सर्दियों की रात थी, मैं करीब आठ बजे अपनी मोटर-साईकिल से शक्तिनगर चौक से गुजर रहा था। मुझे एक जरूरी फोन करना था और मेरे पास मोबाइल नहीं था इसलिए मैं एक टेलीफोन-बूथ के सामने रूका। हैलमेट उतार ही रहा था कि संभ्रांत घरों के कुछ लड़के आसपास से दौड़ते हुए निकले, कुछ लड़के बूथ के सामने ही खड़े होकर परेशान-हैरान-से बातें करने लगे-
‘’भाई, तू घबरा मत, तेरे को कुछ नहीं होगा। राहुल, करण भी तेरे साथ हैं। प्रिया का फोन आया था, वह भी साथ देने के लिए तैयार है, बस तू हौसला रख। रोहन का दिमाग आज ही ठीक कर देंगे, लौटेगा तो इसी रास्ते से ना! चार लड़के साथ क्या कर लिए उस *** ने, शेर बन रहा है !’’
उन लड़कों की बातचीत और हरकतों से लग रहा था जैसे टपोरी और संभ्रांत लड़कों के बीच पहनावे के सिवा और कोई फर्क नहीं है।

मैंने गौर से देखा, जिस लड़के को हौसला बंधाया जा रहा था, उसका चमन उजड़ा-सा लग रहा था, चेहरे पर चोट के भी निशान नजर आ रहे थे, ठंड के बावजूद वे सभी पसीने से तर-बतर थे। उनके बीच बेचैनी और अफरा-तफरी का माहौल साफ नजर आ रहा था।
‘‘जाकर बाइक ले आ, अभी देखकर आता हूँ कि कहॉं गया है *** ‘’
बात-बात में उनके मुँह से गाली ऐसे झर रहा था, जैसे पतझर में पत्ते झरते हैं। इससे पहले कि मैं समझ पाता कि मामला क्या है, उसमें से एक लड़का आव देखा न ताव, सीधे मेरी बाइक की तरफ लपकते हुए बोला-
‘’भाई दो मिनट के लिए मुझे बाइक देना, मैं अभी आया।‘’
मैं बाइक से तबतक उतरा भी नहीं था, मैंने कहा-
‘’मुझे दूर जाना है और मैं पहले ही लेट हो चुका हूँ।‘’
पर उसे मेरी बात सुनाई कहॉ दे रही थी, उसपर तो मानों जुनून सवार था। लफंगों की इस बौखलाई जमात में मुझे यह कहने की हिम्मत नहीं पड़ी कि तेरे बाप की बाइक है जो तूझे दूँ। इससे पहले कि मैं स्टार्ट किक लगाता, उसने बाइक की चाबी निकाल ली।
जब दिल्ली ट्रैफिक पुलिस चालान के लिए बाइक रूकवाती है तो सबसे पहले चाबी कब्जे में लेती है क्योंकि बाइकवाले पतली गली से निकलने में माहिर होते हैं, इस तरह तो मेरी चाबी जब भी जब्त हुई है, चालान देकर ही छुटी है। पर आज चालान का मामला नहीं है।
वह लड़का मेरी चाबी लेकर अपने साथियों के साथ तय करने लगा किस तरफ जाऊँ। मेरी जान सांसत में थी, मैंने कहा- ’’भई आपको जहॉं जाना है मैं वहॉं छोड़ देता हूँ।‘’
उन्हें फिर कुछ सुनाई नहीं पड़ा। वे सुनने के लिए नहीं, सिर्फ बकने के लिए जो इकट्ठा हुए थे। मैंने कहा-
‘’अगर चाबी नहीं दोगे तो मैं तुम लोगों की शिकायत थाने में कर दूँगा।‘’
उनमें से ये बात किसी को सुनाई पड़ गई, वह तपाक से मेरी तरफ आया और गुर्राते हुए बोला-
’’कर फोन किसको करेगा, डी.सी.पी. को, एस.पी. को या एस.आई. को ? ऊपर से नीचे तक सब मेरे रिश्तेदार हैं। जा लगा फोन, बैठा क्या है! ओय इसकी बाइक की चाबी मुझे दे जरा!’’
एक आम आदमी, जिसकी कोई ऊँची जान-पहचान नहीं है, यह सुनकर जैसे सकते में आ जाता है, वैसे मैं भी आ गया। उसने चाबी लेकर अपने जेब में डाल ली, मैं बाइक पर असहाय-सा बैठा यह सोचता रहा कि किसी का गुस्सा किसी पर लोग कैसे उतारते हैं। उन नवाबजादों को आपस में बात करते हुए ख्याल भी नहीं था कि अपनी लड़ाई में उन्होंने मुझे किस तरह, बेवजह शामिल कर लिया है।
मैं रह-रहकर उन्हें टोकता रहा कि भई मुझे दूर जाना है, चाबी दे दो। मन ही मन खुद को कोसता भी रहा कि क्यों फोन करने के लिए यहॉं रूका! पर मुसीबत दस्तक देकर नहीं आती, वह न जगह देखती है न समय!
इस बीच मैं यही सोचता रहा कि अमीरजादों की ये नस्लें महानगरीय अपसंस्कृति की ऊपज है, जिनके बाप ने इतना काला धन जोड़ रखा है कि उन्हें अपने कपूतों के लिए भी कुछ करने की जरूरत नहीं है।

पर कुछ-न-कुछ तो करना जरूरी होता है इसलिए ये मारा-मारी, लड़कीबाजी में ही दिन खपातें हैं और इस झगड़े की जड़ में भी शायद वही बात थी। ऐसे अमीरजादों को चोरी-डकैती में जो थ्रील मिलता है, वह पढ़ाई में कहॉं मिल सकता है! तो सब तरह के दुराचार में ये भी लिप्त होते हैं। ऐसे बच्चों के बाप इनपर ये सोचकर अंकुश नही लगाते कि उन्होंने अपनी जवानी में यही गुल तो खिलाए थे!
अचानक वे लड़के आगे चल पड़े। मैंने उन्हें याद दिलाया कि चाबी उनके पास रह गई है। करीब आधे घंटे की इस तनावपूर्ण मन:स्थिति के बाद चाबी लेकर मैं वहॉ से निकल पड़ा। मैं यही सोचता जा रहा था कि उनके हाथ में पिस्तौल नहीं थी, वर्ना ऐसे मामलों में बेगुनाहों की खैर नहीं होती!
इस तरह की घटना 21वीं सदी के महानगर की एक नई पीढ़ी की दिशाहीनता को दर्शाता है। यह भी तय है कि आने वाले समय में यह घटना महानगरों के लिए एक आम शक्ल अख्तियार कर लेगी। हम ऐसे समाज में ही जीने के लिए अभिशप्त हैं और इसके समाधान की संभावनाओं का गुम होना दुखद है।