अनूप जी ने चिट्ठा-चर्चा में मुझसे गिरोह का नाम पूछा है। वैसे वे ‘एक लाइना’ को जिस विनोद के साथ प्रस्तुत करते हैं, उसमें गंभीर होकर सोचना गलत होगा, और वैसे भी उनके इस प्रश्न में चुहल ही ज्यादा होगी, फिर भी जवाब में कुछ कहना चाहूँगा। जैसे ‘धर्म’ अपने प्रारंभिक दौर में सभी मर्यादाओं से युक्त एक पवित्र विचारों से प्रेरित हुआ था, पर बाद में ‘सम्प्रदायों’ में बँटकर वह दूषित होने लगा, ठीक ऐसा ही संदेह ब्लॉग-जगत की निष्पक्षता और प्रतिबद्धता को लेकर मेरे सहज मन में उपजा था।
धार्मिक आस्था और सांप्रदायिक एकजुटता में फर्क है, ठीक उसी तरह साम्प्रदायिक एकजुटता और साम्प्रदायिक गुटबाजी में भी गहरा अंतर है। साम्प्रदायिक एकजुटता में प्रतिबद्धता को एक सामूहिक विकास के रूप मे देखा जाता है मगर साम्प्रदायिक गुटबाजी की प्रतिबद्धता, दूसरे को नीचा दिखाने में ही अपना उत्थान समझती है। ब्लॉग के संदर्भ में कहा जाए तो मुझे एकजुटता से कोई ऐतराज नहीं है,( ईर्ष्यावश कुछ को हो तो मैं कुछ कह नहीं सकता) पर कहीं कोई गुटबाजी का प्रयास कर रहा हो तो मैं उसके खिलाफ हूँ और अनूप जी, मैं भविष्य में भी ब्लॉग-जगत से जुड़ा रहा तो ऐसी गुटबाजी को सामने जरुर लाऊंगा। मैंने कल सिर्फ इतना ही कहा था कि-
‘’ब्लॉग-जगत में अभी मामूली गिरोहबंदी है, कट्टरता के स्थान पर स्वस्थ हास-परिहास है, आनंद और दिल्लगी की छुअन है। पर जिस दिन गिरोह-बंदी और बाबागिरी यहॉं चरम पर होगी, ब्लॉग भी उन्हीं आरोपों से ग्रस्त होगा, जिसके लिए तथाकथित साहित्य जगत और मीडिया पत्रकारिता बदनाम है।‘’
यह कट्टरता ही एकजुटता को गुटबाजी में तब्दील कर देती है। बस इसी कट्टरता को ब्लॉग से दूर रखने की गुजारिश कर रहा था।
ज्ञानदत्त जी को पिछले कुछ दिनों से ही पढ़ना आरंभ किया है। वे प्रभावी लेखक हैं और आत्मविश्लेषण उनके लेखन का उम्दा पक्ष है, पर एक जिम्मेदार लेखक से जिस बात की उम्मीद नहीं होती, अनायास वैसी बात पढ़कर मन में कुछ खटक जाता है। वही बात खटक गई और ऐतराज करने की भूल कर बैठा। मैं भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि मेरी इस बात को उन्होंने बड़ी सहजता से लिया होगा, लेकिन उनको चाहनेवाले इस बात से ज्यादा आहत हुए। किसी के लेखन को पसंद करने का मतलब ये नहीं होता कि उनकी हर बात को हम डिफेंड करें। गड़बड़ी यहीं से होती है, ऑख पर पर्दा पड़ जाता है और अनायास ही किसी के लिए हम पूर्वाग्रह से ग्रस्त होते चले जाते हैं।
मेरा आग्रह है कि मेरी पिछली पोस्ट को कोई ब्लॉगर व्यक्तिगत आक्षेप के तौर पर न लें। मैंने यही कहने की चेष्टा की थी कि वास्तविक प्रकाशन संस्थानों में जिस तरह की गुटबाजी है, वह ब्लॉग जगत में न आए, इसे रोकने के लिए भी जो गुटबाजी अनामदास आदि के रूप में सामने आ रही है, मैं उसके भी खिलाफ हूँ।
मैं जानता हूँ ऐसा लिखकर मैं हर तरफ से सहानुभूति खो दूँगा, पर जो मुझे सही लगा, मैंने कह दिया। इसे चाहे आत्मविश्वास कह लें, चाहे बेवकूफी!
Monday, 15 September 2008
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22 comments:
हमारी बात:
१. यह बात हमने एकलाइना में नहीं बल्कि और अंत में अपनी बात कहते हुये कही है।उसमें कोई परिहास नहीं है।
२.ज्ञानदत्तजी के हम चाहने वाले हैं लेकिन उनके डिफ़ेंडर नहीं। ज्ञानजी को किसी डिफ़ेंडर की जरूरत नहीं। ज्ञानजी कोई बताशा नहीं हैं जो आरोपों की बारिश में गल जायें।
३.हम अपनी समझ में किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं हैं न आपके प्रति न किसी और के प्रति।
४.न आपकी पिछली बातचीत को हमने व्यक्तिगत आक्षेप के रूप में लिया न इस बात को।
५.यह लिखकर आप लोगों की सहानुभूति खो देंगे यह आपका भ्रम है। अव्वल तो आपको किसी सहानुभूति की आवश्यकता ही नहीं क्योंकि आपने कोई पाप नहीं किया। जो सही समझा लिखा, यह अच्छी बात है।
६. मस्त होकर लिखें। फ़िजूल के डर/भ्रम न पालें। बहुत अच्छा लगेगा।
७. हमारी तमाम शुभकामनायें।
भगतजी, आपको कोई राय नहीं दे रहा और न ही संभलने की कोई अपील कर रहा हूं, बस एक सवाल कर रहा हूं कि ये सब जो आप सफाई दे रहे हैं, किनको दे रहे हैं। उनलोगों को जिनमें सो कई लोग अटारी पर चढ़कर तमाशा देखने के कायल रहे हैं। आपसे एक ही गलती हुई है जिस पर कि मुझे गुस्सा आ रहा है कि आप ब्लॉगिंग को बहुत ही मासूम जगह मान बैठे हैं, जो कि है नहीं। कोई दूसरा मन लेकर यहां नहीं आया है। जो जीवन में घाघ रहा है वो यहां भी घाघगिरी में लगा है।
आप जो लिख रहे हैं,अनुभव के स्तर पर खरा लिख रहे हैं, न तो किसी को सफाई देने की जरुरत है और न ही मुंह जोहने की। इतनी धारदार कीपैड का इस्तेमाल आप इस काम के लिए मत कीजिए प्लीज.... न ही तो इसी बीच कोई अक्कखड़ टिप्पणीकार कह बैठेगा- जगत देखी राजी हुई, भगत देखी रोई। ऐसा न होने दें।
प्रसन्नमन रहें मित्र! जहां तक सहमत होने का सवाल है तो आज का मैं कभी कभी कल के मैं से भी असहमत होता हूं।
व्यक्ति जड़ नहीं विकसित होता जीव है।
बहुत सुन्दर लिखा है। सस्नेह
मैं जानता हूँ ऐसा लिखकर मैं हर तरफ से सहानुभूति खो दूँगा, पर जो मुझे सही लगा, मैंने कह दिया। इसे चाहे आत्मविश्वास कह लें, चाहे बेवकूफी!
" aapne baat ko itne sahash ke sath kehna or clear kerna koee bevkufee nahee hotee, iske liye bhee pura hausla or aatmviswas chaheye, jo aapke ek ek sabd mey nazar aa rha hai, great.."
Regards
"इसे रोकने के लिए भी जो गुटबाजी अनामदास आदि के रूप में सामने आ रही है, मैं उसके भी खिलाफ हूँ।"
-इसे पढ़ने के पहले तक आपको गम्भीरता से लेता था ।
कल हम आपको पूरा एक ट्रक भर कर लिख गए थे !
आज आप १५ मिनट का विपस्यना ध्यान करिए !
जब तक हम बुद्ध पर एक लेक्चर तैयार करते हैं ! :)
दोस्त हताश निराश नहीं ! कल हमने आपको जगत
का सत्य लिखा था ! उसको गीता पाठ की तरह
पढो मत ! उसको गुणों ! :)
कल हम आपको पूरा एक ट्रक भर कर लिख गए थे !
आज आप १५ मिनट का विपस्यना ध्यान करिए !
जब तक हम बुद्ध पर एक लेक्चर तैयार करते हैं ! :)
दोस्त हताश निराश नहीं ! कल हमने आपको जगत
का सत्य लिखा था ! उसको गीता पाठ की तरह
पढो मत ! उसको गुणों ! :)
क्यों बिरादर क्या हुआ ?
अफलातून जी, अनामदास जी का विरोध करने का सिर्फ एक ही कारण है- वो छिपके क्यों वार करते हैं? उन्हें भरोसा होना चाहिए कि वे जो कह रहे हैं और उसमें सच्चाई है तो उनके नाम के साथ ये जाहिर होना चाहिए। ऐसे ताकत का सम्मान तो हर जगह होता है। अगर मैं गुटबाजी का विरोध करता हूँ तो साथ ही, इस तरह के गोरिल्ला वार भी ब्लॉग के लिए शुभ नहीं मानता।
मुझे जो कहना था पहले वाली पोस्ट पर कह दिया था .....
अरे इहाँ गुटबाजी काहे की। एक विचार के पीछे कुछ लोग खड़े हो जाते हैं। उसे गुटबाजी ना कहिए। और अच्छे विचार को कोई माने या न माने। उस से प्रभावित जरूर होता है। आप तो बेखटके लिखते रहिए।
इस विषय को जरूरत से ज्यादा लम्बा खींचा जा रहा है।
मे तो यही कहुगां अगर हम मे एकजुटता होती तो हम यु एक दुसरे पर कीचड नही उछालते,यह जहाम मे रहता हु हम सब भारतीया अपने भारत की अच्छी ओर बुरी सभी बाते करते हे, लेकिन जब भी विदेशी हमारे भारत के बारे मे कोई गलत बात करता हे तो सब उसे से लड भी जाते हे,मेरे कहने का यही मतलब हे हमे आपस मे एक जुट रहना चाहिये,
आप ने लेख मे बहुत ही सुन्दर कहा हे.
धन्यवाद
इस पोस्ट की जरुरत कहाँ से आन पड़ी भाई मेरे?
मस्ती में लिखो यार-यहाँ सभी मस्ती में हैं.
परेशान होने की जरुरत नहीं और नही आपको साहनुभूति की दरकार. आप अच्छा लिखते हैं, लोग आपको पढ़ेंगे ही.
अनेकों शुभकामनाऐं.
क्यों बिरादर क्या हुआ?
अनुराग का डाइलोग उधार रहा!
अनूप जी ने ठीक कहा है, वाकई ज्ञानदत्त जी को किसी डिफ़ेंडर की जरूरत नहीं है।
आप ईमानदार लगते हैं ! मगर व्यक्तिगत बात कहने से बचना चाहिए ! अच्छा लिखते है, लिखते रहें
.
देख भगत.. परेशान मत हो !
जैसे भी लिख रहा है, बस लिखता जा...
मुँहदेखी न लिखना और यह मत सोचना
कि लोग इसको किस तरह से लेंगे,
फिर तो चैन ही चैन है ।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है..
गुट में रहने को अभिशप्त !
मैं तेरे को सीख इसलिये दे रहा हूँ,
कि तू बाद में टिप्पणीकारों से मेल कर कर के पूछता है, कि बुरा तो न लगा, क्या बुरा लगा .. वगैरह !
हिंदी साहित्य का जो, सत्यानाश हुआ है..
वह इसी गुटबाजी की इंन्ज़ी्नियरिंग में किसी की
त्रुटि या कपट के चलते...
शुरुआती दौर में, मुझे बड़ी घुटन होती थी...
ये कहाँ आ गये हम ?
फिर अनूप का सिगनेचर कैप्शन देखा
’ ..... हमार कोऊ का करिहे ’
सो, टिक गया.. फ़िलहाल तो टिका हूँ ही..
अब अनूप जी अगर कोई गुट
अपनी ज़ेब में रखते हों, तो बात बने भी ?
समीर भाई तो जैसे इस दुनिया के हैं ही नहीं..
सस्ती में मिलती मस्ती के मालिक..
दिनेश जी की परिभाषा सटीक है..
ज्ञानदत्त जी की बात ही निराली है,
वह सबकुछ हो लेते हैं... पर अपमानित नहीं होते !
अनुराग अपनी रौ में लिखते हैं, अच्छा लगता है !
यह सब नज़ीरें सिर्फ़ इसलिये दीं, कि तू इनसे वाक़िफ़ है ।
इनको पढ़ और गुन...
पर आदर्श बनाने की भूल न करना ।
सबको लगता है..
कि केवल वही अच्छा लिखता है...
फिर परेशान होने लगता है कि आख़िर उसको सिर आँखों पर क्यों नहीं बिठाया जा रहा है, यह आत्ममोह तो ठीक ... पर आत्मश्लाघा घातक है..
रही बात.. आज के विषय की.. तो,
एकजुटता और उसके लिये प्रतिबद्धता ,
अपने आप में गुट बनने की किंवा पहली पायदान है !
यहाँ तो गुटनिरपेक्षों के भी गुट देखे जा सकते हैं...
कल्लो, जो करना हो ?
रामपुरिया की बात पर भी ध्यान दे, आख़िर को वह मेरा ताऊ ठहरा ।
अपुण तो ब्लागिंग मज़दूर की तरह काम करते हैं,
किसी ने टिप्पणी बीड़ी थमा दी, तो ठीक..
पानी भी न पूछा तो भी ठीक..
मैं तो यह भी नहीं याद रखा करता कि किसको टिप्पणी दी.. और उसने लौटाई भी कि नहीं ?
इतना टैम ही नहीं है, बिरादर !
अनामदास नाम से कोई ब्लॉग भी है, यह मुझे अभी-अभी मालूम हुआ, यह जानने के बाद मुझे इस बात का क्षोभ हुआ
कि अनजाने ही इस नाम का ब्लॉग संभवत: इस विवाद के घेरे में आ गया।
anonymous विकल्प पर क्लीक करके अलग-अलग तरह के लोग कुछ भी लिख सकते
हैं। मैंने अनामदास को इसी अर्थ में लिया था।
नाम बदलकर लिखना और नाम छिपाकर कमेंट करने में
ये फर्क मुझे लगता है।
इसलिए नाम बदल कर लिखने वाले किसी भी ब्लॉगर का यहॉं मैं विरोध नहीं कर रहा। जो गलतफहमी हुई, उसके लिए क्षमा चाहुँगा।
मेरी समझ से जहाँ लोग हैं, वहाँ गुट तो बनेंगे ही। यह एक मानव स्वभाव है।
खैर आपने इस मसले पर अपने विचार खुले दिल से रखे, यह देख कर अच्छा लगा।
ऐसा लगता है आप लोग पचड़े में पड़ गये...
धूल म्हं लट्ठ मारोगे तो धूल ही उड़ेगी..
मस्त रहो यार. अनामदास का मज़ा यही है कोई कछु कहे हमें फ़र्क नहीं पड़ता, अच्छी बात हो तो आत्मसात कर लेते हैं, पसंद नहीं आए तो अनामदास जी जानें, हमें क्या.
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