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Monday, 6 December 2010

LUCKnow : by chance (अंति‍म कड़ी)

गाइड हमें लखनऊ के इमामबाड़े से बाहर ले आया क्‍योंकि‍ भुल-भुलैया जाने का रास्‍ता बाहर से था। भूख लग आई थी, पर अब भुलभुलैया और शाही बावली देखने के बाद ही खाने का इरादा बनाया। दोपहर के दो बजे तब धूप का पता ना था और ठंड शाम की तरफ पैर फैला रही थी। भुलभुलैये के पास वही टि‍कट दि‍खाकर हम सीढ़ि‍यों से करीब दो-तीन फ्लोर तक ऊपर चढ़ गए। सामने करीब 6 फुट का गलि‍यारा हर तरफ से नि‍कलता नजर आया।

भुल-भुलैया इमामबाड़े के हॉल के ऊपर ही बना हुआ है जि‍समें अनेक छज्‍जे व 489 द्वारों वाले एक जैसे रास्‍ते हैं।




इस संरचना का उद्देश्‍य मुस्‍लि‍म समाज की धार्मिक आवश्‍यकताओं की पूर्ति व 1784 ई. में हुए वि‍नाशकारी अकाल के दौरान लोगों को सहायता प्रदान करना था।
गाइड ने भुलभुलैये में ले जाते हुए कहा कि‍ ये रास्‍ता याद रखना क्‍योंकि‍ लौटते हुए हमें खुद इसी रास्‍ते से वापस लौटना है। वह उसे ज्‍यादा मुश्‍कि‍ल बता रहा था पर मुझे यह ज्‍यादा मुश्‍कि‍ल नहीं लगा। भुलभुलाये से ऊपर इमामबाड़े की छत से गोमती नदी के तरफ का दृश्‍य काफी सुंदर नजर आ रहा था।




बाहर आने के बाद हम शाही बावली की तरफ चल पड़े। आपको जानकर हैरानी होगी कि‍ ऐसी ही एक बावली दि‍ल्‍ली में कनॉट प्‍लेस के पास भी है-

गाइड ने बताया कि‍ अंग्रेजों से बचने के लि‍ए नवाब ने इसी में खजाने की चाबी गि‍रा दी थी। बाद में अंग्रेज इसका पानी नि‍कालते रहे पर यह बावली खाली ही नहीं होती थी। इसका कारण यह था कि‍ यह साथ बहनेवाली गोमती नदी से सीधे जुड़ी हुई थी।
यहॉ बैठकर बाहर से आनेवाले का रंगीन प्रति‍बिंब देखा जा सकता था, मगर वह खुद दूसरों को नजर नहीं आता।

गाइड को पैसे देकर इमामबाड़े से हम करीब एक घंटे में बाहर नि‍कल आए और बाहर नि‍कलते ही एक सुंदर इमारत रोड के उस पार नजर आई-

वहीं एक टांगेवाला हमें पकड़ लेता है और सुझाव देता है कि‍‍ आप छोटे इमामबाड़े और वहॉं के म्‍यूजि‍यम में जाकर समय खराब करना चाहते हैं तो आपकी मर्जी मगर आप चि‍कन की कढ़ाई की फैक्‍ट्री जाऍं तो ज्‍यादा बेहतर। मैं समझ गया कि‍ यहॉं आगरे के लाल कि‍ले के पास खड़े टांगेवालों का एक जैसा ही हाल है। वैसे इति‍हास के पन्‍नों से बाहर अब हम कला का नमूना देखना चाहते थे। हम तांगे पर बैठकर चल पड़े। सामने ही रूमी दरवाजा था जो इस तरफ से झरोखों से युक्‍त तीन मंजि‍ला दरवाजे के रूप में नजर आ रहा था जबकि‍...

उसपार नि‍कल जाने पर वह एक ऊँचे दरवाजे के रूप में खड़ा दि‍खाई दे रहा था और यही इसकी खासीयत थी-


तांगेवाला हमें बताने लगा कि‍ लखनऊ की‍ छ: चीजें प्रसि‍द्ध हैं-
1.इमामबाड़ा
2. तांगा
3. तहजीब
4. कुंदा कवाब
5.उमरावॅ जान
6. कपड़े पर चि‍कन का काम
आप समझ गए होंगे कि‍ तांगा दूसरे नंबर पर क्‍यों है, बकौल तांगेवाला- यह नवाबों की शाही सवारी थी। कपड़े की दुकान को फैक्‍ट्री बताकर उसने हमें एक जगह उतार दि‍या। दुकान के बाहर खड़े गार्ड ने हमें अंदर आने का आग्रह कि‍या।
हम असमंजस कदमों से अंदर गए और पूछा कि‍ यहॉं चि‍कन कढ़ाई का काम कहॉं चल रहा है। अंदर एक कमरे में एक लड़की बुनाई कढ़ाई का काम कर रही थी। उसके बाद हम दुकान के काउंटर पर गए।
20-25 मि‍नट में हम वापस जाने के लि‍ए ऑटो तलाश रहे थे। या तो हमें इस कला की समझ नहीं थी या ये जगह चि‍कन कढ़ाई की फैक्‍ट्री नहीं थी, या ये लखनऊ नहीं था और सबसे ज्‍यादा हम इस बात से सहमत थे कि‍ अब दि‍ल्‍ली में सबकुछ मि‍लता है और सही कीमत पर।
हजरतगंज लखनऊ का कनाट प्‍लेस है मगर अभी उसकी हालत बि‍गड़ी हुई थी। वहॉं का जनपथ मार्केटिंग के लि‍हाज से ठीक लगी, पर थी बहुत महंगी। शाम हो चुकी थी और ठंड बढ़ने के साथ हम घर पहुँच चुके थे। रात तो लखनऊ मेल से वापस जाने से पहले दोस्‍त के साथ डि‍नर भी करना था। मि‍ला जुलाकर लखनऊ को हम बस इमामबाड़े और दोस्‍त की मेहमानवाजी की वजह से याद रख सकते थे।
कोई ये समझाएगा कि‍ लखनऊ को अंग्रेजी में luck + now = lucknow क्‍यों लि‍खते हैं जबकि‍ होना चाहि‍ए lukhnou या कुछ और....
लगता है लखनऊ में जाते ही luck काम करने लगता है :)

.....क्‍योंकि‍ हमारी ये यात्रा भी रही 'luck' by chance.
पहली कड़ी के लि‍ए यहॉं क्‍लीक करें

आज शाम मैं अपनी पत्‍नी और बेटे के साथ 4 घंटे के लि‍ए शि‍मला-टूर पर जा रहा हूँ। 4 घंटे की टूर से हैरान मत होइए, लौटकर बताउँगा सफर के बारे में।

6 comments:

Satish Saxena said...

बहुत बढ़िया वृतांत कभी हम इसे देखने खास तौर पर बरेली से लखनऊ गए थे ! फोटो देख यादें ताज़ा हो गयी ! शुभकामनायें !

Rahul Singh said...

सुंदर चित्र, रोचक विवरण.

शिवा said...

बहुत बढ़िया वृतांत
कभी समय मिले तो हमारे ब्लॉग//shiva12877.blogspot.com पर भी अपनी एक नज़र डालें

नीरज गोस्वामी said...

जितने सुन्दर चित्र उतनी ही सुन्दर व्याख्या...आपने अचानक लिखना क्यूँ बंद कर दिया...बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं...
नीरज

संजय @ मो सम कौन... said...

मजा आया बिरादर..!
बीस साल पुरानी यादें ताजा हो गईं। आप का लिखने का अंदाज मस्त है।
Lucknow वाली बात का लाजिक तो आपने ही बता दिया, Delhi और दिल्ली या देहली का चक्कर भी बताईये:)

फकीरा said...

" मैं कि‍सके साथ खेलूँ!
कि‍ससे बोलूँ!
बाद में कहीं मैं
बीजी हो जाउँ
आपकी ही तरह.....
तो मत कहना कि‍
भटक गया हूँ.....
मैं आप दोनों को बहुत मि‍स करता हूँ!
जानता हूँ
आप दोनों भी मि‍स करते हैं!
मगर....

फि‍र भी मेरी शरारत पर
नाराज न होना!
मैं भी तो माफ करता हूँ
आप दोनों को,
जो मुझपर पैसे तो खर्च करते हो
पर समय नहीं ........... "


जितेन्द्र जी शब्द नहीं है मेरे पास आपकी इन भावनायों के लिए
अद्भुत