ऐसा लगने लगा है मनुष्य ने जहॉं-जहॉं पॉंव रखा है, वहॉं-वहॉ की प्रकृति नष्ट हुई है। शिमला जाने का मन नहीं करता, न नैनीताल, अब हम प्रकृति के अनछुए प्रदेशों की तलाश में पहाड़ों को रौंद रहे हैं। वहॉं का पर्यावरण पर्याप्त दूषित हो चुका है, हम अपने शहर से गाड़ियों का शोर और धुँआ साथ ले जाते हैं और चिप्स,कुरकुरे आदि की थैलियाँ,पॉलीथीन, प्लास्टिक-बोतलों का कचरा वहॉं इकट्ठा करते रहते हैं। शिमला( बेतहाशा बढ़ते मकानों/होटलों के बीच पहाड़ कहीं नजर आ रहा है!!)
एक सच्चा सैलानी वही है जो प्रकृति से कम-से-कम छेड़छाड़ किए बिना वहॉ का आनंद लेकर लौट आए। प्लास्टिक की बोतलें और पॉलीथीन सुनिश्चित जगह पर ही फेंके। जगह न मिले तो उसे शहर के कूड़ेदान में डालने के लिए अपने साथ ले आए। इसमें ऐतराज क्यों!! आप अपने गंदे कपड़े धोने के लिए घर नहीं लाते क्या! उन्हें बाहर तो नहीं फेंकते ना!
यह तो अपनी जिम्मेदारी की बात हुई, लेकिन वहॉ की सरकार को क्या कहा जाए! एक दशक पहले शिमला(कुफ्री), मसूरी (गन हिल)आदि पहाड़ी वादियों में प्राकृतिक कोलाहल था, अब म्यूजिकल हलाहल है। तमाम जंगल उखाड़कर वहाँ जहॉं-तहॉं बच्चों के झूले, रेलगाड़ी आदि और तमाम तरह के लौह उपकरण खड़े कर दिए गए हैं। हर स्टॉल पर धमाकेदार संगीत आपको वहॉं से भागने के लिए हंगामा बरपा रहे हैं (हैरानी तो तब हुई, जब सहस्रधारा (देहरादून) के पास भी ऐसा नजारा दिखा। वहॉं पर एक सेकेण्डर भी रूकने का मन नहीं हुआ।)
हम पहाड़ो पर जाकर अपनी तरफ से भी सफाई का ध्यान रखें तो वह भी कम नहीं होगा। अगर एक समूह ऐसी जगह किसी टूर पर जाता है और खुद प्लास्टीक की बोतलें और पॉलिथीन आदि इकट्ठा करने की हिम्मत दिखाता है तो लोग इस पहल की प्रशंसा ही करते हैं और शायद आपके इस मुहिम में कई लोग तत्काल शामिल भी हो सकते हैं। यह न केवल अपने बच्चों के लिए एक हिल स्टेशन बचाने की कोशिश है बल्कि पूरी पृथ्वी को स्वच्छ रखने में आपका यह आंशिक सहयोग अनमोल साबित होगा। एक बार करके तो देखिए, खुशी मिलेगी।
मेरे मित्र ने राज भाटिया जी और मुनीश जी को आभार प्रकट किया था कि उन्होंने (उसकी) मारूती पर भरोसा जताया है, ऐसे वक्त में जब उसका खुद का भरोसा अपनी कार से उठ चुका था :) मुन्ना पांडेय जी ने मसूरी से आगे चकराता जाने का जो सुझाव दिया है, वह अगली बार के लिए सुनिश्चित कर लिया है। अनुराग जी ने लेंस्दाउन नाम का जिक्र किया है, यह कहॉं है, यह बताने की कृपा करें अनुराग जी।
मैं अभी मानसून के इंतजार में दिल्ली की गर्मी झेल रहा हूँ। यह गर्मी साल-दर-साल बढ़ती महसूस हो रही है। भारत में गर्मी प्रकृति का एक दीर्घकालिक हथियार है, और यह खून को पसीने के रूप में बहा देता है, देखें कितना खून पीता है यह मौसम!!
Saturday, 27 June 2009
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12 comments:
मैं तो अभी घर के पास गंगा के कछार में घूम कर आ रहा हूं। मुफ्त! :)
गंगा भी अब इतनी साफ कहॉं रह गई है जी:)
चिन्ता जायज है जी !
ज्ञान जी से गम्भीरता की उम्मीद रहती है !
जहां जहां पडे़ सन्तों के पाँव
वहां वहां बन्टाधार!!
भई लोगो को सिर्फ़ पेसा पेसा ओर पेसा चाहिये, अब हिल स्टेशनो पर शोर शरावे की क्या जरुरत,लोग वहा झुला झुलने तो जाते नही,फ़िर लोगो को भी चाहिये कि जो पलास्टिक का समान अपने संग ले कर जाते है उसे वापिस मेदानो मै लाये, अरे कल आप सब के बच्चे भी तो वहाम जायेगे, अगर उन्हे वहां मेदानो जेसी गंदगी ही मिली तो.... लेकिन हम नही सुधरेगे.
धन्यवाद आंखे खोलने वाली पोस्ट
सफाई और पर्यावरण के लिए सभी को सजग होना होगा. आप अपने हिस्से की सजगता बनाये रखें. गर्मी के तो बुरे हाल हैं.
जितेन्द्र जी,
चिंता वाजिब है। हमने ही मर्ज दिया है दवा भी हमें ही करनी होगी।
bahut dinon baad darshan huye, mitra
सटीक चिंतन......... लेकिन लोग समझेंगें इसमें संदेह है..
यह सब बढती हुई जनसंख्या का दुष्परिणाम है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
जाएँ तो जाएँ कहाँ?
कम से कम शिमला, मसूरी, नैनीताल तो मत जाओ.
रही बात प्लास्टिक की, अजी हम तो अगर कागज़ भी फाडेंगे तो उसे भी बैग में ठूंस देंगे. कहीं कूडेदान दिखता है उसे वहां डाल देते हैं.
आप की चिंता जायज है.
दिल्ली से नज़दीक मनाली के अलावा कसोनी भी सुन्दर जगह है और दूसरी तरफ हरिद्वार ऋषिकेश और आस पास के क्षेत्र गर्मियों में अपेक्षाकृत ठंडे रहते हैं.
सफाई के बारे में क्या कहें?
जब तक कोई fine नहीं लगाया जायेगा लोग मानेंगे नहीं ..यहाँ तो सड़क पर कूड़ा फेंकने वाले के लिए,सड़क के किनारे लगे फूल को-पेडों को तोड़ने वाले को खासा fine का लगाया जाता है ..इस लिए सफाई दिखाई देती है--
बिना कड़े कानून के यहाँ वहां कूड़ा फैलाने वालों की आदतों को सुधारना नामुमकिन है..
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