि‍सी कैलेण्‍डर में वे स्‍वंय घुस आए हों। ये उपमान मेरे मन में तब तक बसा रहा जब तक मैं गुलमर्ग में रहा।

गुलमर्ग में यदि‍ कम से कम दो रात बि‍ताने का इरादा है तो आप स्‍टैण्‍ड से लेफ्ट की तरफ जाऍं और होटल की तलाश करें।
इस तरफ होटल लेने के दो-तीन फायदे हैं
- इसी तरफ गंडोला है जो आपको अफरावत पर्वत तक ले जाता है।
- इसी तरफ स्‍कींग की शॉप और ढलान है
- इस तरफ चीड़ के पेड़ ज्‍यादा हैं जो पहाड़ की खूबसूरती को सौ गुना कर देते हैं।
(संभव है कि‍ इधर कमरे न मि‍ले या फि‍र महँगे मि‍ले)
स्‍टैंड से राइट साइड जाने पर हॉटल,ढाबा और दुकाने ज्‍यादा हैं मगर ये गंडोला से दूर हैं।
आखि‍र मैंने 1200/- में फ्लोरेंस होटल का रूम नं 210 बुक करा लि‍या जि‍सकी खासि‍यत यह थी कि‍ यह कॉर्नर का कमरा था और दोनो तरफ बर्फै से ढँके पेड़, होटल और पहाड़ साफ नजर आ रहे थे।

मैं यह सोचकर हैरान होता हूँ कि‍ जि‍स खि‍ड़की के बाहर इतना खूबसूरत नजारा हो, वहॉं कमरे में कि‍सी एबसर्ड फोटो को लगाने का चलन कि‍तना अजीब है।
हम जि‍स जगह की इतनी तारीफ करते हैं, वहॉं रहने वाले लोग वहॉं से काफी परेशान भी हो जाते हैं, खास तौर पर जब बर्फीली आँधी आती है, हि‍मपात होता है या बारि‍श होती है तो बि‍जली, पानी और खाने-पीने के सामान के आवाजाही की काफी तकलीफ हो जाती है। पीने का पानी पाइप में ही बर्फ बनकर जम जाता है। उसे गैस से ठंडाकर बाथरूम तक पहुँचाया जाता है।


मैं अक्‍सर अकेला ही नि‍कल आता हूँ घूमने। इसका एक फायदा ये है कि‍ प्रकृति‍ और उसके भव्‍य सौंदर्य को महसूस कर पाता हूँ। पर परि‍वार के बि‍ना दो दि‍न से ज्‍यादा यहॉं रहना पड़ जाए तो अकेलापन सालने लगता है।






शि‍वालय तक जाने की सीढि‍यॉं नजर नहीं आ रही है, उनपर बर्फ जो जमी है। दोनों तरफ लोहे के पतले रेलिंग के सहारे ही ऊपर तक जाता हूँ। याद आता है राजेश खन्‍ना और मुमताज का गाना- जय जय शि‍वशंकर- कॉंटा लगे ना कँकड़.....
पर वह शायद जून-जुलाई के महि‍ने में फि‍ल्‍माया गया था। अभी का तो नजारा कुछ और है। शि‍वालय में ताला लटका है। कोई भक्‍त इस सर्द शाम में आकर शि‍व को जगाना नहीं चाहता। मैं एक धागे की तलाश कर रहा हूँ। सीमेंट का एक कट्टा एक कोने में नजर आता है। कट्टे से एक सूतली तोड़कर मैं मंदि‍र के एक एकांत खंभे में उसे बांध देता हूँ...
 कुफ्री (शि‍मला)में नाग देवता का मंदि‍र है, वही चलन मैंने यहॉं दोहराया है, इसबार अकेले......

अंधेरा छाने लगा है। आधा-अधूरा चॉंद बर्फ की चादर से लि‍पटने को बेताब है मगर चीड़ के पेड़ बीच में अड़ कर खड़े हैं ......... चॉंदनी बेवजह बीच में ही उलझकर रह जाती है।

शि‍वालय से गंडोला तक स्‍ट्रीट लाइट की पीली रोशनी बर्फ पर जहॉं-जहॉं पड़ती है, वह सोने-सा दमकता नजर आता है। बर्फ जूते से चटककर इस तरह आवाज करते हैं जैसे खेतो में धान कटने के बाद उसपर चलते हुए आवाज आती है। गंडोला से ठीक पहले हि‍लटॉप हॉटल नजर आता है जो यहॉं का सबसे महँगा होटल है।
थोड़ा आगे चलने के बाद स्‍ट्रीट लाइट के खंभे खत्‍म हो जाते हैं। अंधेरे और सुनसान सड़क पर चलते हुए थोड़ी घबराहट होती है। हॉलीवुड की कुछ हॉरर फि‍ल्‍में और बर्फीले भूत याद आ जाते हैं। आज सुबह यहीं पर गदराए कौओ की झुँड कुछ झबरीले कुत्‍तो की भीड़ को कूडें की ट्राली को टटोलते-बि‍खेरते देखा था। झुँड में वे काफी खतरनाक लग रहे थे। अधखि‍ले चॉंद की रोशनी चीड़ों से छि‍टककर सड़क पर कहीं-कहीं बि‍खरी पड़ी है, उसी के सहारे मैं हॉटल तक पहुँच जाता हूँ।

आज रात मैं अपने हॉटल (फ्लोरेंस) में ही डीनर कर रहा हूँ। डीनर करते हुए मैंने मैनेजर को कमरे का सेन्‍ट्रलाइज्‍ड हीटर ऑन करने के लि‍ए कह दि‍या है। मेरी खुशनसीबी कि‍ मैनेजर ने कमरे में एक ब्‍लोअर भी रखवा दि‍या है।

क्रमश:

Sunday, 27 November 2011

लबादा !

तहसील नूरपूर (कांगड़ा, हि‍माचल प्रदेश) के जसूर इलाके में जो रेलवे स्‍टेशन पड़ता है, उसका नाम नूरपूर रोड है। वहॉं के स्‍टेशन मास्‍टर ने सलाह दी कि‍ दि‍ल्‍ली जाने के लि‍ए अगर कन्‍फर्म टि‍कट नहीं है तो पठानकोट की बजाय चक्‍की बैंक स्‍टेशन जाओ।

चक्‍की बैंक से दि‍ल्‍ली के लि‍ए कई गाड़ि‍या गुजरती है। चक्‍की बैंक के एक ट्रेवल-एजेंट ने सलाह दी कि अगर जम्‍मू मेल से जाना है तो पठानकोट जाओ क्‍योंकि‍ वहॉं यह गाड़ी लगभग आधे घंटे रूकती है, जहॉं टी.टी. को सेट करने के लि‍ए काफी समय मि‍ल जाएगा।
पठानकोट में जम्‍मू मेल पौने सात बजे आती है, इसलि‍ए मैंने सबसे पहले स्‍टेशन के पास खालसा हिंदू ढाबे में खाना खाया। उसके बाद दि‍ल्‍ली के लि‍ए 115/- की जेनरल टि‍कट ली और जम्‍मू मेल के एसी डब्‍बों के पास काले-कोटवाले की तलाश करने लगा।
मेरे पास नवंबर की ठंड से बचने और स्‍लीपर में सोने के लि‍ए पर्याप्‍त कपड़े नहीं थे, इसलि‍ए मैं चाहता था कि‍ कम-से-कम 3एसी में जगह मि‍ल जाए, मगर 2एसी और 3एसी के लि‍ए आर.ए.सी. वाले पहले से ही टी.टी को घेरकर खड़े थे। मैं समझ गया अब स्‍लीपर में शरण लेनी पड़ेगी। स्लीपरवाले टी.टी. ने 350/- लेकर पक्‍की रसीद दी मगर कोई सीट नम्‍बर नही। उसने कहा कि‍ गाड़ी चलने के एकाध घंटे बाद मि‍लना।
जम्‍मू मेल दि‍ल्‍ली के लि‍ए चल पड़ी। मैं स्‍लीपर बॉगी के दरवाजे के पास खड़ा था। वहीं एक कबाड़ीवाला गंदा और बदबूदार लबादा ओढे अपने कट्टे के ऊपर बैठा था। मै टी.टी. का इंतजार करने लगा ताकि‍ सीट का पता चले। थोड़ी देर बाद टी.टी. आया और मुझे कि‍नारे ले जाकर बोला
- सर, बड़ी मुश्‍कि‍ल से आर.ए.सी. वाले की सीट नि‍कालकर आपको दे रहा हूँ, आप वहॉं जाकर लेट सकते हैं।
आप इतना रि‍क्‍वेस्‍ट कर रहे थे इसलि‍ए मैंने आपका ध्‍यान रखा।
मैंने टी.टी. को धन्‍यवाद देते हुए धीरे से पूछा
- कि‍तने?
- जो आप चाहें।
मैंने 200/- नि‍काल कर दि‍ए।


200/- जेब में डालते हुए टी.टी. ने कहा कि‍ ये सीट आर.ए.सी को जाना था और एक सवारी मुझे 400/- भी देने के लि‍ए तैयार थी, पर चलि‍ए आप 100/- और दे दीजि‍ए।
इस बीच पास खड़ा कबाड़ीवाला दयनीय-सा चेहरा बनाए टी.टी. की ओर हाथ फैलाए खड़ा था। मैं टी.टी. से बात करने के दौरान सोच रहा था कि‍ ये कबाड़ीवाला टी.टी. से यहॉं भीख कैसे मांग रहा है! वहॉं बल्‍ब की रौशनी काफी मद्धि‍म थी। गौर से देखने पर पता चला कि‍ वह कबाड़ीवाला मुड़े-चुड़े 10-20 रूपये टी.टी. को पकड़ाने की कोशि‍श कर रहा था। टी.टी. की हैसि‍यत पर यह कि‍सी तमाचे से कम नहीं था। उसने कबाड़ीवाले पर थप्‍पड़ जड़ने शुरू कर दि‍ए। वह बेचारा लड़खड़ाता, गि‍रता-पड़ता अपना कट्टा लेकर दूसरी तरफ चला गया।
अपनी सीट पर लेटे हुए मैं बॉगी के भीतर 3डी साउण्‍ड का अहसास कर रहा था- चलती ट्रेन की ताबड़-तोड़ आवाज,, कहीं लड़कि‍यों का शोर-गुल, कहीं नवजात बच्‍चे का रोना, कहीं कि‍सी बूढ़े की खॉंसी तो कि‍सी का खर्राटा, कि‍सी की पॉलीथीन और उसमें मूँगफली के चटखने की आवाजें। भाषाऍं भी अलग-अलग। मगर कुल मि‍लाकर यह एक शोर ही था, जि‍समे मुझे सोने की कोशि‍श करनी थी ताकि‍ कल दि‍ल्‍ली पहुँचकर डाटा अपलोड करने के लि‍ए सर में थकान हावी न रहे।

तभी ध्‍यान आया कि‍ मैंने ब्रश नहीं की है। मैंने जल्‍दी से जूते पहने और ब्रश लेकर बाहर वाश बेसि‍न की तरफ आ गया।
ब्रश करना अभी शुरू ही कि‍या था कि‍ मेरी नजर दरवाजे के पास बैठे शख्‍स पर गई। वह वही कबाड़ीवाला था जो हाड़ कपॉंती ठंड की इस रात में लबादे में लि‍पटा कोने में बैठा हुआ था। उसकी दयनीय-सी सूरत पर मेरे लि‍ए क्‍या भाव था- मैं ये नहीं समझ पाया मगर उसकी मुट्ठी में 10-20 रूपये अभी भी मुड़ी-चुड़ी हालत में फॅसे नजर आ रहे थे......

जि‍तेन्‍द्र

Saturday, 19 November 2011

हवा-हवाई

नवम्‍बर का महि‍ना था। दि‍ल्‍ली में मस्‍त बयार चल रही थी।
ऐसे ही एक खुशनुमा सुबह, जब राजस्थान से चलने वाली बस दि‍ल्‍ली के धौलाकुँआ क्षेत्र से सरसराती हुई तेजी से गुजर रही थी।
स्‍लीपिंग कोचवाले इस बस में ऊपर की तरफ 4-5 साल के दो बच्‍चे आपस में बातें कर रहे थे।


-अले चुन्‍नू!
-हॉं मुन्‍नू!
-वहॉं देख क्‍या लि‍खा है!
-क्‍या लि‍खा है?
-इंडि‍या गेट!
-अले हॉं, दि‍ल्‍ली आ गया! आ गया! आ गया!




-अरे मुन्‍नू, इतना मत लटक, गि‍र जाएगा!
-तू अपनी चिंता कर, तूने ऊपर नहीं पढ़ा क्‍या?
-नहीं तो!
- ठीक से पढ, ऊपर लि‍खा है एम्‍स!
- तो!
- तो क्‍या, गि‍रे तो बस को एम्‍स ले चलेंगे, नहीं तो इंडि‍या गेट !!




जि‍तेन्‍द्र भगत

Thursday, 3 November 2011

रि‍मोट कंट्रोल

(1)

-बेटा
-.............
-तुम पॉंच साल के होने वाले हो
-पॉंच यानी फाइव इयर, मेरा बर्ड-डे कब आ रहा है पापा। बताओ ना!
- बस आने ही वाला है। पर ये बताओ तुम मम्‍मा, नानू,नानी मॉं और दूसरे लोगों से बात करते हुए 'अबे' बोलने लगे हो।
बड़े लोगों को 'अबे' नहीं बोलते
, ठीक है!
-तो छोटे बच्‍चे को तो बोल सकते हैं!
-हॉं... नहीं कि‍सी को नहीं बोलना चाहि‍ए।
अच्‍छी बात नहीं है।
-मोहि‍त और आदि‍ को तो बोल सकता हूँ, वो तो मेरे साथ ही पढ़ता है।
- मैंने कहा ना- 'अबे' कि‍सी को नहीं बोलना,ठीक है
- ठीक है 'अबे' नहीं बोलूँगा।
- याद रखना
, तुम्‍हे दुबारा कहना ना पड़े।
- 'अबे' बोला ना, नहीं बोलूँगा!!

(2)
- बेटा!
- हॉं पापा!
- तुम बदमाश होते जा रहे हो। तुमने मोहि‍त को मारा।
-
नहीं पापा, पहले उसने ही मारा था। मैंने उसे कहा कि‍ मुझसे दूर बैठो मगर वह मेरे पास आकर मेरी कॉपी............
- चुप रहो, मुझे तुम्‍हारी टीचर ने सब बता दि‍या है, तुमने उसकी कॉपी फाड़ी और उसे मारा भी
अब माफी के लि‍ए गि‍ड़गि‍ड़ाओ वर्ना इस बार न बर्ड डे मनेगा ना गि‍फ्ट मि‍लेगा!
- ठीक है- गि‍ड़-गि‍ड़- गि‍ड़-गि‍ड़- गि‍ड़-गि‍ड़-................

(3)
- पापा, ये रि‍मोट वाली कार दि‍ला दो ना!
- नहीं, अभी चार दि‍न पहले ही तो मौसा ने गि‍फ्ट कि‍या था।
- पर वो तो खराब हो गई!
- उससे पहले संजय चाचू और मामू भी ने भी तो रि‍मोट वाली कार दि‍लवाई थी बेटा!
- पर आपने तो नहीं दि‍लवाई ना, प्‍लीज पापा, दि‍ला दो ना- दि‍ला दो ना!
मैं फि‍र दुबारा नहीं मॉंगूँगा, प्‍लीज-प्‍लीज!

- ठीक है, पर ध्‍यान रखना, दुबारा नहीं मॉंगना,और कार टूटनी नहीं चाहि‍ए। ये लो!
-ठीक है
!
- अरे मोहि‍त, तू कहॉं जा रहा है ? पापा ये मोहि‍त है, मेरे स्‍कूल में पढता है।
पापा मैं इसके साथ खेलने जा रहा हूँ, बाय
!
- अरे कार तो लेता जा.....रि‍मोट वाली.......!!??
- आप इसे घर ले जाओ, ठीक से रख देना मैं आकर इससे खेलूँगा!

मैं मार्केट से घर जाते हुए सोचता रहा कि‍ बचपन में मेरे पि‍ता जी का मुझपर कि‍तना कंट्रोल रहा होगा........

Wednesday, 19 October 2011

अब कहॉं मि‍लेंगें वो साथी

यहॉं आना ठीक वैसा ही लगता है जैसे ऑफि‍स और मीटिंग से नि‍कलकर खेल के उस मैदान पर चले आना जहॉं बचपन में अपने दोस्‍तों के साथ खूब खेला करते थे। ऐसा महसूस होता है जैसे मैं अपने काम में ज्‍यादा ही व्‍यस्‍त हो गया और साथ खेलने वाले लोग अब न जाने क्‍या कर रहे होंगे, कहॉं होंगे।
खुशी होती है उन लोगों को अब तक सक्रि‍य देखकर जो 2-3 साल पहले भी इतने ही सक्रि‍य थे। जो लोग इस रि‍श्‍ते को नि‍भा पाए हैं मैं आश्‍वस्‍त होकर कह सकता हूँ कि‍ नेट के नेटवर्क के बाहर भी उनके रि‍श्‍ते भी इतने ही गहरे होंगे।

कुछ दि‍न पहले मोबाइल गुम होने के बाद मुझे एंड्रायड फीचर वाला मोबाइल फोन (एल जी- ऑप्‍टीमस ब्‍लैक-पी 970) खरीदने का मौका मि‍ला। उसमें मैंने वाइ-फाई से सेट हिंदी का टूल लोड कि‍या जि‍ससे मैं हिंदी ब्‍लाग पढ़ पा रहा हूँ।

शायद ये मुझे फि‍र से ब्‍लॉग की तरफ खींच पाए।

ब्‍लॉगवाणी के चले जाने के बाद ब्‍लॉग पढना-लि‍खना बंद सा हो गया था। अब इसकी जगह कौन सा एग्रीगेटर ज्‍यादा चलन में हैं, उसका लिंक दे तो अच्‍छा रहे।

क्‍या कोई बंधू बता सकता है कि‍ मेरे एड़ायड फोन में हिंदी को पढ पाने का बेहतर तरीका/टूल कौन सा हो सकता है।

जल्‍दी ही मि‍लूँगा

जि‍तेन