एक सच्चा सैलानी वही है जो प्रकृति से कम-से-कम छेड़छाड़ किए बिना वहॉ का आनंद लेकर लौट आए। प्लास्टिक की बोतलें और पॉलीथीन सुनिश्चित जगह पर ही फेंके। जगह न मिले तो उसे शहर के कूड़ेदान में डालने के लिए अपने साथ ले आए। इसमें ऐतराज क्यों!! आप अपने गंदे कपड़े धोने के लिए घर नहीं लाते क्या! उन्हें बाहर तो नहीं फेंकते ना!
यह तो अपनी जिम्मेदारी की बात हुई, लेकिन वहॉ की सरकार को क्या कहा जाए! एक दशक पहले शिमला(कुफ्री), मसूरी (गन हिल)आदि पहाड़ी वादियों में प्राकृतिक कोलाहल था, अब म्यूजिकल हलाहल है।
हम पहाड़ो पर जाकर अपनी तरफ से भी सफाई का ध्यान रखें तो वह भी कम नहीं होगा। अगर एक समूह ऐसी जगह किसी टूर पर जाता है और खुद प्लास्टीक की बोतलें और पॉलिथीन आदि इकट्ठा करने की हिम्मत दिखाता है तो लोग इस पहल की प्रशंसा ही करते हैं और शायद आपके इस मुहिम में कई लोग तत्काल शामिल भी हो सकते हैं। यह न केवल अपने बच्चों के लिए एक हिल स्टेशन बचाने की कोशिश है बल्कि पूरी पृथ्वी को स्वच्छ रखने में आपका यह आंशिक सहयोग अनमोल साबित होगा। एक बार करके तो देखिए, खुशी मिलेगी।
मेरे मित्र ने राज भाटिया जी और मुनीश जी को आभार प्रकट किया था कि उन्होंने (उसकी) मारूती पर भरोसा जताया है, ऐसे वक्त में जब उसका खुद का भरोसा अपनी कार से उठ चुका था :) मुन्ना पांडेय जी ने मसूरी से आगे चकराता जाने का जो सुझाव दिया है, वह अगली बार के लिए सुनिश्चित कर लिया है। अनुराग जी ने लेंस्दाउन नाम का जिक्र किया है, यह कहॉं है, यह बताने की कृपा करें अनुराग जी।
मैं अभी मानसून के इंतजार में दिल्ली की गर्मी झेल रहा हूँ। यह गर्मी साल-दर-साल बढ़ती महसूस हो रही है। भारत में गर्मी प्रकृति का एक दीर्घकालिक हथियार है, और यह खून को पसीने के रूप में बहा देता है, देखें कितना खून पीता है यह मौसम!!