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Sunday, 5 July 2009

ताकतवर-कमजोर और सही-गलत का युग्म क्‍या एक दूसरे के वि‍रोधी हैं?

जिंदगी के अनुभव के दौरान कई सवाल पैदा होते हैं। एक ऐसा ही सवाल जेहन में आता है- ताकतवर-कमजोर और सही-गलत का युग्म क्या एक दूसरे के वि‍रोधी हैं? जब मैं सही-गलत की बात सोचता हूँ तब डार्विन की बात याद आती है- वही जीवि‍त रह पाता है जो ताकतवर है। इसका मतलब यह है कि‍ संसार सि‍र्फ ताकतवर लोगों के लि‍ए है। क्या यह सार्वभौम सि‍द्धांत है? अगर यह सही होता तो सामाजी‍करण की प्रक्रि‍या में सही-गलत का कभी कोई सवाल उठाया ही नहीं गया होता ?
हम सभी ये जानते हैं कि‍ आज प्राय: हर देश का एक संवि‍धान है। वहॉं सही-गलत को ही आधार बनाकर सामाजि‍क संरचना नीर्मित की जाती है। नगर का ताकतवर समुदाय या व्यक्ति‍ कि‍सी कमजोर समुदाय या व्यक्ति को दबाने का प्रयास न करे, इसी चीज़ के लि‍ए कानून-कायदे बनाए जाते हैं, यानी सभ्यता के क्रमि‍क वि‍कास में इस बात पर जोर दि‍या गया कि‍ ताकत को नि‍यंत्रि‍त करने के लि‍ए सही-गलत को आधार बनाया जाए। इस आधार को नैति‍क माना गया।
सि‍कंदर, नेपोलि‍यन, हि‍टलर ने वि‍श्व वि‍जेता बनने के लि‍ए कई देशों पर कब्जा कि‍या, खून की नदि‍यॉं बहाई, नगरों में घुस-घुसकर आम लोगों की नृशंस हत्याऍं कीं।

इन वि‍जेताओं ने अपने नजरि‍ए से यह सुनि‍श्चि‍त कि‍या कि‍ सही क्या है। तो क्या ये मान लि‍या जाए कि‍ सही-गलत का वि‍चार एक वैयक्ति‍क वि‍चार है, एक भावात्माक वि‍चार है। और इस आधार पर यह तो सुनि‍श्चि‍‍त कि‍या जा सकता है कि‍ कौन ताकतवर है और कौन कमजोर मगर यह कभी सुनि‍श्चित‍ नहीं कि‍या जा सकता कि‍ क्या गलत है और क्या सही। पता नहीं कि‍सने कहा था- सत्‍य की हमेशा जीत होती है !!!!

Saturday, 27 June 2009

जाऍं तो जाऍं कहॉं........

ऐसा लगने लगा है मनुष्य ने जहॉं-जहॉं पॉंव रखा है, वहॉं-वहॉ की प्रकृति‍ नष्ट हुई है। शि‍मला जाने का मन नहीं करता, न नैनीताल, अब हम प्रकृति के अनछुए प्रदेशों की तलाश में पहाड़ों को रौंद रहे हैं। वहॉं का पर्यावरण पर्याप्त दूषि‍त हो चुका है, हम अपने शहर से गाड़ि‍यों का शोर और धुँआ साथ ले जाते हैं और चि‍प्स,कुरकुरे आदि‍ की थैलि‍याँ,पॉलीथीन, प्‍लास्‍टि‍क-बोतलों का कचरा वहॉं इकट्ठा करते रहते हैं। शि‍मला( बेतहाशा बढ़ते मकानों/होटलों के बीच पहाड़ कहीं नजर आ रहा है!!)

एक सच्चा सैलानी वही है जो प्रकृति‍ से कम-से-कम छेड़छाड़ कि‍ए बि‍ना वहॉ का आनंद लेकर लौट आए।‍ प्लास्‍टि‍‍क की बोतलें और पॉलीथीन सुनि‍श्चि‍‍त जगह पर ही फेंके। जगह न मि‍ले तो उसे शहर के कूड़ेदान में डालने के लि‍ए अपने साथ ले आए। इसमें ऐतराज क्‍यों!! आप अपने गंदे कपड़े धोने के लि‍ए घर नहीं लाते क्‍या! उन्‍हें बाहर तो नहीं फेंकते ना!
यह तो अपनी जि‍म्मेदारी की बात हुई, लेकि‍न वहॉ की सरकार को क्या कहा जाए! एक दशक पहले शि‍मला(कुफ्री), मसूरी (गन हि‍ल)आदि‍ पहाड़ी वादि‍यों में प्राकृति‍क कोलाहल था, अब म्यूजि‍कल हलाहल है। तमाम जंगल उखाड़कर वहाँ जहॉं-तहॉं बच्चों के झूले, रेलगाड़ी आदि और तमाम तरह के‍ लौह उपकरण खड़े कर दि‍ए गए हैं। हर स्टॉल पर धमाकेदार संगीत आपको वहॉं से भागने के लि‍ए हंगामा बरपा रहे हैं (हैरानी तो तब हुई, जब सहस्रधारा (देहरादून) के पास भी ऐसा नजारा दि‍खा। वहॉं पर एक सेकेण्डर भी रूकने का मन नहीं हुआ।)
हम पहाड़ो पर जाकर अपनी तरफ से भी सफाई का ध्यान रखें तो वह भी कम नहीं होगा। अगर एक समूह ऐसी जगह कि‍सी टूर पर जाता है और खुद प्लास्टीक की बोतलें और पॉलि‍थीन आदि‍ इकट्ठा करने की हि‍म्मत दि‍खाता है तो लोग इस पहल की प्रशंसा ही करते हैं और शायद आपके इस मुहि‍म में कई लोग तत्काल शामि‍ल भी हो सकते हैं। यह न केवल अपने बच्चों के लि‍ए एक हि‍ल स्टेशन बचाने की कोशि‍श है बल्कि‍ पूरी पृथ्वी को स्वच्छ रखने में आपका यह आंशि‍क सहयोग अनमोल साबि‍त होगा। एक बार करके तो देखि‍ए, खुशी मि‍लेगी।
मेरे मि‍त्र ने राज भाटि‍या जी और मुनीश जी को आभार प्रकट कि‍या था कि‍ उन्होंने (उसकी) मारूती पर भरोसा जताया है, ऐसे वक्त में जब उसका खुद का भरोसा अपनी कार से उठ चुका था :) मुन्ना पांडेय जी ने मसूरी से आगे चकराता जाने का जो सुझाव दि‍या है, वह अगली बार के लि‍ए सुनि‍श्चि‍त कर लिया है। अनुराग जी ने लेंस्‍दाउन नाम का जि‍क्र कि‍या है, यह कहॉं है, यह बताने की कृपा करें अनुराग जी।
मैं अभी मानसून के इंतजार में दि‍ल्ली की गर्मी झेल रहा हूँ। यह गर्मी साल-दर-साल बढ़ती महसूस हो रही है। भारत में गर्मी प्रकृति‍ का एक दीर्घकालि‍क हथि‍यार है, और यह खून को पसीने के रूप में बहा देता है, देखें कि‍तना खून पीता है यह मौसम!!

Saturday, 6 June 2009

मसूरी: पास का सुहाना ढोल........


बारह साल पहले छात्र-जीवन की कंजूसी के तहत पहाड़ी यात्रा के सफर पर जब मैं चला था, तब इस दौरान बस-यात्रा और कई जगह मीलों पैदल चलने की मजबूरी ने मसूरी यात्रा को नागवार बना दि‍या था। तभी मैंने तय कि‍या था कि‍ अब बस की बेबस-यात्रा की बजाए कार से आऊँगा, बशर्ते कार बेकार न हो। तब मेरे साथ मेरा एक मि‍त्र सत्यम था, जि‍से मैंने इस टूर के लि‍ए जबरदस्ती सहयात्री बनाया था। मैं हि‍न्दू कॉलेज हॉस्टल में रहता था और वहॉं से हरि‍द्वार-ऋषि‍केश का टूर जा रहा था (हैरानी की बात है कि‍ हम कॉलेज के उन दि‍नों में धार्मि‍क यात्राऍं कर रहे थे।) हॉस्टल टूर की बस को छोड़ हमने देहरादून और फि‍र वहॉं से मसूरी की बस पकड़ ली थी।
उन्हीं दि‍नों को याद करते हुए पि‍छले हफ्ते अपने दोस्त की 96 मॉडल स्टीम कार से हम लोग मसूरी पहुँचे। कार से यहॉं आने की इच्छा तो पूरी हो गई पर डर तो ये सता रहा था कि‍ ये 96 मॉडल कार हमें वापस दि‍ल्ली तक पहुँचा पाएगी या नहीं!
खैर, तमाम तरह के फि‍जूल डर और रोमांच के बीच यह यात्रा दि‍ल्ली की गर्मी से राहत दि‍लाने में कामयाब रही। मसूरी तो आप सभी गए होंगे, इसलि‍ए वहॉं के बारे में मैं क्या बताऊँ! कुछ तस्वीरें बोलती हैं, कुछ चुपचाप दि‍ल में उतर जाती हैं तो कुछ अतीत में आपको खींच ले जाती हैं। शायद आपको भी कुछ याद आ जाए...


गॉंधी चौक


केम्‍पटी फॉल

Tuesday, 12 May 2009

ऊँट बैठा इस करवट....

हर मंगलवार वह दि‍ल्ली में ऊँट ढ़ूँढ़ता था, बड़ी मुश्कि‍ल से उसे एक ऊँटवाले के स्थायी नि‍वास का पता चला, और वह वहॉं नि‍यमि‍त रूप से हर मंगलवार को पहुँचने लगा। उसके पास दो ऊँट और एक रौबीला घोड़ा था। कि‍सी वयोवृद्ध पंडि‍त ने उसे सुझाया था कि‍ ऊँट को हर मंगलवार दो कि‍लो दाल खि‍लाने से उसके संकट का नि‍वारण हो जाएगा। वह बस पकड़ता, बीस कि‍.मी. चलकर ऊँट तक पहुंचता और दाल धोकर चारे के साथ ऊँट को अपने हाथों से खि‍लाता।
ऊँट का मालि‍क कहता- जनाब, यहॉं गुड़गॉंव, साकेत और पड़पड़गंज से भी लोग दाल खि‍लाने आते हैं, दाल खि‍लाने से आपका संकट जरूर दूर होगा। उसका लड़का ऊँट को एक रस्सी से पकड़े रहता। ऊँटवाला उसे कुर्सी पर बि‍ठाता, चाय-पानी पूछता।
दो-तीन हफ्ते बाद भी उसकी परेशानी ज्यों-कि‍-त्यों बनी रही, जबकि‍ पंडि‍त ने कहा था कि‍ इसका फल तत्काल मि‍लेगा। इसके बावजूद वह श्रद्धापूर्वक वहॉं जाता रहा और दाल खि‍लाता रहा।

आठवें मंगलवार को जब वह दाल खि‍लाने पहुँचा़ तो देखा कि‍ ऊँटवाले का लड़का तैयार होकर कहीं जा रहा था। उसने ऊँटवाले से यूँ ही पूछ लि‍या कि‍ आपका लड़का कहीं काम पर जा रहा है क्या ?
ऊँटवाले ने कहा- अरे नही, वह कोर्ट जा रहा है, लड़कीवाले दो साल से परेशान कर रहे हैं, उन्होंने केस कर रखा है, नौ लाख रूपये की मॉंग कर रहे हैं, कहते हैं कि‍ दहेज वापस करो। अब आप ही बताओ, शादी के दो साल बाद दहेज का द भी नहीं दि‍खता है, नौ लाख कहॉं से दें। अब तो रब ही मालि‍क...
वह दुखी होकर लौट रहा था, उसका मन खि‍न्न था। उसे पशु को खि‍लाने का अफसोस नहीं था, न ही सोलह कि‍लो दाल की चिंता। उसके संकट में खास फर्क भी नहीं आया था। इसके बाद उसने वहॉं जाना छोड़ दि‍या। उसके दोस्तो ने उसे ढ़ॉंढ़स बढ़ाया कि‍ चलो अच्छा कि‍या जाना बंदकर दि‍या, जि‍स आदमी के पास दो-दो ऊँट है, वह इतनी मुसीबत में है तो उससे तुम्हांरी समस्या कैसे दूर होगी!
उसने कहा- क्या बेकार की बात करते हो, मैंने वहॉं जाना इसलि‍ए बंद कर दि‍या है क्‍योंकि‍ दो कि‍लो दाल खाने में ऊँटों को एकाध घंटे से ज्यादा लग जाता है। मैं वहॉं दस-पंद्रह मि‍नट से ज्यादा रूक नहीं सकता, और मुझे संदेह है कि‍ मेरे नि‍कलते ही मेरा चारा वो अपने घोड़े को खि‍ला देते होंगे।
दोस्त ने पूछा- तो अब क्या सोचा है ?
उसने कहा- अब ऐसा मालि‍क ढ़ूँढ़ रहा हूँ जि‍सके पास सि‍र्फ ऊँट हो, घोड़े नहीं !

(चि‍त्र गूगल के सौजन्‍य से। इसकी खास बात यह है कि‍ इसे पि‍कासो ने बनाया है)

Saturday, 2 May 2009

हाई-टेक होती जिंदगी में रि‍-टेक की गुंजाइश

एक ही व्‍यक्‍ति‍ अलग-अलग जीवन-स्‍ि‍थति‍यों में जीता है, अलग-अलग उम्र को जीता है और अपने फलसफे बनाता है.... या नहीं भी बनाता....। लेकि‍न फि‍तरत यही होती है कि‍ व्‍यक्‍ति‍ अपनी ही मूरत को बनाता है, सँवारता है, फि‍र उसे तोड़कर चल देता है। हमारा शहर फैलता जा रहा है और हम उसमें सि‍कुड़ते जा रहे हैं- मन से भी और रि‍श्‍तों से भी। मानसि‍कता का फर्क हमारे भौति‍क जगत को प्रभावि‍त कर रहा है और उससे प्रभावि‍त भी हो रहा है।

हमारा संसार 'घर और लैपटॉप' के भीतर सि‍मटकर रह गया है। इस घर में या लैपटॉप में कुछ भी गड़बड़ी हो, हम बेचैन हो जाते हैं। अब अपनी ही बात बताऊँ, मैंने अपने लैपटॉप पर इंटरनेट से एक एंटी-वायरस डाउनलोड कि‍या था, पर वह कारगर साबि‍त नहीं हुआ, मैंने कंट्रोल पैनल जाकर जैसे ही उसे रि‍मूव कि‍या, मेरी समस्‍या वहीं से शुरू हुई। डी-ड्राइव में मौजूद लगभग 5 जी.बी. की सारी फाइल उड़ गई, फि‍र इसके साथ कई चीजें उड़ गई- मेरी नींद, मेरे होश.....। मेरी हालत देवदास-सी हो गई और अपनी इस हालत पे मुझे गुस्‍सा भी आया- मैंने अपने-आपको इतना पराश्रि‍त क्‍यों बना डाला है ?
मैंने याद करने की कोशि‍श की, मैं दो बार ऐसे अवसाद से और घि‍र चुका हूँ........... एक बार मोबाइल गुम होने के बाद, दूसरी बार मोबाइल से सारे नंबर डि‍लि‍ट होने के बाद।
मैं सोच रहा था कि‍ मैं अपने दोस्‍त को क्‍या जवाब दूँगा, जि‍सकी अभी-अभी शादी हुई थी और इस अवसर की सारी तस्‍वीरें और वीडि‍यो मेरे कम्‍प्‍यूटर में सेव थी। मेरा जो नुक्‍सान हुआ सो अलग।

मैंने अपने एक मि‍त्र से पूछा कि‍ क्‍या इस रि‍मूव्‍ड फाइल को पाया जा सकता है ? फरवरी 2010 तक मेरा लैपटॉप अंडर-वारंटी है, इस वजह से हार्ड-डीस्‍क नि‍कालना ठीक नहीं है, पर कि‍सी सॉफ्टवेयर से ऐसा कि‍या जा सकता है। मेरा मि‍त्र इसके ज्‍यादा कुछ न बता सका। अब लैपटॉप मुझे खाली डब्‍बा-सा लग रहा है।
हम जैसे-जैसे मशीनों के आदी होते जाऍंगे, वैसे-वैसे मैन्‍यूअल और मैकेनि‍कल के बीच द्वंद्व बढ़ता जाएगा, क्‍योंकि‍ मनुष्‍य अंतत: भूल करने के लि‍ए अभि‍शप्‍त है, आखि‍र हम इंसान जो है।
कभी-कभी लगता है, हम अपने-आपको कि‍तना उलझाते जा रहे हैं। हाई-टेक होती जिंदगी में रि‍-टेक की गुंजाइश खत्‍म-सी होती जा रही है।

Friday, 24 April 2009

चलो बुलावा आया है......

धर्म के बहाने यात्रा या यात्रा के बहाने धर्म का नि‍बाह हो जाना अच्छा लगता है। अगर धार्मिक स्थल पर भीड़ अपेक्षा के बि‍ल्कुल वि‍परीत हो, तो इसका भी अपना आनंद है। मैं बात कर रहा हूँ, वैष्णों देवी (जम्मू) की यात्रा की। कल शाम ही लौटा हूँ, शरीर पूरी तरह थकान से उबरा नहीं है। वि‍स्तृत वि‍वरण एक-दो दि‍न में पोस्ट करुँगा, फि‍लहाल आप सबको जय माता दी !!

Friday, 3 April 2009

राह से गुजरते हुए.......

अजनबी हो जाने का खौफ
बदनाम हो जाने से ज्यादा खौफनाक है।
अकेले हो जाने का खौफ
भीड़ में खो जाने से ज्यादा खौफनाक है।

कि‍सी रास्ते् का न होना
राह भटक जाने से ज्यादा खौफनाक है।
तनाव में जीना
असमय मर जाने से ज्या‍दा खौफनाक है।

इनसे कहीं ज्यादा खौफनाक है-
आसपास होते हुए भी न होने के अहसास से भर जाना.........

-जि‍तेन्द्र भगत

( चाहा तो था कि‍‍ ब्लॉग पर नि‍रंतरता बनाए रखूँ, पर शायद वक्त कि‍सी चौराहे पर खड़ा था, जहॉं से गुजरनेवाली हर सड़क मुझे चारो तरफ से खींच रही थी, वक्त‍ के साथ मैं भी बँट-सा गया था...... आज इतने अरसे बाद वक्त ने कुछ यादें बटोरने, कुछ यादें ताजा करने की मोहलत दी है, अभी तो यही उम्मीद है कि‍ वक्त की झोली से कुछ पल चुराकर इस गली में आता-जाता रहूँगा। )