'आक्-थू’ और ‘पिच्च’ जैसी ध्वनियों से कौन परिचित नहीं होगा! इससे बड़ा मुँह-लगा मैंने न देखा है न सुना है! जब टाइटेनिक मूवी में ‘जैक’ और ‘रोज़’ को समुंदर की लहरों पर थूकते हुए देखा था, तब वह फूहड़ नहीं लगा था। चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई थी। जो ज्यादा दिलदार थे, वे मुँह खोलकर हँस भी रहे थे।
तब एक ‘इलिट’ लड़की का इलिटपन टूटता देख लोग इस अहसास से भरे जा रहे थे कि वह जैक को नहीं, एक आम आदमी को भाव दे रही है, एक आम आदत को भाव दे रही है और ऐसा करते हुए उसमे लज्जा के स्थान पर रोमांच और कौतुहल ज्यादा दिख रहा था।
इस खिलंदड़पन के अलावा थूकने का एक सामाजिक पक्ष भी है। हॉलीवुड के साथ-साथ बॉलीवुड में भी नायिकाऍं खलनायकों पर थूकती दिखाई जाती हैं। तब हमारे भीतर बदले की भावना और खौफ का मिश्रित रूप पैदा होता है। जब हम फिल्मों से निकलकर हकीकत की दुनिया में आते हैं, तब भी तमाम थूकने वाले लोग जहॉं-तहॉं मिल जाते हैं। कोई सरकार पर थूक रहा होता है, कोई पड़ोसी पर तो कोई रिश्तेदारों पर! किसी के पास धीरज नहीं होता कि थूक निगलकर कोई रास्ता निकाल ले! आक्रोश को शब्दों से नहीं, इस तरह की चेष्टा से अभिव्यक्त करने की परंपरा कितनी पुरानी होगी, कहा नहीं जा सकता, पर यह तो तय है कि सारी दुनिया में इसके मायने एक जैसे ही रहे होंगे!
इस थूकचर्चा में मानवीय चिन्ता के साथ-साथ पर्यावरण के संकट पर भी गौर कर लें। जहॉं हम-आप रहते हैं, या काम करते हैं या कहीं भी सार्वजनिक जगह पर कुछ समय बिताते हैं, वहॉं कुछ खास तरह के लोग जुगाली करते मिल जाएंगे। उसके बाद वे कोना इसी तरह ढूढेंगे जैसे कुत्ते दीवार ढूँढते हैं। इस मामले में इनका आपस में गहरा रिश्ता होता है। पर एक फर्क भी है। कुत्ते अपना पैर गंदा होने से बचाते हैं, जबकि जुगाली करनेवाले महाशय कोने में लाल-छाप छोड़कर अपनी पहचान बनाने में ही आत्मीय सुख महसूस करते हैं। वो इस लाल थूक को जितनी गहरी छाप छोड़ते देखते हैं , उतना किलो इनके खून का वजन बढ़ जाता है। अब मान लीजिए आप इनसे रास्ता पूछने की भूल कर बैठे, और आपने सफेद सर्ट पहन रखी है, फिर....! या मान लीजिए, इन्हें यूरोप या यू.एस. का वीज़ा मिल जाए तब....! अपनी भारतीय संस्कृति की पहचान ऐसे लोगों से भी तो बनी है।
पूँजीवादी व्यवस्था के उदय के बाद च्वींगम का ईजाद हुआ, जिसमे लोगों का घंटो मुँह बंद रखने की क्षमता थी, फिर थूकने का सवाल ही नहीं था! इस दोहरे फायदे को देखते हुए इसे व्यापक पैमाने पर खपाने की कोशिश की गई, मगर बच्चों के अलावा किसी ने इसे मुँह नहीं लगाया। बाकी जनता अपने रंग से ही मुँह लाल किए रही।
सरकार अपने कर्मचारियों को लेकर इस मामले में जहॉं-जहॉं संजीदा है, वो अपने भवनों को लाल ईंटों से बनवा रही है, पर थूकने वाले तब भी सफेद और साफ-सुथरा कोना ढ़ूँढ ही लेते हैं। वो तय करके आते हैं कि वे रोज उसी जगह थूकेंगे और उसे अपनी औलाद की तरह निहारेंगे कि तू न होता तो मैं कहॉं जाता! मुन्ना भाई की सलाह पर हम बाल्टी- मग लेकर या थूकदान की कटोरी लिए खड़े तो हो नहीं सकते कि आइये जनाब, शर्माइये मत, इसमें थूकिये, मुँह ज्यादा भरा हो तो मुझपर ही थूक दीजिए!
जो लोग इसे नवाबों का चलन मानते हैं, उनसे मेरा कोई गुरेज नहीं है। वस गुजारिश है कि इस तरह की क्रिया का संपादन नौकर के हाथ में सोने का थूकदान देकर अपने महलों में किया करें! सार्वजनिक भवनों को ‘लाल’ किला बनाने का टेंडर बेच दें! वैसे तो तंबाकू-गुटका वगैरह न खाऍं और फिर भी मन न माने तो थूकने का संस्कार सीख लें! और जो फिर भी इसे मौलिक अधिकार का हनन मानते हैं, वे मुझे माफ करें और जाकर मुँह साफ करें!
Monday, 8 September 2008
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18 comments:
सही कहा आपने.. कहीं जाओ हर तरफ थुक के लाल निशान ... बहुत बेहुदा लगता है..
सही बात लिखी है ..काश कोई इन थूकने वाले लोगों पर किसी भी तरह साम दाम दंड भेद लगा के रोक पाता ..सबसे ज्यादा गुस्सा आता है सड़क पर चलते हुए इस तरह से बेहूदे पन को देख कर
" wonderful thoughts about a shamefull act of any indivdual there and than. Appreciable effort of yours to share through this post"
Regards
मेरे दिल की बात कह दी जनाब आपने।
थूकना ओर हल्का होना हर भारतीय अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है बिरादर...
बिल्कुल सटीक तीर मारा है भाई जान आपने आजकल इलायची तो जेब में कोई रखता ही नहीं है जिसे देखो जेब में पान सुपारी और गुटखा मुंह में गुटखा छी अब तो घिन आती है इन सबसे
बहुत अच्छे . बधाई
Bahut khub.
अजी थूकने के लिये भी कोई नियम चाहिए। चलती गाड़ी में से पिचकारी मारो, चाहे पीछे वाले के चेहरे पर माडर्न आर्ट ही क्यों न बन जाए। थूकना भी तो अपने बड़ों से ही सीखते हैं ये। आपने अच्छा लिखा। बधाई।
अजी थूकने के लिये भी कोई नियम चाहिए। चलती गाड़ी में से पिचकारी मारो, चाहे पीछे वाले के चेहरे पर माडर्न आर्ट ही क्यों न बन जाए। थूकना भी तो अपने बड़ों से ही सीखते हैं ये। आपने अच्छा लिखा। बधाई।
Bahut sahi likha hai aapne . par isko rokane ka koee upay sochana jaruree hai.
भाई मेरे दिल की बात आप ने कह दी,वेसे "थू !! थू !! थू-थू !! करने को तो मेरा भी मन करता हे इन नेताओ पर.
धन्यवाद
सरकार अपने कर्मचारियों को लेकर इस मामले में जहॉं-जहॉं संजीदा है, वो अपने भवनों को लाल ईंटों से बनवा रही है, पर थूकने वाले तब भी सफेद और साफ-सुथरा कोना ढ़ूँढ ही लेते हैं। वो तय करके आते हैं कि वे रोज उसी जगह थूकेंगे और उसे अपनी औलाद की तरह निहारेंगे कि तू न होता तो मैं कहॉं जाता! मुन्ना भाई की सलाह पर हम बाल्टी- मग लेकर या थूकदान की कटोरी लिए खड़े तो हो नहीं सकते कि आइये जनाब, शर्माइये मत, इसमें थूकिये, मुँह ज्यादा भरा हो तो मुझपर ही थूक दीजिए!
हां हां हां :) :) :)
लगता ही नही की किसी नवोदित चिट्ठाकार को पढ़ रहा हूँ
बहुत बेहतरीन पोस्ट
मगर लोग माने तब न
एक गुजारिश है पोस्ट ऐ लिंक का कलर जरा डार्क कर दीजिये
वीनस केसरी
kuchh log to chitrakari kar dete hain, unki taareef kyon nahin karte, haalanki mujhe yah shauk nahi hai, phir bhi main unki taareef kar deta hoon do deewaron par chitra bana dete hain, modern aaaaart
सही है..
वाकई हम अभी भी सिविक सेंस में नही जी रहे हैं,सामान्य रूप से इस थूक की बीमारी को हर जगह देखा जा सकता है.... इस भदेस पन से हमें छुटकारा पाना ही होगा ....आपकी बात अच्छी लगी
कई अस्पतालों में एसे लोगो को शर्मिंदा करने के लिए लिखा गया है - ये हैं मिस्टर थूकू.
हां लेकिन वे शर्म प्रूफ होते हैं
बहुत खूब! मुझे अपनी एक पोस्ट याद आ गयी - अजब थूंकक प्रदेश है यह!
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