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Monday, 19 January 2009

घि‍से हुए जूतों की दास्‍तान !!

(I)
मेरी चमड़ी पर कई झुर्रियाँ पड़ गई हैं, कमर भी झुक गई है। मेरे फीते की धज्‍जि‍यॉं भी उड़ गई हैं। मेरी आत्‍मा (सॉल) लगभग घिस चुकी है, उसके परखच्‍चे बस उड़ने ही वाले हैं। अपनी उम्र से ज्‍यादा मैं जी चुका हूँ। सन् 2004 की होली में मैंने मालि‍क के पैरों को आसरा दि‍या था, 2009 की होली अब आनेवाली है, पर मेरा मालि‍क आज भी मेरी अटकी हुई सॉस को रोकने की बेतरह कोशि‍श कर रहा है।
मुझे आज भी याद है, जब मेरा मालि‍क दूल्‍हा बना था, शादी के मंडप से दो कुड़ि‍यॉं मुझे छि‍पा ले गई थीं। और उस दि‍न का तो क्‍या कहना, जब मेरे मालि‍क को लड़का हुआ था, चाहता तो था कि‍ पालने तक जाऊँ, लेकि‍न हम लोगों की तकदीर ही कुछ ऐसी है, शुद्ध और स्‍वच्‍छ स्‍थानों से हमें दूर ही रहना पड़ता है, चाहे मंदि‍र हो या अस्‍पताल।
वैसे तो मेरे पूर्वजों का इति‍हास अत्‍यंत गौरवशाली रहा है। महाराज भरत ने श्रीराम के खड़ाऊ को पूज्‍य बनाकर मेरे पूर्वजों को जि‍तनी इज्‍जत बख्‍शी, ऐसा उदाहरण वि‍श्‍व में कहीं नहीं मि‍लता।
एक बार मेरे मालि‍क सड़क से गुजर रहे थे, मैंने देखा कुछ लोग मेरे सहोदरों को हाथों में लेकर दूसरे आदमी को पीट रहे थे। मुझे ऐसे लोगों से चीढ़ है जो चीजों का गलत इस्‍तमाल करते हैं। जूते की शोभा पैरों में ही है, कहीं और नहीं। कई बार तो मेरी माला बनाकर मुझे भी गधे नामक जंतु की सैर करा दी जाती है। कहीं कि‍सी मंच पर कुछ भी गड़बड़ हो, मेरे सहोदरों को ही उठा-उठाकर फेंका जाता है। अभी बीते महि‍ने की बात है, मेरे वि‍देशी मि‍त्र को कि‍सी ने बुश पर दे मारा।

गर्मी, सर्दी, बरसात - न जाने क्‍या-क्‍या झेले हैं मैंने। नदी, पर्वत, आकाश - न जाने क्‍या-क्‍या नापे हैं मैंने। मुझे नौकरी पर रखनेवाला मेरा मालि‍क बेचारा खुद पक्‍की नौकरी की जुगत में रहा। समय के अभाव के बावजूद उसने बराबर मेरा ख्‍याल रखा, सुबह बड़े चाव से मेरे चेहरे को चमकाता और रात को गहरी थकान के बावजूद मुझे इधर-उधर फेंकने की भूल नहीं करता। सोचा था मालि‍क को पक्‍की नौकरी मि‍लते ही मुझे रि‍टायरमेंट मि‍ल जाएगी, पर मालि‍क पर जि‍म्‍मेदारी दि‍नोंदि‍न बढती गई और मुझे ओवरटाइम तक करना पड़ा।

मजे की बात बताऊँ, मालि‍क मेरे बि‍ना रह नहीं सकते, कहीं आ-जा नहीं सकते, ट्रेन के सफर में मैं उनसे बि‍छुड़कर कि‍सी और के पैरों की शोभा न बढ़ाऊँ, इसलि‍ए अपने पास थैले में डालकर सोते हैं। मेरी चिंता में इन्‍होंने मंदि‍र जाना तक छोड़ दि‍या है, अगर जाते भी हैं तो बाहर से खड़े-खड़े ही नमन कर लेते हैं
कभी-कभी सोचता हूँ दुनि‍या में जि‍तने भी प्रेमी हुए हैं, अक्‍सर रोमि‍यो-जूलि‍यट, शीरी-फरहाद, लैला-मजनू, चंदा और चकोर की कस्‍में खाते देखे गए हैं, लेकि‍न क्‍या कि‍सी ने हमारी जोड़ि‍यों की कसम खाई है ??

(II)
लोग मेरे मालि‍क को कहते हैं यार तेरा जूता तो काफी चल गया!! मैं पूछता हूँ ये तारीफ है या ताना !! एक आदमी ने पक्‍की नौकरी के इंतजार में छ: साल मेरे साथ गुजार दि‍ए जबकि‍ ऐसे भी लोग हैं जो साल-छ:महि‍ने में जूते बदल लेते हैं।

नए जूते खरीदना कोई मुश्‍कि‍ल नहीं है, पर मेरे मालि‍क को आज की रवायतों का ठीक-ठीक अंदाजा नहीं है, वर्ना वे इस भरोसे या भ्रम में न जीते कि‍ पक्‍की नौकरी मि‍लते ही नए जूते ले लूँगा। अलादीन के चि‍राग और मुझमें कुछ तो फर्क होता है न!!

जि‍स तरह पलकें आखों पर बोझ नहीं होती, उसी तरह मेरे मालि‍क ने भी मुझे कभी बोझ नहीं माना, बल्‍कि‍ हमेशा अपने पथ का साथी माना है, मेरी जर्जर काया के बावजूद उनका मोह मुझसे नहीं छुटा है। बस एक ही गुजारि‍श है इनके वि‍भाग के वरि‍ष्‍ठ प्रोफेसरों से, मुझे अपने मालि‍क से नि‍जात दि‍लाने का कुछ जतन करो। पक्‍की नौकरी देकर इसकी एड़ि‍यों को भी नए जूते का सुख भोगने दो। घि‍से हुए जूते को पॉलि‍श से कब तक छि‍पाता रहेगा मेरा मालि‍क !! छ: साल कम नहीं होते हैं..... आदमी घि‍स जाता है, मैं तो अदद एक जूता हूँ।

Saturday, 10 January 2009

याद आती रही......

सर्दियों में कुहासे की चादर ओढ़े सुबह की धूप जैसे रेशम-सी नरम होती है, कि‍रणों के रेशे-रेशे में गरमाहट की जैसे एक आहट होती है, वैसे ही इस गॉंव की याद मन में एक कसक के साथ मौजूद रही। जब भी मैं अकेला हुआ, मुझे महसूस होता रहा कि‍ कुछ छूट रहा है........ रह-रहकर आपलोगों की याद आती रही।
ऐसा लग रहा था, जैसे बि‍न बताए घर से नि‍कल गया हूँ परदेश में, अब घर आते हुए महसूस हो रहा है कि‍ कि‍तने समय से बाहर था। गॉंव कि‍तना बदल गया होगा, कई नये लोग आकर बसे होंगें। कई नए घर बने होंगें। कुछ लोगों ने अपना घर ठीक कि‍या होगा, उसे नई तरह से सजाया होगा, कई तरह से सजाया होगा.... कुछ लोग मेरी तरह घर छोड़कर नि‍कल गए होंगे, कुछ लोग चाहकर भी घर नहीं लौट पाए होंगे,...... पर खतों ने गॉव की याद को भूलने न दि‍या........ और इस तरह मैं बरबस लौट आया।
बीते साल कई चीजें नि‍पटाकर आया हूँ। इससे पहले कि‍ उमर के इस पड़ाव पर कुछ कर गुजरने की चाहत दम तोड़ने लगे, मनमाफि‍क मंजि‍ल को पा लेने की तड़प दि‍ल पर बोझ लगने लगे, जीने का हौसला बरकरार रखना चाहता हूँ। नया साल इसी जोश के साथ शुरू कर रहा हूँ।
कुछ देर से ही सही, आप सभी को नए साल की हार्दिक शुभकामनाऍं। आपके घर धमकने ही वाला हूँ कि‍ नए साल पर आपने अपने घर को कि‍स तरह संवारा है
(आप सबकी दुआओं और मशवरों का तहे दि‍ल से शुक्रगुजार हूँ। दि‍सम्‍बर 08 के मध्‍य में दि‍ल्‍ली स्‍थि‍त इस्‍कोर्ट हर्ट हॉस्‍पीटल में मेरे पापा की इंजि‍योप्‍लास्‍टी हुई थी और अब वे बि‍ल्‍कुल ठीक हैं।)

Sunday, 16 November 2008

मारे गए संकोच में !!

त्‍योहारों पर उपहार/मि‍ठाई बॉंटने की परंपरा है, लेकि‍न मेरे शोध-नि‍र्देशक इस अवसर पर भी उपहार देने के लि‍ए मना करते हैं। पर यदि‍ काफी समय बाद जाओ और मौसम भी त्‍योहारों का हो तो सर के पास खाली हाथ जाना अजीब लगता है।
तो एक बार त्‍योहार के अवसर पर मैं मि‍ठाई का एक डि‍ब्‍बा लेकर सर के घर गया, सर अपने कमरे में काम कर रहे थे और दरवाजा नौकरानी ने खोला। हाथ में मि‍ठाई पकड़ाने पर डॉंट सुनना तय था, इसलि‍ए मैंने यह सोचकर मि‍ठाई का डि‍ब्‍बा मेज पर रख दि‍या कि‍ जाने के बाद सर को पता तो चल जाएगा कि‍ यह डि‍ब्‍बा जि‍तेन दे गया है।
मैं सर के पास कमरे में चला गया। वहीं काफी देर बातें होती रही। तभी डोर-बेल बजी, नौकरानी कि‍चन में व्‍यस्‍त थी, इसलि‍ए मैं दरवाजा खोलने चला गया। आगंतुक मेरे सर का कोई करीबी था और उपहार के तीन-चार पैकेट लेकर आया था। उसने वो पैकेट मेरे मि‍ठाई के डि‍ब्‍बे के बगल में लाकर रख दि‍या।
>तभी सर भी ड्रॉइंग रूम में आ गए और आगंतुक को स्‍नेह से डॉंटने लगे कि‍ उपहार क्‍यों लाए। मेज काफी भरी-भरी सी लगनी लगी, सर ने नौकरानी को आवाज दी कि‍ ये पैकेट कि‍चन में ले जाए। मैं मन ही मन ये सोचकर दुखी हो रहा था कि‍ इतनी अच्‍छी मि‍ठाई खरीदकर लाया, मगर वह आगंतुक के नाम पर कि‍चन में रख दी गई।
सर के हाथ में डि‍ब्‍बा नहीं पकड़ाने का मतलब यह तो नहीं था कि‍ उनको मेरे उपहार का पता भी नहीं चले। मैं चाहता था कि‍ सर आज मुझे डॉंट ही दें कि‍ तुमने डि‍ब्‍बा लाने की गल्‍ती तो नहीं की है, पर सर ने न डॉंटा न ही पूछा.... वहाँ से लौटते हुए मैं बड़ा उदास था। 


U टर्न  :सोचता हूँ त्‍योहारों पर मि‍ठाई का सि‍र्फ डि‍ब्‍बा ले जाऊँ, मि‍ठाई नहीं:)

Wednesday, 5 November 2008

शुक्र है, उनके हाथ में पि‍स्‍तौल नहीं थी!!

सर्दि‍यों की रात थी, मैं करीब आठ बजे अपनी मोटर-साईकि‍ल से शक्‍ति‍नगर चौक से गुजर रहा था। मुझे एक जरूरी फोन करना था और मेरे पास मोबाइल नहीं था इसलि‍ए मैं एक टेलीफोन-बूथ के सामने रूका। हैलमेट उतार ही रहा था कि‍ संभ्रांत घरों के कुछ लड़के आसपास से दौड़ते हुए नि‍कले, कुछ लड़के बूथ के सामने ही खड़े होकर परेशान-हैरान-से बातें करने लगे-

‘’भाई, तू घबरा मत, तेरे को कुछ नहीं होगा। राहुल, करण भी तेरे साथ हैं। प्रि‍या का फोन आया था, वह भी साथ देने के लि‍ए तैयार है, बस तू हौसला रख। रोहन का दि‍माग आज ही ठीक कर देंगे, लौटेगा तो इसी रास्‍ते से ना! चार लड़के साथ क्‍या कर लि‍ए उस *** ने, शेर बन रहा है !’’
उन लड़कों की बातचीत और हरकतों से लग रहा था जैसे टपोरी और संभ्रांत लड़कों के बीच पहनावे के सि‍वा और कोई फर्क नहीं है। मैंने गौर से देखा, जि‍स लड़के को हौसला बंधाया जा रहा था, उसका चमन उजड़ा-सा लग रहा था, चेहरे पर चोट के भी नि‍शान नजर आ रहे थे, ठंड के बावजूद वे सभी पसीने से तर-बतर थे। उनके बीच बेचैनी और अफरा-तफरी का माहौल साफ नजर आ रहा था।
‘‘जाकर बाइक ले आ, अभी देखकर आता हूँ कि‍ कहॉं गया है *** ‘’
बात-बात में उनके मुँह से गाली ऐसे झर रहा था, जैसे पतझर में पत्‍ते झरते हैं। इससे पहले कि‍ मैं समझ पाता कि‍ मामला क्‍या है, उसमें से एक लड़का आव देखा न ताव, सीधे मेरी बाइक की तरफ लपकते हुए बोला-

‘’भाई दो मि‍नट के लि‍ए मुझे बाइक देना, मैं अभी आया।‘’
मैं बाइक से तबतक उतरा भी नहीं था, मैंने कहा-

‘’मुझे दूर जाना है और मैं पहले ही लेट हो चुका हूँ।‘’
पर उसे मेरी बात सुनाई कहॉ दे रही थी, उसपर तो मानों जुनून सवार था। लफंगों की इस बौखलाई जमात में मुझे यह कहने की हि‍म्‍मत नहीं पड़ी कि‍ तेरे बाप की बाइक है जो तूझे दूँ। इससे पहले कि‍ मैं स्‍टार्ट कि‍क लगाता, उसने बाइक की चाबी नि‍काल ली।
जब दि‍ल्‍ली ट्रैफि‍क पुलि‍स चालान के लि‍ए बाइक रूकवाती है तो सबसे पहले चाबी कब्‍जे में लेती है क्‍योंकि‍ बाइकवाले पतली गली से नि‍कलने में माहि‍र होते हैं, इस तरह तो मेरी चाबी जब भी जब्‍त हुई है, चालान देकर ही छुटी है। पर आज चालान का मामला नहीं है।

वह लड़का मेरी चाबी लेकर अपने साथि‍यों के साथ तय करने लगा कि‍स तरफ जाऊँ। मेरी जान सांसत में थी, मैंने कहा- ’’भई आपको जहॉं जाना है मैं वहॉं छोड़ देता हूँ।‘’
उन्‍हें फि‍र कुछ सुनाई नहीं पड़ा। वे सुनने के लि‍ए नहीं, सि‍र्फ बकने के लि‍ए जो इकट्ठा हुए थे। मैंने कहा-
‘’अगर चाबी नहीं दोगे तो मैं तुम लोगों की शि‍कायत थाने में कर दूँगा।‘’
उनमें से ये बात कि‍सी को सुनाई पड़ गई, वह तपाक से मेरी तरफ आया और गुर्राते हुए बोला-
’’कर फोन कि‍सको करेगा, डी.सी.पी. को, एस.पी. को या एस.आई. को ? ऊपर से नीचे तक सब मेरे रि‍श्‍तेदार हैं। जा लगा फोन, बैठा क्‍या है! ओय इसकी बाइक की चाबी मुझे दे जरा!’’

एक आम आदमी, जि‍सकी कोई ऊँची जान-पहचान नहीं है, यह सुनकर जैसे सकते में आ जाता है, वैसे मैं भी आ गया। उसने चाबी लेकर अपने जेब में डाल ली, मैं बाइक पर असहाय-सा बैठा यह सोचता रहा कि‍ कि‍सी का गुस्‍सा कि‍सी पर लोग कैसे उतारते हैं। उन नवाबजादों को आपस में बात करते हुए ख्‍याल भी नहीं था कि‍ अपनी लड़ाई में उन्‍होंने मुझे कि‍स तरह, बेवजह शामि‍ल कर लि‍या है।

मैं रह-रहकर उन्‍हें टोकता रहा कि‍ भई मुझे दूर जाना है, चाबी दे दो। मन ही मन खुद को कोसता भी रहा कि‍ क्‍यों फोन करने के लि‍ए यहॉं रूका! पर मुसीबत दस्‍तक देकर नहीं आती, वह न जगह देखती है न समय!

इस बीच मैं यही सोचता रहा कि‍ अमीरजादों की ये नस्‍लें महानगरीय अपसंस्‍कृति‍ की ऊपज है, जि‍नके बाप ने इतना काला धन जोड़ रखा है कि‍ उन्‍हें अपने कपूतों के लि‍ए भी कुछ करने की जरूरत नहीं है। पर कुछ-न-कुछ तो करना जरूरी होता है इसलि‍ए ये मारा-मारी, लड़कीबाजी में ही दि‍न खपातें हैं और इस झगड़े की जड़ में भी शायद वही बात थी। ऐसे अमीरजादों को‍ चोरी-डकैती में जो थ्रील मि‍लता है, वह पढ़ाई में कहॉं मि‍ल सकता है! तो सब तरह के दुराचार में ये भी लि‍प्‍त होते हैं। ऐसे बच्‍चों के बाप इनपर ये सोचकर अंकुश नही लगाते कि‍ उन्‍होंने अपनी जवानी में यही गुल तो खि‍लाए थे!
अचानक वे लड़के आगे चल पड़े। मैंने उन्‍हें याद दि‍लाया कि‍ चाबी उनके पास रह गई है। करीब आधे घंटे की इस तनावपूर्ण मन:स्‍थि‍ति‍ के बाद चाबी लेकर मैं वहॉ से नि‍कल पड़ा। मैं यही सोचता जा रहा था कि‍ उनके हाथ में पि‍स्‍तौल नहीं थी, वर्ना ऐसे मामलों में बेगुनाहों की खैर नहीं होती!

इस तरह की घटना 21वीं सदी के महानगर की एक नई पीढ़ी की दि‍शाहीनता को दर्शाता है। यह भी तय है कि‍ आने वाले समय में यह घटना महानगरों के लि‍ए एक आम शक्‍ल अख्‍ति‍यार कर लेगी। हम ऐसे समाज में ही जीने के लि‍ए अभि‍शप्‍त हैं और इसके समाधान की संभावनाओं का गुम होना दुखद है।

Wednesday, 29 October 2008

डि‍ब्‍बा-पर्व और जेब में पटाखा !!

इस बार उत्‍तर प्रदेश, हरि‍याणा के चावल के खेतों से कीट-पतंगों की एक प्रजाति‍ दि‍वाली मनाने दि‍ल्‍ली आई थी और लगभग दो-तीन हफ्ते से दि‍ल्‍ली में डेरा डाले हुए थी। शाम को स्‍ट्रीट लाइट के नीचे से नि‍कलना दूभर हो जाता था, क्‍योंकि‍ ये ऑंख-मुँह,सर्ट में चले जाते थे। लोगों ने शाम को टहलना लगभग बंदकर दि‍या था। शम्‍मा पर नि‍सार होनेवाले इन परवानों को सुबह की झाड़ू के दौरान थोक के भाव में इकट्ठे कर बोरे में भर-भरकर फेंका जा रहा था। दुकानदारों को खासी परेशानी का सामना करना पड़ा, क्‍योंकि‍ त्‍योहार के इस मौसम में उन्‍हें हल्‍की रौशनी में सामान बेचना पड़ा। ज्‍यादा रौशनी में कीट-पतंगे ज्‍यादा आ रहे थे, इसलि‍ए ग्राहक या तो अंदर आ नहीं रहे थे या आकर जल्‍दी भाग रहे थे। जि‍नसे भी पूछो, यही कहते पाए गए कि‍ इतनी बड़ी तादाद में इन कीट-पतंगों को पहले कभी नहीं देखा गया।
तो, पि‍छले साल के लिहाज से इस बार बाजार में कीट-पतंगों की रौनक रही, और दुकानदारी फीकी।

ये तो थी कीड़ो की दि‍वाली, अब हम बड़कीड़ों ने दि‍वाली कैसे मनायी, इस पर भी एक नजर डालते हैं। मि‍ठाई की दुकानों पर ऑर्डर गया हुआ है कि‍ ऑफि‍स में इतने स्‍टाफ हैं, इतने डि‍ब्‍बे पैक करने हैं, बॉस का डि‍ब्‍बा अलग, मेमसाब का डि‍ब्‍बा अलग, शर्मा जी का अलग, वर्मा जी का अलग, अजी त्‍योहार न हुआ डि‍ब्‍बा-पर्व हो गया। जैसे हर धर्म में, उपासना गृह में भगवान बसते हैं, वैसे ही हर पर्व में डि‍ब्‍बा बसता है।
पूँजी के बाजार ने पर्व मनाने की नई परम्‍परा का ईजाद कि‍या है। शायद इसलि‍ए अचानक हर पर्व दो-दो दि‍न मनाने की कवायद चल पड़ी है। छोटी दि‍वाली है- क्‍या कि‍या जी, उपहार बॉंटे, आज बड़ी दि‍वाली है, क्‍या कि‍या जी, आज भी उपहार बॉंटे। इस तरह होली, ईद और दूसरे पर्व भी दो-दो दि‍न मनाए जाने लगे हैं। पहले भी ये दो बार मनाए जाते होंगे, मगर बाजार और मीडि‍या ने इसे अपने मतलब से अचानक उछाला है। दि‍क्‍कत तो ये है कि‍ शेयर बाजार में कभी आए उछाल के बाद आज जि‍तनी गि‍रावट दर्ज की गई है, पर्वाश्रि‍त इस बाजार में भी वह गि‍रावट नजर आएगी, यह सोचना बेमानी है। वैलेंटाइन डे, फादर्स डे, मदर्स डे, ये डे, वो डे- हर डे को मीडि‍यावाले अपने लि‍ए खबर का एक नया मसाला मानते हैं और बाजार माल खपाने के लि‍ए मार्केटिंग का एक और अवसर।

दि‍ल्‍ली एक महानगर है, गॉव तो है नहीं कि‍ दरवाजे से बाहर नि‍कले कि‍ पड़ोस में ही रि‍श्‍तेदार या दोस्‍त मि‍ल जाऍगे। यहॉं कि‍सी को उपहार देने नि‍कलो तो पता चलता है एक उत्‍तर में रहता है दूसरा दक्षि‍ण में। बि‍ना फोन कि‍ए जाओ तो पता चलता है कि‍ वह पूरब गया हुआ है उपहार बॉंटने। महानगरों में पर्व मनाने के नाम पर लोगों को सि‍र्फ और सि‍र्फ उपहार का आदान-प्रदान करते देखा है मैंने। सि‍र्फ इस वजह से भारी ट्रैफि‍क जाम और दुकानों में मेला देखने को मि‍लता है। चीजों की खपत पर्व त्‍योहारों पर इतनी बढ़ जाती है कि‍ दाम बेलगाम हो जाते हैं।

उपहार बॉंटने का सि‍लसि‍ला जि‍नका खत्‍म हो जाता है, वे बम-पटाखे नि‍कालते हैं तथा शोर और धुँओं में नोट को जलते देख खुशि‍यॉं मनाते हैं। मि‍.आहूजा एण्‍ड फैमि‍ली इंतजार करती है कि‍ जब उनके पटाखे खत्‍म हो जाऍगे तब ये पटाखे फोड़ना शुरू करेंगे और अगले दि‍न चर्चा का वि‍षय बनेंगे कि‍ इस बार आहूजा जी ने देर रात तक, जमकर दि‍वाली मनायी। इस तरह, पर्व पर अनेक लोग मानो अपनी जेब में बम-पटाखे फोड़ते हैं और उस फटी जेब को अगले कई महि‍नों तक छि‍पकर रफ्फू करवाते फि‍रते हैं।

उम्‍मीद है हम बाजार और मीडि‍या की इस मंशा को समझेंगे और कठि‍न होती महानगरीय जिंदगी के लि‍ए पैसे जोड़ने के साथ-साथ पर्व को मनाने के व्‍यवहारि‍क तरीके की तलाश करेंगे तथा पर्यावरण, परम्‍परा और जेब के बीच सामंजस्‍य और संतुलन बनाने का जतन करेंगे।

Sunday, 26 October 2008

सावधान !! यहॉं जेबरा क्रौसिंग नहीं होता !!

दृश्‍य 1
गाड़ी सडक पर अपनी रफ्तार से दौड़ी जा रही है, आगे मार्केट की भीड़ है। वहॉं कहीं भी जेबरा क्रौसिंग नहीं है, इसलि‍ए माना जाए कि‍ हर जगह जेबरा-क्रौसिंग है। एक संभ्रांत-सी दि‍खनेवाली महि‍ला अचानक कार के आगे आ जाती है, अचानक ब्रेक लेना पड़ता है, वह अपनी गल्‍ती छि‍पाने के लि‍ए मुझे देखकर मुस्‍कुराती है, और सड़क-पार चली जाती है। आगे चलकर एक गरीब महि‍ला सर पर टोकरी लि‍ए सड़क पार कर रही है। उसे कोई परवाह नहीं है कि‍ सामने से कार आ रही है। अचानक ब्रेक लेना पड़ता है, वह मेरी तरफ न देखती है, न ही मुस्‍कुराती है, उसमें न कोई खौफ है न कोई हि‍चकि‍चाहट और वह सड़क-पार चली जाती है।



दृश्‍य 2
सीढ़ि‍यॉं चढ़ते या उतरते हुए जब एक जवान के आगे कोई वृद्ध/वृद्धा सुस्‍त चाल से चढ़ते या उतरते हैं तब उसके मन में क्‍या चल रहा होता है- उफ्, जब तक सीढि‍यॉं खत्‍म नहीं हो जाती,अब इनके पीछे-पीछे चलते रहो। उसे खीज होती है कि‍ ये देखते भी नहीं कि‍ कोई जल्‍दी में है।

वृद्ध/वृद्धा के मन में क्‍या चल रहा होता है- हे भगवान, ये जवान मेरे पीछे-पीछे चलने के लि‍ए मजबूर हो गया है, अनजाने ही सही, कहीं जल्‍दी में ठोकर मारता हुआ नि‍कल गया तो संभलना मुश्‍कि‍ल हो जाएगा। और अगर पॉव लड़खड़ा ही गए तो दुबारा उठ न सकेंगें।



दृश्‍य 3
कनाट प्‍लेस का व्‍यस्‍ततम चौराहा। मैं पैदल जा रहा हूँ। फुटपाथ पर खुराफाती-से लगने वाले दो लड़के बैठे हुए हैं। सामने से दो वृद्ध वि‍देशी दम्‍पत्‍ति‍ आ रहे हैं। उनमें से एक लड़का गोबरनुमा कोई चीज़ उठाकर वृद्ध के जूते पर लगा देता है। दम्‍पत्‍ति‍ को या तो पता नहीं चलता या वे उसकी हरकतों की उपेक्षा कर देते हैं। वे लड़के उनके जाने के बाद आपस में बंदरों की तरह खि‍खयाते हैं, ये देखता हुआ मैं आगे बढ़ जाता हूँ।

Thursday, 23 October 2008

और रोटी तो नहीं चाहि‍ए ?

इंसान के पास दो चीजें ऐसी है जि‍से अच्‍छे खुराक की सख्‍त जरूरत होती है- पेट और दि‍माग। आदि‍म युग का इति‍हास बताता है कि‍ वह पेट की आग ही थी, जि‍से बुझाने के लि‍ए तरह-तरह से दि‍माग लगाए गए। अब आदि‍म युग तो समाप्‍त हो चुका है,आज लोग दि‍माग लगाने में ज्‍यादा व्‍यस्‍त हैं, जि‍ससे पेट की तरफ ध्‍यान ही नहीं जा रहा है, पर यहॉं मेरा मकसद मोटापे पर चर्चा करना नहीं है।
मुझे याद है- मैं गर्मियों की छुट्टि‍यों में हॉस्‍टल से घर आता था, घर कर बड़ा लड़का होने के नाते मेरी मां मेरे आराम का, खाने-पीने का हमेशा ध्‍यान रखती थी और अक्‍सर कहती रहती थी कि‍ बेटा ये खा ले, वो खा ले; ऑखें धॅस रही हैं, हड्डि‍यॉं नजर आने लगी हैं, वगैरह-वगैरह। मैं पन्‍द्रह साल का रहा हूंगा। पसीने से तरबतर, मुझसे दो साल छोटी मेरी बहन, मेरे लि‍ए रोटी बनाती थी। मेरे लि‍ए मां की इतनी जी-हुजउव्‍वत उसे चि‍ढ़ा-सी देती थी- कहती-मैं भी तो तीन भाइयों के बीच इकलौती हूँ , माँ मेरे लि‍ए इतना क्‍यों नहीं मरती ! फि‍र पलटकर मुझसे गुस्‍से में कहती- और रोटी तो नहीं लोगे ? मैं हॅसकर शि‍कायत करता-बहन, तू मुझसे ये नहीं पूछ सकती कि‍ और रोटी दूँ क्‍या? हमेशा उलटे सवाल क्‍यों करती है ?
मेरी पत्‍नी मुझसे ऐसे सवाल नहीं करती, क्‍योंकि मैं गि‍न कर रोटि‍यॉं खाता हूँ। घर के बड़े-बूढ़े कहते हैं- गि‍नकर खाने से शरीर को खाना नहीं लगता। मेरा मानना है कि‍ बि‍ना गि‍ने खाने से शरीर को खाना कुछ ज्‍यादा ही लग जाता है। कुछ जागरूक लोगों का मानना है कि‍ भूख से एक रोटी कम खानी चाहि‍ए। कुछ कहते हैं कि‍ हर तीन घंटे पर कुछ-न-कुछ लेते रहना चाहि‍ए।

एक जमाना था, जब डायनिंग टेबल का कॉन्‍सेप्‍ट नहीं था, लोग जमीन पर चादर बि‍छाकर,(या पीढ़ा पर) पालथी मारकर खाना खाते थे। तब संयुक्‍त परि‍वार हुआ करता था या एकल परि‍वार में सगे रि‍श्‍तेदारों का लंबे समय तक मजमा लगा रहता था और उनका चले जाना काफी तकलीफदेह लगा करता था।
इस माहौल में खाने का अपना मजा था, कि‍सी को कोई खास जल्‍दी नहीं रहती थी, जैसा कि‍ आज रहती है। आज हर दूसरा आदमी कहता है, भई, खाने तक को वक्‍त नहीं मि‍लता। जो खाने के लि‍ए समय नि‍काल लेते हैं, वे भी खाने की मेज पर ऐसे हड़बड़ाए रहते हैं जैसे नौकरी छूट रही हो।

मै सोचता हूँ कि‍ क्‍या कमाया यदि‍ ढ़ंग से नहीं खाया। मेरा मतलब ये नहीं है कि‍ आप फाइव-स्‍टार होटल में खाऍगे तभी आपका कमाना सार्थक होगा। आपके सामने थाली हो तो आप अपना ताम-झाम भुलाकर, सारा ध्‍यान खाने पर लगाऍं, तब जाकर खाने का मकसद पूरा होता है।
वैसे मेरे लि‍ए भी ये कहना आसान है, करना मुश्‍कि‍ल। जि‍स तरह से नगरों-महानगरों में व्‍यस्‍तताऍं बढ़ रही हैं, उस तरह दि‍माग भी लगातार दौड़ रहा है। उसकी दौड़ नींद को भी खराब करती रही है। कई लोग बत्‍ति‍यॉं बुझाकर सोने के लि‍ए लेट तो जाते हैं, पर नींद कई करवटों के बाद आती है। दुनि‍या में उन्‍हें खुशनसीब माना जाता है जि‍न्‍हें चैन की नींद और भोजन के साथ उसे खाने का वक्‍त मि‍लता है। वे बदनसीब हैं जि‍नके पास खाना है, पर खाने का वक्‍त नहीं। उनकी बदनसीबी पर तो क्‍या कहना जि‍नके पास खाना ही नहीं !