ज्ञानदत्त जी ने ब्लॉग पर लिखे जाने वाले साहित्य के लिए 'साइबेरित्य' नाम दिया है।
मैं ब्लॉग में लिखी जाने वाले साहित्य के लिए ‘ब्लॉगित्य’ या 'ब्लॉगहित्य' शब्द सुझाना चाहूँगा। वैसे साधारण शब्दों में ‘ब्लॉग-साहित्य’ कहने पर भी वह अपने अर्थ को सही संप्रेषित करता है। सवाल ये है कि इस नाम को पहचान देने वाली प्रवृतियों को कैसे सीमाबद्ध किया जाए, और कबाड़ में से काम की चीज कैसे ढ़ूँढ़ी जाए यानी साहित्यिक सामग्री को कैसे सूचीबद्ध किया जाए। इस शोध-कार्य के लिए चिट्ठा-चर्चा की भूमिका ऐतिहासिक साबित होने वाली है, और उसके बिना ब्लॉग-साहित्य की समझ अधूरी ही रह जाएगी।
हिन्दी साहित्य में रामचंद्र शुक्ल जी जैसे आलोचकों ने साहित्य को कई विभागों में विभाजित किया है, काल और प्रवृति के अनुसार उनको विवेचित किया है। मेरा मानना है कि वह दिन दूर नहीं, जब ब्लॉग पर लिखी जाने वाली कहानियों, कविताओं, यात्रा-वृतांतों, संस्मरण, आत्मकथा आदि पर शोधकार्य होना आरंभ हो जाएगा।
इसका स्पष्ट कारण ये है कि ब्लॉग पर लिखी जानेवाली अच्छी रचनाओं को ज्यादा दिन तक उपेक्षित नहीं रखा जा सकता। एक समय यह भी संभव है कि ब्लॉग ही साहित्य की कसौटी बन जाए, और पुस्तक रूप में छपने पर पाइरेटेड मानी जाए।
ब्लॉग साहित्य है या नहीं, इस पर काफी चर्चा हुई। मैं अपना मत यहॉं रखते हुए कहना चाहूँगा कि प्रिंट मीडिया की तरह ही ब्लॉग एक माध्यम भर है अपनी रचनाओं को प्रस्तुत करने के लिए। अब जैसे प्रिंट मीडिया स्थापित साहित्यकारों को छापते रहते हैं और कोई नवोदित रचनाकार अपनी पाण्डुलिपि लिए चार-पॉंच साल के लिए कतार में खड़े रहते हैं, ब्लॉग ने वह कतार तोड़ दी है। ब्लॉग एक ऐसा ‘बिग-बाजार’ है कि यहॉं चौबीसो घंटे सेल लगा रहता है, इसलिए इसमें बेतहाशा भीड़ होना लाजमी है। साथ ही कंपनी का लेबल चिपकाकर यहॉं कई बार खराब माल भी धड़ल्ले से बिक जाता है, तो कई बार उम्दा माल ग्राहकों को या तो महंगा लगता है या समझ से परे। खैर, ये तो ब्लॉग-साहित्य की बात है।
आज जो साहित्य पत्रिकाओं में छप रही हैं, उसकी भाषा गरिष्ठ और दार्शनिक होती जा रही हैं, और यही कारण है कि उसे पढ़ने के लिए अब आम आदमी की अभिरूचि घटी है और उसका एकेडेमिक महत्व ज्यादा रह गया है। पत्रिकाऍं अब वैचारिक हथियार के रूप में इस्तमाल हो रही है जिसमें संपादक/लेखक एक दूसरे पर प्रहार करते ज्यादा नजर आते हैं। अलबत्ता इनमें अच्छी कविताऍं/कहानियॉं जरूर पढ़ने को मिल जाती हैं।
साहित्य के क्षेत्र में प्रतिवर्ष नगण्य शोधकार्य ही अपनी मौलिकता और सर्जनात्मकता के कारण चर्चा का विषय बनते हैं। आज जब एक से एक घटिया विषयों पर शोध-कार्य हो सकता है, किसी प्रोफेसर/प्राध्यापक के मित्र कवि के रद्दी काव्य-संग्रह को शोध के काबिल समझा जा सकता है तो मुझे लगता है कि हमारे ब्लॉग जगत में एक-से-एक अनमोल हीरे हैं, जिनके रचनात्मक विवेक को किसी महान रचनाकार से कम नहीं ऑका जा सकता। सवाल है कि हम ऐसी रचनाओं को एकमत से स्वीकार करें और निरपेक्ष भाव के साथ उसके साहित्यिक महत्व का मूल्यांकन करें।
तो मित्रों, भरोसा रखें, आप इतिहास रच रहे हैं,ब्लॉग में साहित्य रच रहे हैं, अभी शैशवावस्था में कुछ अस्थिरता जरूर नजर आ रही है मगर इसका भविष्य अत्यंत उज्ज्वल है।
जाते-जाते:
आशा जोगलेकर जी की कविता इस संदर्भ में प्रिय लगी-
कितनों ने यहाँ देखो कितने कलाम लिख्खे
संपादकों के दफ्तर कितने पयाम रख्खें ।
जूते ही घिस गये रे चक्कर लगा लगा कर
फिर देखा प्रकाशक की भी हाजिरी लगा कर ।
कविता की ये किताबें बिकती नही है यारों
शायर की मुफलिसी है दुनिया में आम यारों ।
इसी से तो ब्लॉग पर ही लिखने की हमने ठानी।
.......
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
25 comments:
ab huyi na koi baat.......har insaan mein sahityakar chupa hota hai bas parkhi nazar ki jaroorat hoti hai.....to kabhi na kabhi blog-sahitya ko bhi manyata mil hi jayegi .....aapki koshishein kamyaab hon , yahi dua karte hain.
अगर सबको एक एक नाम सुझाना जरूरी हो तो मैं साहिलॉग नाम सुझाऊँगा !
आपको पढ़कर बड़ी तसल्ली लग गई वरना तो हतोत्साह का चरम आ ही रहा था, समझिये. आभार मित्र.
मैं तो फिर से प्रकाशकों के च्रक्कर काटने वाली थी मगर आब कुछ आशा होने लगी है कि चलो मरने के बाद ही सही ब्लाग मे लिखा कुछ तो साहित्य समझा ही जायेगा आभार और शुभकामनायें
मैं तो फिर से प्रकाशकों के च्रक्कर काटने वाली थी मगर आब कुछ आशा होने लगी है कि चलो मरने के बाद ही सही ब्लाग मे लिखा कुछ तो साहित्य समझा ही जायेगा आभार और शुभकामनायें
वाह, कुछ हो न हो, एक आध पी.एच.डी. ठेल सकते हैं लोग! :)
इस मुद्दे पर मैं भी ये सोच रहा था.. चिट्ठा चर्चा जैसे मंच भविष्य के लिये महत्तवपुर्ण साबित होगें..
अच्छा लिखा..
@समीर जी
समीर और हतोत्साह?? समझ नहीं आया.. आप तो सबके लिये उत्साह लाते है..
आशा देती है आपकी यह पोस्ट .:) लिखते चलो लिखते चलो ..
जो ब्लाग पर है वो ही जीवित रहेगा, पुस्तकों का साहित्य तो किसी अल्मारी में बन्द होने वाला है। कभी-कभी मैं अपनी अल्मारियों को देखती हूँ जो किताबों से भरी हैं, मन में ख्याल आता है कि हमारे जाने के बाद ये सब रद्दी में ही जाने वाली हैं। कम्प्यूटर पर जो भी लिखा गया है वह कम से कम रहने वाला तो है।
नीलिमा चौहान ने वाकायदा सीएसडीएस फैलोशिप के तहत ब्लॉग पर शोध किया है। रिसर्च का एक हिस्सा वाक् पत्रिका में प्रकाशित भी हुआ है। नीलिमा खुद भी ब्लॉग जगत का लिंकित मन नाम के ब्लॉग से इसके विभिन्न पहलुओं पर लिखती आयी है। हां साहित्य वाला मामला कुछ जरुर उत्साहवर्धक है। सचमुच इस पर काम करने की जरुरत हैं।
कुछ भी है, लेकिन बढिया है.
शोध हेतु 'केन्द्रीय ब्लॉगर अनुसंधान संस्थान' में दाखिला लेने के लिये मेरे ब्लॉग पर आईये। वहाँ ब्लॉगरवाल जी से मिलिये। वो आपको आईडिया देंगे।
ब्लॉग पता है - सफेद घर, माउस गली, कीबोर्ड चौक, इन्टेल - 4
:)
अच्छी विचारणीय पोस्ट।
सच मै पुस्तके तो अलमारी मै पडी पडी सड रही है, हमारे बाद शायद बच्चे उन्हे कुडॆ मै ही फ़ेंक दे, लेकिन जो ब्लांग पर आ गया उसे लोग जरुर पढते है यह हुयी बात.
धन्यवाद
... प्रभावशाली लेख, नये नाम की आवश्यता नहीं है, साहित्य अपने आप में प्रभावशाली है चाहे वह पुस्तक, समाचार पत्र, टेलिविजन, फिल्मी पर्दे या प्रभावशाली मंच पर ही क्यों न हो !!!
ब्लॉग साहित्य है या नहीं, इस पर काफी चर्चा हुई। मैं अपना मत यहॉं रखते हुए कहना चाहूँगा कि प्रिंट मीडिया की तरह ही ब्लॉग एक माध्यम भर है अपनी रचनाओं को प्रस्तुत करने के लिए।
आपकी इस बात से एकदम सहमत हूँ ।
बाकी शोध कार्य तो होगा ही इस पर, एक तुलनात्मक नई विधा जो है यह।
मेरे ब्लॉगपर टिप्पणी करने का और मेरी रचना को अपने लेख में स्थान देने का धन्यवाद ।
ब्लॉग को ब्लॉग रहने दो.. कोई नाम ना दो..
बहुत अच्छे विचार प्रस्तुत करती विचारणीय पोस्ट...
regards
छत्तीसगढ मे तो इस पर पुलिस एकाध प्रायोजित कार्य्क्रम भी बना देगी।उसने यंहा अभी हाल मे एक राजनैतिक दल के सम्मेलन की तरह साहित्य सम्मेलन कराया है।उसमे भी पुलिस ने ढो ढो कर साहित्यकार लाये थे्। उनसे तो ब्लाग के लोग एक नही कई गुना अच्छा लिख रहे हैं।उन पर शोध किया जा सकता है।
अरे वाह हमारे ब्लोग के इतिहास बनते ही ब्लाग साहित्य पर शोध करने की योजना बन गई.देखा है ना हम हर जगह नंबर एक पर ही ? क्यो समीर भाई ?
पूर्णतः सहमत हूँ आपसे......मुझे भी ऐसा ही कुछ लगता है.....
सशक्त सार्थक आलेख के लिए आभार.
चलो आशाओ का दौर आ गया है ......ऐसा लगता है आपको पढकर ......यह भी सही है की नेटपर आपको पढा तो जाता है ना........तसल्ली मिली.
Haan, 10-20 PhD to ho hi jaayengi.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
अच्छे सलीके से बात कही गयी है .जिससे पता चलता है की लिखने वाला दोनों से भली भांति परिचित है...हम भी यही कह रहे है .जिन साहित्यकारों को मायूस की पेड़ ओर कम्पूटर की विधा की जानकारी नहीं .वे गरिया रहे है....जो समय के साथ चल रहे है वे धीरे धीरे इसकी ओर मुड रहे है .....जिस तरह जहर महीने निकलने वाली हर सहतियिक पत्रिका में छापा हर लेख अच्छा नहीं होता .....वैसे ही हर ब्लॉग गुणवत्ता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता.....बकोल डॉ अमर कुमार ब्लॉग को आप टूल माने ...अपनी मन की बात कहने का....कुछ लोगो में ये गुण होता है...इस माध्यम का आप उपयोग कैसे करते है ये आप पर निर्भर है.....अब देखिये नेट पर पॉर्न साइट्स भी है .तो उनके चलते नेट को बुरा घोषित नहीं कर सकते ...ब्लॉग दरअसल संवाद का ऐसी चाभी है जिससे आप कही भी कभी भी निसंकोच जा सकते है.....
पर हाँ साहित्य की अपनी गरिमा है ओर अच्छा लिखने वालो को पढ़ पढ़ कर ही हम बड़े हुए है ओर आज तक सीख रहे है..किताबे जीवन का आधार हमेशा रही है ओर रहेगी....उनके योगदान को कोई नहीं नकार सकता ...हिंदी ने ऐसे ऐसे लेखको से ऐसी रचनाये निकलवाई है .जो अमर है......हमें दरअसल दोनों में सामंजस्य बिठाना होगा...एक दो लोगो के कुछ कहने से सारे साहित्य को गरियाना भी ठीक नहीं है....माना की ब्लॉग की एक पोस्ट की उम्र २४ घंटे ही है ...पर
वक़्त दीजिये ब्लॉग को भी देखिये भविष्य उज्जवल है ...... ..
Abhi isi vishay par Surya Kumar pandey ji ki ek vyangya rachna padh rahi thi. Ap bhi padhen is link par-
http://dakbabu.blogspot.com/2009/07/blog-post_15.html
अच्छा लगा यह लेख पढ़कर! चिट्ठाचर्चा के पहले तमाम घटनाओं का संकलन नारद (अक्षरग्राम) की चौपाल पर है। सबसे शुरुआती दिनों के दस्तावेज। उस समय जब टिप्पणी के लिये कट-पेस्ट तकनीक प्रयोग की जाती थी। :)
Post a Comment