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Saturday 3 April 2010

शहर के चौक पर टखना सिंह

टखना सिंह ने अपने दोस्‍त करेजा से पूछा-
मुझे शहर जाना है हर संडे!
करेजा सिंह लगभग हर संडे हास्‍टल से भागकर फि‍ल्‍म देखने शहर जाता था और कभी पकड़ा भी नहीं गया।
क्‍या फि‍ल्‍म देखनी है?
नहीं!
किसी रि‍श्‍तेदार के घर जाना है?
नहीं!
कि‍सी लड़की से मि‍लना है क्‍या?
अरे नहीं भाई!!
उसे कोई बहाना भी नहीं सूझ रहा था कि‍ क्‍या कहे! उसने ये कहकर टाल दि‍या कि‍ बाद में बताऊँगा।
उस हॉस्‍टल का कानून हॉस्‍टल-परि‍सर से बाहर जाने की इजाजत नहीं देता था। टखना सिंह तब दसवीं क्‍लास का छात्र था और उसके उपर इसका भी काफी दबाव था।

शहर के चौक पर टखना का यह पहला संडे था। वह एक लाचार बुढि‍या को तलाश रहा था जि‍से वह रास्‍ता पार करा सके। वह एक ऐसे भूखे-गरीब को तलाश रहा था जि‍सने दस दि‍न से कुछ न खाया हो। दो-चार भीखारी उसे मि‍ले पर टखना को उनपर वि‍श्‍वास नहीं हुआ।
सुबह का एक घंटा इसी तलाश में नि‍कल गया। फि‍र उसने सोचा कि‍ कि‍सी रि‍क्‍शेवाले की मदद कर दे। दो चार रि‍क्‍शेवाले गुजरे भी लेकि‍न उनके रि‍क्‍शे पर कोई वजनदार सामान भी नहीं रखा था। दोपहर होते-होते वह नि‍राश हो चला था कि‍ तभी एक रि‍क्‍शे पर उसे भारी-भरकम सामान नजर आया। वह भागकर उसके पीछे पहुँचा और धक्‍का लगाने लगा। रि‍क्‍शेवाले ने रि‍क्‍शे का ब्रेक लगा दि‍या और पीछे मुड़कर चि‍ल्‍लाया-
अबे कौन है बे, क्‍या नि‍काल रहा है कट्टे से??
टखना ने सकपकाकर कहा
- कुछ नि‍काल.. नहीं रहा.., मैं तो वजन देखकर.. आपकी मदद के लि‍ए... आया था।
-भाग जा यहॉं से, मदद के नाम पे चले हैं चोरी करने!

चौक पर आते-जाते दो-चार लोगों ने चोरी की बात सुनी। आज संडे था और सब लोग कि‍सी शगूफे की तलाश में थे।
तभी उस चौक का एक दुकानदार आकर बोला-
-यह लड़का सुबह से मेरी दुकान के आगे न जाने कि‍स मतलब से खड़ा था। मुझे भी शक है इस पर।

बात हो ही रही थी कि‍ कि‍सी ने उसे एक थप्‍पड़ जड़ दि‍या। कि‍सी ने बढकर कॉलर पकड़ लि‍या।
तभी एक आदमी भीड़ चीरकर उस तक पहुँचा और बोला-
-अरे टखना, तू यहॉं क्‍या कर रहा है?
-मास्‍टर जी मुझे बचाइए!!
मास्‍टर जी ने सबको समझा-बुझाकर वहॉं से भेजा और टखना का कान पकड़कर स्‍कूल ले आए।
उसके बाद टखना ने उस कि‍ताब को जला दि‍या जि‍समें लि‍खा था-
कि‍सी की नि‍:स्‍वार्थ भाव से मदद करो तो जो आत्‍मि‍क खुशी मि‍लती है- उसे बयॉं करना आसान नहीं!!
टखना को लगा कि‍ इस अनुभूति‍ को भी बयॉं करना आसान नहीं है। उसने समझ लि‍या कि‍ हर दि‍न या कम से कम हर संडे कि‍सी लाचार की मदद करने का ख्‍याल दि‍मागी दि‍वालि‍येपन की नि‍शानी है।
करेजा सिंह शाम को सि‍नेमा देखकर लौटा और पूछा-
कैसा रहा संडे?

16 comments:

Anil Pusadkar said...

सच मे हास्टल की ज़िंदगी बहुत शानदार और यादगार होती है।मुझे हास्टल मे अधिकृत तौर पर रहने का मौका तो नही मिला लेकिन कालेज के सालों मे छात्र नेता होने के कारण हास्टल मे अनाधिकृत रुप से रहा ज़रूर हूं वो भी घर से कम्बाईंड स्टडी का बहाना करके।खूब मस्ती और खूब प्यार,हास्टल के कुछ साथी तो आज भी याद कर लेते हैं।सब कुछ भले ही छूट गया हो मगर कमबख्त यादें पीछा नही छोड़ती।आप फ़िर से उन दिने में लौटा ले गये मुझे और आपने इस पोस्ट के बहाने समाज मे हो रहे परिवर्तन और मदद की बदलती परिभाषा भी सटीक बताई है।अब बिना जाने किसी की मदद करने से भी लोग डरने लगे हैं।

सुशील छौक्कर said...

किताबों के फार्मूले अक्सर जिदंग़ी में काम नही करते। जिदंगी जीने के अपने फार्मूले होते है। जो ऐसा टखना सिंह होता है वो चोर समझा जाता है और जो चोर होता है वो चोरी करने के बाद भी नही पकडा जाए वो होशियार समझा जाता है। खैर....

राज भाटिय़ा said...

अरे बिरादर यह टखना सिंह भी कमाल का है

anjule shyam said...

सच में अब मदद करना भी आफत मोल लेना हो गया है....

प्रवीण पाण्डेय said...

टखना अगले सण्डे फिर जायेगा । पर मिलेगा कोई न कोई जरूर ।

Gyan Dutt Pandey said...

टखना सिंह अगर दिमाग टखने की बजाय सिर में रख ले तो हीरा बन जाये!

Arvind Mishra said...

खामखाह थप्पड़ पड़ गया बिचारे को -यह दुनिआवी रीति का पहला थप्पड़ था -अभी कुछ और मिलेगें -

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

लगता है इसलिये ही चुटकुले बनते हैं....पर

Abhishek Ojha said...

सैद्धांतिक और व्यावहारिक का फर्क? !

अनूप शुक्ल said...

बेचारा टखना सिंह्!

कविता रावत said...

Jindagi ka yatharth yahi hai... Padhai-likhai aur jiwan ke yatharth dharatal mein jameen-aasman ka fark aa jata hai... Saidhantik nahi vyawaharik pahlu kaam aati hai jiwan mein..
Bahut achhi prastuti....
Bahut shubhkamnayne....

Asha Joglekar said...

सिध्दांत और व्यवहार का अंतर ही बेचारे टखना सिंह न समझ पाये । समय समय का फेर है मदद भी देखभाल कर करनी चाहिये ।।

hem pandey said...

टखना सिंह जब कालेज से पढ़ कर निकलेगा और सरकारी नौकरी करेगा तो उस पर पहले ईमानदारी का भूत सवार हो जाएगा,लेकिन कुछ ही समय बाद वह भी एक 'ठेठ' सरकारी नौकर हो जाएगा.

दिगम्बर नासवा said...

जिंदगी जीने के लिए अपने फार्मूले बनाने पढ़ते हैं ... मजेदार लगी आपकी पोस्ट ...

kshama said...

Aisabhi hota hai! Aapki lekhan shaili badi saral,sahaj hai!

नीरज गोस्वामी said...

लपेट के मारने की ये कला कमाल की है आपके पास...वाह..बेजोड़ पोस्ट...
नीरज