दोहरी जिन्दगी जीने का इतना सुखद अर्थ मैंने कभी नहीं सोचा था। ब्लॉग पर जो आभासी रिश्ते बनते हैं या बिगड़ते हैं, किसी टी.वी. धारावाहिक की कहानी की तरह ही वे आगे बढ़ते हैं। एक सूत्र से कथा दूसरे सूत्र तक जाती है, दूसरे से तीसरे और इस तरह कभी न खत्म होनेवाले इस सीरियल से हम जुड़ते चले जाते हैं। यहॉ हम ही नायक, हम ही खलनायक और हम ही निर्देशक।
कभी-कभी अवसाद मन में भर जाता है कि इससे बाहर चला जाऊँ, अपनी जिंदगी संभालने का वक्त नहीं निकल पाता, परिवार-रिश्तेदार भी वक्त देने के लिए ताने मारते रहते हैं। इसके बाद, एक साथ इतने लोगों से ब्लॉग पर मिलने-जुलने की ताकत चाहिए, प्रबल इच्छा-शक्ति चाहिए। और यह ताकत कई लोगों के पास है, जिनके जज्बे की मैं कद्र करता हूँ।
इस छद्म भरी दुनिया में व्यक्ति अपनेआप को जिस तरह प्रोजेक्ट करता है, क्या यही उसका असली चरित्र है? बहरूपिया बनकर लोगों की भावनाओं को भुनाना क्या सही है? परदे पर आए बिना स्वांग करना आसान नहीं है। कभी शीशा देखते हुए आपने राक्षसी चेहरा बनाया है, (आज बनाकर देखिएगा) कितना भयावह रूप होता है वह! फोटो खिंचवाते हुए हम अपने चेहरे पर मुस्कान लाने की कोशिश क्यों करते हैं? हम अपनी लेखनी से जो छवि निर्मित करते हैं, क्या उसी उत्कंठा से हम उसे जी पाते हैं?
हर आदमी की अपने बारे में एक राय होती है, कई बार अपने बारे में बनी राय दूसरों के राय से भिन्न और कई बार विपरीत भी होती है। बहुत चुप रहनेवाले व्यक्ति को आप ब्लॉग पर बतरस के बादशाह के रूप में स्थापित पा सकते हैं। बहुत मजाकिया आदमी गंभीर लेखन के लिए जाना जाता हो, गंभीर आदमी ब्लॉग पर सतही बातें करते हुए मिल सकते हैं। बहुत मिलनसार लगनेवाला आदमी शायद मिलने पर झल्लाते हुए नजर आ सकता है। अहंकारी लगनेवाला आदमी क्या पता खातिरदारी में कोई कसर न रहने दे। सुंदर लगने वाला आदमी बदसूरत और बदसूरत लगनेवाला आदमी सुंदर नजर आ सकता है। जरुरी नहीं कि यह विरोधाभास मिलता ही हो। अपनी छवि को टूटता या बनता देख अफसोस या संतोष होना आम बात है।
एक सहज मानवीय अवगुण के तहत खास लोगों के साथ आम लोग जल्दी रिश्ता बनाने के फिराक में रहते हैं। वे सोचते हैं कि इस दोहरी जिंदगी के भेद को धीरे-धीरे खत्म कर देंगे और व्यक्तिगत रिश्ता कायम कर उनसे अपना स्वहित सिद्ध करेंगे। इसमें सफल होंगे या नहीं यह वे भी नहीं जानते। इसलिए कहा जा सकता है कि ब्लॉग को ब्लॉग ही रहने दो, इस रिश्ते को कोई नाम न दो। अधिकांश ब्लॉगर एक-दूसरे से न कभी मिलें हैं और न ही मिलना चाहेंगे। शायद मैं भी इन्हीं में से एक हूँ। यह एक रोमांटिक विचार है। ब्लॉगर्स-मिट इस विचार में मिसफिट बैठता है, पर रोमांटिक विचार अक्सर क्षण-भंगुर होते हैं। अनुराग जी ने मेरी एक पोस्ट पर एक बड़ी अर्थपूर्ण टिप्पणी की थी, जिसपर मैं सोचता ही रह गया था-
‘कभी किसी ने ये भी कहा था की लिखने वालो से मत मिलो वरना उनकी रचनायों से शायद उतना मोह नही रहेगा।‘
मैं एक नामी रचनाकार से बड़े अनौपचारिक माहौल में किसी के फ्लैट पर मिला था, उनका नामोल्लेख करना इसलिए यहॉं जरूरी नहीं समझता क्यूँकि इस खॉचें में अपना भी नाम डालने की सहूलियत बचाए रखूँ और आपका भी। शराब के नशे में उसकी ऑंखें अंगारे की तरह दहक रही थी, और वो कुछ बड़े लोगों के नाम के साथ गालियॉं लगाकर संबोधित कर रहा था। मैं जिनके साथ गया था, इशारे से उनको जल्दी चल निकलने के लिए कहा। उसकी अन्य रचनाऍ भी मैंने पढ़ी थी, घर जाकर दुबारा पढ़ी कि कोई इतनी अच्छी बातें कैसे लिख सकता है!
सिगरेट पीने वाले एंटीस्मोकिंग कैम्पेन चला रहे हैं। निशस्त्रीकरण के पैरोकार बेहिचक शस्त्र उठा रहे हैं। बाबा जी वैराग का प्रवचन दे रहे है, पर स्वयं घोर वासना में डूबे हैं। घर के पुरुष अपनी स्त्रियों को पर्दे में रखने की कोशिश कर रहे हैं और दूसरों की स्त्रियों को बेपर्दा कर रहे हैं। इस दोहरी जिंदगी से मुझे कोफ्त होती है। आपको भी जरुर होती होगी!
(इस पोस्ट को किसी के संदर्भ में नही लिखा गया है, सप्रयास अन्यथा न लें)
रतनिया से धर्मेश्वर महादेव
9 hours ago