Thursday 28 August 2008
जहॉं मैं 10 दिन तक बिल्कुल चुप रहा !! (भाग 3)
बंदरों का हुजूम अचानक उमड़ पड़ा था, चार दिन की चुप्पी में एक ब्रेक मुस्कान बनकर आया था। विपश्यना शिविर में मौन व्रत के कठिन नियम थे, यहॉं हाथ मिलाना तो दूर की बात थी, ऑंखों-ऑंखों में इशारे से बात करने की भी मनाही थी। ऐसा नहीं कि ये सब देखने के लिए हमारे पीछे कोई इंस्पेक्टर लगा था! ये हमारा चुनाव था, पर हम इसे दिल से नहीं, दिमाग से निभा रहे थे। ये सच्चाई थी। दिल कहता था, आपस में हम बात करें कि यहॉं के सिस्टम में क्या-क्या खराबी है, पानी नहीं आता, खाने में आईटम कम क्यों है, प्रश्नकाल में टीचर जी बोलने का थोड़ा ही अवसर क्यों देते हैं, लड़कियों के लिए अलग से साधना-कक्ष क्यों नहीं है, जबकि मेस में दोनो के डायनिंग टेबल के बीच परदा लगाया गया है। जवाब तो हमें मालूम ही था, पर जैसे भौतिक जगत में हम सभी को बोलने-बड़बड़ाने के लिए कुछ चाहिए, ताकि हम अपने विचारों के कम्बल से दूसरों की सॉंसे उखाड़ सकें, वैसे ही यहॉं भी लोगों का मन कुछ भी बोलने को कुलबुलाता रहता था।
ऐसे हालात में, जब बिना बोले मुँह में थकान-सी महसूस हो रही थी, अचानक बंदर देवदूत-से प्रकट हुए, और इस बार सभी साधकों का मुँह खुला, पर खाने के लिए नहीं, मुस्कुराने के लिए। दबी जुबान से कहना तो आप सबने देखा-सुना होगा, पर मास स्केल पर दबी जुबान से मुस्कुराना मैंने यहीं देखा था! बंदरो की धमाचौकड़ी भी जबरदस्त थी कि खिलखिलाकर हँसने का जी चाहे, पर हमने शिविर की लाज रख ली।
देर तक जगते हुए सुबह चार बजे तो कई बार सोया हूँ, लेकिन जल्दी सोकर सुबह चार बजे उठना शायद ही याद हो! विपश्यना शिविर में मुझ जैसे निशाचर के लिए लगातार 10 दिन, इतनी सुबह-सुबह उठना एक सदमे के समान था।(वैसे भी, दिल्ली में 10-11 बजे से पहले सो जाने वाले लोगों को बीमार समझा जाता है।) तो, शिविर में चार बजे की मादक सुबह में ही घंटा बज उठता था। दस मिनट बाद फिर घंटा बजता था, और तब भी कोई न उठे तो एक सीनियर साधक मूक रहकर स्पर्श से उठाने का प्रयत्न करता था। बोझिल ऑंखों से हम साधना कक्ष में जा बैठते, ऑंखे बंदकर साधना के नाम पर बैठकर नींद निकालते। लगभग सभी साधक दो-चार तकिए लगाकर कम्बल ओढ़कर बैठे होते थे। एक-दो साधकों को ज्यादा ठंड लगती थी, इसलिए वे दो-तीन कम्बल लगा लेते थे। पर साधु तो टीपिकल इंडियन साधु था, बढ़ी हुई दाढ़ी, गेरुआ वस्त्र, तिलक छापा के साथ चेहरे पर एक दुर्वासाई अकड़- जैसे निगाहें टेढ़ी क्या की, सामनेवाला जलकर भस्म! ( शुक्र है डंडा वगैरह हथियार पहले ही जमा करा लिए गए थे।)
तो, ठंड के उन दिनों में साधु वैदिक परंपरा के साधकों का तपोबल दिखाने के लिए बगैर कम्बल लिए बैठता था। विदेशी साधकों के लिए यह उतना ही बड़ा कौतुक था, जैसे बंदरों का उत्पात्। कैमरा होता तो वे इसे रील में कैदकर ले जाते! मजे की बात तो ये थी कि क्लास मे जैसे छोटे बच्चे आगे बैठने के लिए ललकते हैं, वैसे ही यह टीचर जी के सामने आसन लगाकर जा बैठता था। तीसरे दिन लोग यह देखकर मन ही मन मुस्कुरा रहे थे कि साधु ने कम्बल लाना शुरु कर दिया है।
सातवें दिन स्पेनी लड़के चावी को जुकाम हो गया और साधना कक्ष में वह बेचारा, साधु के पीछे बैठने की भूल कर बैठा। जब-जब चावी नाक सुड़ुक रहा था, उसकी आवाज़ से साधू का ध्यान भंग हो रहा था। आपको पता ही है, विश्वामित्र का ध्यान मेनका ने भंग किया था, उससे विश्वा भाई का तो भला हो गया, पर बाकियों को तो चावी जैसे लोग ही मिले। साधु गर्दन घुमा-घुमाकर अपनी हुँकार से अपना गुस्सा जाहिर करने लगा, बोलने की छूट होती तो शापवश चावी बेचारा तक्षण् स्पेन के पाताल में जा समाता! उसकी ऑंखों से क्रोध टपकने लगा था और साथ बैठे सभी साधक साधु की इस हरकत को नोटिस कर रहे थे। साधना अब अपने समापन दिवस तक पहुँच रही थी, पर साधु होते हुए भी वह अपने क्रोध का दमन न कर सका, शमन तो दूर की बात है। हम उसके बारे में आपस में बात करने को व्याकुल थे, यानी हम सभी के मन से भी द्वेष, निंदा आदि भाव दूर नहीं हो पाया था।......
जारी....... (इसपर चौथा पोस्ट इसका अंतिम अध्याय होगा।)
(विपश्यना शिविर तक पहुँचने का वृतांत भाग 1 में पढ़ें और शिविर में साधना और साधकों के साथ के कुछ अनुभव भाग 2 में पढ़ें।)
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8 comments:
सुबह से आपकी पोस्ट का इन्तेजार कर रहा था...और आप ने फ़िर" जारी" लिख कर दुखी कर दिया है...जल्दी से बताईये की आगे क्या हुआ...और आप का अनुभव कैसा रहा?साधू जो क्रोध पर काबू ना पा सके साधू नहींशैतान है.
नीरज
सही है भाई यूँ ही जारी रख कर तुम भी कडिया बनाते रहो.......वैसे मजा आ गया आपके लेखन में.....
meri to hansi chhut jati..kabile tarif haousala na hasne ka.
रोचक विवरण चल रहा है और जम कर इन्तजार-जल्दी लाओ अगली कड़ी.
मेरे से तो दस मिन्ट नही चुप रहा जाये... चलिये शेतान बाबा की इस लडी का फ़िर से इन्तजार हे,बिना बोले मे तो मर जाऊ, लेकिन आप की सहन शाक्ति भी अच्छी हे, ओर मजा आ रहा हे...
कब आएगी की अंतिम कड़ी याने अगली कड़ी जल्दी ठेलो पढ़ने को मन व्याकुल है। कई जगह पर हंसी आई। बढ़िया लिखा है।
majedaar,sahi nabz pakdi hai blogging ki, jam gaya maamla, badhai.
रोचक, उत्प्रेरक, और मजेदार... जारि रखिए जी। हम इन्तजार कर लेंगे।
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