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Wednesday, 3 September 2008

अमीरों की मर्मांतक पीड़ा !

मैं क्‍या करुँ जो कहीं बाढ़ कहीं सूखा है,
मेरा डॉगी भी तो सुबह से भूखा है।

मुर्ग-मसल्‍लम, वि‍स्‍की- इनसे बड़ा सहारा है।
कमबख्‍त रोटी से कि‍सका हुआ गुजारा है!

रफ्तार कम लग रही है ट्रेनों की,
उसपर टि‍कट मि‍ल नहीं रही प्‍लेनों की।

चोर-उचक्‍के हैं काहि‍ल, मैं क्‍या दूँ उनको गाली।
हफ्ता नहीं वसूला, है ति‍जोरी कुछ-कुछ खाली।

कुछ लोग मर गए हैं, गर्मी कहीं पड़ी है,
कल कम्‍बल नि‍काला है,ए.सी. की ठंडक बढ़ी है।

दुबई तो गया था, पर दुबका ही लौट आया।
अफसोस मन में रह गया, मुजरा न देख पाया।

कार तो कई हैं, पर इस बात का बेहद गि‍ला है,
दो-चार को छोड़,वी.आई.पी.नम्‍बर नहीं मि‍ला है।

भूखे-नंगे, अधमरों को बखूबी सबने देखा है,
अमीरों की गरीबी-रेखा को मगर कि‍सने देखा है!

दुख झेले हैं ये मैंने, तो दुआ करें सभी,
कि‍सी को न ये दि‍न देखना पड़े कभी।
-जि‍तेन्‍द्र भगत

16 comments:

रंजू भाटिया said...

उफ्फ्फ कितना दर्द भरा है यह ...:) बहुत सही व्यंग ...कैसे जियेंगे अब अमीर बेचारे :)

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छा व्यंग्य है।

मैं क्‍या करुँ जो कहीं बाढ़ कहीं सूखा है।
मेरा डॉगी भी तो सुबह से भूखा है।

अनुनाद सिंह said...

मान गये आपकी पारखी नजर को। एक्स-रे से भी अधिक भेदन क्षमता है इसमें।

डॉ .अनुराग said...

कितना दुःख है कितना दर्द है इस रचना में ..................मै तो हिल गया रे.........आपने समझा रे.....आप महान है रे........अब मै चला रे.....मेरा डोग्गी भी भूखा रे.....

नीरज गोस्वामी said...

बहुत सार्थक व्यंग पूर्ण दोहे...आनंद आया और दुःख भी हुआ...
नीरज

Ashok Pandey said...

वाह, इतना धारदार व्‍यंग्‍य..सच कह रहे हैं अनुनाद जी एक्‍स-रे से भी अधिक भेदन क्षमता है आपकी पारखी नजर में।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

mazzaa aa gaya

योगेन्द्र मौदगिल said...

अपना एक दोहा आपको समर्पित करता हूं:-

'उसका रामू भूख से तड़प रहा बेहाल!
इनके टामी ने चखे दूध-दही के थाल!!'

यथार्थपरक कविता हेतु बधाई स्वीकारें....

admin said...

बहुत खूब। मजा ही आ गया। इस व्यंग्य भरी गजल की बात ही निराली है।

L.Goswami said...

तिक्ष्न सटीक और क्या कहूँ ..?


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एक अपील - प्रकृति से छेड़छाड़ हर हालात में बुरी होती है.इसके दोहन की कीमत हमें चुकानी पड़ेगी,आज जरुरत है वापस उसकी ओर जाने की.

शोभा said...

कार तो कई हैं, पर इस बात का बेहद गि‍ला है,
दो-चार को छोड़,वी.आई.पी.नम्‍बर नहीं मि‍ला है।

भूखे-नंगे, अधमरों को बखूबी सबने देखा है,
अमीरों की गरीबी-रेखा को मगर कि‍सने देखा है!
अच्छी कल्पना है। बधाई।

pallavi trivedi said...

बहुत ही सार्थक व्यंग्य पूर्ण रचना....अमीरों को ज़रूर पढ़नी चाहिए!

Arvind Mishra said...

अच्छा सटायर !

राज भाटिय़ा said...

मुर्ग-मसल्‍लम, वि‍स्‍की- इनसे बड़ा सहारा है।
कमबख्‍त रोटी से कि‍सका हुआ गुजारा है!
भगत जी बहुत ही तीखी कविता कह दी आप ने सच मे आंसू आ गये, आप ने एक जलता हुआ सच बोल दिया
धन्यवाद

Gyan Dutt Pandey said...

धारदार!
अति सबकी बुरी। विकट गरीबी और विलासपूर्ण अमीरी - दोनो की।

Smart Indian said...

जीवन के विरोधाभास का इतना सुंदर चित्रण! बहुत खूब!