Saturday, 30 August 2008
जो 10 दिन तक चुप रहना चाहते हैं!
अब आप मुझे उन ब्लॉगरों का नाम दें, जिनसे आप 10 दिन की छुट्टी चाहते हैं, मैं उनका नाम विपश्यना केन्द्र में रजीस्टर्ड करवा दूँगा! (मुझे बख्श देंगे, मैं अभी हाल में ही होकर आया हूँ और अभी मैंने लोगों को पकाना शुरु नहीं किया है।)
अब कुछ काम की बात- जो लोग यहॉं जाना चाहते हैं, वे इस रुटीन को ठीक से देख-समझ लें-
THE COURSE TIMETABLE
The following timetable for the course has been designed to maintain the continuity of practice. For best results students are advised to follow it as closely as possible.
4:00 am Morning wake-up bell
4:30-6:30 am Meditate in the hall or in your room
6:30-8:00 am Breakfast break
8:00-9:00 am Group meditation in the hall
9:00-11:00 am Meditate in the hall or in your room according to the teacher's instructions
11:00-12:00 noon Lunch break
12noon-1:00 pm Rest and interviews with the teacher
1:00-2:30 pm Meditate in the hall or in your room
2:30-3:30 pm Group meditation in the hall
3:30-5:00 pm Meditate in the hall or in your own room according to the teacher's instructions
5:00-6:00 pm Tea break
6:00-7:00 pm Group meditation in the hall
7:00-8:15 pm Teacher's Discourse in the hall
8:15-9:00 pm Group meditation in the hall
9:00-9:30 pm Question time in the hall
9:30 pm Retire to your own room--Lights out
इसको पढ़ने के बाद भी किसी की इच्छा-शक्ति प्रबल है तो मैं उनके लिए मैक्लॉडगंज स्थित धम्म शिखर विपश्यना केन्द्र के वेब साइट का लिंक यहॉं दे रहा हूँ , पर ध्यान रहे, बाद में आप मुझे मत कहना कि जीतेन ने कहॉं फँसा दिया यार!
भारत के अन्य विपश्यना शिविर का पता इस लिंक पर देखें।
कुछ लोग सोचते होंगे 10 दिन की जगह दो-चार दिन का शिविर होता तो कितना अच्छा होता! यदि आप पहली बार 10 दिन का शिविर सम्पन्न कर लेते हैं तब अगली बार से आप कभी भी सिर्फ तीन दिन के शिविर में रहकर एक सीनियर साधक की तरह नये साधकों की मदद कर सकते हैं। पर चुप तो तब भी रहना पड़ेगा। एक बात कहना चाहूँगा- इस चुप्पी का संबंध सिर्फ मुँह बंद करने से नहीं है, इसे NOBLE SILENCE कहा जाता है, जिसका मतलब है- silence of body, speech, and mind.
भारत के तमाम राज्यों में विपश्यना केन्द्र है, बौद्ध देशों के अलावा कैलिफोर्निया समेत बड़े-बड़े राज्यों/देशों में भी इसके केन्द्र खुले हुए हैं।(बाकी सूचनाऍं आप गुगल पर सर्च कर सकते हैं।) और हॉं, विपश्यना शिविर में जाने के लिए कम-से-कम एक-दो महिने पहले ही अपने पसंदीदा केन्द्र में अपना नाम-पता रजीस्टर्ड करवाना पड़ता है।
तो देर किस बात की! जाइए और जाकर खुद को रिचार्ज कीजिए। विपश्यना शिविर में जाकर पहली बार 10 दिन का रिचार्ज कूपन लीजिए, फिर अगली बार, तीन दिन के टॉप-अप से ही शिविर में रहने का लाभ ले सकते हैं।
Friday, 29 August 2008
जहॉं मैं 10 दिन तक बिल्कुल चुप रहा !! (अंतिम भाग)

मुझे एकल शयन कक्ष नहीं मिल पाया था। मेरे डॉरमेटरी में लगभग 10-12 विदेशी थे। मोटे परदे से पार्टीशन किया गया था। मुझे याद आया, मेरा रुम पार्टनर इटली का एक छह फुटा नौजवान था। रात 9:30 बजे बत्ती बुझा दी जाती थी (काश, नींद भी स्वीच से नियंत्रित होती!) एक तो नींद जल्दी नहीं आती थी, दूसरा, ठंड जैसे कम्बल को चीरकर हाड़ कंपा देती थी, तीसरा, मेरे बगल की चौकी पर वह इटैलियन प्रोडक्ट रह-रहकर खर्राटे भरने लगता था। उसके पास बैगनुमा रजाई था, जिसके अंदर वह घुसकर जो सोता, तो सुबह ही उठता।(इस बैगनुमा रजाई का नाम भूल गया हूँ, किन्हीं को मालूम हो तो कृप्या बताऍं)।
रात को कई बार लगा कि गला खराब होने वाला है, जुकाम हो सकता है। तब रात में ही एक-दो बार मेस के गेट के पास चला जाता, जहॉं हर्बल-टी का नल-युक्त कंटेनर बाहर ही रखा होता था। इस विशेष प्रकार की हर्बल-टी में गजब का स्वाद था। इलाइची, काली मिर्च

मेस में सिर्फ एक बार (11बजे) खाना और सुबह-शाम दो बार नाश्ता मिलता था। बाद के दिनों में यही खाना हमें पर्याप्त लगने लगा था। विदेशियों के साथ खाना खाने का अनुभव भी बड़ा रोचक रहा। इज्रायली युवक जोसफ संतरे के छिलके को तो उतार देता था, पर गुद्दे को बीज-समेत ही खा जाता था।
पहले दिन, जब नाम पता दर्ज किया जा रहा था, तब वह साधु मेरे पास आकर मुझसे बातें करने लगा। वह हरिद्वार से आया था और उसे इस बात का गर्व था। जब मैने बताया कि मैं दिल्ली से आया हूँ तब उसकी बात सुनकर मैं दंग रह गया। उसने कहा कि दिल्ली के सभी लोग शातिर हैं और वह मेरी ऑंख देखकर बता सकता है कि मैं कितना शातिर हूँ। मैने कहा- इस साधना से शायद मेरे भीतर का शातिरपना मर जाए, पर आप यहॉं किस लिए आए हैं?

खैर, साधना के अभ्यास से एक शक्ति हासिल होने लगी थी। एक ही आसन में बैठे रहने पर पॉव सुन्न होने लगते थे, पर धीरे-धीरे उस सुन्न स्थान तक चेतस मन को सहजतापूर्वक संचरित करने पर दर्द गायब होने लगता था। यह एक अलौकिक अहसास था! यह अहसास होने लगा कि महात्मा बुद्ध या अन्य मुनिजनों ने एक ही अवस्था में तप करने के लिए इन सूत्रों को अभ्यास से ही अर्जित किया होगा! मैने तय किया कि बोधगया स्थित बोधि वृक्ष के पास जाकर देखुंगा कि साधना के एकांत में कितना आकर्षण है!
शिविर से बाहर जाते हुए मन में एक अजीब-सी बेचैनी हो रही थी। पंछियों के जो कलरव मैंने यहॉं सुने थे,

नीचे उतरते ही मैक्लॉडगंज का बाजार नजर आया। इतने दिनों बाद बाजार में खड़ा होना भी सुखद लग रहा था। थोड़ा आगे बढ़ा तो 100-150 विदेशियों की लंबी कतार देखकर हैरान हो गया। पता चला, दलाई लामा आए हुए हैं और लोग उनसे हाथ मिलाकर उनसे पवित्र धागा बंधवा रहे हैं। मुझे कोई जल्दी नहीं थी, इसलिए मैं भी कतार में खड़ा हो गया। मैं जब नजदीक पहुँचा, तो देखने में वे आम बौद्ध भिक्षु ही लगे, जो तिब्बतियों की आजादी के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं।

दिल्ली आने के बाद एक-दो महिने तक मैं इस साधना का नियमित अभ्यास करता रहा। क्रोध पर काबू पाने में इससे काफी सहायता मिली, पर बाद में महानगर ने अपने तेवर दिखाए और मैं सबकुछ भूल-भाल गया। न जाने क्यों, ब्लॉग में आप सबसे ये बातें शेयर करते हुए वहॉं जाने की चाहत, मेरे मन में एक बार फिर उमड़ने लगी है। अब गुस्सा भी काफी आता है, सोचता हूँ समता में रहने का अभ्यास कर ही आऊँ! बैटरी कुछ महिने तो रिचार्ज रहेगी।
(इसकी पिछली कड़ी भाग 1 , भाग 2 और भाग 3 में पढ़ सकते हैं।)
Thursday, 28 August 2008
जहॉं मैं 10 दिन तक बिल्कुल चुप रहा !! (भाग 3)

बंदरों का हुजूम अचानक उमड़ पड़ा था, चार दिन की चुप्पी में एक ब्रेक मुस्कान बनकर आया था। विपश्यना शिविर में मौन व्रत के कठिन नियम थे, यहॉं हाथ मिलाना तो दूर की बात थी, ऑंखों-ऑंखों में इशारे से बात करने की भी मनाही थी। ऐसा नहीं कि ये सब देखने के लिए हमारे पीछे कोई इंस्पेक्टर लगा था! ये हमारा चुनाव था, पर हम इसे दिल से नहीं, दिमाग से निभा रहे थे। ये सच्चाई थी। दिल कहता था, आपस में हम बात करें कि यहॉं के सिस्टम में क्या-क्या खराबी है, पानी नहीं आता, खाने में आईटम कम क्यों है, प्रश्नकाल में टीचर जी बोलने का थोड़ा ही अवसर क्यों देते हैं, लड़कियों के लिए अलग से साधना-कक्ष क्यों नहीं है, जबकि मेस में दोनो के डायनिंग टेबल के बीच परदा लगाया गया है। जवाब तो हमें मालूम ही था, पर जैसे भौतिक जगत में हम सभी को बोलने-बड़बड़ाने के लिए कुछ चाहिए, ताकि हम अपने विचारों के कम्बल से दूसरों की सॉंसे उखाड़ सकें, वैसे ही यहॉं भी लोगों का मन कुछ भी बोलने को कुलबुलाता रहता था।
ऐसे हालात में, जब बिना बोले मुँह में थकान-सी महसूस हो रही थी, अचानक बंदर देवदूत-से प्रकट हुए, और इस बार सभी साधकों का मुँह खुला, पर खाने के लिए नहीं, मुस्कुराने के लिए। दबी जुबान से कहना तो आप सबने देखा-सुना होगा, पर मास स्केल पर दबी जुबान से मुस्कुराना मैंने यहीं देखा था! बंदरो की धमाचौकड़ी भी जबरदस्त थी कि खिलखिलाकर हँसने का जी चाहे, पर हमने शिविर की लाज रख ली।
देर तक जगते हुए सुबह चार बजे तो कई बार सोया हूँ, लेकिन जल्दी सोकर सुबह चार बजे उठना शायद ही याद हो! विपश्यना शिविर में मुझ जैसे निशाचर के लिए लगातार 10 दिन, इतनी सुबह-सुबह उठना एक सदमे के समान था।(वैसे भी, दिल्ली में 10-11 बजे से पहले सो जाने वाले लोगों को बीमार समझा जाता है।) तो, शिविर में चार बजे की मादक सुबह में ही घंटा बज उठता था। दस मिनट बाद फिर घंटा बजता था, और तब भी कोई न उठे तो एक सीनियर साधक मूक रहकर स्पर्श से उठाने का प्रयत्न करता था। बोझिल ऑंखों से हम साधना कक्ष में जा बैठते, ऑंखे बंदकर साधना के नाम पर बैठकर नींद निकालते। लगभग सभी साधक दो-चार तकिए लगाकर कम्बल ओढ़कर बैठे होते थे। एक-दो साधकों को ज्यादा ठंड लगती थी, इसलिए वे दो-तीन कम्बल लगा लेते थे। पर साधु तो टीपिकल इंडियन साधु था, बढ़ी हुई दाढ़ी, गेरुआ वस्त्र, तिलक छापा के साथ चेहरे पर एक दुर्वासाई अकड़- जैसे निगाहें टेढ़ी क्या की, सामनेवाला जलकर भस्म! ( शुक्र है डंडा वगैरह हथियार पहले ही जमा करा लिए गए थे।)
तो, ठंड के उन दिनों में साधु वैदिक परंपरा के साधकों का तपोबल दिखाने के लिए बगैर कम्बल लिए बैठता था। विदेशी साधकों के लिए यह उतना ही बड़ा कौतुक था, जैसे बंदरों का उत्पात्। कैमरा होता तो वे इसे रील में कैदकर ले जाते! मजे की बात तो ये थी कि क्लास मे जैसे छोटे बच्चे आगे बैठने के लिए ललकते हैं, वैसे ही यह टीचर जी के सामने आसन लगाकर जा बैठता था। तीसरे दिन लोग यह देखकर मन ही मन मुस्कुरा रहे थे कि साधु ने कम्बल लाना शुरु कर दिया है।

सातवें दिन स्पेनी लड़के चावी को जुकाम हो गया और साधना कक्ष में वह बेचारा, साधु के पीछे बैठने की भूल कर बैठा। जब-जब चावी नाक सुड़ुक रहा था, उसकी आवाज़ से साधू का ध्यान भंग हो रहा था। आपको पता ही है, विश्वामित्र का ध्यान मेनका ने भंग किया था, उससे विश्वा भाई का तो भला हो गया, पर बाकियों को तो चावी जैसे लोग ही मिले। साधु गर्दन घुमा-घुमाकर अपनी हुँकार से अपना गुस्सा जाहिर करने लगा, बोलने की छूट होती तो शापवश चावी बेचारा तक्षण् स्पेन के पाताल में जा समाता! उसकी ऑंखों से क्रोध टपकने लगा था और साथ बैठे सभी साधक साधु की इस हरकत को नोटिस कर रहे थे। साधना अब अपने समापन दिवस तक पहुँच रही थी, पर साधु होते हुए भी वह अपने क्रोध का दमन न कर सका, शमन तो दूर की बात है। हम उसके बारे में आपस में बात करने को व्याकुल थे, यानी हम सभी के मन से भी द्वेष, निंदा आदि भाव दूर नहीं हो पाया था।......
जारी....... (इसपर चौथा पोस्ट इसका अंतिम अध्याय होगा।)
(विपश्यना शिविर तक पहुँचने का वृतांत भाग 1 में पढ़ें और शिविर में साधना और साधकों के साथ के कुछ अनुभव भाग 2 में पढ़ें।)
Wednesday, 27 August 2008
जहॉं मैं 10 दिन तक बिल्कुल चुप रहा !! (भाग 2)

नाम पता दर्ज कराते वक्त आपस में बात करने की मनाही नहीं थी, तभी मुझे ये मालूम हुआ कि इस शिविर में इंग्लैंड से चार युवक, इज़्राइल से सात, स्पेन से एक, अमेरिका से तीन, जर्मनी से दो लोग साधना के लिए आए थे और तीन-चार ऐसे थे जिनके बारे में मुझे याद नहीं कि वे कहॉं से थे। हैरत की बात ये थी कि यहॉं सभी युवा-उम्र के लोग थे। लगभग इतनी ही विदेशी लड़कियॉं थीं जो अपने पुरुष मित्रों के साथ भारत घूमने आई थी। न जाने ये साथी-संगी विपश्यना की तरफ भटकते हुए कैसे आ गए! जल्दी ही मेरी दोस्ती स्पेन के उस युवक से हो गई, जिससे बाद तक ई-मेल के जरिए संपर्क बना रहा। उसने जो अपना नाम बताया, वह स्पष्ट नहीं था, तब उसने अंग्रेजी शब्द key का हिन्दी में रुपांतरण करने को कहा। उसका नाम चावी था। एक इज़्राइली लड़का भी था, नाम ध्यान नहीं, उससे भी दोस्ती हो गई थी (संदर्भ के लिए उसका नाम जोसफ रख रहा हूँ)। भारतीयों में मेरे अलावा एक साधु और एक एम.बी.ए. युवक ही था।
मैं सोचता था मेरे पापा न जाने किस आध्यात्मिक गुरू के लपेटे में आ गए हैं! जैसा कि सबलोगों को मालूम है, सभी आध्यात्मिक बाबाओं का एक-एक बाजार है जहॉं भक्ति का व्यापार है। ये पौराणिक कथाओं को रोचक और नाटकीय ढंग से सुना-सुनाकर आम के साथ खास लोगों को भी अपने पीछे मस्ताना बनाए रहते हैं और राशि, अंगूठी,यज्ञ,अनुष्ठान जैसी वायवीय चीज़ों में उलझाकर जीवन की उलझनों को सुलझाने का दावा करते हैं। मैंने सोचा विपश्यना के आध्यात्मिक गुरू एस.एन.गोयन्का भी इसी तरह का चक्कर चला रहे होंगे, लेकिन तमाम प्रवचन सुनने के बाद इसी निष्कर्ष पर पहुँचा कि यहॉं किसी धर्म की वकालत नहीं की गई है, मात्र अपने भीतर तल्लीन होकर झॉंकने का अभ्यास कराया गया है। यहॉं बताया गया कि क्रोध जैसी तामसिक प्रवृत्तियों के कारण तन में जो-जो और जहाँ-जहाँ मेटाबोलिक बदलाव आता है, उस बदलाव का अपने भीतर पीछा करो, उसे देखो, महसूस करो, इससे उनका शमन हो जाएगा। बलपूर्वक किसी विकार को दबाया तो जा सकता है, पर वह रह-रहकर सामने आता ही रहेगा। इस लिए यहॉ दमन की नहीं,शमन की बात की जाती है। इस तरह राग-द्वेष के विकारों को जड़ से नष्ट किया जा सकता है।
पहाड़ो पर पानी को एकत्रित करना काफी मुश्किल काम होता है। हमारा शिविर सर्वाधिक ऊँचाई पर स्थित था। ऊपर के टैंक में मोटर द्वारा नीचे से पानी खींचकर इकट्ठा किया जाता था, जो पर्याप्त नहीं था। इसलिए सुबह-सुबह कुछ साधक पेट साफ करने की जल्दी में रहते थे ताकि पानी खत्म न हो जाए। वैसे अधिकांश विदेशी साधकों का काम टीसू पेपर से चल जाता था। आपको बताऊँ मैं, कुछ विलक्षण साधकों को बिस्तर छोड़कर सीधे साधना-कक्ष की ओर जाते हुए देखा गया था।

जारी...........
(मैक्लॉडगंज,धर्मशाला के विपश्यना शिविर तक पहुँचने का वृतांत पहले भाग में देखें।)
Sunday, 24 August 2008
जहॉं मैं 10 दिन तक बिल्कुल चुप रहा !! (भाग १)
सन् 2002 की बात है। तब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के एक हॉस्टल में रहता था। मेरे पापा पिछले दो-तीन सालों से बौद्ध धर्म की चपेट में थे। वे तब रिटायर नहीं हुए थे,(वे आज भी अपने-आप को रिटायर नहीं मानते हैं, उनके अनुसार आदमी एक ही बार रिटायर होता है, जब वह मृत्यु-शय्या पर होता है।) अपने सहयोगियों, सगे-संबंधियों के बीच वे यही कहते देखे जा रहे थे कि- समता में रहो / क्रोध का शमन करो, दमन मत करो / यह तभी संभव है जब काया की अंतर्यात्रा करते हुए प्रतिक्रिया को महसूस किया जाए, उसे अंतर्मन की ऑंखों से सप्रयास देखा जाए। कोई अजनबी भी टकरा जाए तो वे उसे प्रवचन देने से नहीं चुकते थे। उनकी तमाम खूबियों के बावजूद हम सभी उनकी इस आदत से खासे परेशान थे।
उन दिनों मैंने पापा को एस.टी.डी. कॉल करना लगभग बंद कर दिया था। फोन पर वो मुझे बौद्ध धर्म की एक चर्चित साधना पद्धति विपश्यना के 10 दिनों की शिविर के लिए लगातार प्रेरित कर रहे थे। तंग आकर मैंने विपश्यना की कठिन साधना के लिए अपने आप को तैयार कर लिया, क्योंकि पापा को लग रहा था कि मैं बे-कहल (जो किसी की नहीं सुनता) होता जा रहा हूँ। मैं एक कॉलेज में पढ़ा रहा था और स्थायी नौकरी की चिन्ता में अशांत भी था। मार्च में कॉलेज का सेशन समाप्त होते ही अंतत: मैने तय किया कि शिविर के लिए कोई पहाड़ी विपश्यना केन्द्र का चुनाव करुं। मैने हिमाचल प्रदेश जाने का निश्चय किया। संतोष की बात ये थी कि हिमाचल में मार-काट, लूट-पाट की घटना सुनने में नहीं आई है (चाहे हॉटलवाले, घोड़ेवाले, टैक्सीवाले पर्यटकों को जितना मर्जी लूटते हों)। तो इस तरह, घूमने का घूमना हो जाएगा और साधना की साधना भी हो जाएगी। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में धर्मशाला के निकट मैकलॉडगंज में विपश्यना का एक केन्द्र है, जिसे ‘धम्म शिखर’ के नाम से जाना जाता है।

दिल्ली से पठानकोट पहुँचकर सबसे पहले मैंने एक ढ़ाबे में नास्ता किया। यहॉं से धर्मशाला तक छोटी लाइन की ट्रेन चलती है। चार महिने पहले ही मैं कालका से शिमला गया था, और मेरा निष्कर्ष था कि छोटी लाइन पर चलनेवाली टॉय ट्रेन से यात्रा नहीं की तो क्या किया। मेरी सलाह है कि शिमला जाते हुए या आते हुए टॉय ट्रेन से सफर जरुर करें, वर्ना शिमला घूमने का विचार हमेशा के लिए त्याग दें! सीधी सी बात है, हौले-हौले हिचकोले खाते हुए पहाड़ घूमने का सुख शिमला के माल रोड पर खड़े होकर नहीं मिल सकता। अब अगली बार के लिए सोचा है कि शिमला उतरे बिना टॉय ट्रेन से ही वापस लौट आऊंगा। आप इस बात से इसकी इंतहां का अंदाज़ा लगा सकते हैं कि टॉय ट्रेन से सफर करने की मेरी चाहत कितनी है!
माफ करें ,रास्ते के साथ-साथ मैं मुद्दे से भी भटक गया था। तो, वो कालका- शिमला रूट की टॉय ट्रेन का ही खुमार था कि मैने पठानकोट से कांगड़ा (94 कि.मी.) के लिए सुबह करीब 10 बजे छोटी लाइन की ट्रेन पकड़ी। एक घंटा बीता, फिर दो घंटे, फिर तीन घंटे- मैं इस बात से मायूस हो गया कि पहाड़ दूर-दूर तक कहीं नज़र ही नहीं आ रहे थे। यह टॉय ट्रेन समतल धरती से चलकर समतल धरती पर ही खत्म हो गई। कुल 6 घंटे के बाद कांगड़ा पहुँचा और वहॉं से धर्मशाला(17 कि.मी.) के लिए बस पकड़ी। शाम तक जब धर्मशाला पहुँचा तब जाकर पहाड़ों की श्रेणियॉं नजर आईं। मैंने रात गुजारने के लिए एक सस्ता-सा कमरा लिया और उसके बाद धर्मशाला की सड़कों पर घूमने लगा।

मुझे मालूम था कि अगले दस दिन तक मौन साधना करनी है, लोगों के साथ रहना है, पर कहना कुछ नहीं है। सुना था कि शिविर में 11 बजे एक ही बार भरपेट खाना मिलता है और शाम को बस चाय! डिनर-विनर कुछ नहीं! मैने सोचा आज यहॉं किसी ढाबे में दबाकर खा लूँ, कहीं भूख से मेरी साधना न भंग हो जाए। पर मैं ऊँट तो था नहीं कि एक ही बार पानी पीकर साल भर गुजारा कर लूँ।
अगले दिन लोकल बस पकड़कर ‘अपर धर्मशाला’ यानी मैकलॉडगंज पहुँचा। बस स्टैंड के पास एक छोटी मार्केट थी, अपनी आज की आजादी का लाभ उठाने के लिए मैंने वहॉं चाय पी (जबकि दिल्ली में मैं चाय की तरफ देखता भी नहीं)। अगले दस दिनों तक शिविर की बाउंडरी से बाहर निकलना नामुमकिन था, मार्केट तक पहुँचना तो दूर की बात है। जो ऐसा करते थे, उन्हें आजीवन इस साधना के लिए अयोग्य घोषित कर किसी भी विपश्यना शिविर में उनका जाना प्रतिबंधित कर दिया जाता था।

तो मार्केट से निकलकर मैं शिविर के लिए पहाड़ चढ़ने लगा। वह रास्ता निर्जन और सुनसान था, लेकिन बंदरों से भरा पड़ा था। घने पेड़ों के बीच उबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए किसी तरह ऊपर पहुँचा। शिविर में जाकर अपना नाम पता दर्ज कराया। उन्होंने मेरा सामान इस तरह रख लिया जैसे जेलर कैदी का सामान रिहाई तक रखते हैं। वहॉं मेरे अलावा एक और भारतीय था, और एक साधु था (टीपिकल भारतीय तो वही था) और बाकी विदेशी युवक और युवती थे जो इस शिविर में साधना का मन बनाकर आए थे।.......
(वक्त की कमी है, अगली पोस्ट में लिखूंगा कि उस साधु ने वहॉं क्या गुल खिलाये और सर्दी की इतनी मुश्किल रातें मैंने कैसे काटी, 10 दिनों तक कम खाने के साथ कैसे गुजारा किया, आज के बातूनी लोगों ने बिना बोले 10 दिन वहॉं कैसे काटे।)
Thursday, 21 August 2008
आओ भक्तजनों ! भगवान को बेचकर खाऍं !
खाली जेब लिए हाथ में माला।
भूखे भजन न होए गोपाला।
वैसे भी, मंदिर वगैरह को मैं शांति-स्थल नहीं मानता, क्योंकि धार्मिक स्थलों को प्रभु-दर्शन के लिए मैने युद्ध-स्थल बनते देखा है, भक्तों को गाली-गलौज करते देखा है। भगदड़ में लोगों को मरते देखा है। पंडित-पुजारियों को दान-पेटी से अपना पेट भरते देखा है। भक्त की शक्ल में छिपे उन भेड़ियों को देखा है जो भीड़ के बहाने स्त्री-देह कुचलते हैं, चप्पल-जूते चुराकर बेचते हैं, जेबतराशी का काम करते हैं। कहीं सुना है, जहॉं विश्वास होता है, वहीं विष का वास होता है और वहीं विश्वासघात होता है। इस तरह मंदिर के सामने सारे पाप होते देखे हैं। गरीब और भीखमंगे सचमुच बेचारे होते हैं, यानी जिनके पास खाने को चारा तक नहीं होता। वे बोरा-चट्टी पर लाइन में बैठे होते हैं और अमीर अपनी कार से एक पैर बाहर निकालकर गाय, बकरी, बंदर ढ़ूंढ रहे होते हैं। भूखे-नंगों की जमात इन जानवरों को हलवा-पूरी, केले आदि खाते देखकर यही सोचती होगी कि हमारा चारा तो कोई जानवर चर गया !
मंदिर अब भीड़ की पूंजी को भुनाने के एक सफल व्यवसाय के रुप में उभर रहे हैं। आपने देखा होगा, पंडित तभी तिलक लगाने की जहमत उठाएंगे जब दानपेटी की तरफ आपके हाथ उठेंगे। (जम्मू-कश्मीर में स्थित) अमरनाथ में न पिघलनेवाली नकली शिवलिंग लगाना आस्था का नहीं, आयोजन का प्रतीक है, जहॉं चढ़ावे के लिए भव्य मंच तैयार किया जाता है। सुना है, अमरनाथ के तर्ज पर चेन्नई में एक नकली गुफा उन लोगों के लिए तैयार की गई है, जो लंबी यात्रा से घबराते हैं, और घर बैठे अपने शहर में ही भोले भंडारी को देखना चाहते हैं। ये भाव विह्वल भक्त इस प्रकार ट्रस्ट का भंडार भरते हैं। वाह रे भोले के भक्तों ! भरते रहो इनका भंडार। इन डुप्लीकेट मंदिरों का धंधा वैसे ही चमक रिया है जैसे हीरो के डुप्लीकेट, हीरो के नाम पर चमक रहे हैं। लोग भी खुशी से दान-दक्षिणा करते हैं। किसी व्यवसायी ने साई बाबा मंदिर के लिए एक अरब रूपये दान कर दिए। वैसे ज्यादातर लोग एक-दूसरे को लूटने-खसूटने के बाद भगवान को रिश्वत दे आते हैं- ताकि स्वर्ग में उनकी एक सीट बुक हो जाए।
मेरे दोस्त मुझसे कहते हैं- भगत होकर ऐसे नास्तिक विचार! क्या गजनी और गौरी की परंपरा पाई है ? अपने नाम का तो ख्याल किया होता ! मैं सोचता हूँ नाम यदि सार्थक हुआ करते तब ‘अमर’ नाम का व्यक्ति कभी नहीं मरता, ‘सूरज’ नाम का व्यक्ति कभी अंधेरे में जीने के लिए मजबूर नहीं होता। खैर, नाम पर कभी अगली पत्री में लिखूंगा। मेरी पत्नी मुझे मंदिर साथ चलने के लिए कहती है तब मैं खौफजदा हो जाता हूँ। वह मुझे घोर नास्तिक मानने लगी है। वह भगवद् भक्ति में मंदिर जाती है, मैं पत्नी भक्ति में। समझ नहीं आता क्या करुं! हे भगवान ! या तो ऐसे लोगों को सद् बुद्धि दो या मेरी बुद्धि भ्रष्ट कर दो!
हैरत होती है लोगों की आस्था से। पर कहते हैं न, किसी की आस्था से नहीं खेलना चाहिए, ये बड़ी मारक होती है, हाय लग जाती है। अगर भगवान मंदिर में बसते हों तो खुदा खैर करे, भक्तों को मंदिरवाले भगवान से दूर करने का पाप मैं अपने सर नहीं लेना चाहता !
(अगली पोस्ट में बताउंगा कि शांति की तलाश में पिछला एक हफ्ता मैं कहॉं रहा! )
Wednesday, 13 August 2008
मैं कोई ब्लॉगर नहीं, एक मामूली फेरीवाला हूँ !
मैं अपना माल छोड़कर थोड़ी देर इधर-उधर भटकने लगा। मैने देखा- यहॉं तो मेला लगा है, कोई कुछ बेच रहा है तो कोई कुछ ! एक फेरी वाले के पास गया तो देखा- उसके पास एक रजीस्टर है, जिसमें उन लोगों के नाम हैं जो यहॉं पधारे थे। गौर से देखने पर पता चला कि कि ये खरीददार खुद कहीं फेरी लगाने बैठते हैं।
मैं भी अपने ठेले पर एक रजीस्टर रखने लगा। जब रजीस्टर खोला, तब वहॉ सबसे पहले एक उड़न तश्तरी उतरी। एक घंटे के अंदर कुछ और लोग मेरा माल देख गए। उनमें से कुछ ऐसे आए जिन्होंने मेरे माल की तारीफ की और जाते-जाते कुछ टीप भी दे गए। कुछ ऐसे भी आए जो अपनी फेरी पर मुझे भी आने का संकेत दे गए। अच्छा, कुछ तो ऐसे थे जो गंभीर मुद्रा मे प्रवचन सुना गए। मालवाहक (एग्रीग्रेटर) से पता चला कुछ अनजान लोग भी आए थे, जिन्होंने सिर्फ माल चखा, ये जानने के लिए कि कहीं इसका माल मेरे माल से ज्यादा अच्छा तो नहीं है!
उन फेरीवालों के बीच कुछ झक्कास शो-रुम भी खुले हुए थे, जो मंदिर के समान भव्य दिखते थे। कई फेरीवाले भी वहॉ जाते थे और सम्मान में दरबान को टिप देना नहीं भूलते थे। अब तो वहॉं का दरबान भी उन्हें शान से सलामी ठोकता था। लोगों से सुना था- वहॉं विशुद्ध माल पाया जाता है। पता नहीं एग्रीगेटर के लोकतंत्र में इन्हें शो-रुम खोलने की क्या जरुरत पड़ी, जबकि इनका माल तो हर जगह, मसलन- मीडिया बाजार, अखबार, पत्रिका आदि में धड़ल्ले से बिक जाती थी। पर इसका ये फायदा हुआ कि शो-रुम खुलने से फेरीवालों की बिक्री के साथ-साथ कुछ इज्जत भी बढ़ गई।
मैं वहॉ से आगे बढ़ा ही था कि कहीं से चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें आईं। मैं कौतुहलवश उधर चला गया! क्या देखता हूँ कि एक फेरीवाला दूसरे पर आरोप लगा रहा था कि उसने उसके माल का मजाक बनाया, इस बीच शोर सुनकर कई ग्राहक इकट्ठे हो गए और उसका माल ये जानने के लिए खरीदने लगे कि झगड़े की जड़ में क्या रखा है, पर खोदा पहाड़ तो पाया चुहिया! बाद में लड़नेवाले दोनों फेरीवाले अपनी कमाई पर एक दूसरे का पीठ थपथपाते देखे गए। इन सब के बीच एक फेरीवाला रह-रहकर एक सकून भरा गीत सुनाता था- जैसे कह रहा हो- भाड़ में जाए दुनिया, हम बजाए हरमुनिया!
वहॉं घूमते हुए मुझे पता चला कि नामी गिरामी फेरीवालों का एक तगड़ा एशोसियेशन था, जिनसे वो ब्लॉग के बाज़ार में बड़ा शॉपिंग मॉल तैयार कर रहे थे। ये गजब के थोक-विक्रेता थे, जहॉं ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों का मजमा जुटता था। बाहर खड़ा एक फेरीवाला इसे खिन्न नजरों से देख रहा था! शायद वह इस दुनिया से तंग आ चुका था, इतना कि आत्महत्या का विचार रह-रहकर उसके मन में आ जाता था। कहता था यार कैसा जमाना आ गया है, अंबानी जैसे लोगों ने पहले तेल बेचना शुरु किया, फिर मोबाइल के जरिए आवाज बेचने लगे,और अब देखो, हर नुक्कड़ पर बैठकर बासी सब्जियॉं बेच रहे हैं और नाम रखा है- फ्रैश! और तो और, बॉलीवुड के तारे भी जमीन पर उतर आए हैं और चुपके से फेरी लगाकर हमारे ग्राहकों पर सेंधमारी कर रहे हैं। ऊँची दुकान की फीकी पकवान खा-खाकर भी लोग नहीं अघा रहे हैं।
खैर, हर फेरीवाले की तरह मैं भी सोचने लगा था कि यहॉं मेरा भी एक शो-रुम होगा, पर अभी जहॉं बैठा हूँ, वहॉं मक्खियॉं भिनभिना रही हैं, और ताजा माल रखे-रखे खराब हो रहा है। सोचता हूँ कोई फेरीवाला भूला-भटका आए तो उसे ही बॉंट (बॉंच) दूँ! अपना माल बेचने के लिए आवाज तो लगानी ही पड़ेगी-
अरे बिरादर! कहॉं चल दिए? तुम तो मेरा माल देखते जाओ!ठीक है-ठीक है, मैं भी तुम्हारे ठेले से आकर कुछ खरीद लूंगा, ............चलो भाई, अपने-अपने काम पर लग जाओ, धंधे का टैम है!
Monday, 11 August 2008
बाप होने पर शर्म कैसी !
ये वो बातें हैं जो हमें सुनाई या दिखाई देती हैं। पर मैं बताना चाहता हूँ, कुछ लोग, या कह लें कुछ पिता ऐसे भी हैं जो ये सब करने में कोई शर्म महसूस नहीं करते, यह उनकी दिनचर्या में समय की सहूलियत के साथ कुछ इस तरह शामिल है कि कुछ काम पति करे, कुछ पत्नी! ऐसे लोगों को कई तरह से देखा जाता है, तथाकथित मर्द कहते हैं कि ये तो बीवी के गुलाम हैं, मैने तो इन्हें किचन में खाना बनाते, पॉंव दबाते और यहॉं तक कि झाड़ू-पोछा करते हुए देखा है। तथाकथित औरतें बाहर से कहती हैं कि इसका पति तो दब्बू है, कुछ बोल नहीं पाता, पर अंदर से ये औरतें ये जानने के लिए लालायित रहती हैं कि फलना की बीवी ने फलना को कैसे काबू किया, यानी, बिलार के गले में घंटा कैसे बांधा !
मैं उन लोगों का सम्मान करता हूँ जो ऐसे पिता हैं जो अपने नवजात शिशुओं/बच्चों को कवि सूरदास की निगाह से, कौतुहल भाव से, रोमांच से, आनंद से देखते हैं और अपने भीतर छिपे ममत्व को महसूस करते हैं। न केवल महसूस करते है, बल्कि जाहिर भी करते हैं। इस तरह एक सोशल पिता की छवि बनती या उभरती है। मेरी नजर में यह एक ऐसे समाज के निर्माण की भूमिका है, जहॉं न पितृसत्ता होगी न मातृसत्ता होगी (वैसे मातृसत्ता किसी भी काल में कभी भी नहीं रही)। मेरा एक दोस्त है जो अपने बच्चे के खाने-पीने, हंसने-रोने, सोने का इतना ख्याल रखता है कि उसकी पत्नी को लगने लगा है कि वह (पत्नी) इस बच्चे की सौतेली माँ है। वह सोचती है कि एक पिता को पिता की हैसियत से ही रहना चाहिए। तो कहीं-कहीं ये हस्तक्षेप दखलंदाजी के रुप में दाखिल होता दिखता है।
मुझे लगता है कि पति-पत्नी के बीच जिम्मेदारियों का सही संयोजन न होने पर ही ये मतभेद उभरते हैं। अपनी पत्नी के साथ इस तरह के सहयोग के लिए आप किस हद तक सहमत हैं?
Saturday, 9 August 2008
मेरे अंदर का रचनाकार - भ्रूण हत्यारों का शिकार !
पर जैसे नये हीरो को अपने गॉड फादर और अपनी डेव्यू फिल्म से काफी उम्मीदें होती है, (चाहे फिल्म सी-ग्रेड की ही क्यों न हो) वैसी ही मुझे भी रही, पर यहॉं मैं ही गॉड था, मैं ही फादर! अगर मैंने कुछ थर्ड क्लास लिखा था, तो मुझे यह भी उम्मीद थी कि यही बताने वाला कोई आता और टिपटिपाता!
चार-पॉंच दिन तो मैं इंतजार करता रहा, और अगले दिन मायूस होकर एक बंधुवर के सामने ये दुखड़ा रोया। मैने कहा- मेरे अंदर का रचनाकार भ्रूण हत्यारों का शिकार होने वाला है ! मैं इस जहान में पहचान बनाए बिना मरने वाला हूँ, स्वर्गवासी दादा जी मुझे कोसेंगे कि खानदान का नाम पू-रए मिट्टी में नहीं मिलाया, तो भी कौन-सा झंडा गाड़ दिया!
बंधुवर ने पूछा- ब्लॉगवाणी,चिट्ठाजगत में पोस्ट भेजी ? मैने कहा,नहीं, ये क्या बला है?
उसने बताया कि यहॉं सभी ब्लागर्स के तत्काल छपे लेखों का एक साथ पूरी दुनिया में प्रकाशन होता है, टिप्पणी भी वहीं बंटती हैं। मैने पूछा, ‘बँटती है’ का क्या मतलब ?
उसने कहा- धीरे-धीरे समझ में आएगा, अभी बस पोस्ट भेजते रहो।
अगले दिन मैने दिन में चार बार फिर कम्प्यूटर ऑन किया, मोबाइल से फिर इंटरनेट डायल-अप किया। इस बार भी न बिजली बिल की सोची, न इंटरनेट बिल की! काम बन गया। धीरे-धीरे अब एग्रीगेटर पर मैं सबकी पोस्ट पर निगाह रखने लगा। मैंने पाया कुछ ऐसे ब्लॉगर भी थे जिन्होने एक काला नकाब पहन रखा था। मैने पूछा- भई अपनी पहचान छिपाकर माल क्यों बेच रहे हो ? उसने कहा आम खाने से मतलब रखना चाहिए, बगीचा किसका है किसका नहीं, यह जानने-बताने में क्या रखा है! मैने सोचा, फिर मैं क्यों नाम के लिए मर रहा हूँ !क्यों न, मैं भी विरक्त हो जाऊँ। क्यों टिप की चिन्ता में अपनी नींद उड़ाऊँ! पर मेरे अंदर का जायसी कुलबुलाने लगा- ‘मकु यह रहै जगत मँह चिन्हां ’ यानी रचनाकार जगत में अपनी रचना से पहचान पाता है, इस तरह मर कर भी वह अमर हो जाता है। बंधुवर बताने लगे- ब्लॉगिंग अब नई बीमारी बन कर उभर रही है, मैं एक ऐसे ब्लॉगर को जानता हूँ, जिसे कनाडा, नेवादा, लंदन, आस्ट्रेलिया, जापान आदि से टिप मिलता है, अब वह रात को 4 बजे नींद मे भी उठकर अपना ब्लॉग चेक करता है। बंधुवर की बात सुनकर मैं हँस पड़ा पर मेरा मन मुझसे पूछ रहा था कि मैं भी ऐसा ही बीमार नहीं हूँ क्या? बंधुवर पारखी थे, बोले- कुछ दिनों का जोश है, धीरे-धीरे नॉर्मल हो जाओगे।
क्या लिखें, क्या न लिखें – इसका अंदाजा टिप मिलने पर होता है। सच बताना, टिप मिलने पर क्या आपका हौसला नहीं बढ़ता? गोस्वामी तुलसीदास जैसी ‘स्वांत: सुखाय’ अपना लूँ तो लगेगा- स्व का अंत कर सूख जाना। मैं ऐसे नहीं सूखना चाहता, कोई भी नवोदित ब्लॉगर ऐसे नहीं सूखना चाहता! तो भला हो उन टिपकारों का जो कुछ दान-दक्षिणा कर जाते हैं।
Friday, 8 August 2008
टखना सिंह चला दफ्तर !
टखना सिंह को पता लगा तो उसने सोचा भागकर करमजली के पास चला जाऊँ! पर उससे भागा नहीं गया। टखना सिंह ने परसो ही शीशे में अपना चेहरा देखा था, और अफसोस से उसकी निगाहें नींची हो गई थी- क्या सचमुच मैं बूढ़ा लगने लगा हूँ! क्या करमजली इसलिए मुझसे दूर-दूर रहने लगी है! जवानी में कदम रखने से पहले ही क्या मैं बदरंग हो गया हूँ!
शायद इसलिए वह थका-हारा-सा उसके घर पहुँचा। उसने करमजली को देखा, करमजली ने उसको। ऑंखों-ऑंखों में दर्द का आवेग फूटा, टखना को पारो की याद आई और करमजली को देवदास की, पर वे दौड़कर एक-दूसरे से गले नहीं मिले। उस छोटी-सी कुटिया में दौड़ने की गुजांइश भी कितनी थी! दवा को दारू की तरह पी-पीकर गुनिया कुछ दिनों में ठीक हो गया।
इधर कई दिनों से टखना तैयार होकर कहीं निकल जाता था। कपड़े-जूते सलीके से पहनकर, एक ढंग का बैग लिए जाते देख लोगों को लगा था कि टखना की नौकरी लग गई है। टखना सिंह से कोई पूछता, तो जवाब में वह मुस्कुरा-भर देता। दफ्तर तो करेजा सिंह भी जाता था। लोग उससे भी पूछते थे, भाई करेजा! कहॉं जा रहे हो, तो वह ऐसे मुँह बनाता जैसे उसे दस्त हो गया हो, और पेट साफ करने के लिए दफ्तर जाना पड़ रहा हो! लेकिन टखना को मालूम था कि ये वही करेजा है, जो नौकरी के लिए कंपनी के चेयरमैन की गाड़ी के आगे लेट गया था। और जब उठा, तो नौकरी लेकर उठा। टखना को तो मालूम भी नहीं कि गाड़ी के आगे कैसे लेटना है! लोगों ने उसे यह कहकर धित्कारा भी, कि लोग नौकरी के लिए न जाने कहॉं-कहॉं लेट जाते हैं, ये तो बेचारी कार है! टखना को अपनी किस्मत पर भरोसा नहीं, उसे लगता है, वह अगर गाड़ी के आगे लेट गया, तो अगले दिन ‘दनदनाती’ में यही खबर आएगी कि चेयरमैन की गाड़ी के नीचे एक कुत्ता दबकर मर गया। लोग चेयरमैन को सांत्वना के साथ ये सुझाव भी देंगे कि ऐसे खून तो टायर में लगते रहेंगे, अपने रिटायरमेंट के बाद ही बदलवाना!
तो लोगों को विश्वास हो चला था कि टखना को कहीं काम मिल गया है, और अजीब बात थी कि टखना ने लोगों का ये विश्वास बनाए रखा! टखना पहले ऐसा नहीं था, उसकी उम्र भी ऐसी नहीं थी, जैसी आज है। दरअसल, कम उम्र में जज़्बात को नादानी में शुमार किया जाता है, बढ़ती उम्र के साथ वह कमजोरी में तब्दील होने लगती है। इसलिए टखना एक सकून महसूस करता था कि लोग उसे दफ्तर जाते हुए देखते हैं। करेजा सिंह के अलावा किसी को पता नहीं चला कि टखना हर दिन तैयार होकर उस दफ्तर में काम मांगने जाता था !
पेश है शेर !
बुझाकर आग चूल्हे की, जमाने में लगा दी है !
आज शाम तक UGLY POST में टखना सिंह पर मजेदार अंक जरुर पढ़ें कि टखना सिंह चेयरमैन की गाड़ी के आगे क्यों नहीं लेटा!
(शीर्षक है- टखना सिंह चला दफ़्तर !)
Wednesday, 6 August 2008
खज्जियार (डलहौजी) से ली गई तस्वीरों का विडियो रुपांतर !
उम्मीद है, खज्जियार का विहंगम दृश्य आपको पसंद आएगा। मैं इन तस्वीरों से ज्यादा संतुष्ट नहीं हूँ क्योंकि पैराग्लाइडिंग करते हुए आधा वक्त तो मै नर्वस रहा, और कैमरा निकालने की हिम्मत नहीं हुई। इसलिए वहॉं की कुछ अन्य तस्वीरें साथ लगा कर विडियो रुपांतर कर रहा हूँ। इसके बैक-ग्राउंड में एक मधुर संगीत भी है- पंख होती तो उड़ आती मैं ......., सुनिएगा जरुर ! (विडियो = 2 मिनट/ 3 एम.बी/ size-176*144)
आकाश से पैराग्लाइडिंग का सजीव विडियो देखने के लिए इस लिंक पर जाएं ।
Tuesday, 5 August 2008
मौत को देखा करीब से खज्जियार (डलहौजी) में पैराग्लाइडिंग करते हुए !
पहाड़ों का सच्चा सैलानी पहाड़ देखना चाहता है, नदी-झरनों की रवानगी के साथ बहना चाहता है,घने जंगल और घाटी का रोमांच महसूस करना चाहता है, बरसात और हिमपात के साथ मदमस्त होना चाहता है। आप कभी पर्वतों की सैर पर निकलें और वहां मकान ही मकान नजर आए तो आपको अफसोस ही होगा। शिमला से जी उकताने का कारण भी यही है। जब मैं अपने दोस्त के साथ डलहौजी पहुंचा तब मुझे इसलिए खास खुशी नहीं हुई। अगली सुबह जब हम चंबा (54 कि.मी.) के लिए चले, तब रास्ते में 22 किमी के बाद खज्जियार आया। वहां देवदार के दरख्तों से घिरा एक खुला मैदान था और ठीक बीचों-बीच एक तालाब था। मैदान पर हरी घास की चादर बिछी हुई थी। संकरे और खतरनाक रास्ते से गुजरने के बाद इतनी ऊंचाई पर यह दृश्य काफी सुखद लगा। देवदार के वृक्ष कम से कम 50-60 फुट ऊंचे थे। उनके पीछे पहाड़ों की भव्यता भी अलौकिक थी। शायद इसलिए इसे भारत का मिनी स्वीट्ज़रलैंड कहा जाता है।
मैदान के पश्चिमी छोर पर पैराग्लाइडिंग की व्यवस्था थी। मैंने एक पायलेट से यूं ही बात शुरू की। मेरी रूचि बढती देख मेरे दोस्त ने मंशा जाहिर की कि यह काफी खतरनाक खेल है। कहीं ऊपर के ऊपर रवाना हो गए तो लौटकर भाभी जी को क्या जवाब दूंगा ! कम से कम अपने बच्चे के बारे में तो सोचो। मैंने उसकी बात हंसकर टाल दी। पायलेट से तय हो गया कि अगली सुबह यहां से 11 कि.मी. ऊपर काला टॉप जाना होगा और 2 कि.मी. की चढाई पैदल तय करनी होगी। हवा का रूख सही रहा तो एकाध घंटे वादियों के ऊपर आसमान में मजे से सैर करने का अवसर मिलेगा।
खज्जियार में कम हॉटल थे, मगर थे सस्ते। साथ में तवे की रोटी भी उपलब्ध थी। हमने अफसोस जताया कि काश, कल की रात खज्जियार में ही बिता पाते ! दरअसल पर्यटन स्थलों की ये छिपी पॉलिसी होती है कि पर्यटकों को यहां से आगे चाहे कहीं भी घुमा लाओ, पर रात को अपने हॉटल में ही ठहरने की सलाह दो। हॉटल में सामान रखकर हम चंबा के लिए चल पड़े। आगे का रास्ता और भी विषम था। चंबा के लिए डलहौजी से राजमार्ग भी है जो रावी नदी और चमेरा डैम के साथ बना हुआ है। उस रास्ते से जाने का मतलब है खज्जियार के मोहक दृश्यों को देखने से वंचित रहना।
शाम ढलने से पहले हम खज्जियार लौट आए। तब तक सारे पर्यटक जा चुके थे। मैदान सूना पड़ा था और झील में भी सन्नाटा पसरा था। मौसम बदलने लगा , पर्वत बादलों से ढकने लगे और अचानक झमाझम बारिश शुरू हो गई। तालाब के साथ लकड़ी के दो मंच बने हुए थे जिसके साये में बारिश से न केवल बचा जा सकता था, बल्कि इस पर्वतीय मौसम का आनंद भी लिया जा सकता था। ऐसे मौसम में अपनी पत्नी के साथ होता तो बात ही कुछ और होती मगर दुनिया की आधी औरतें पहाड़ों के घुमावदार रास्तों में चक्कर खा जाती हैं (उन्हें उल्टी और सर घुमने की शिकायत होती है, दूसरी तरफ मैं साल में एकाध चक्कर पहाड़ों पर न लगा लूं तो मुझे उल्टी और सर घुमने की शिकायत होने लगती है।)
हॉटल पहुंचकर जब हमने मैनेजर को अपना कल का प्रोग्राम बताया, तब उसने भी चिन्ता जाहिर की, कहा- एक तो मौसम खराब चल रहा है, दूसरी बात, पायलेट के पास अनुभव की कमी है। कुछेक साल पहले की बात है, एक विदेशी पायलेट यहीं आसमान में अकेले पैराग्लाइडर उड़ा रहा था। मौसम का मिजाज बदला, और देखते ही देखते वह हवा में ही कहीं गुम हो गया। उसके पिता ने लाख डॉलर का ईनाम भी रखा, खोजबीन भी हुई, पर हाथ कुछ भी न लगा। हिमालय की बर्फ पर ही कहीं उसकी समाधि बन गई होगी!
मेरा मित्र विजय खाना खाकर सो गया, पर मुझे नींद न आई। मेरे अंदर रोमांच के साथ एक डर भी था। अपने आप को यह सोचकर दिलासा दिया कि अगर मर गया तो यही खुशी होगी कि दिल्ली में ब्लू लाइन बस के नीचे दबकर नहीं मरा। सुबह का साफ मौसम देखकर तसल्ली हुई। मेरे पायलेट(देशराज) ने तय स्थान पर पहुंचकर एक घंटे तक हवा के रूख का मुआयना किया। स्थिति जितनी निराशाजनक थी, मेरे अंदर उड़ने की चाहत उतनी ही बलवती हो रही थी। विजय मुझे जीत (जितेन्द्र का लघु रूप) के नाम से बुलाता है। अपनी नाराजगी छिपाते हुए वह मेरा उत्साह बढा रहा था- डरना मत, डर के आगे ‘ जीत ’ है। देशराज का निर्देश था कि पहाड़ से खाई की तरफ दौड़ते हुए किसी भी हालत में रूकना नहीं है, अगर रूक गए तो टेक-ऑफ लेना तो दूर की बात है, हम पैराग्लाइडर समेत सीधे खाई मे जा गिरेंगे। सुनकर ऐसा लगा कि डर के आगे जीत नहीं बल्कि 'जीत' के आगे डर है। पर मेरे रोमांच ने डर पर काबू पा लिया। मनचाही हवा का रूख पाते ही देशराज ने पैराग्लाइडर को हवा में तान दिया। हमदोनों डोरी की कुर्सी पर आगे पीछे बंधे थे। मेरे आगे खाई थी और पीछे मेरा पायलेट। न जाने क्यों मुझे पापा की एक बात याद आई- अगर कोई तुम्हें खाई में कूदने के लिए कहे तो क्या तुम कूद जाओगे ?
तभी देशराज ने कहा – कूदो ! मैं आगे-आगे दौड़ने लगा। कल की बारिश से घास चिकनी हो गई थी और कहीं-कहीं पथरीली जमीन थी। मैं अचानक फिसल गया और लगा कि अब सब कुछ खत्म !! घबराहट में विजय के हाथ से मोबाइल छूट गया। देशराज ने फुर्ती से काम लिया और मुझे जैसे-तैसे घसीटते हुए ढलान की तरफ भागने लगा। पैराग्लाइडर के जोर से अचानक हमारा रास्ता बदल गया और मेरे सामने दूसरी मुसीबत आ गई। मेरी पैंट की पिछली पॉकेट घास और मिट्टी पर रगड़ खाती जा रही थी कि तभी एक उभरी हुई चट्टान अचानक मेरे सामने आ गई। इसके ठीक बाद खाई थी। मैने डर से आंखें बंद कर ली। देशराज ने अनुभवी पायलेट-सी फुर्ती दिखाई और ऐन मौके पर जाने उसने क्या किया, कैसे चट्टान से मुझे बचाते हुए उसके ऊपर से छलांग लगाई, यह सब मैंने बंद आंखो से महसूस किया। जब आंख खुली तो खुद को हवा में लटका पाया, ठीक त्रिशंकु की तरह! न मैं नीचे देख रहा था न ऊपर। मेरे सामने बर्फ के ऊंचे पर्वत कैलेंडर-से नजर आ रहे थे। ऊफ् !! ये मैने क्या किया था, मौत कितनी करीब थी!
मैंने डरते-डरते नीचे देखा। धरती से मैं लगातार ऊपर उठ रहा था। भव्य पर्वत अब क्षुद्र टीले की तरह नजर आ रहे थे। देवदार के लम्बे-लम्बे वृक्ष झुरमुट की तरह लग रहे थे। मैने दिल मजबूत किया। देशराज पैराग्लाइडर को इस तरह ऊपर ले जा रहा था, जैसे चील अपने पंखों से ऊपर ऊठ रही हो। वह हर झटके के साथ लगभग 15 फुट उठ रहा था और मेरा दिल मुंह को आ रहा था। ऐसे 4-5 झटके खाने के बाद मुझे ये घबराहट होने लगी कि कहीं अचानक मौसम खराब हो गया और मैं भी उस विदेशी की तरह ऊपर ही ऊपर उड़ गया तो मेरे बीवी-बच्चे का क्या होगा! मैंने उसे थमने के लिए कहा। अब मैने चारों तरफ निगाहें घुमाई। मेरे सामने रावी नदी के साथ बसा चम्बा शहर नजर आ रहा था। खज्जियार सागर की सतह से लगभग 6500 फुट ऊपर है,और मैं कितना ऊपर हूं....पता नहीं!
दूर-दूर तक हिमालय की श्रेणियां नजर आ रही थीं। देशराज ने चमेरा डैम की तरफ इशारा किया। मैने कहा कि डैम के ऊपर चलो। देशराज ने हंसते हुए कहा कि उसने अपना बीमा नहीं करवाया है। मैने सोचा डैम के आसपास खुला मैदान है इसलिए वहां पैराग्लाइडर को हवा का दबाव शायद न मिले, इसलिए देशराज वहां न जा रहा हो या शायद तय रकम में डैम तक जाना शामिल न हो ! देशराज अच्छा और जांबाज पायलेट था। उसने बताया कि हर साल अक्टूबर में बीर-बिलिंग (पालमपुर-जोगिंदर नगर के पास) में पैराग्लाइडिंग की अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता होती है जिसमें वह भी भाग लेता है। उसने मुझे पार्टनर के तौर पर मुफ्त में साथ उड़ने का प्रस्ताव दिया। मै अब उड़ान का मजा लेने लगा था, इसलिए मुझे हां कहते देर न लगी। मैने कैमरा निकालकर फोटो लेना शुरू कर दिया। कुछ रिकार्डिंग भी की। हम दोनों ने मिलकर कुछ गाने भी गाए (पंछी बनूं उड़ती फिरूं मस्त गगन में,……), अपने परिवार की बातें की। देशराज ने बताया कि उसकी पत्नी कैंसर से पीड़ित है और शिमला के अस्पताल में महिनों से भर्ती है, जहां उसे 30 हजार रूपये हर माह भरने पड़ते हैं। मैने पूछा इतने पैसे कमा लेते हो। उसने बताया कि वह रोहतांग पास (मनाली) , खज्जियार और बीर से हर सीजन में ठीक-ठाक कमा लेता है, साथ ही वह पैराग्लाइडिंग की ट्रेनिंग भी देता है। उसका पैराग्लाइडर न्यूजीलैंड का है, जिसकी कीमत डेढ लाख रूपये है।
लैंडिंग करने से पूर्व देशराज का निर्देश था कि जमीन पर उतरते हुए दोनों पैर ज्यादा से ज्यादा हवा में रखने हैं, नहीं तो पैर की हड्डी टूट जाएगी। नीचे खड़े कई पर्यटक उतरते हुए पैराग्लाइडर का फोटो खींच रहे थे। खज्जियार के तालाब के चारों ओर चील की तरह चक्कर काटते हुए हम सुरक्षित उतर आए। कुछ पर्यटकों ने मेरा अनुभव पूछा। देशराज ने गुजारिश की थी कि पैराग्लाइडिंग का किराया लोगों को कुछ बढा कर बताएं। मैने उसकी बात मान ली थी। आखिर उसने मेरी जान जो बचाई थी, साथ ही बीर में मुफ्त उड़ान का उसने प्रस्ताव भी तो दिया था।
(हमसफर से ये गुजारिश है यदि इस पोस्ट के साथ संलग्न विडियो (2:18 min.) नहीं देख पाए हों तो मुझे जरुर बतावें, आभारी रहूँगा।)
कल अगला पोस्ट प्रकाशित करुंगा - बाप होने पर शर्म कैसा!
पेश है शेर !
फितरत ज़माने की, जो ना बदली तो क्या बदला !!
ज़मीं बदली ज़हॉं बदला , ना हम बदले तो क्या बदला!!
(आज शाम तक मेरे सफरनामें में जरुर पढ़ें - मैंने खज्जियार (डलहौजी) में पैराग्लाइडिंग करते हुए मौत को कितने करीब से देखा !)
Monday, 4 August 2008
एक दो तीन, आजा मौसम है ग़मग़ीन !
महिना सावन का था और पवन शोर कर रहा था। लोग सोच रहे थे कि टखना सिंह का जियरा तो जरुर झूम रहा होगा! पर कहते हैं न, जंगल में मोर नाचा, किसने देखा !
किसी संपादक ने टखना सिंह में छिपी प्रतिभा को पहचानकर एक ऐसी पत्रिका का सह-संपादक बना दिया, जिसके न कोई पाठक थे, न कोई आलोचक ! जाहिर था, नामानुकूल सह-संपादक टखना सिंह को संपादन का भार सहना था। सबसे पहले टखना सिंह पहुँचे एक चोर के पास। टखना सिंह को आते देख वह पेड़ पर चढ़ गया। टखना सिंह ने कहा- मुझे अपनी पत्रिका के लिए आपका एक लेख चाहिए। चोर ने कहा- भइया, तुम गलत पते पर आ गए हो। मैं तो मामूली चोर हूँ। तुम्हारे यहॉं तो चुराकर लिखनेवाले कई हैं, जमाने के सामने उन्हें लाओ। मैं तो पेड़ पर ही ठीक हूँ।
निराश टखना आगे चल पड़ा। रास्ते में एक रिटायर्ड घुसखोर मिला। टखना ने उससे एक लेख मांगा। उसने कहा- पहले ये तो जान लो कि मुझे किस बात के लिए बदनाम किया गया! मुझसे ओहदे में बड़ा, एक बेईमान अफसर हुआ करता था, जिससे मैंने रिश्वत में हिस्सेदारी लेने से मना कर दिया था। ऐसे लोगों के बीच मैं अकेला था। और तुम तो जानते ही हो, अकेला चना अपना सर तो फोड़ सकता है, फूटे सर पर इंकलाबी विचारों के अंकुर भी उगा सकता है, पर भाड़ नहीं फोड़ सकता!
निराश टखना को आगे मिला एक शराबी! शराबी ने एक घूंट पीकर कहा-
जिन्दगी को जाम समझ,
जिन्दगी भर !
चढ़ जाएगा खुमार
इसे पीने पर !
यह सुनकर टखना सिंह ने भी एक घूंट मारा और बुदबुदाया-
उम्र इतनी है बाकी,
अब तू ही बता साकी,
न नशा हो जीवन में तो
लानत है जीने पर!
और फिर वह अगले लेखक के पास चल पड़ा। वहॉं से आगे निकला ही था कि रास्ते में मिला एक अपाहिज भीखारी! टखना सिंह की मांग सुनकर वह बोला-
मैं तो तूझे मौलिक बाबू समझ रहा था, पर तू तो लेख मांगनेवाला भीखमंगा निकला! ये लिफाफा ले, जिसमें मेरे रिश्तेदारों का पता है। जा उनसे लेख ले। ध्यान रहे लिफाफा घर जाकर ही खोलना!
टखना घर के लिए चल पड़ा, पर रास्ते में उसे ख्याल आया कि क्यूं न लिफाफे के लेखकों से भी लेख लेता चलूँ, वर्ना घर से दुबारा निकलना पड़ेगा! लिफाफा खोलते ही सामने सांसद और विधायक अचानक प्रकट हो गए और टखना सिंह को अपना-अपना लेख पकड़ाते हुए बोले- ले छाप!
टखना सिंह यह देखकर हैरान हुआ कि सारे लेखों का शीर्षक एक समान था-
पार्टी-एजेंडा - विरोधियों को डण्डा!
टखना पर्चे पढ़कर बोला-
मैं सच छापूंगा, सच के सिवा कुछ नहीं छापूंगा। यह सुनकर सभी नेता उस पर टूट पड़े और टखना सिंह के टखने पर मारते हुए बोले-
सत्यमेव जयते!
टखना सिंह घायल हो गया और भागकर उस भिखमंगे से बोला-
मेरी जान आफत में क्यूं फंसाई ?
भिखमंगे ने कहा-
मैंने कहा था न, रास्ते में लिफाफा मत खोलना, अब झेलो मेरे रिश्तेदारों को!
टखना सिंह अपने टखने की तरह टूट गया। आगे मिला एक जुआरी! टखना सिंह को देखते ही उसने पासा फेंका और चिल्लाया- पौ बारह! उसकी ऑंखें चमक उठी, एक पासा टखना सिंह को देते हुए बोला-
जिंदगी है एक जुआ,
उदास क्यूं है मुआ!
है हार-जीत दर-बदर,
बे-सबर क्यूं हुआ!
यह सुनकर टखना सिंह ने पासा फेंक दिया और फिर कुछ सोचता हुआ आगे चला गया।
करेजा सिंह के समझाने पर लोग यह समझने लगे थे कि टखना सिंह नक्सलवादी है, उग्रवादी है, आतंकवादी है, जिसके संबंध जुआरी, शराबी, लुच्चे-लफंगे, भीखमंगे लोगों से है। सबसे बुरी बात तो ये थी कि टखना सिंह का संबंध आम लोगों से भी था।
(Most wanted टखना सिंह को फाँसी के लिए लेकर हाजिर हूंगा UGLY POST में 70 घंटो के भीतर! )
पेश है अगला शेर !
दिल कहता है तमाम उम्र ये ज़हमत है बेकार
वफ़ा मैं करता रहा और वे करते रहे इन्कार ।
(मेरी UGLY POST में शाम तक जरुर पढ़ें- टखना सिंह का टखना कैसे टूटा ? व्यंग-कथा का शीर्षक है-
एक दो तीन, आजा मौसम है ग़मग़ीन !)
Sunday, 3 August 2008
करेजा सिंह का अचार !!
Saturday, 2 August 2008
टखना सिंह का छाता !
टखना सिंह गिड़गिड़ाता है- हुजूर, मेरे खानदान में किसी के पास कभी कोई छाता रहा ही नहीं ! लोगों को छतरी विरासत में मिली है, पर मुझे तो उसका ‘छ’ भी नहीं मिला।
थानेदार उसे एक लात लगाता है और हवालात में डाल देता है। लोगों को लगता है टखना सिंह शहर छोड़कर चला गया है। छाते वाले उस शहर में टखना सिंह की सबसे ज्यादा चिन्ता अगर कोई करता है तो वो है- गुनिया की बेटी करमजली। उसने पुलिसवालों को देखा था जो छतरी में आए थे और टखना सिंह को उठा ले गए थे। उसने सर जी से गुहार लगाई। सर जी कई छतरीवालों से घिरे बैठे थे,कहा-
देखो, मैं अभी शहर से बाहर हूँ। मैं अपनी भतीजी के लिए एक छाता खरीदने आया हूँ। बेचारे टखना सिंह के पास वैसे भी कोई छतरी नहीं है,मगर हवालात की छत तो है,कुछ दिन उसे वहीं सुस्ताने दो। बाहर आकर भी तो सुस्ताना ही है।
करमजली सारी रात उदास होकर बाहर आते-जाते छतरीवालों को देखती रही।
सर जी आते ही थानेदार से मिले। उनके साथ कोई रौबदार आदमी भी था, जिसकी छतरी के ऊपर लाल बत्ती लगी हुई थी।
टखना सिंह आजाद हो गया। करमजली ने मुहल्ले में बताशे बांटे। टखना सिंह ने आकर उसे बताया कि सर जी ने उम्मीद जताई है कि जल्दी ही उसके सर पर भी एक छतरी होगी!
UGLY पोस्ट में भी जरूर पढ़ें- करेजा सिंह ने कामवर शुक्ला तक अचार कैसे पहुँचाई !!