चक्की बैंक से दिल्ली के लिए कई गाड़िया गुजरती है। चक्की बैंक के एक ट्रेवल-एजेंट ने सलाह दी कि अगर जम्मू मेल से जाना है तो पठानकोट जाओ क्योंकि वहॉं यह गाड़ी लगभग आधे घंटे रूकती है, जहॉं टी.टी. को सेट करने के लिए काफी समय मिल जाएगा।
पठानकोट में जम्मू मेल पौने सात बजे आती है, इसलिए मैंने सबसे पहले स्टेशन के पास खालसा हिंदू ढाबे में खाना खाया। उसके बाद दिल्ली के लिए 115/- की जेनरल टिकट ली और जम्मू मेल के एसी डब्बों के पास काले-कोटवाले की तलाश करने लगा।
मेरे पास नवंबर की ठंड से बचने और स्लीपर में सोने के लिए पर्याप्त कपड़े नहीं थे, इसलिए मैं चाहता था कि कम-से-कम 3एसी में जगह मिल जाए, मगर 2एसी और 3एसी के लिए आर.ए.सी. वाले पहले से ही टी.टी को घेरकर खड़े थे। मैं समझ गया अब स्लीपर में शरण लेनी पड़ेगी। स्लीपरवाले टी.टी. ने 350/- लेकर पक्की रसीद दी मगर कोई सीट नम्बर नही। उसने कहा कि गाड़ी चलने के एकाध घंटे बाद मिलना।
जम्मू मेल दिल्ली के लिए चल पड़ी। मैं स्लीपर बॉगी के दरवाजे के पास खड़ा था। वहीं एक कबाड़ीवाला गंदा और बदबूदार लबादा ओढे अपने कट्टे के ऊपर बैठा था। मै टी.टी. का इंतजार करने लगा ताकि सीट का पता चले। थोड़ी देर बाद टी.टी. आया और मुझे किनारे ले जाकर बोला
- सर, बड़ी मुश्किल से आर.ए.सी. वाले की सीट निकालकर आपको दे रहा हूँ, आप वहॉं जाकर लेट सकते हैं।
आप इतना रिक्वेस्ट कर रहे थे इसलिए मैंने आपका ध्यान रखा।
मैंने टी.टी. को धन्यवाद देते हुए धीरे से पूछा
- कितने?
- जो आप चाहें।
मैंने 200/- निकाल कर दिए।

200/- जेब में डालते हुए टी.टी. ने कहा कि ये सीट आर.ए.सी को जाना था और एक सवारी मुझे 400/- भी देने के लिए तैयार थी, पर चलिए आप 100/- और दे दीजिए।
इस बीच पास खड़ा कबाड़ीवाला दयनीय-सा चेहरा बनाए टी.टी. की ओर हाथ फैलाए खड़ा था। मैं टी.टी. से बात करने के दौरान सोच रहा था कि ये कबाड़ीवाला टी.टी. से यहॉं भीख कैसे मांग रहा है! वहॉं बल्ब की रौशनी काफी मद्धिम थी। गौर से देखने पर पता चला कि वह कबाड़ीवाला मुड़े-चुड़े 10-20 रूपये टी.टी. को पकड़ाने की कोशिश कर रहा था। टी.टी. की हैसियत पर यह किसी तमाचे से कम नहीं था। उसने कबाड़ीवाले पर थप्पड़ जड़ने शुरू कर दिए। वह बेचारा लड़खड़ाता, गिरता-पड़ता अपना कट्टा लेकर दूसरी तरफ चला गया।
अपनी सीट पर लेटे हुए मैं बॉगी के भीतर 3डी साउण्ड का अहसास कर रहा था- चलती ट्रेन की ताबड़-तोड़ आवाज,, कहीं लड़कियों का शोर-गुल, कहीं नवजात बच्चे का रोना, कहीं किसी बूढ़े की खॉंसी तो किसी का खर्राटा, किसी की पॉलीथीन और उसमें मूँगफली के चटखने की आवाजें। भाषाऍं भी अलग-अलग। मगर कुल मिलाकर यह एक शोर ही था, जिसमे मुझे सोने की कोशिश करनी थी ताकि कल दिल्ली पहुँचकर डाटा अपलोड करने के लिए सर में थकान हावी न रहे।

तभी ध्यान आया कि मैंने ब्रश नहीं की है। मैंने जल्दी से जूते पहने और ब्रश लेकर बाहर वाश बेसिन की तरफ आ गया।
ब्रश करना अभी शुरू ही किया था कि मेरी नजर दरवाजे के पास बैठे शख्स पर गई। वह वही कबाड़ीवाला था जो हाड़ कपॉंती ठंड की इस रात में लबादे में लिपटा कोने में बैठा हुआ था। उसकी दयनीय-सी सूरत पर मेरे लिए क्या भाव था- मैं ये नहीं समझ पाया मगर उसकी मुट्ठी में 10-20 रूपये अभी भी मुड़ी-चुड़ी हालत में फॅसे नजर आ रहे थे......
जितेन्द्र