लखनऊ मेल के टी.टी. ने हमे तब तक कंपार्टमेंट से बाहर टहलने को कहा, जब तक टिकट हाथ में ना आ जाए। गाजियाबाद में टिकट हमारे हाथ में आने के बाद ही हमने राहत की सॉंस ली। मेरे दोस्त ने सुबह हमें स्टेशन से रीसिव किया। घर पहुँचकर हमने नाश्ता किया और जिस मकसद से आए थे उससे शाम तक निपटा आए। अब ऐसा लग रहा था कि कल की जगह हमें आज रात की टिकट करवा लेनी चाहिए थी। पर शाम को जब सब साथ बैठे तो गपशप में समय कैसे निकल गया पता ही नहीं चला।
अगली सुबह हमने लखनऊ देखने का कार्यक्रम बनाया, वो भी रिक्शा से इमामबाड़े तक जाने का। पता चला एक घंटा लगेगा। मैंने ऑटो किया और 15 मिनट में इमामबाड़ा सामने था।
प्रवेशद्वार से अंदर आते ही सामने यह प्राचीन इमारत अपनी ऐतिहासिक दास्तॉं बयॉं कर रहा था।
पीछे पलटकर हमने जब प्रवेशद्वार को देखा तो वह और उसके सामने का लॉन कोहरे की उस सुबह में काफी रूमानी अहसास दे रहा था।
हमें कपड़े की मार्केट में भी जाना था, नहीं तो इस पार्क में बैठकर मैं जरूर सोचता कि नवाब आसफ उद्दौला अपनी बेगम के साथ इस बनते हुए इमारत को यहॉं से खड़े होकर कितनी बार देखते रहे होंगे।
वैसे तो ये भी एक प्रवेशद्वार ही था जहॉं से 50 रूपये का टिकट लेकर हम अंदर चले आए। अंदर आने के बाद सामने इमामबाड़ा नजर आया-
अब तक हम दो दरवाजे पीछे छोड़ आए थे-
क्लोजअप-
बॉंयी तरफ आसिफी मस्िजद नजर आ रहा था।
इमामबाड़े में प्रवेश करने से पहले जूते उतारने पड़ते इसलिए हमने पहले आसपास घूमना पसंद किया। इमामबाड़े की दीवारों को निहारती हुई मेरी बेगम-
अब हम इमामबाड़े की तरफ चल पड़े। वहॉं दरवाजे पर वर्दीधारी गाइड पर्यटकों को अपने रेट समझाने में व्यस्त थे। हमने 110 रूपये में एक गाइड साथ कर लिया जो हमें पहले इमामबाड़ा, फिर भूलभुलैया और अंत में शाही बावली की सैर कराता।
हालॉंकि उसे साथ लेने का कोई खास फायदा नजर नहीं आया। प्रवेश द्वार के पास बोर्ड पर कामचलाऊ जानकारी लिखी मिल गई थी जिसके अनुसार-
नवाब आसफ उद्दौला (1775-97 ई.) के निर्देशानुसार 1784-91 के मध्य निर्मित यह भव्य संरचना बड़ा इमामबाड़ा के नाम से विख्यात है जिसकी रूपरेखा वास्तुविद् किफायतुल्लाह द्वारा तैयार की गई थी। इस भवन में नवाब आसफ उद्-दौला व उनकी पत्नी शमसुन्निसा बेगम की कब्रें हैं। इस इमारत में तीन मेहराबों वाले दो प्रवेश द्वार हैं।
इस तरह यह भी पाया कि स्मारक के उत्तर में नौबतखाना, पश्चिम में आसफी मस्िजद एवं पूरब में शाही बावली है, जबकि मुख्य इमामबाड़ा दक्षिण में स्िथत है।
इमामबाड़े के अंदर आने पर लगभग तीन मंजिला हॉल नजर आया जिसके बारे में तथ्य ये है कि बिना किसी सहारे पर टिकी केन्द्रीय हाल की विशाल छत अपने में विश्व की अनोखी मिसाल है जिसकी लंबाई लगभग 50 मीटर और चौड़ाई 16.16 मीटर है,जबकि इसकी ऊँचाई लगभग 15 मीटर है।
केन्द्रीय हाल के दोनों पार्श्वों में भी एक-एक कक्ष है तथा मुख्य इमारत का मुखभाग 7 मेहराब-युक्त द्वारों से सज्जित है। चूने के गारे व लखौरी ईटों से निमिर्मित इस मुख्य इमारत की अलंकृत मुंडेरे छतरियों से सज्जित हैं जिनकी बाहरी सतह पर चूने के मसाले से अदभुत डिजाइनें उकेरी गई हैं। इसका भीतरी भाग कीमती झाड-फानूसों, ताजियों, अलम आदि धार्मिक चिन्हों से सज्जित है।
गाइड ने इस हाल के दूसरे छोर पर, जो करीब 50 मीटर की दूरी पर था, खड़ा हो गया और फुसफुसाया, साथ ही माचिस की तिल्ली जलाई। उसकी प्रतिध्वनि ऐसी थी जैसे पास ही खडे होकर यही गतिविधि की गई हो। दरअसल इस हाल की छत पर पतली किनारियॉं बनाई गई है तो माइक का काम करती हैं। हॉल में इकट्ठे लोगों को भाषण साफ-साफ सुनाई दे, इसके लिए200 साल पहले अपनाई गई यह तकनीक काफी वैज्ञानिक लगी।
अगली और अंतिम कड़ी में भुलभुलैया और शाही बावली के बारे में बताऊँगा।
यात्रा तिथि: 22-23 नवम्बर 2010.
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7 comments:
कौन अधिक सुन्दर है - वो शहर या ये चित्र!
बहुत खूब।
प्रतिध्वनि -गूँज की व्यवस्था तो आश्चर्यजनक है !
नख्लऊ के इमामबाड़े के बारे में बड़ी सुन्दर जानकारी मिली. आभार.
सुन्दर चित्र देखकर लखनऊ की पुरानी यादें वापस आ गयीं, धन्यवाद!
नवाबों के शहर से वापस आकर एक नवाबी पोस्ट।
आनन्द आ गया।
इमामबाड़ा देखा है, बाहर स्वयं निकल पाना चुनौती रहती है। कई बार देखकर अब अकेले प्रयास किया जा सकता है।
बहुत बढ़िया लेख,इमाबाड़ा को देख हमे भी धुमनें की इच्छा हो रही है...
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