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Tuesday, 4 May 2010

उफ् बुढ़ापा हाय जवानी.........

तुम्‍हें नजर नहीं आता, इस सीट के ऊपर क्‍या लि‍खा है!!
-इस तीखी आवाज को सुनकर मेट्रो ट्रेन में अचानक सन्‍नाटा छा गया। सभी का ध्‍यान उस बूढे की तरफ गया जो उस गरीब-से नौजवान को दहकती ऑंखों से घूर रहा था। उसके बगल में एक बूढ़ा सरदार बैठा था-
हुण् माफ कर दो, मुंडा नादान है। उन्‍नानू त्वानू सीट तो देत्ती।

बूढे ने नौजवान को डॉटते हुए कहा-'वि‍कलांग' से पहले क्‍या लि‍खा है, वह तुम्‍हें नजर नहीं आता!
-मुझे पढ़ना नहीं आता!
इस बात पर बूढ़े को जैसे भरोसा नहीं हुआ और वह लगभग चि‍ल्‍लाने लगा-
-तुम्‍हें पता है, अगर मैं चाहूँ तो अगले ही स्‍टेशन पे पुलि‍स में एरैस्‍ट करवा सकता हूँ, साथ ही तुम्‍हें 200 रूपये का जुर्माना भरना पड़ सकता है।
-मेरे पास टि‍कट है!
-तो क्‍या तू कहीं भी बैठ जाएगा!बता?
पतला-दुबला-सा नौजवान,जि‍सके चेहरे पर लंबी उम्र के मुँहासे जगह-जगह भरे हुए थे, उसने सकपकाते हुए कहा-
-बूढ़े और वि‍कलांग की सीट पर तबतक तो कोई भी बैठ सकता है जबतक कोई बूढ़ा या वि‍कलांग आकर सीट न मॉंगे।
इसपर बूढे ने कहा-
-तो तू इस तरह कैसे बोल रहा था कि‍ पैर तो ठीक नजर आ रहे हैं!!


मेट्रो में खड़ी कुछ अल्‍हड़ लड़कि‍यॉं उनकी बहस सुनते हुए मंद-मंद मुस्‍कुरा रही थीं और बेबात मुस्‍कुरा देने की अपनी छवि‍ से बाहर नजर आ रही थी। उनके अलावा मुझ जैसे कई जवान इस तरह गंभीर बने हुए थे कि‍ ये बूढ़ों की लड़ाई नहीं, मैदान में खेलते हुए बच्‍चों की चि‍क-चि‍क है, इसलि‍ए इसमें पड़ना बेकार है।
दूसरे लोगों ने उस नौजवान से कहा कि‍ वह मेट्रो के अगले दरवाजे की तरफ बढ़ जाए।
वह बूढ़ा गुस्‍से में बड़बड़ा रहा था-
-तुमने इस देश के लिए कि‍या क्‍या है?
वह नौजवान भी बड़बडाते हुए उस जगह से आगे बढ़ गया कि-
मैंने तो झक मारी है पर 'तुमने' इस देश के लि‍ए क्‍या कि‍या है?
बाकी यात्रि‍यों को यह समझ नहीं आया कि‍ सीट न देने पर यह सवाल कहॉं उठता है कि‍ उसने देश के लि‍ए कि‍या क्‍या है।
कि‍सी ने हवा में एक बात उछाली-
सीट दे दो भाई,आजादी की लड़ाई में गॉंधी के पीछे यही तो खड़े थे!
इस पर बूढे को और गुस्‍सा आ गया-
बततमीजी की भी एक हद होती है, नौजवानों की इस पीढ़ी को भवि‍ष्‍य में उसके बच्‍चे ही बेघर, बेसहारा करके छोड़ेंगे।
भीड़ में से कि‍सी ने चुटकी ली-
-लगता है आपको इसी दौर से गुजरना पड़ रहा है!
बूढ़े सरदार ने उसे समझाया-
क्‍यों एक सीट के पीछे अपनी मटि‍या पलि‍त करने पर तुले हो। वह लड़का तो चला गया जि‍से सुनाना था।
उस बूढे का गुस्‍सा और भड़क गया-
आप और उसका साथ दे रहे हो!! यू डोन्‍ट लि‍सन वाट ही सैड- 'पैर तो सही नजर आ रहा है।'
सच ए नॉनसेंस पीपल थ्रोइंग दि‍स कंन्ट्री इन टू दी हेल, यू नो वैरी वेल!!

बूढ़ा सरदार बोला- बट यू डॉन्‍ट आस्‍क फॉर द सीट इन प्रोपर मैनर! अंदर आते ही आपने उसके कंधे को पकड़कर ऐसे उठाया जैसे चोरी करके आया हो!
तभी दूसरी तरफ से कि‍सी बूढे व्‍यक्‍ति‍ की आवाज आई- .... कोई और होता तो ऐसा कहने पर वह उसे एक थप्‍पड़ जड़ देता!

पीड़ि‍त बूढे को यह बात समझ नहीं आई-
थप्‍पड़ कैसे जड़ देता! आपसब लोग अगर गलत का साथ दोगे तो इसी तरह ये नौजवान लड़के सर पर चढ़कर पेशाब करेंगे!
-अरे भाई मैं आप ही के फेवर में बोल रहा हूँ कि‍ आपको उसे एक थप्‍पड़ जड़ना था। पर अब जि‍से सुनाना था, वह तो पि‍छले स्‍टॉप पर उतर गया!
बूढ़ा बड़बड़ाता रहा-
कहता है पढ़ना नहीं आता, ऊपर इशारे कर कैसे बता रहा था कि‍ यहॉं वि‍कलांग लि‍खा है, वृद्ध नहीं!
लोगों को इस बहस से मनोरंजन होने लगा था और वह उस बूढ़े की तरफ इस तरह देख रहे थे कि‍ देखें अब यह क्‍या कहता है!


पॉंच मि‍नट के बाद दूसरे स्‍टेशन पर वह बूढ़ा भी उतर गया। भीड़ छट गई थी और मेरे सामने वो सीट खाली थी, जि‍सके लि‍ए अभी दस मि‍नट पहले इतना तमाशा हुआ था......।

मैंने सीट के ऊपर लि‍खी ईबारत को गौर से पढा-
हिंदी में लि‍खा था- 'वृद्ध एंव वि‍कलांगों के लि‍ए'
जबकि‍ अ्ंग्रेजी में लि‍खा था- 'FOR OLD OR PHYSICALLY CHALLENGED'।
अंग्रेजी की माने तो उस सीट पर या तो वृद्ध बैठेगा या विकलांग जबकि‍ हिंदी के अनुसार वह सीट दोनों के लि‍ए है। 'एंव' तथा 'OR' के फर्क को मेट्रोवालों ने क्‍यों नहीं सोचा?

खैर, प्‍लेटफार्म की लि‍फ्ट से नीचे उतरते हुए एक बूढ़े व्‍यक्‍ति‍ ने मुझे ऐसे देखा, जैसे पूछना चाह रहा हो-
सीढि‍यॉ खराब हो गई हैं क्‍या.........‍???

17 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

हम सब असभ्य हैं और अनैतिक भी. इसे स्वीकारना होगा और पूरे समाज को संवारना होगा इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये..

राज भाटिय़ा said...

जब हम ही असभ्य होगे तो अपने बच्चो को क्या सीखायेगे.... यहां बाबा को ऎसे नही बोलना चाहिये था, शायद अपने घर से दुखी होगा, क्योकि उस ने बच्चो को यही सब जो सीखाया है

Arvind Mishra said...

सही है सहिष्णुता तो जैसे लोप हो चली है ...

अनूप शुक्ल said...

अच्छा लगा यह संस्मरण! पढ़ते-पढ़ते सारी घटनाओं की कल्पना कर रहा था।

बहुत दिन बाद लिखा आपने बिरादर!

निर्मला कपिला said...

शायद मै भी मन की आंम्खों से उस घटना को देख रही थी न जाने कितनी अइसी घटनायें हमे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती हैं संस्मरण बहुत अच्छा लगा सरकारी तन्त्र से एवं और या मे अन्तर की अपेक्षा करना बेकार है। न जाने ऎसी कितनी गलतियाँ सरकारी इबारतों पर देख सकते हैं। शायद हम लोग कभी नही सुधरेंगे। शुभकामनायें

anjule shyam said...

थप्‍पड़ कैसे जड़ देता! आपसब लोग अगर गलत का साथ दोगे तो इसी तरह ये नौजवान लड़के सर पर चढ़कर पेशाब करेंगे!
-अरे भाई मैं आप ही के फेवर में बोल रहा हूँ कि‍ आपको उसे एक थप्‍पड़ जड़ना था। पर अब जि‍से सुनाना था, वह तो पि‍छले स्‍टॉप पर उतर गया!
बूढ़ा बड़बड़ाता रहा-

कुश said...

सीन तो हमने भी फ्रेम बाय फ्रेम इमेजिन कर लिया... वैसे अंकल को सीने पे हाथ रखके आल इज वेल कहना चाहिए था..

आतिफ का गाना याद आता है.. हम किस गली जा रहे है...

प्रवीण पाण्डेय said...

थोड़ा आराम या वर्षों के संस्कार को तिलांजलि ।

Smart Indian said...

सही तो है भाई, और एवं OR में क्या फर्क हुआ. ये दिल्ली है जहां हर सरकारी पत्थर पर रोड के डी के नीचे बिंदी होती है और मण्डी हाउस के चिन्हों में भी

Udan Tashtari said...

क्या कहें...अच्छा आलेख. सब अपनी तरह पढ़ सकते हैं इसे.

रंजन said...

मैं भी रोज इसी घटनाओं से गुजरता था.. समस्या ये है की जो अपना अधिकार जानते हे वो छीनना चाहते है.. बिना ये समझे की सामने वाल भी कहीं मार खाया है.. पता नहीं.. मुझे बैकोक में कभी ऐसी घटना होते नहीं दिखी.. यहाँ भी सीटें रिसर्व होती है..

Gyan Dutt Pandey said...

कौन साइड से टिप्पणी करूं?!

दिगम्बर नासवा said...

Aapka likhne ka andaaz dilchasp hai .. aapka sansmaran padhte padhte aankhon ke saamne se guzar gaya ...

Asha Joglekar said...

अगर देस के नौजवानों का ये हाल है तो कहीं ना कहीं वृध्द भी इसके जिम्मेदार हैं ।

नीरज मुसाफ़िर said...

भई भगत जी,
सही कहूं तो मेट्रो ने दिल्ली वालों की आदत खराब कर दी है। अगर वो बुड्ढा डीटीसी की बस में सफर कर रहा होता तो...

hem pandey said...

जेनेरेशन गैप !

देवेन्द्र पाण्डेय said...

रोचक लेखन शैली ने अक्सर दिखने वाली ऐसी घटनाओं को भी नवीनता प्रदान की है.