कॉलेज को अधिकतर लोग इश्क फरमाने की सही जगह मानते हैं। हालॉकि जो कॉलेज नहीं जा पाते, वे ऑफिस और पड़ोस में ही किस्मत आजमाते हैं। इश्क करना कोई गुनाह नहीं है, बशर्ते उसमें बेवफाई ना हो। जब मैं कॉलेज में ‘एडमिट’ हुआ तो पाया, वहॉं इस मर्ज से कई मरीज तड़प रहे थे। कुछ तो घायल अवस्था में यहॉ पहुँचे थे और सही दवा की तलाश कर रहे थे। कुछ को सिर्फ मामूली बुखार था, मगर उन्होंने उसे डेंगू-मलेरिया बताया, डॉक्टर को उनके खुराफात की खबर हो गई, उनकी दवा ने ऐसा रिऐक्ट किया कि उन्होंने तो आगे इस मर्ज के नाम से ही तौबा कर ली। इसके बावजूद कई लोग तो कई बीमारियों को गले लगाए बैठे थे, और कहते थे कि अब तो बीमारी के साथ जीने की आदत-सी पड़ गई है। कुछ खास मरीज ऐसे भी थे, जो कार से आकर यहॉं एडमिट हुए थे, इसलिए उनका तुरंत इलाज हो गया। इन्हें देखा-देखी कुछ गरीबों को भी अमीरों की ये बीमारी लग रही थी। इस बीमारी का खर्चा-पानी गरीबों के बस की बात नहीं थी; उन्हें क्या मालूम था कि गरीब रोगी को समाज का कोढ समझकर मार दिया जाता है। गरीब समाज में माना जाता है कि बीमार को मार दो, बीमारी अपने आप मर जाएगी।
खैर, मैं तो इस मर्ज से काफी घबराता था और मानता था कि precaution is better than cure. लक्षण के आधार पर मर्ज की पहचान को डायग्नोसिस (Diagnosis ) कहा जाता है। उमर की खुमारी में जिन लोगों को ये रोग लग गया था, मैंने उनका डायग्नोसिस 1996 में किया था, और इसकी फाइल आपके सामने (एक लाइन छोड़कर) ज्यों का त्यों रख रहा हूँ-
ऐसी है एक चीज़ जिसपे,
लुट जाते हैं लोग,
जिसकी कोई दवा नहीं,
इश्क है ऐसा रोग।
दर्पण देख-देख मुस्काना
अंधों में है राजा काना
खोने पर तो जी घबराना
पाने पर जी-भर इतराना
जुगत लगाते कटते दिन
व बेचैनी में कटती रात।
धीर,अधीर या हो गंभीर
बनते-बनते बनती बात।
दिन लगती है रात
पतझड़ लगता बहार।
छवि बनाने के चक्कर में
देना पड़ता उपहार।
चूड़ी-कंगन की फरमाइश
सब कुछ लुटने की गुँजाइश
एक-दूजे की है अजमाइश
जीने-मरने की भी ख्वाइश
नेल,शूज और फेस की पॉलिश
कुछ बॉडी-शॉडी की भी मालिश
शेव, फेशियल, फैशन व जीम
कार सफारी हो या क्वालिस।
ड्रेस को हरदम प्रेस किया,
गीफ्ट दे-देके इम्प्रेस किया
ऑंखों ही ऑंखों में
भावों को इक्सपैस किया।
बात फिर भी नहीं बनी,
घरवालों से भी खूब ठनी,
प्रतियोगी भी कम थे नहीं,
जेब से निकली खूब मनी।
दस लोगों के बीच से छँटके
रह गए थे सबसे कटके
खामोशी का आलम होता
सह न पाये इश्क के झटके।
ऑखें सपनो में जो खोई
कब जागी व कब-कब सोई
लाईलाज है मान भी लो जी
इस मर्ज की दवा न कोई।
-जितेन्द्र भगत(1996)
(सभी चित्रों के लिए गूगल का आभार)
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28 comments:
wah janaab, kavita bhi achchi likhte hain
bahut acchi rachana
regards
सच में यह लाइलाज है इश्क .:)अच्छा लिखा है आपने
कॉलेज इश्क पुराण प्रथम अध्याय :-)
खूबसूरत अध्याय
आपकी फोटो से प्रामाणिक भी लगता है
बधाई
antidot की तलाश जारी है ......द्वारा इंडियन मेडिकल असोसिएशन
बेमिसाल इश्कोपनिषद !
aap to ishq ke teacher lagte ho .
बिरादर ,ये तो आप ने सड़क छाप मजनुओं को डिस्क्रायिब किया किसी प्लेटोनिक लव वाले का भी तो वर्णन करें !
बिरादर मेरे को क्या हुक्म है ? मैं कौन सा लगा आपको ? @ मिश्राजी आप ही जवाब देदो !
लाईलाज है मान भी लो जी
इस मर्ज की दवा न कोई ।
bahut badhiya.
जैसे जैसे नीचे गया तो हँसी आती गई। इशक की कोई दवा नही। और अच्छे अच्छे फोटो ने भी मन खुश कर दिया।
भाई जो पक्त्तिया काटी है उस मै कही हमारे भगत जी की चरचा तो नही थी, आप का यह इश्क पुराण, इश्क चालीसा बहुत ही प्यारा लगा.
धन्यवाद
इश्कोध्याय में तो अन्त में सीढ़ियां उतरते लग रहा है। इश्क में सीढ़ियां सिर्फ चढ़ी जाती हैं! :-)
भाटिया जी, वो एक पंक्ति जो इसमें जोड़ी है, वह है-
कार सफारी हो या क्वालिस।
(1996 में कार का ये मॉडल नहीं आया था।)
:)
राज भाटिय़ा said...
भाई जो पक्त्तिया काटी है उस मै कही हमारे भगत जी की चरचा तो नही थी, आप का यह इश्क पुराण, इश्क चालीसा बहुत ही प्यारा लगा.
धन्यवाद
जितेन्द़ भगत said...
भाटिया जी, वो एक पंक्ति जो इसमें जोड़ी है, वह है-
कार सफारी हो या क्वालिस।
(1996 में कार का ये मॉडल नहीं आया था।)
:)
पूरी बात पढकर तो मुझे यही लगा कि यह कविता 1.2 था.. यहां 1.2 वर्सन नंबर है.. :D
चूड़ी-कंगन की फरमाइश
सब कुछ लुटने की गुँजाइश
एक-दूजे की है अजमाइश
जीने-मरने की भी ख्वाइश
" wah kya bata khee hai, jordar artical sach hee kha " ishq bda bedrdee hai, bedrdee ne mushkil kr dee hai ha ha ha ,enjoyed reading it ya"
regards
जितेन्द्र भैय्या मै भी थोडा कन्फ़्यूज़ हूआ था,कालेज मे तो अपन ग्यारह नंबर की बस यानि पैदल गये थे,बाद मे गाडियां बदलती रही,अपने भी बहुत सारे दोस्त बीमार थे,कुछ ्को तो आज तक इन्फ़ेकशन है।सफ़ारी आज ज़रुर है मेरे पास मगर बाकी कोई भी लक्षण नही है,शायद बचपन से ही पोलियो ड्राप टाईप की कोई दवा पी ली थी,इस्लिये आज तक अकेले ही है।कोई नयी दवा मिले तो बताना ज़रुर्।मज़ा आ गया।
जब मैं कॉलेज में ‘एडमिट’ हुआ तो पाया, वहॉं इस मर्ज से कई मरीज तड़प रहे थे।
बहुत बढ़िया लेख और साथ ही अच्छी कविता। बहुत खूब।
आपकी इश्किया फाइल गजब की है।
आहा! चित्र कथाओ का आनंद चित्र कविता में दे डाला.. बहुत खूब जीतू भाई..
अरविन्द जी की बात पर ध्यान दीजिये ,एक दूसरा पहलु भी है उसे भी उभारिये
बहुत खूब...
Acchi lagi kavita aapki. Profile bhi dekha. badhai ho aap to shodh karya se mukt hue, hum abhi usi daur se gujar rahe hain.
प्यार प्लैटॉनिक हो या न हो, प्यार ही रहता है । परन्तु यह फरमाइशों वाला प्यार समझ नहीं आया ।
घुघूती बासूती
सही कहा अरविंद जी ने प्लेटॉनिक न बी हो तो एक बार फ्यार होगया तो और कोई तो नजर ही नही आता चाहे जितने मर्जी गिफ्ट लेकर आये ।
माफ कीजीये पढिये भी और प्यार ।
वाह ! लाजवाब कविता लिखी है.आनंद आ गया.
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